Author : Ronan Kelly

Published on Sep 26, 2019 Updated 0 Hours ago

अच्छा होगा कि डॉक्टरों को इस बारे में खुलकर अपनी बात रखने दी जाए. पत्रकारों को सवाल करने का मौका दिया जाए. इसके साथ, वैज्ञानिकों को जांच की आज़ादी मिले.

क्या उत्तर प्रदेश में दिमागी बुख़ार की समस्या योगी सरकार ने हल कर दी है?

उत्तर प्रदेश में 1978 से इंसेफेलाइटिस यानी दिमागी बुख़ार के मामले सामने आ रहे हैं. 1980 और 90 के दशक में हर साल इसके करीब 1,000 मामले सामने आते थे, जिनमें से 20-30 प्रतिशत मरीज़ोंकी मौत हो जाती थी. 1978, 1988 और फिर 2005 में दिमागी बुख़ार के मरीज़ों की संख्या राज्य में काफी बढ़ गई और उनमें कहीं अधिक बच्चों की मौत हुई थी. 2005 के बाद के वर्षों में दिमागी बुख़ार के मरीज़ों की संख्या तीन गुना बढ़ी. तब सालाना औसतन 3,000 मामले सामने आए थे और उनमें से 500-600 की मौत हुई थी. हाल के वर्षों में इस बीमारी से मरने वालों की संख्या काफी अधिक रही है और 2013-17 के पांच में से चार साल में इससे सालाना 600 से अधिक मौतें हुईं.

पहले माना जाता था कि दिमागी बुख़ार जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस की वजह से होते हैं, जो मच्छरों से फैलता है. हालांकि, बाद की जांच से पता चला कि इनमें से सिर्फ 13 प्रतिशत मामलों की वजह जापानी इंसेफेलाइटिस था. इसलिए इन मामलों को व्यापक शब्दावली ‘एक्युट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES)’ के तहत डाल दिया गया. पिछले वर्षों में उत्तर प्रदेश में कई रिसर्च टीमों ने जाकर AES किस कारण से फैलता है, इसका पता लगाने की कोशिश की. कहा गया कि कम गहरे कुओं का गंदा पानी पीने से यह बीमारी फैलती है. मरीज़ों की जांच से उनमें EV-76, EV-89, कॉक्ससैकिवायरस B5 और एकोवायरस 19 जैसे एंटेरोवायरस होने का पता चला. इसके अलावा, अमेरिका के CDC ने 2011-12 में एक स्टडी में कहा:

उत्तर प्रदेश में अभी जिला स्तर पर AES और जापानी इंसेफेलाइटिस की जांच के जो नमूने लिए जाते हैं, उनसे जुटाए गए डेटा की गुणवत्ता अच्छी नहीं है. जब तक इलाज़ के असर की मुकम्मल पड़ताल नहीं होती और उसके साक्ष्य नहीं जुटाए जाते, तब तक AES की रोकथाम और उसे नियंत्रित करने के उपाय कारगर नहीं होंगे और इसमें लगाए गए संसाधनों की बर्बादी होगी.

 2000 के दशक की शुरुआत में सहारनपुर में हुई एक एपिडेमायोलॉजिकल स्टडी से पता चला कि बच्चे Cassia occidentalis यानी कसौंदा के बीन्स खा रहे हैं, जिससे उन्हें गंभीर hepatomyoencephalopathy यानी शरीर में एक तरह की पॉइज़निंग हो रही थी. पहले गलती से इन्हें AES का मरीज़ बताया गया. स्थानीय सरकार ने बाद में इन पौधों को संगठित रूप से हटाने का अभियान शुरू किया और उससे होने वाली बीमारी को लेकर लोगों को जागरूक किया गया. इस पहल से जिले में जहां पहले हर साल ऐसे 100 मामले सामने आते थे, वहीं 2010 में उनकी संख्या घटकर शून्य रह गई. हाल के वर्षों में दिमागी बुख़ार की एक वजह स्क्रब टाइफस को भी बताया गया. AES के दो तिहाई मरीज़ों में इसके टेस्ट पॉजिटिव पाए गए. इससे दिमागी बुख़ार के इलाज़ और रोकथाम का अलग दौर शुरू हुआ. संभव है कि इन सभी वजहों के साथ गरीबी, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव की वजह से दिमागी बुख़ार की महामारी उत्तर प्रदेश में फैलती रहती है और उससे बड़ी संख्या में मौतें होती हैं. यह एक जटिल समस्या है, इसलिए इसका हल भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है.

