Published on Aug 01, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत अपने को परमाणु ताकत के रूप में स्थापित करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है और फ्रांस खुद पर काफी जोखिम मोल कर हमारी मदद कर रहा है। ऐसे में भारत में राफेल पर चल रही सार्वजनिक चर्चा भारत को एक गैर भरोसेमंद साझीदार साबित करती प्रतीत होती है। यह वक्त का बड़ा तकाजा है कि सरकार इस मुद्वे पर संजीदगी से काम करे और इसका मजाक न उड़ने दे।

जब राफेल को लेकर नाकाम रहा भारत

राफेल लड़ाकू वायुयान समझौते के इर्द गिर्द लिपटे विवाद ने यह बात पूरी तरह उजागर कर दी है कि हमारा राजनीतिक वर्ग, चाहे वह विपक्ष हो या सत्तारूढ़ सरकार, रक्षा क्षेत्र को लेकर कितनी कम जानकारी रखता है और ऐसे मामलों से कितना बेपरवाह है। यह एक ऐसी हकीकत है जो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को खोखला बनाती है। जैसाकि NDTV के रक्षा संवाददाता विष्णु सोम ने समझपूर्ण तरीके से बताया: “राफेल एक घोटाला है क्योंकि हमारे सरकारी नेता सिलसिलेवार ढंग से यह तर्क रख पाने में नाकाम रहे कि राफेल कोई घोटाला नहीं है।” यहां यह कहना भी गलत न होगा कि यह समझौता भी एक ‘घोटाला‘ ही है क्योंकि मीडिया में ऐसे कई लोगों, जो खुद को रणनीतिक क्षेत्र का विशेषज्ञ होने का दावा करते हैं, की जहालत (झूठी या वास्तविक) भी खुल कर सामने आ गई।

प्राइसिंग या मूल्य निर्धारण

एक बात तो जाहिर है कि इस सौदे में कीमत में कोई इजाफा नहीं किया गया। जैसाकि इस लेखक ने बार बार कहा है कि, चाहे सरकार कुछ भी मानती रही हो, 2011 से ही कीमत लगभग स्थिर (मुद्रास्फीति को छोड़कर) ही रही है और हम इस सौदे के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, उसके अनुसार, अन्य दूसरे सौदों के मुकाबले तथा राफेल या ऐसे ही अन्य विमान सौदों को लेकर जो मोल भाव होते रहे हैं, उनकी तुलना में इस सौदे को लेकर अच्छी तरह मोलभाव हुआ है।

एक बात तो जाहिर है कि इस सौदे में कीमत में कोई इजाफा नहीं किया गया।

यहां यह समझना जरुरी है कि अनुबंध मूल्य हमेशा ही इकाई मूल्य से बहुत अलग होता है। इकाई मूल्य महंगाई दर या आपूर्ति श्रृंखला में बाधा को छोड़ कर स्थिर रहती है। दूसरी तरफ अनुबंध मूल्य में काफी परिवर्तन होता रहता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि नया क्या शामिल किया गया है। हथियार, प्रशिक्षण, स्पेयर्स तथा रखरखाव बुनियादी ढांचा (जिसके बगैर काम नहीं चल सकता) किसी भी पैकेज में उल्लेखनीय बढोतरी कर देते हैं, यह देखते हुए कि इंजन की कीमत वायुयान की 25 फीसदी होती है और अगर वायुयान दो इंजनों वाला हुआ तो और अधिक वृद्धि हो जाती है। बहरहाल, देश के हिसाब से विशिष्ट संशोधन कम ही होते हैं और ये महंगे भी होते है तथा काफी कठिन भी। अगर इसे स्पष्ट करने के लिए एक उपमा का उपयोग करें तो समझ लीजिए कि आप अपनी ऑडी कार में बीएमडब्ल्यू हेड्सअप डिस्प्ले और मर्सीडीज एयर सस्पेंसन लगाने के लिए उसे चॉप शॉप पर ले जाते हैं और इस प्रक्रिया में आपकी कार काम नहीं करती है क्योंकि इससे आपकी ऑडी कार इंटीग्रेटेड इलेक्ट्रॉनिक आर्किटेक्चर में गड़बड़ी पैदा हो जाती है। ज्यादा पैसा यह सुनिश्चित करने के लिए लगाया जाता है कि यह बेहतर काम करे। भारत के राफेल के मामले में, यह फ्रांस एयर फोर्स के पास उपलब्ध राफेल से बेहतर होगा क्योंकि इसमें उल्लेखनीय संशोधन किए गए है।

