Author : Kashish Parpiani

Published on Sep 23, 2020 Updated 0 Hours ago

बाइडेन ने अमेरिकी-भारत रिश्तों में नीतिगत निरंतरता बरकरार रखने के वायदे के लिए भले ही ट्रंप के हिंद-प्रशांत फ़लसफ़े का सहारा लिया हो मगर अमेरिकी कांग्रेस द्वारा वर्तमान संरक्षणवादी भूमिका के बजाय सुधारवादी रूख अपनाने से चुनौतियां पैदा हो सकती हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव: जो बाइडेन की विश्व दृष्टि एवं भारत पर उसका प्रभाव
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बाइडेन ने अमेरिका-भारत रिश्तों में नीतिगत निरंतरता बरकरार रखने के वायदे की ख़ातिर ट्रंप के हिंद-प्रशांत फ़लसफ़े का सहारा तो ले लिया है मगर अमेरिकी कांग्रेस द्वारा आगे से मौजूदा संरक्षणवादी के बजाय सुधारवादी भूमिका अपनाने पर चुनौतियां पैदा हो सकती हैं.

राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार तथा पूर्व उपराष्ट्रपति जो बाइडेन ने मान लिया है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, ‘‘अमेरिका के नेतृत्व को त्याग चुके हैं.” इसके बरअक्स बाइडेन का प्रचार अभियान अपने उम्मीदवार की ऐसी छवि पेश कर रहा है जो अमेरिका की हैसियत को” दुनिया के सभापति” के रूप में पुनर्स्थापित कर सकता है. घरेलू मोर्चे पर भी ”फिर से सामान्य स्थिति” कायम करने के वायदे की तरह बाइडेन का विदेश नीति संबंधी एजेंडा ”आमूल-चूल पुनर्स्थापना परियोजना की नीयत” वाला प्रतीत हो रहा है. इसमें अमेरिकी नेतृत्व की अपरिहार्य स्थिति तथा अमेरिका के सामने अवश्यंभावी ख़तरे जैसे चिर-परिचित मुद्दे शामिल हैं.

यदि बाइडेन जीत जाते हैं तो अमेरिकी-भारत संबंधों की दृष्टि से वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में तीसरे अमेरिकी राष्ट्रपति होंगे. हालांकि, बराक ओबामा के उपराष्ट्रपति काल के साथ-साथ सीनेट की विदेशी संबंध समिति के सभापति भी रह चुकने के कारण बाइडेन को वाशिंगटन के नई दिल्ली से रिश्तों पर मंजा हुआ खिलाड़ी माना जा सकता है क्योंकि उसी दौरान 2008 में अमेरिका-भारत नागरिक प्रयोग परमाणु समझौता पारित हुआ था. बाइडेन उस ​क़ानून  (नौसेना जल यान हस्तांतरण अधिनियम 2005) के भी सह-प्रायोजक थे जिसके अंतर्गत भारत ने अमेरिका में निर्मित पहला युद्धपोत हासिल किया था.

राष्ट्रपति पद के डेमोक्रेटिक उम्मीदवार तथा पूर्व उपराष्ट्रपति जो बाइडेन ने मान लिया है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, ‘’अमेरिका के नेतृत्व को त्याग चुके हैं.” इसके बरअक्स बाइडेन का प्रचार अभियान अपने उम्मीदवार की ऐसी छवि पेश कर रहा है जो अमेरिका की हैसियत को” दुनिया के सभापति” के रूप में पुनर्स्थापित कर सकता है.

इसके बावजूद कुछ टिप्पणीकारों ने बाइडेन के राष्ट्रपतित्व में संभावित चुनौतियों को भी इंगित किया है क्योंकि डेमोक्रेट नेतृत्व अमेरिका की विदेश नीति द्वारा नैतिक मूल्यों की रक्षा पर अधिक ध्यान दे रहा है.

 कैपिटल हिल संरक्षणवादी होगा अथवा सुधारवादी?

