Published on May 31, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या ट्रम्प के साथ कोई समस्या है या फिर वो बराक ओबामा के समय में किये गए सभी काम को मिटाना चाहते हैं? वैश्विक कारोबार और पर्यावरण में आने वाले बदलाव की चिंता का क्या?

क्या ईरान ट्रम्प के लिए समस्या है

अमेरिका में एक आम सूझबूझ वाली कहावत है “अगर टूटा नहीं है तो ठीक करने की कोशिश न करो” यानी अगर कुछ गड़बड़ नहीं हुई है तो ठीक करने की ज़रूरत नहीं। लेकिन ट्रम्प कॉमन सेंस से नहीं अपनी मनमानी और चीज़ों के बारे में अपनी धारणा के मुताबिक प्रशासन चलाते हैं। इसलिए जब ईरान और P5 यानी अमेरिका, यूके, फ्रांस, रूस, चाइना और जर्मनी के बीच हुई परमाणु संधि को ट्रम्प ने ख़त्म कर दिया तो ईरान से ज्यादा सभी यूरोपीय सहयोगी चिंतित हो गए। पिछले कुछ हफ़्तों में जर्मन चांसलर एंजेला मेर्केल, फ्रांस के राष्ट्रपति इम्मानुएल मैक्रॉन और ब्रिटेन के विदेश मंत्री बोरिस जॉनसन ने कई बार व्हाइट हाउस का दौरा किया और ट्रम्प से गुज़ारिश की कि डील को इस तरह ख़त्म न करें।

यूरोपीय सहयोगियों के ऐसा करने के पीछे वजह भी है। ईरान ने डील कि किसी भी शर्त को नहीं तोडा है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संगठन को इस बात के लिए नियुक्त किया है कि वो निगरानी रखे कि ईरान डील कि सभी शर्तों को ठीक तरह से निभा रहा है या नहीं। IAEA ने ईरान को लगातार क्लीन चिट दी है। हाल ही में मार्च २०१८ में भी एजेंसी ने ईरान को निरिक्षण के बाद क्लीन चिट दी। IAEA के निदेशक युकिया अमानो ने ईरान को JCPOA के सभी शर्तों को लागू करने का प्रमाण पत्र दिया और कहा कि उत्तर कोरिया को अपने परमाणु ठिकानो को जांच के लिए सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव के तहत खोलना चाहिए। राष्ट्रपति ट्रम्प नार्थ कोरिया जैसे परमाणु देश के साथ मीटिंग के लिए प्रयास कर रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ उन्हों ने अपने पूर्व राष्ट्रपति ओबामा के समय एक गैर परमाणु देश के साथ हुए परमाणु संधि को मानने से इंकार कर दिया है। ये साफ़ ज़ाहिर करता है कि ट्रम्प ने ये फैसला मनमाने और ढीठ तरीके से किया हैं। निकोलस क्रिस्टोफ ने कहा है कि “ये विदेश नीति के अंतर्गत लिया फैसला नहीं, ये बर्बरता है।”

इसके अलावा ये सबसे अच्छी डील थी जो P5 देशों को ईरान के साथ हासिल हुई थी ताकि ईरान के परमाणु महत्वाकांक्षा को काबू में रखा जा सके। साथ ही ये भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि अभी डील को रद्द करने से ईरान का हौसला बढेगा और वो अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढाने की सोचेगा और आखिरी बात ईरान फिर से अमरीकी प्रतिबंधों में बंध जायेगा, जो डील के बाद भी पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुए थे। इस से ईरान और नाराज़ होकर कुछ ग़ैर ज़िम्मेदार क़दम उठा सकता है जिस से पहले से ही अस्थिर क्षेत्र में संकट और बढ़ सकता है। दुसरे शब्दों में ये एक तरह से धोखा देने वाला क़दम है और इस के बाद कोई भी देश अमेरिका की बातों पर विश्वास नहीं करेगा। सवाल है क्या उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग उन अब किसी डील के लिए ट्रम्प पर कितना भरोसा करेंगे?