खुलासा (डिस्क्लोजर)

इस तथ्य को स्वीकार करना किया जाना चाहिए कि वित्तीय कदाचारों को अक्सर जटिलताओं के आवरण में छुपाया जाता है। यहां सवाल यह है कि किस प्रकार सुरक्षा एवं जवाबदेही की दो प्रतिस्पर्धी मांगों के बीच संतुलन पैदा किया जाए। इस मामले में, विशिष्ट कंपोनेंट्स एवं फिट की सूची बनाना सरक्षा के लिहाज से हानिकारक साबित होगा, लेकिन निश्चित रूप से यह खुद राफेल की वाणिज्यिक प्रतिस्पर्धी व्यावहार्यता के लिए भी नुकसानदायक होगा, अगर इसकी प्रतिस्पर्धी कंपनियां बैकवार्ड लागत यानी जो उपभोक्ता भुगतान करना चाहते हैं, की गणना करने लगें। जाहिर है, सुरक्षा निहितार्थों पर भी इसका असर पड़ सकता है।

जाहिर है, पिछले वादों को बेवजह याद दिलाने का एक निर्रथक प्रयास करना न तो भविष्य के लिए अच्छा है और न ही इससे पारदर्शिता में ही कोई बढोतरी होगी। रक्षा मंत्री ने गलत किया, उन्होंने उन विवरणों का खुलासा करने का वादा किया जिसकी अनुमति उन्हें समझौते के अनुसार नहीं थी, लेकिन आगे का रास्ता भी उन्हीं दस्तावेजों में निहित हैः अनुच्छेद 5 एवं 6 के अनुसार गोपनीय विवरण (ब्रीफिंग) के लिए वरिष्ठ विपक्षी नेताओं को अस्थायी सुरक्षा मंजूरी देना।

पिछले वादों को बेवजह याद दिलाने का एक निर्रथक प्रयास करना न तो भविष्य के लिए अच्छा है और न ही इससे पारदर्शिता में ही कोई बढोतरी होगी।

फ्रांस का पहले दिन सेे ही अनुच्छेद 5 के तहत, जिसमें सुरक्षा वर्गीकरण एवं इसके समरूप वर्गीकरणों तथा अनुच्छेद 6, जो प्रत्येक देश के आधिकारिक गोपनीयता कानूनों के अनुरूप सुरक्षा मंजूरियों को स्वीकृति देने से संबंधित है, बंद दरवाजे की बैठकों (क्लोज डोर मीटिंग्स) में विपक्ष के साथ कुछ विवरणों को साझा करनेे के प्रति स्पष्ट रुख रहा है। समस्या यह है कि राहुल गांधी ने कभी भी बंद दरवाजों के भीतर इसके बारे में जानने या चर्चा करने की मांग या इसके लिए कोशिश नहीं की, बल्कि उन्होंने हमेशा पूरे सार्वजनिक तौर पर इस सौदे का खुलासा करने की मांग की एवं उन्होंने यह दावा भी कर दिया कि फ्रांस के राष्ट्रपति मैकरोन ने किसी गोपनीय समझौते के वजूद को ही नकार दिया है। इससे भी बुरी बात यह है कि ऐसा प्रतीत होता है कि भारत का अंग्रेजी मीडिया प्रकट रूप से अंग्रेजी भाषा की महीन परतों और फ्रांस के राष्ट्रपति की कही गई बातों को समझने में विफल रहा, जिसकी वजह से फ्रांस के राष्ट्रपति को स्पष्टीकरण जारी करने की नौबत आ गई।

