Published on Sep 27, 2019 Updated 0 Hours ago

ईरान में जो जियो-पॉलिटिकल वैक्यूम बना है, चीन उसे बड़ी आसानी से भर सकता है. वहां उसके लिए आर्थिक मौक़ा बना है और इसका फायदा उठाकर अमेरिका के मुकाबले चीन एक बाजी जीत सकता है.

क्या अलग-थलग पड़े ईरान में चीन को दिख रहा है मौका?

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के JCPOA परमाणु समझौते से पीछे हटने के बाद ईरान अलग-थलग पड़ गया था. जैसे-जैसे उसकी अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ती गई, ईरान ने यूरोप की तरफ देखना शुरू किया. उसे उम्मीद थी कि पेरिस के नेतृत्व में यूरोप जल्द कोई बीच का रास्ता निकाल लेगा. आज जब ईरान ख़ुद को अलग-थलग महसूस कर रहा है, कुछ देशों को इसमें अपना फायदा दिख रहा है और वे जियो-पॉलिटिकल (भू-राजनीतिक) डिसरप्शन के मौके तलाश रहे हैं.

ईरान में काम करने वाले एक चाइनीज उद्योगपति ने कहा, ‘ईरान हर चीज के केंद्र में है।’ उन्होंने बताया कि 2017 में कहा जा रहा था कि ईरान को चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) प्रोजेक्ट से ज़बरदस्त फायदा होगा. चीन पहले ही ईरान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन चुका है. अमेरिका के JCPOA से पीछे हटने के बाद जब पश्चिमी देशों और सरकारें ईरान से दूरी बनाने लगे, तब से चीन ने उसके साथ अपने व्यापारिक रिश्ते और मजबूत किए हैं. अब शायद वह और एग्रेसिव तरीके से ईरान को लुभाने की कोशिश कर रहा होगा. मीडिया में दोनों देशों के बीच 25 साल लंबे एक समझौते की जो जानकारियां आई हैं, उनसे पता चलता है कि चीन के इस कदम से ईरान की अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलेगी. ख़ासतौर पर इससे ईरान के तेल और गैस क्षेत्र को फायदा होगा, जिसकी हालत अभी काफी खराब है. ईरान ने 2019 में 160 अरब बैरल तेल के भंडार होने (निकाले जाने लायक) की जानकारी दी थी. इस लिहाज से उसके पास दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा तेल का भंडार है.

चीन के साथ हुई डील से ईरान के पेट्रोकेमिकल सेक्टर में 280 अरब डॉलर का निवेश होने की संभावना है. इसके साथ 120 अरब डॉलर का निवेश देश के ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में होगा. इस सौदे से ईरान में ख़ासतौर पर रेलवे को भारी लाभ हो सकता है. इसके तहत जिन परियोजनाओं का सुझाव दिया गया है, उनमें चीन के संकटग्रस्त शिनजियांग सूबे से मध्य एशिया के जरिये ईरान को रेलमार्ग से जोड़ने का प्रस्ताव है. विडंबना यह है कि इसी प्रांत के करीब वो शिविर हैं, जिनमें सैकड़ों की संख्या में उइगुर मुसलमानों को बंधक बनाकर रखा गया है. चीन इन्हें ‘रिलीजियस री-एजुकेशन कैंप’ यानी धार्मिक पुनर्शिक्षण शिविर कहता है. यहां मुसलमानों के साथ जैसा सलूक होता है, उसे लेकर ईरान ने अभी तक चीन की आलोचना नहीं की है.

ईरान के साथ सौदे में एक अहम बात यह है कि चीन वहां अपने 5,000 ‘सुरक्षाकर्मियों’ को तैनात कर सकता है, जो उसके निवेश और प्रोजेक्ट्स की रक्षा करेंगे.

ईरान के साथ सौदे में एक अहम बात यह है कि चीन वहां अपने 5,000 ‘सुरक्षाकर्मियों’ को तैनात कर सकता है, जो उसके निवेश और प्रोजेक्ट्स की रक्षा करेंगे. चीन ख़ुद को अमेरिका के बराबर की ताकत मानता है. ऐसे में विदेश में उसे कभी न कभी सेना तैनात करनी ही थी. वह एशिया में अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए अपनी आर्थिक और सैन्य क्षमता बढ़ा रहा है. आगे चलकर वह दूसरे क्षेत्रों में भी अमेरिका को चैलेंज करने के लिए ऐसा ही कर सकता है. चीन ने पहले से ही जिबूती में सैन्य अड्डा बना रखा है. ऐसी अटकलें हैं कि उत्तरी अफगानिस्तान में भी उसने ऐसा ही बेस स्थापित किया है.

