Author : Niranjan Sahoo

Published on Jul 05, 2018 Updated 0 Hours ago

विश्व भर की सरकारें नगर-राजधानियों को अधिकार प्रदान करने के लिए तैयार नहीं दिखतीं लेकिन दिल्ली भारत के कई राज्यों से बड़ा है और इस स्थिति को देखते हुए केन्द्र के साथ इसके संबंधों पर पुनर्विचार की जरूरत है।

क्या पूर्ण राज्य का दर्जा ही दिल्ली की समस्याओं का हल है?

आम आदमी पार्टी ने हाल ही में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए अभियान शुरू किया है। हांलाकि दिल्ली का पूर्ण राज्य का संघर्ष उतना ही पुराना है जितना कि भारतीय गणराज्य लेकिन इस मसले ने जो राजनीतिक तपिश अभी हासिल की है वैसा पहले कभी नहीं हुआ। दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए पिछले तीन वर्षों से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार से सीधी लड़ाई लड़ रही है। आम आदमी पार्टी ने न सिर्फ पूर्ण राज्य के विधेयक का मसौदा तैयार किया और इस पर जनता की राय ली बल्कि देश की सर्वोच्च अदालत से भी हस्तक्षेप की अपील की।

हांलाकि पूर्ण राज्य की चाहत रखने में कोई नुकसान नहीं है लेकिन केन्द्र में अलग अलग विचारधारा वाली सरकारों के ‘कभी हां कभी ना’ वाले रूख के लंबे इतिहास से यही संकेत मिलता है कि ये कल्पना की उड़ान के सिवा कुछ नहीं। राजनीतिक पार्टिया जब विपक्ष में रहती हैं तो वो दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के मसले को अपने चुनावी एजेंडे में सबसे ऊपर रखती हैं लेकिन सत्ता हासिल करते ही ये पार्टियां पूर्ण यू टर्न ले लेती हैं। उदाहरण के लिए, कांग्रेस पार्टी 2004 से 2013 के बीच जब केन्द्र और राज्य दोनों जगहों पर सत्ता में थी तो उसने उस दौरान इस विषय में कोई रूचि नहीं दिखाई।

बीजेपी पूर्ण राज्य का मांग करने वाली ‘मूल’ पार्टी थी जिसने 2003 में एक विधेयक भी पेश करने की जद्दोजहद की थी लेकिन पार्टी मौजूदा नेतृत्व अपने उस पुराने वादे से फिर गया है।

विश्व स्तर पर बात करें तो दिल्ली कोई अपवाद नहीं है। मैने जिन बड़े देशों की राजधानियों का सर्वेक्षण किया उस से यही परिलक्षित होता है कि टोक्यो और बर्लिन को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाये तो विश्व भर की राष्ट्रीय सरकारों में से ज्यादातर को राजधानी वाले शहरों को पूर्ण राज्य का दर्जा तो दूर की बात है उन्हें स्वायत्ता प्रदान करने पर भी गंभीर ऐतराज है। राष्ट्रीय राजधानियों के जरूरी बुनियादी ढांचों पर नजर डालें तो यहां संसद, राष्ट्रपति भवन, रक्षा और विदेश मंत्रालय स्थित होते हैं और ज्यादातर सरकारें भूमि और कानून व्यवस्था जैसे महत्वपूर्ण सेवाओं पर अपना नियंत्रण रखती हैं। यहां एक असहज सच्चाई ये है कि केन्द्र सरकारों को शहर की सरकार की क्षमता पर पूरा भरोसा नहीं होता। यहां तक कि बर्लिन में जिसे सर्वाधिक स्वायत्त नगर-प्रांत माना जाता है वहां भी संघीय सरकारों को इस बात का भय रहता है कि धुर दक्षिणपंथी या वामपंथी गुट के अराजकतावादी नगर-प्रांत पर कब्जा कर सकते हैं। इन्हीं कारणों की वजह से अमरीकी कांग्रेस ने वाशिंगटन डीसी को राज्य का दर्जा नहीं प्रदान किया है। दिलचस्प बात ये है कि कैनबेरा जैसी कुछ नगर राजधानियों में एक बड़ा नागरिक समुदाय संघीय सरकारों के साथ व्यापक तालमेल का पक्षधर है। उन्हें इस बात का भय रहता है कि राज्य का दर्जा मिलने से राष्ट्रीय राजधानी के रुप में मिलने वाली सब्सिडी पर विराम लग सकता है।