हाउस फॉरेन अफेयर्स कमेटी अर्थात सदन की विदेशी मामलों की समिति की अक्टूबर, 2019 में दक्षिण एशिया में मानवाधिकारों पर हुई सुनवाई में मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने और उसके बाद संचार सेवा ठप कर दिए जाने के प्रति ट्रंप प्रशासन के ढुलमुल रवैये पर डेमोक्रेट सदस्यों ने एकजुट एतराज़ किया था. जवाबी बयान में रिपब्लिकन सदस्यों ने मानवाधिकारों के बारे में वाशिंगटन के ‘उच्च मानकों’ का विरोध करके आलोचना की धार भोथरी करने का प्रयास किया. यह बयान विदेश नीति को ‘नैतिक मूल्यों’ से ‘जुदा करने’ संबंधी ट्रंप की सोच के अनुरूप है. बल्कि कुछ सदस्यों ने तो मोदी सरकार की कार्रवाई को ‘तारीफ़’ के लायक बताया. भारत पर यह दलगत विभाजन और भी जटिल हुआ जब अमेरिका-भारत गतिशीलता, दोनों में से किसी भी पक्ष द्वारा राजनीतिकरण की शिकार बनने लगी. उदाहरण के लिए ‘हाउडी मोदी’ सभा में मोदी द्वारा ट्रंप के पुनर्निर्वाचन की पुष्टि करते प्रतीत होना. हालांकि, नई दिल्ली ने इसका खंडन किया है. इसी तरह ‘नमस्ते ट्रंप!’ समारोह में मोदी के भाषण का ट्रंप के चुनाव अभियान विज्ञापन में प्रयोग करके भारतीय मूल के अमेरिकियों को लुभाने की कोशिश. (यहां देखें).

आगे देखें तो यदि डेमोक्रेट नियंत्रित अमेरिकी कांग्रेस (उनके द्वारा अमेरिकी सीनेट में बहुमत पाने की संभावना संबंधी समाचारों के मद्देनजर) को लगता है कि साझा मूल्यों को और कमजोर करते हुए अमेरिकी-भारत संबंधों का राजनीतिकरण हो गया है तो उनकी आलोचनाओं का प्रयोग करके व्यवहार में परिवर्तन लाने की शुरूआत की जा सकती है.

ट्रंप के अंतर्गत ‘अमेरिका फ़र्स्ट अर्थात अमेरिकी हित सर्वोपरि’ की गूंज के विरूद्ध अमेरिका के अंतरराष्ट्रीयतावाद के कुछेक मूल्यों को ही सही बचाने का द्विदलीय प्रयास चल रहा है. उधर 2018 के मध्यावधि चुनावों के बाद जिनमें अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में डेमोक्रेटिक पार्टी ने बहुमत हासिल किया था, भविष्य की अमेरिकी विदेश नीति पर चर्चा का सुसंगठित प्रयास भी चल निकला. इसमें सदन के निगरानी संबंधी अधिकारों के ज़रिए ट्रंप की विदेश नीति की अधिक जांच-परख (जैसे ट्रंप की सीरिया नीति पर हुई सुनवाई), विदेश में लोक-लुभावन प्रवृत्तियों को ट्रंप के समर्थन के विपरीत (जैसे डेमोक्रेटों द्वारा नो-डील ब्रेक्ज़िट के विरोध की घोषणा और गुड फ्राइडे समझौते पर संकट) तथा मानवाधिकार के मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास (जैसे ट्रंप को शिंजियांग, तिब्बत तथा हांगकांग में चीन की हरकतों पर कार्रवाई का अधिकार सौंपना) शामिल है.

बाइडेन के अंतर्गत डेमोक्रेट बहुमत वाला सदन एवं सीनेट इतनी संरक्षणवादी भूमिका अपनाने से शायद बाज आए. उसके बजाय यह बाइडेन की विदेश नीति को सुधारने की कोशिश कर सकता है क्योंकि टिप्पणीकार उनके ”संकीर्ण वाशिंगटन सहमति की ओर लौटने जिसने हमारे देश एवं विश्व को विफल किया” के विरूद्ध चेता रहे हैं. हालांकि, यह बाइडेन के आरंभिक वर्षों में भले न हो क्योंकि आवश्यक घरेलू एजेंडे को निपटाना उनकी प्राथमिकता होगी, मगर प्रगतिशीलों की ज़ाहिर सोच के मद्देनज़र ऐसी भूमिका की कल्पना तो भलीभांति की जा सकती है. वे बाइडेन को ”अतीतजीवी” मानते हैं, क्योंकि उनके बहाली उन्मुख विदेश नीति के वायदे के कारण इस साल कांग्रेस की प्राइमरी में डेमोक्रेट प्रतिष्ठान के लोग हार कर बाहर हो चुके हैं.