ईरान और चीन को लेकर इस तरह के जो शानदार आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, उनमें रणनीतिक फायदा लेने और पश्चिमी देशों को संदेश देने की कोशिश है. ईरान इसके लिए अधिक आतुर दिख रहा है और चीन की तरफ से बहुत ठोस योजनाएं पेश नहीं की गई हैं. इसके बावजूद इन ख़बरों से इतना तो साफ है कि चीन अपने सहयोगी देशों में निवेश को तैयार है. ख़ासतौर पर जहां अमेरिका की ताकत कमजोर हो रही है, वहां वह पश्चिमी देशों के पैसों और प्रभाव का एक विकल्प मुहैया करा रहा है. चीन और ईरान के बीच 25 साल की इस डील की ख़बर सबसे पहले पेट्रोलियम इकॉनमिस्ट ने दी थी. इस ख़बर में सिर्फ ईरान के अधिकारियों के हवाले से जानकारी दी गई है और उनके बताए आंकड़े पेश किए गए हैं. अभी तक यह बात सामने नहीं आई है कि इस सौदे को लेकर चीन क्या सोचता है.

खैर, ईरान की अर्थव्यवस्था को उबारना उतना आसान नहीं है, जितना चीन को लग रहा है. शी जिनपिंग का देश इजरायल का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर बनने के भी करीब है. पारंपरिक तौर पर इस भूमिका में अभी तक अमेरिका रहा है. 2017 में इजरायल के प्रधानमंत्री बेन्यमिन नेतन्याहू ने कहा था कि इजरायल-चीन की साझेदारी ‘स्वर्ग में बनी जोड़ी’ जैसी है. इसके साथ ही, चीन गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल (GCC) के साथ रिश्ते मजबूत करने की कोशिश भी कर रहा है, जिसमें पिछले साल शी जिनपिंग के संयुक्त अरब अमीरात (UAE) दौरे के बाद तेजी आई है. UAE की वायुसेना के विमानों ने जिनपिंग के विमानों की अगवानी की और उसे साथ लेकर आए. चीन के राष्ट्रपति का वहां शानदार स्वागत हुआ था. इससे पश्चिम एशिया में चीन के बढ़ते रसूख़ का पता चलता है. बेशक, इसमें उसके लिए आर्थिक ताकत मददगार साबित हो रही है.

इन सबके बीच, चीन को पश्चिम एशिया में वही करना होगा, जो उसके भारत जैसे पड़ोसी देश लंबे समय से करते आए हैं यानी उसे शिया, सुन्नी और यहूदी ताक़तों के बीच संतुलन बनाकर रखना होगा. पश्चिम एशिया में येरूशलम, रियाद और तेहरान जैसी सभी क्षेत्रीय ताक़तें चीन से निवेश-व्यापार आकर्षित करना चाहेंगी. ऐसे में अगर जिनपिंग सरकार ईरान में अपनी सेना तैनात करती है और वहां के ध्वस्त हो रहे इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने के लिए अरबों डॉलर का निवेश करती है तो इसकी बहुत संभावना है कि उसे लेकर सऊदी अरब और इजरायल उसके सामने अपनी नाराज़गी का इज़हार करें. ये देश ऐसी स्थिति में ट्रेड जैसे मामलों को लेकर अमेरिका के और करीब जा सकते हैं.

जिनपिंग सरकार ईरान में अपनी सेना तैनात करती है और वहां के ध्वस्त हो रहे इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने के लिए अरबों डॉलर का निवेश करती है तो इसकी बहुत संभावना है कि उसे लेकर सऊदी अरब और इजरायल उसके सामने अपनी नाराज़गी का इज़हार करें.