अगर ऐसा है तो भी दिल्ली इतना छोटा शहर नहीं है कि इसे इस हालत में छोड़ दिया जाये जैसा अभी है। एक करोड़ 70 लाख से ज्यादा की आबादी वाली दिल्ली राष्ट्रीय राजधानियों के मामले में सिर्फ टोक्यो से ही पीछे है। संयुक्त राष्ट्र के नवीनतम आकलन के मुताबिक दिल्ली 2035 तक विश्व का सबसे बड़ा महानगर बन जायेगा। दिल्ली की आबादी उस समय तक करीब चार करोड़ तीस लाख होने का अनुमान है और यहां की शहरी आबादी कई मध्यम श्रेणी के देशों जैसे कनाडा और मलेशिया से भी ज्यादा होगी। इन सारे तथ्यों के मद्देनजर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मौजूदा प्रशासकीय व्यवस्था पर तत्काल पुनर्विचार की जरूरत है। मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में पूर्ण राज्य का दर्जा एक व्यावहारिक विकल्प नहीं है और आम आदमी पार्टी सरकार समझदारी से जो काम कर सकती है वो ये कि ये अपने कामकाज संबंधी अधिकार क्षेत्र को लेकर उचित स्वायत्ता और व्यापक स्पष्टता हासिल करने पर जोर दे। इससे उसे अपना कामकाज बेहतर बनाने और अपने मतदाताओं की आकांक्षाओं को पूरा करने में मदद मिलेगी।

पहला, दिल्ली सरकार को उन क्षेत्रों में अधिकार में हिस्सेदारी हासिल करने पर जोर देना चाहिए जो नगरीय सरकारों के लिए वास्तव में महत्व रखते हैं जैसे भूमि, कानून–व्यवस्था और सेवाएं। ये बहुत ही चिंताजनक बात है कि कई भारतीय प्रांतों से ज्यादा की आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली दिल्ली की निर्वाचित सरकार के पास भूमि, पुलिस व्यवस्था और अपने अधिकारियों के स्थानांतरण और नियुक्तियों से संबंधित कोई अधिकार नहीं है। वाशिंगटन डीसी जैसे सर्वाधिक सुरक्षित राजधानी क्षेत्र में भी इतने सीमित अधिकार नहीं हैं। वैश्विक स्तर पर इस बात के संकेत हैं कि कई राष्ट्रीय सरकारें जो पहले अधिकारों की हिस्सेदारी को लेकर सशंकित रहती थीं, उन सरकारों ने भी अब राष्ट्रीय राजधानी की सरकारों को धीरे धीरे अधिकार प्रदान करना शुरू किया है। दिल्ली इस मामले में एकमात्र अपवाद है।

दूसरा, आम आदमी पार्टी को स्थानीय निकायों  पर निर्णायक अधिकार हासिल करने के लिए संघर्ष करना चाहिए। दिल्ली एक ऐसा राजधानी शहर है जहां निर्वाचित सरकार का नगर निकायों के साथ मौलिक जुड़ाव नहीं है। ये स्थिति विश्व स्तर पर मौजूद बेहतरीन व्यवस्थाओं के विपरीत है।

आखिर में, अधिकार क्षेत्र को लेकर दावेदारी और विवाद को देखते हुए यह अत्यावश्यक है कि विवाद के समाधान की सांस्थानिक व्यवस्था की जाये जैसा कि विश्व भर की राष्ट्रीय राजधानियों में लागू है। विवादों को राष्ट्रपति के पास भेजने की मौजूदा व्यवस्था दोषपूर्ण है एवं इसमें विश्वसनीयता का अभाव है और यह निरपवाद रूप से राष्ट्रीय सरकार के पक्ष में है। संक्षेप में कहा जाये तो दिल्ली सरकार के लिए ये सही समय है कि पूर्ण राज्य के दर्जे के मसले पर व्यावहारिक रूख अपनाये और अपने पत्ते होशियारी से फेंके।


ये लेख मूल रूप से हिंदुस्तान टाइम्स में पब्लिश हुआ था।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.