क्या ट्रम्प के साथ कोई समस्या है या फिर वो बराक ओबामा के समय में किये गए सभी काम को मिटाना चाहते हैं। TPP, NAFTA, पेरिस पर्यावरण समझौता और अब ईरान डील से बाहर आने के फैसले से ये साफ़ ज़ाहिर होता है कि ट्रम्प को ओबामा से गंभीर समस्या रही है। साथ ही इन तमाम समझौतों में जो सारे देश शामिल हैं उनका क्या। वैश्विक कारोबार और पर्यावरण में आने वाले बदलाव की चिंता का क्या? क्या ट्रम्प को इसकी कोई फ़िक्र है, शायद नहीं।

इस क़दम के पीछे क्या है ट्रम्प की मंशा

क्या इस फैसले के पीछे ट्रम्प का मनमाना रवैय्या या बिना किसी औचित्य के लिए गए फैसले के अलावा भी कुछ है, जैसे किसी गुप्त लक्ष्य को हासिल करने की चाह। क्या ये ईरान की शक्ति को कम और बर्बाद करने से जुड़ा हुआ है। एक ऐसा लक्ष्य जो इजराइल और अमेरिका का सहयोगी सऊदी अरब दोनों चाहते है। क्या ये Jared Kushner के व्यापार हित से जुड़ा है। क्या ये सऊदी अरब के युवा राजकुमार मोहमम्द बिन सलमान के महत्वाकांक्षा से जुड़ता है। हाल ही में मोहम्मद बिन सलमान और इजराइल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतन्याहू दोनों ही वाशिंगटन के दौरे पर थे। लगता है कि इन दोनों के दौरे ने ट्रम्प को इस बात का विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि ईरान के साथ डील को ख़त्म करके ईरान को अलग थलग करना ही सही है।

२०१५ से २०१७ के बीच ४३ से ५४ डॉलर प्रति बैरल तेल की कीमत झेलने से लेकर, इन्ही ३ सालों में यमन में हूति विद्रोहियों से जूझने के लिए अमेरिका से कई बिलियन डॉलर के हथियार खरीदने तक सऊदी अरब काफी परेशान रहा है। अब ऐसे में वो चाहता है कि तेल की कीमत कम से कम ८५ डॉलर प्रति बैरल तक वापस चली जाए ताकि बजट में हुए नुकसान की भरपाई हो सके और फिर कीमत बढ़ कर १०० डॉलर प्रति बैरल तक होगी तो देश फिर से फलने फूलने लगेगा। इसलिए अगर फारस की खाड़ी में तनाव बढेगा तो सऊदी अरब के लिए ये स्थिति हासिल करना मुमकिन हो सकता है। सिर्फ इस कयास से कि ट्रम्प ईरान के साथ डील ख़त्म कर सकते हैं, तेल की कीमत पहले ही ७५ डॉलर प्रति बैरल पहुँच गयी। ट्रम्प के ऐलान के बाद ये बढ़ कर ७७ डॉलर प्रति बैरल हो गई।

तेल की कीमत लगातार बढ़ेगी या नहीं ये इस बात पर निर्भर करेगा कि ट्रम्प ईरान पर किस हद तक प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, क्या ट्रम्प ईरान को तेल निर्यात करने से रोकेंगे। इस का मतलब कि डील के पहले लगे सारे प्रतिबन्ध ईरान पर फिर से लागू किये जायेंगे। ट्रम्प के ऐलान से बिलकुल ऐसा ही लगता है।