बाइडेन के अंतर्गत डेमोक्रेट बहुमत वाला सदन एवं सीनेट इतनी संरक्षणवादी भूमिका अपनाने से शायद बाज आए. उसके बजाय यह बाइडेन की विदेश नीति को सुधारने की कोशिश कर सकता है क्योंकि टिप्पणीकार उनके ”संकीर्ण वाशिंगटन सहमति की ओर लौटने जिसने हमारे देश एवं विश्व को विफल किया” के विरूद्ध चेता रहे हैं.

भारत-अमेरिकी संबंधों में राजदूतों को स्वीकृति देने में कांग्रेस के प्राधिकार लागू करना अथवा हथियारों के सौदों की स्वीकृति के लिए नागरिक अधिकारों संबंधी मामलों में दिल्ली पर दबाव डालने की बाइडेन प्रशासन की प्रतिबद्धता का पालन करना इसमें शामिल हो सकता है. तर्क यह भी हो सकता है कि ऐसे रूख की संभावना नई दिल्ली एवं वाशिंगटन के बीच अनेक रणनीतिक गठजोड़ों को ग्रहण लगाने की दीर्घगामी चिंता को जन्म दे सकती है. फिर भी बहुत कुछ डेमोक्रेटों द्वारा मोदी व्यवस्था के आकार लेते चरित्रांकन पर भी निर्भर करेगा क्योंकि कुछ प्रगतिशील सांसद उस पर पहले से ही ‘हिंसक हिंदू राष्ट्रवाद एवं मुसलमानों के प्रति घृणाजनित अपराधों’ को फैलाने का आरोप लगा रहे हैं.

इसके साथ ही बाइडेन के ऐसे स्वरों से पहले ही काफी प्रभावित होने का संकेत हाल में उनके प्रचार अभियान के ‘मुसलमान-अमेरिकी समुदायों के लिए एजेंडे’ में चीन में उईघरों की धरपकड़ तथा म्यांमार में रोहिंग्या समुदाय पर अत्याचार के साथ कश्मीर के हालात का ज़िक्र साफ़-साफ़ करने से मिल रहा है. इन मुद्दों को मुसलमान-अमेरिकियों को विचलित करने वाला बताया गया है. उसके बाद भारतीय-अमेरिकी समुदाय के अन्य वर्गों द्वारा शोर मचाने पर बाइडेन के प्रचार अभियान ने अमेरिका-भारत संबंधों के लिए अपनी दृष्टि का खुलासा किया.

बाइडेन के अंतर्गत अमेरिकाभारत संबंधों में निरंतरता

भारत के स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में बाइडेन ने कहा, ‘’ भारत एवं अमेरिका के बीच” विशेष रिश्ता है जिसे मैंने अनेक वर्ष तक गहराते देखा है.” उनके अभियान ने यह घोषणा भी की कि, ‘’बाइडेन लंबे समय से बने अपने इस भरोसे पर अमल करेंगे कि भारत एवं अमेरिका स्वाभाविक भागीदार हैं एवं बाइडेन प्रशासन अमेरिकी-भारत संबंध मज़बूत करने की प्रवृत्ति जारी रखते हुए इस पर ख़ास ध्यान देगा.” बाइडेन के अभियान ने, ‘’भारतीय-अमेरिकी समुदाय के लिए अपना एजेंडा” भी जारी किया. इसे राष्ट्रपति पद के चुनाव अभियान द्वारा कथित पहली बार जारी किया गया ऐसा नीतिगत दस्तावेज़ बताया गया है. इसमें ट्रंप प्रशासन के हिंद-प्रशांत फ़लसफ़े का ज़िक्र नीतिगत निरंतरता बरकरार रहने का संकेत है. दस्तावेज़ के अनुसार इसके ज़रिए, ‘’भारत के साथ मिलकर नियम आधारित एवं स्थिर हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अवधारणा के समर्थन के लिए काम किया जाएगा. जिससे इस क्षेत्र में चीन सहित किसी भी देश की अपने पड़ोसियों को एकतरफा धमकाने की मज़ाल नहीं होगी.” इस सिद्धांत के प्रति बाइडेन की प्रतिबद्धता जताई गई है.