AES के कई गंभीर मरीज़ यहां के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में इलाज़ के लिए आते हैं. अक्सर ये मरीज़ बीमारी के काफी बढ़ने के बाद इस अस्पताल में पहुंचते थे. इस वजह से काम के अधिक बोझ और फंडिंग के अभाव का सामना कर रहे इस हॉस्पिटल के लिए उन्हें बचाना मुश्किल हो जाता था.

योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से पहले 1998 से 2017 तक गोरखपुर संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते आए थे. AES के कई गंभीर मरीज़ यहां के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में इलाज़ के लिए आते हैं. अक्सर ये मरीज़ बीमारी के काफी बढ़ने के बाद इस अस्पताल में पहुंचते थे. इस वजह से काम के अधिक बोझ और फंडिंग के अभाव का सामना कर रहे इस हॉस्पिटल के लिए उन्हें बचाना मुश्किल हो जाता था. अगस्त 2017 में पिछला बकाया नहीं चुकाने के कारण इसे ऑक्सीजन की सप्लाई बाधित हो गई थी और उस कारण से कई मरीज़ों की मौत हो गई. यह मामला देशभर की सुर्खियों में शामिल रहा और तब अस्पताल की कई ख़ामियों का पता चला. ऑक्सीजन की सप्लाई बहाल होने के बाद भी दिमागी बुख़ार के कई मरीज़ों की जान गई और नेशनल मीडिया को उसकी वजह समझ नहीं आई. धीरे-धीरे लोगों को इसका अहसास हुआ कि इस हॉस्पिटल में एक दिन में दर्जन भर मौत सामान्य बात थी.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने एक हालिया भाषण में बताया कि AES से होने वाली मौतों में 65 प्रतिशत की कमी आई है और उन्होंने वादा किया कि दो से तीन साल में राज्य इस अभिशाप से मुक्त हो जाएगा.

आदित्यनाथ ने दिमागी बुख़ार की समस्या से निपटने के लिए एक व्यापक योजना बनाई. सितंबर 2017 से स्क्रब टाइफस का यहां इलाज़ शुरू किया गया. बड़े पैमाने पर जापानी इंसेफेलाइटिस को रोकने के लिए 2018 में वैक्सीनेशन प्रोग्राम चलाया गया, जिसमें 88 लाख बच्चों को कवर किया गया. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की फंडिंग बढ़ाई गई, जिससे वे अपने स्तर पर AES के मरीज़ोंका बेहतर ढंग से इलाज़ कर पाएं. जुलाई 2019 में दस्तक नाम का एक अभियान शुरू किया गया. इसमें घर-घर जाकर लोगों को संक्रमित बीमारियों से बचने और उनके इलाज़ की जानकारी दी गई. इनमें से हरेक पहल सराहनीय है. इसके साथ राज्य में वॉटर इंफ्रास्ट्रक्चर में भी व्यापक सुधार किया गया. योगी सरकार की इस पहल से दिमागी बुख़ार के मरीज़ोंऔर उससे होने वाली मौतों की संख्या में कमी आने की उम्मीद है. 2018 और 2019 में AES के जितने मामले सामने आए, उनसे पता चलता है कि सरकार की यह पहल सफल रही है (टेबल 1). उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने एक हालिया भाषण में बताया कि AES से होने वाली मौतों में 65 प्रतिशत की कमी आई है और उन्होंने वादा किया कि दो से तीन साल में राज्य इस अभिशाप से मुक्त हो जाएगा. हाल की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि इस साल दिमागी बुख़ार के मरीज़ोंकी संख्या घटी है. अब इससे पीड़ित ज्यादातर बच्चों का स्थानीय स्तर पर इलाज़ हो रहा है और इसके बेहतर परिणाम भी सामने आ रहे हैं.