सच तो यह है कि अमेरिका के साथ चल रहे व्यापार युद्ध के कारण ईरान की मदद के लिए चीन जोर लगा सकता है, ताकि डॉनल्ड ट्रंप सरकार चिढ़ जाए. ईरान के पास कच्चे तेल का बड़ा भंडार है और एशिया में चीन और भारत उसके बड़े ख़रीदार रहे हैं. अभी तक ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर चीन का बहुत संभला हुआ रुख रहा है और वह अमेरिका के साथ इस मामले में किसी भी विवाद से बचने की कोशिश करता आया है. ट्रंप के व्यापार युद्ध के कारण चीन की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है. ऐसे में चीन ने अमेरिका की नाराज़गी की चिंता छोड़ दी है. इन सबके बीच ईरान में जो जियो-पॉलिटिकल वैक्यूम बना है, चीन उसे बड़ी आसानी से भर सकता है. वहां उसके लिए आर्थिक मौक़ा बना है और इसका फायदा उठाकर अमेरिका के मुकाबले चीन एक बाजी जीत सकता है. इस तरह से ईरान में निवेश कर चुके फ्रांस, जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों के जरिये वह ट्रंप सरकार पर JCPOA को मानने और अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने के लिए दबाव बना सकता है.

ईरान में इस मोड़ पर चीन का दख़ल बढ़ना भारत के लिए मुनासिब नहीं होगा. भारत और ईरान के बीच चाबहार पोर्ट के डिवेलपमेंट को लंबे समय से खींचतान चली थी. इस बंदरगाह ने इसी साल व्यावसायिक कामकाज शुरू किया है. इसके जरिये अफगानिस्तान में सामान भेजने और वहां के सामान को दूसरी जगहों पर ले जाने का एक वैकल्पिक रास्ता मिला है. चाबहार प्रोजेक्ट का मकसद मध्य एशिया के साथ ऊर्जा, ट्रांसपोर्ट जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाना और लोगों को करीब लाना था. हालांकि, इनमें से ज्यादातर योजनाएं कागज़ पर हैं. अभी तक लोगों और भारी निवेश की जरूरत वाले प्रोजेक्ट्स को लेकर कोई पहल नहीं हुई है. भारतीय अर्थव्यवस्था ऐसी विशाल परियोजनाओं का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है, लेकिन चीन यह काम बड़ी आसानी से कर सकता है. लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स में चीन के ईरान में जैसे निवेश का जिक्र किया गया है, क्या वह वाकई वैसा करेगा? शायद नहीं,

जैसा कि ऊपर बताया गया है, मीडिया में आई खबरों में चीन के ईरान में निवेश की रकम ईरानी अधिकारियों के हवाले से दी गई है. शायद वह इसके जरिये अमेरिका को संदेश दे रहा है, जो चीन के साथ अभी व्यापार युद्ध में उलझा हुआ है. इस ख़बर से यूरोप में भी हलचल मचेगी. फ्रांस पहले ही JCPOA समझौते को मानने की एवज में 15 अरब डॉलर का पैकेज देने के लिए ईरान से बातचीत कर रहा है. ईरान में सारे राजनीतिक फैसले अयातुल्ला लेते हैं. अगर वह पश्चिम की तरफ से खड़े किए गए संकट से निकलने के लिए चीन की मदद लेते हैं तो सबसे ज्यादा नुकसान उन्हें और उस इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) को होगा, जो अयातुल्ला को रिपोर्ट करती है. सीरिया से लूटी गई संपत्ति के साथ देश के बिज़नेस और उद्योगों पर उनका ही नियंत्रण है.

उधर, पश्चिम एशिया में चीन की रणनीति भारत जैसी ही है. उसने अभी ख़ुद को क्षेत्रीय विवादों से अलग रखा है और वह किसी का पक्ष लेता हुआ नहीं दिख रहा. हालांकि, भविष्य में चीन को अपनी आर्थिक ग्रोथ तेज बनाए रखने के लिए मार्केट और अर्थव्यवस्था के लिए संसाधनों की जरूरत है. ऐसे में ईरान पहली नज़र में भले ही आकर्षक लगे, लेकिन वहां चीन के लिए काम करना आसान नहीं होगा. इस बात को सबसे अच्छे ढंग से फ्रांस के एक राजनयिक ने यूं बयान किया था, ‘पाबंदी लगी हो या न लगी हो, ईरान के साथ डील करना बहुत मुश्किल है.’

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.