भारत के स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में बाइडेन ने कहा, ‘’ भारत एवं अमेरिका के बीच” विशेष रिश्ता है जिसे मैंने अनेक वर्ष तक गहराते देखा है.” उनके अभियान ने यह घोषणा भी की कि, ‘’बाइडेन लंबे समय से बने अपने इस भरोसे पर अमल करेंगे कि भारत एवं अमेरिका स्वाभाविक भागीदार हैं

इसके साथ ही इसमें ओबामा-बाइडेन शासनकाल में प्रमुख रक्षा भागीदार (एमपीडी) का दर्ज़ा दिलाकर नई दिल्ली की सैन्य क्षमता निर्माण के समर्थन के रिकॉर्ड की भी प्रशंसा की गई है. इस समझौते के अनुसार, ‘’भारत को अपनी सेना को मज़बूत बनाने के लिए आधुनिक एवं संवेदनशील प्रौद्योगिकी की ज़रूरत पड़ने पर भारत को हमारे निकटस्थ भागीदारों के समान ही गिना जाएगा.” इस बारे में बाइडेन द्वारा समर्थन से भी महत्वपूर्ण नीतियों को जारी रखने का संदेश जाएगा, जिस प्रकार ट्रंप ने एमडीपी ​दर्ज़े को मान्यता देने के साथ ही रणनीतिक व्यापार प्राधिकार-1 वर्ग के अंतर्गत भारत के वर्गीकरण तथा संवेदनशील प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के लिए इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी एनेक्स यानी औद्योगिक सुरक्षा पूरक अंश पर निर्णय करके उसे और विस्तृत बनाया है.

इसके साथ ही बाइडेन की ‘सामान्य’ विदेश नीति के तहत व्यापारिक तनावों के भी ठंडा पड़ने की उम्मीद की जा सकती है जिनके कारण ट्रंप के राज में द्विपक्षीय संबंध प्रतिकूल प्रभावित हो रहे हैं. बाइडेन ने हालांकि, ट्रंप द्वारा टैरिफ थोपने की राह अपनाने को ”हमारे सहयोगियों को छिटकाने तथा हमारी फ़ायदा पाने की सामूहिक शक्ति को घटाने वाला” बताया है मगर भारत की टैरिफ / गैर-टैरिफ बाधाओं पर बातचीत के लिए दबाव जारी रहने के आसार हैं. अलबत्ता बाइडेन प्रशासन ऐसे विचलनों को सार्वजनिक रूप में जताने से ज़रूर बाज आएगा—ओबामा प्रशासन के ‘कार्टर मंत्र’ के समान जिसमें रणनीतिक सम्मेलनों का लाभ उठाने तथा मतभेदों को ‘अल्पतम मगर सकारात्मक परिणामों’ को प्राप्त करने में बाधा नहीं बनने देने पर ज़ोर है.

फिर भी रूस से भारत के संबंधों के बारे में अमेरिका की आपत्तियां पुनर्जागृत हो सकती हैं. हालांकि, डेमोक्रेटों द्वारा व्लादिमीर पुतिन शासन की आलोचना का मुख्य़ बिंदु चुनाव में दखलंदाज़ी ही बचा है मगर बाइडेन ने मॉस्को द्वारा पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं के प्रयोग की भी आलोचना की है. बाइडेन के राष्ट्रपतित्व में इस क्षेत्र में अमेरिका द्वारा बदले की संभावना का संकेत देकर प्रतिबंध के द्वारा अमेरिका के प्रतिरोधियों से प्रतिकार कानून के अंतर्गत भारत पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंधों की नौबत आने से इंकार नहीं किया जा सकता. ट्रंप ने हालांकि, कानून की धारा 231 के तहत पारित प्रावधानों के अनुसार भारत को उससे छूट नहीं दी है मगर उनके प्रशासन ने तुर्की के मामले की तरह भारत पर कोई कड़ी कार्रवाई भी नहीं की. बाइडेन के राष्ट्रपतित्व में इस ‘अनकही छूट’ को जारी रखने पर फिर से सवाल सामने आ सकते हैं. इसके बावजूद बाइडेन भले ही रूस के साथ नई स्टार्ट संधि—ओबामा-बाइडेन कार्यकाल की विदेश नीति संबंधी प्रमुख जीत, जो फरवरी-2021 में समाप्त हो रही है—की अवधि बढ़ाने जैसे आवश्यक मामलों में रचनात्मक रिश्ते निभाएं फिर भी प्रगतिशील अमेरिकी कांग्रेस उनके प्रशासन को मॉस्को के प्रति उसके अंतरराष्ट्रीय लेनदेन जैसे अन्य मामलों में कड़ाई बरतने के लिए मजबूर कर सकती है.