गोरखपुर डिस्ट्रिक्ट पूरा उत्तर प्रदेश
2017 2018 2019* 2017 2018 2019*
Cases 3,692 1,660 389 4,724 3,018 890
% of state cases that occurred in Gorakhpur facilities 78% 55% 44%
Fatalities 556 186 35 654 230 35
% of state fatalities that occurred in Gorakhpur facilities 85% 81% 100%
Case Fatality Rate 15.1% 11.2% 9.0% 13.8% 7.6% 3.4%
% of cases tested positive for Japanese Encephalitis 9.91% N/A 8.7% 14.7% 10.5% 6.2%

टेबल 1. उत्तर प्रदेश में AES के हालिया मामलों का ट्रेंड

*अगस्त तक

इन आंकड़ों से समस्या के हल होने की उम्मीद बढ़ी है, लेकिन उत्तर प्रदेश में इस मामले के कई पहलुओं को देखकर लगता है कि AES की सफलता का राजनीतिक फुटबॉल की तरह इस्तेमाल हो रहा है. पिछले वर्षों में बाबा राघव दास हॉस्पिटल दिमागी बुख़ार के मामलों और उससे होने वाली मौतों का रोज का आंकड़ा जारी करता था, जिसे Jagran.com जैसे संस्थान साप्ताहिक आधार पर प्रकाशित करते थे. सितंबर 2017 में इसे रोक दिया गया. ऐसे में मीडिया ने बाबा राघव दास अस्पताल में AES से जुड़ी ख़बरों का गैर-आधिकारिक सूत्रों के हवालों से प्रकाशन शुरू कर दिया. इसके मुताबिक, 2018 में जून तक इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या 2017 की तुलना में अधिक थी. जून तक आधिकारिक आंकड़ों में राज्य में दिमागी बुख़ार के मरीज़ों की संख्या में भारी बढ़ोतरी दिखाई गई थी, लेकिन उसके बाद इस मामले में अजीबोगरीब आंकड़े आने लगे. कई मीडिया संस्थानों ने बाबा राघव दास अस्पताल में जुलाई में 80 से अधिक मौतों की ख़बर दी, लेकिन 31 अगस्त तक मरीज़ोंकी संख्या घटकर 63 रह गई और इस महीने में AES से सिर्फ 6 मौतों की जानकारी दी गई.

रिपोर्टर्स से पता चला कि आधिकारिक आंकड़ों में अब राज्य से बाहर के मरीज़ों को शामिल नहीं किया जा रहा है, जिससे ऐसे मामलों की संख्या में एक कृत्रिम गिरावट आई. इस वजह से पिछले वर्षों की तुलना में आंकड़े 35 प्रतिशत घट गए.

रिपोर्टर्स से पता चला कि आधिकारिक आंकड़ों में अब राज्य से बाहर के मरीज़ों को शामिल नहीं किया जा रहा है, जिससे ऐसे मामलों की संख्या में एक कृत्रिम गिरावट आई. इस वजह से पिछले वर्षों की तुलना में आंकड़े 35 प्रतिशत घट गए. आधिकारिक आंकड़ों में 31 जुलाई को समूचे राज्य में 118 मौत की जानकारी दी गई थी, जो 31 अगस्त तक 113 पर आ गई थी. इस बीमारी से संबंधित आंकड़ों में राज्यस्तर पर गड़बड़ी की ख़बरें भी आईं. मिसाल के लिए, बरेली में दिमागी बुख़ार से 202 मौतें हुई थीं, जबकि जिले ने सिर्फ 28 ऐसी मौतों को दर्ज किया था. NVBDCP की मंथली रिपोर्ट्स का मेरा अपना विश्लेषण कहता है कि जनवरी से 29 जून तक 1,171 मामलों में 112 बच्चों की मौत की जानकारी दी गई थी, जो कुल मामलों का 9.6 प्रतिशत है. जुलाई से अक्टूबर तक 1,517 मामलों में 11 मौत (0.73 प्रतिशत) की जानकारी मिली थी. उसके बाद अक्टूबर से इस साल के अंत तक 392 मामलों में 107 मौत (27.3 प्रतिशत) की जानकारी दी गई. मुझे ऐसा लगता है कि इन आंकड़ों में कुछ गड़बड़ी की गई है.