अमेरिका के अब तक के सभी राष्ट्रपतियों ने एक एक कर के इस क्षेत्र से सऊदी अरब को चुनौती देने वाले किसी भी प्रतिद्वंदी को हटाया है; इराक में सद्दाम हुसैन से लेकर लीबिया में मुअम्मर गद्दाफी। ईरान एक अकेला ऐसा सांप है जिसका फन कुचलना ज़रूरी है, और ये सऊदी बादशाह अब्दुल्लाह २००८ में ही अमेरिका के रक्षा मंत्री रोबर्ट गेट्स को बता चुके हैं। उन्हों ने अमेरिका से ख़ास तौर पर ईरान के परमाणु ठिकानो पर बमबारी करने की मांग की थी। इसलिए पहले क़दम के तौर पर ट्रम्प के लिए ईरान के साथ किया गया परमाणु समझौता खत्म करने से बेहतर और क्या हो सकता है।

ईरान और इस क्षेत्र पर इसका असर

तेहरान से आने वाली पहली प्रतिक्रिया उम्मीद के मुताबिक ही थी। राष्ट्रपति रूहानी ने कहा कि वो इस डील को बरक़रार रखेंगे और बाक़ी उन पांच देशों के फैसले का इंतज़ार करेंगे जिन्हों ने डील पर दस्तखत किये थे, यूके, फ्रांस, जर्मनी, रूस और चाइना, फिर आगे का फैसला लेंगे। खबर है कि रूहानी ने अपने परमाणु वैज्ञानिकों को बेहिसाब यूरेनियम संवर्धन के आदेश भी दे दिए हैं। रिपोर्ट्स बताती हैं कि यूरोप के नेताओं कि ईरान के नेताओं से इस पर मुलाक़ात होने वाली है।

ईरान में राष्ट्रपति रूहानी का इस डील के फैसले को लेकर संसद के अन्दर मौजूद कट्टरपंथियों और IRGC कि तरफ से जैम कर विरोध हुआ था जो कि प्रतिबन्ध काल के दौरान काले बाज़ार से खूब मुनाफा कमा रहे थे। वो नहीं चाहते थे कि ईरान में कानूनी और जायज़ तौर पर कारोबार हो। इस संधि को तोड़ने में उनका अपना फायदा था और ट्रम्प ने उनपर एहसान किया है।

अगर इस संधि पर दस्तखत करने वाले बाक़ी पांच देश इस डील को बनाए रखें और ईरान के साथ व्यापार डॉलर के अलावा यूरो या युआन में करने का तरीका ढून्ढ लिया जाए तो ईरान के अन्दर स्थिति को काबू में रखा जा सकता है।

पश्चिमी एशिया का ये इलाका सऊदी अरब और इजराइल कि ईरान के साथ खुलेआम दुश्मनी से अस्थिर हो जाएगा। अब जब अमेरिका निश्चित तौर पर ईरान के खिलाफ सऊदी खेमे के साथ खड़ा है, तो इस इलाके में जल्द ही सैनिक तनाव बढ़ सकता है जिसके युद्ध में बदलने की आशंका भी है।

भारत पर असर

ईरान भारत में तेल का तीसरा बड़ा सप्लायर है, लेकिन भारत अपने जाने पहचाने अंदाज़ में इस पर कोई भी टिपण्णी नहीं कर रहा। प्रतिबन्ध के दौरान भारत ईरान से तेल खरीदता रहा, जिसका भुगतान डॉलर के अलावा दूसरी मुद्राओं में हुआ साथ ही एक लेन देन की व्यवस्था के तहत २० प्रतिशत भारतीय रुपये में और ३० प्रतिशत भारतीय बैंक के ज़रिये तीसरे देश के साथ व्यापर के लिए ईरान को दिया जाता रहा। यानी भारत को इस नई स्थिति में कारोबार करने में ज्यादा मुश्किल नहीं आएगी।

बहरहाल प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के ट्रम्प और नेतान्याहू दोनों से रिश्ते स्थिति को उलझा सकते हैं। दोनो ही नेता ये उम्मीद करेंगे कि मोदी किसी भी फैसले में उनके साथ खड़े हों। अब ये देखना होगा कि हम अपनी जगह कहाँ बनाते हैं, हम इस स्थिति से कैसे निबटते हैं ये तय करेगा कि हमारी विदेश नीति दरअसल क्या है।

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