भारतीय अपवाद

यह सौदा भारत के लिए सबसे उल्लेखनीय और विशिष्ट रूप से उसकी जरुरतों के अनुकूल बनाया गया है और अब तक का यह पहला उदाहरण है जिसमें नाभिकीय हथियारों की आपूर्ति की अपुष्ट भूमिका है। इन संशोधनों में विमान के प्रत्येक इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट को इलेक्ट्रोमैग्नेटिक पल्स एवं एनर्जी के उस कई मिलियन किलोजॉल्स से हिफाजत करना शामिल है जो परमाणु विस्फोट के बाद निकलता है। दरअसल, समस्या इस भूमिका को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने में आ रही है। जहां तक फ्रांस का सवाल है तो इस भूमिका को लेकर उसकी कोई भी स्वीकृति उसे सीधे परमाणु अप्रसार संधि (अनुच्छेद 1) के उल्लंघन का दोषी बना देगी और वह इसे लेकर फ्रांस के राष्ट्रीय कानूनों के तहत कठिनाई में पड़ जाएगा। आलोचक संसद को उपलब्ध कराई गई आरंभिक लागत (फ्लाईअवे कॉस्ट) से संतुष्ट नहीं हैं, फिर भी वे दावा करते हैं कि वे विशिष्ट जानकारी की मांग नहीं कर रहे हैं। दरअसल, उनकी मांगे स्पष्ट नहीं हैं और वे लगातार अपने बयान भी बदल रहे हैं। क्या वे यह चाहते हैं कि दोनों देशों की सरकारें उस बात को कबूल कर लें, जो है ही नहीं और वे भलीभांति जानते हैं कि वे इसे नहीं कबूल सकते?

नाभिकीय और व्यावसायिक व्यावहार्यता दृष्टिकोण उस गोपनीयता समझौते का भी मूलभूत हिस्सा है जो भारत ने 2008 में फ्रांस के साथ किया था। यह भारत-फ्रांस के समस्त सैन्य सहयोग का मुख्य भाग है और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को सूचना हस्तांतरित करने से विशिष्ट रूप से बचने, स्पष्ट कारणों से नाभिकीय अप्रसार नियंत्रण निकायों के लिए यह एक विशिष्ट शब्दावली है। जैसाकि व्याख्या संबंधी खंड इसे और स्पष्ट बनाते हैं, ऐसी प्रत्येक चीज जिसे संबंधित पक्ष गोपनीय समझते हैं, गोपनीय होता है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता या इसकी गोपनीयता स्तर को एकतरफा किसी पक्ष द्वारा कमतर नहीं आंका जा सकता, जैसाकि कम जानकार पर्यवेक्षकों ने सुझाव दिया है। जाहिर है, इसमें वित्तीय विवरण शामिल हैं, जो निर्माता के प्रतिस्पर्धी लाभ के लिए अहम है। इसके अतिरिक्त, इस समझौते में स्वचालितता (ऑटोमैटिसिटी) एवं स्थायीपन दोनों ही निहित है। समझौते का पांच वर्ष की अवधि के लिए नवीनीकृत किया जाता है, अगर इससे अलग होने की स्पष्ट सूचना नहीं दी जाती और इस समझौते के तत्वाधान में अनुबंध किए गए सभी करार समझौता की समाप्ति के बाद भी समझौते के उपनियमों द्वारा शासित होते रहे हैं।