एक डॉक्टर को इसलिए हिरासत में लिया गया क्योंकि जिन्हें बुख़ार का मरीज़ घोषित किया गया था, उन्होंने उसे AES का मामला बताया था. ऐसी ख़बरें भी आईं कि डॉक्टरों को AES के मामलों की रिपोर्ट करने से मना किया गया है. उनसे कहा गया था कि वे दिमागी बुख़ार के मरीज़ों को किसी और रोग से पीड़ित दिखाएं. इन ख़बरों के आने के बाद विधानसभा से विपक्ष ने वॉकआउट किया. ऐसा आरोप लगाया गया कि बाबा राघव दास हॉस्पिटल के जिन कर्मचारियों के मीडिया से बात करने का शक है, उनका वहां से तबादला किया जा रहा है. इस बीच, मीडिया में जो ख़बरें आ रही थीं, उनमें AES से मरने वालों की संख्या आधिकारिक रिपोर्ट्स की तुलना में अधिक बताई जा रही थी. इस साल AES के आंकड़ों को पूरी तरह नियंत्रित रखा गया है. FluTrackers.com में हम लोकल मीडिया को मॉनिटर करते हैं. 2017 में हमने पाया था कि उत्तर प्रदेश में AES मामलों को लेकर 150 स्थानीय आर्टिकल छपे थे. इस साल अब तक ऐसे सिर्फ 16 रिपोर्ट्स छपी हैं. इस मामले में पारदर्शिता की कमी से कई सवाल खड़े होते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार इस साल अगस्त तक जहां 890 AES मामलों की बात कह रही है, वहीं NHM ने 24 अगस्त तक 5,498 जापानी इंसेफेलाइटिस टेस्ट की जानकारी दी है. इससे एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है. अगर इतने बड़े पैमाने पर बच्चों को जापानी इंसेफेलाइटिस होने का शक है तो उन्हें AES का मरीज़ क्यों नहीं माना जा रहा है? क्या इस साल के AES के आंकड़ों में स्क्रब टाइफस के मरीज़ोंको भी शामिल किया जा रहा है? क्या इनमें राज्य के बाहर के मरीज़ भी शामिल हैं? प्राथमिक सेवा केंद्रों से इस बीमारी के आंकड़े किस तरह से जुटाए जा रहे हैं? कितने बच्चों को दिमागी बुख़ार से बचाने का टीका लगाया गया है? अभी जिस तरह से मरीज़ों का इलाज़ किया जा रहा है, क्या उसका साइंटिफिक वेरिफिकेशन कराया जाएगा और क्या उनका प्रकाशन होगा? अगर पारदर्शी तरीके से बीमारी के आंकड़े जारी नहीं किए जाएंगे तो उन्हें हमेशा संदेह की नज़रसे देखा जाएगा. अच्छा होगा कि डॉक्टरों को इस बारे में खुलकर अपनी बात रखने दी जाए. पत्रकारों को सवाल करने का मौका दिया जाए. इसके साथ, साइंटिस्टों को जांच की आज़ादी मिले. हमें ग़लतियों से सीखना और सफलता को बढ़ावा देना होगा. और सबसे बड़ी बात यह है कि ईमानदारी और साफगोई बरतनी होगी.

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