रूस से भारत के संबंधों के बारे में अमेरिका की आपत्तियां पुनर्जागृत हो सकती हैं. हालांकि, डेमोक्रेटों द्वारा व्लादिमीर पुतिन शासन की आलोचना का मुख्य़ बिंदु चुनाव में दखलंदाज़ी ही बचा है मगर बाइडेन ने मॉस्को द्वारा पश्चिमी वित्तीय संस्थाओं के प्रयोग की भी आलोचना की है.

यह कहना तो निश्चित ही अनुचित होगा कि बाइडेन, कैपिटल हिल पर सत्ता समूहों के बीच संतुलन के सरासर मुहताज़ हो जाएंगे विशेषकर जब अमेरिकी संविधान के अनुच्छेद II के अंतर्गत ”सहयोगी अथवा ”अंतरनिहित अधिकारों” की व्यापक परिधि” के अंतर्गत विदेश नीति अधिकतर कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में है. इसलिए उदाहरण वास्ते अमेरिका-भारत आतंकवाद प्रतिकार सहयोग की वक्र रेखा अथवा क्वाड्रिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग यानी क्वाड का भविष्य जिसके मूल में अमेरिका-भारत के बीच रक्षा अंतरसंचलन है—दो ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें ट्रंप के समान ही जारी रखना होगा और उन्हें अधिकतर बाइडेन प्रशासन ही अनुप्राणित करेगा.

अलबत्ता अन्य वायदों जैसे एच-1बी वीज़ा प्रणाली में सुधार की बाइडेन द्वारा घोषित योजना और देश द्वारा रोज़गार आधारित ग्रीन कार्डों पर पाबंदियां समाप्त करने आदि में अमेरिकी कांग्रेस की भूमिका को कम नहीं आंका जा सकता. यह सुनिश्चित करने को कि, ‘’नियोक्ताओं द्वारा आप्रवासी कामगारों का फायदा उठा कर स्थानीय जन्मे कामगारों को उचित मजदूरी एवं रोजगार के अवसरों से वंचित तो नहीं किया जा रहा’ बाइडेन की ‘अमेरिकी एवं विदेशी कामगारों की समान सुरक्षा” की योजना को लागू करने के लिए विस्तृत कानूनी उपक्रम की आवश्यकता होगी ताकि पारिश्रमिक की दरों में समानता का पालन हो. इसके अलावा अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी तथा कोरोना वायरस महामारी के कारण बेरोज़गारी बढ़ने की पृष्ठभूमि में डेमोक्रेटों को अमेरिकी कांग्रेस के दोनों सदनों में पूरा बहुमत मिल जाए तो भी उनके द्वारा विदेशी कामगारों के लिए बाइडेन की योजना पर अपनी राजनीतिक पूंजी लुटाने की संभावना नगण्य है.

इसलिए, बाइडेन ने अमेरिकी-भारत रिश्तों में नीतिगत निरंतरता बरकरार रखने के वायदे के लिए भले ही ट्रंप के हिंद-प्रशांत फ़लसफ़े का सहारा लिया हो मगर अमेरिकी कांग्रेस द्वारा वर्तमान संरक्षणवादी भूमिका के बजाय सुधारवादी रूख अपनाने से चुनौतियां पैदा हो सकती हैं.

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