निष्कर्ष

जो कुछ घटित हुआ है, वह काफी मायूस करने वाला है। एक ऐसा देश, जो भारत के सबसे घनिष्ठ देशों में से एक है और जो हमें नाभिकीय मंच प्रदान कर रहा है, के राष्ट्राध्यक्ष के बारे में या तो गलतबयानी की गई है या उन्हें झूठा करार दिया गया है और घरेलू राजनीति में घसीट लिया गया है। इसके अतिरिक्त, रक्षा विश्लेषक, जिन्हें इसके बारे में ज्यादा पता होना चाहिए, इसके दुष्परिणामों को लेकर पूरी तरह अज्ञानता प्रदर्शित करते हुए, एक द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते की मांग कर रहे हैं, जिनका या तो प्रभावी ढंग से निराकरण किया जाना चाहिए या उनकी बेवजह की आशंकाओं को नजरअंदाज करना चाहिए। ये रक्षा विश्लेषक इस तरह की मांगों के खामियाजे से पूरी तरह नावाकिफ हैं और इससे भी हास्यास्पद उनकी सलाह है कि सूचना सुरक्षा एकतरफा रास्ता है यानी इससे केवल एक ही पक्ष को लाभ पहुंचता है।

हमारा जो प्रेस है, वह फ्रेंच की तुलना में अंग्रेजी में प्रकटतया कम धाराप्रवाह (फ्लुएंट) है जिसने गलत रिपोर्टिंग के जरिये मामले को ज्यादा तल्ख बना दिया है और अब फ्रांस के आधिकारिक बयान को नजरअंदाज कर रहा है। और अंत में, व्यावसायिक, सुरक्षा संबंधी और नाभिकीय दुष्परिणामों के बावजूद या इसे भुलाते हुए हमारी सरकार ने कोई भी अकाट्य या पेशेवर तरीके से केंद्रित बचाव प्रस्तुत नहीं किया है जबकि यह बचाव किए जाने लायक एक उत्कृष्ट समझौता है।

वजह सरल है, भारत एक नाभिकीय शक्ति के रूप में अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है और फ्रांस खुद को काफी जोखिम में डाल कर हमारी सहायता कर रहा है। उधर, भारत में चल रही सार्वजनिक चर्चा यह साबित करने पर आमादा है कि भारत एक गैर भरोसेमंद साझीदार है। अब वक्त का तकाजा है कि सरकार इस मुद्वे को मजाक समझना छोड़ दे। उसे निश्चित रूप् से समझना चाहिए कि उसके फूहड़, अधूरे और हिचकिचाहट भरे बचाव से राष्ट्रीय सुरक्षा को कितना बड़ा नुकसान हो रहा है। सरकार को विपक्ष के कुछ जिम्मेदार नेताओं को बंद दरवाजे के भीतर इस सौदे के बारे में जानकारी साझा करनी चाहिए और उसे मानना चाहिए कि वह एकांत में उसका बचाव बखूबी कर सकती है जिसका बचाव वह सार्वजनिक रूप से करनेे में विफल रही है।

इसके साथ साथ, विपक्ष को भी भारत-फ्रांस समझौतों और विशेष रूप से राफेल समझौते की मूल भावना को समझने की जरुरत है। कम से कम, उन्हें अपने शब्दों के व्यापक निहितार्थों को समझने की जरुरत है। उन्हें कुछ गंभीर सुरक्षा विशेषज्ञों की सेवाएं लेने की जरुरत है जो उनका मार्गदर्शन करे और तीखे राजनीतिक हमलों के दौरान उन्हें इसके बारे में समझ विकसित करने में मदद करे। बहरहाल, सरकार और विपक्ष दोनों को ही अंतरराष्ट्रीय गोपनीयता बाध्यताओं के अनुरूप निजी ब्रीफिंग करने के लिए एक संस्थागत तंत्र विकसित करने पर कार्य करने की आवश्यकता है जो पारदर्शिता और सुरक्षा की दोहरी और प्रतिस्पर्धी जरुरतों की पूर्ति करे, जैसाकि सर्वाधिक परिपक्व लोकतांत्रिक देश करते हैं।

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