Author : Seema Sirohi

Published on Sep 07, 2020 Updated 0 Hours ago

आशंका है कि डेमोक्रेटिक प्रशासन भारत के लिए रिपब्लिकन जितना अनुकूल नहीं होगा, ख़ासकर मोदी को लेकर भावनाओं को देखते हुए, कुछ हद तक अतिरंजित हैं.

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव: भारत के बारे में क्या सोचते हैं डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जो बाइडेन?

डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडेन का साफ संदेश है कि अगर वो चुनाव जीतते हैं तो भारत-अमेरिका की साझेदारी उनकी सरकार की “उच्च प्राथमिकता” होगी, जो कि चीन के साथ सीमा पर तनावपूर्ण स्थिति को देखते हुए महत्वपूर्ण है. उनकी टिप्पणी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन सरकार द्वारा सार्वजनिक और निजी तौर पर दिखाए मजबूत समर्थन को आगे ले जाती है. चीन द्वारा 15 जून को वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के पास 20 भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या के बाद अमेरिकी कांग्रेस के कई सांसदों ने भी, जिसमें डेमोक्रेट और रिपब्लिकन शामिल हैं, भारत के समर्थन में आवाज़ उठाई है.

बाइडेन ने यह भी कहा कि वह ट्रंप द्वारा इस हफ्ते एच-1 बी वीज़ा पर लगाई अस्थायी रोक को हटा देंगे और ज़्यादा समावेशी व उदार आव्रजन नीति (immigration policy)का संकेत दिया. अमेरिकी अर्थव्यवस्था की हालत को देखते हुए, उनका विदेशी कर्मचारियों के पक्ष में बोलना राजनीतिक रूप से साहसिक कदम था.

मुंहफट बाइडेन ने अपनी ख़ास शैली में चंदा जुटाने के एक कार्यक्रम में कहा, “भारत को हमारी सुरक्षा के लिए, और ज़्यादा साफ तौर से कहें तो उसकी सुरक्षा के लिए इस क्षेत्र में साझेदार बनने की ज़रूरत है. साझेदारी- एक सामरिक साझेदारी, आवश्यक और महत्वपूर्ण है.”

डेमोक्रेटिक पार्टी के वरिष्ठ नेता के रूप में बाइडेन बड़ी सामरिक तस्वीर पेश करते हैं कि एशिया में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए भारत-अमेरिका की दोस्ती बेहद महत्वपूर्ण है जो लोकतंत्र के समर्थन में है, ख़ासकर तब जबकि इसी समय चीन अपनी पूरी ताकत़ आजमा रहा है. बाइडेन के शीर्ष सलाहकारों का चीन के बारे में नज़रिया बिल्कुल साफ है.

मुंहफट बाइडेन ने अपनी ख़ास शैली में चंदा जुटाने के एक कार्यक्रम में कहा, “भारत को हमारी सुरक्षा के लिए, और ज़्यादा साफ तौर से कहें तो उसकी सुरक्षा के लिए इस क्षेत्र में साझेदार बनने की ज़रूरत है. साझेदारी- एक सामरिक साझेदारी, आवश्यक और महत्वपूर्ण है.” उन्होंने कहा कि उन्हें “गर्व” है कि उन्होंने सीनेटर के रूप में अमेरिकी कांग्रेस के माध्यम से भारत-अमेरिका गैर-सैन्य परमाणु समझौता कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. इस समझौते ने सच में द्विपक्षीय संबंध को बुनियादी रूप से बदल दिया था.

बाइडेन के बयानों को नई दिल्ली में सोच को कुछ हद तक शांत करना चाहिए. डेमोक्रेट्स, विशेषकर सदन के “प्रगतिशीलों” को लेकर भाजपा और अमेरिका में उसके दूरस्थ समर्थकों के मन में थोड़ी चिंता है, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मानवाधिकारों के रिकॉर्ड की आलोचना की है, वह भी अक्सर कश्मीर के ज़मीनी हालात को समझे बिना. इसके साथ ही मोदी के राजनीतिक प्रबंधकों द्वारा उनसे ट्रंप का खुला समर्थन कराए जाने ने कई डेमोक्रेट्स में चिढ़ पैदा कर दी, जिससे एक ग़ैरजरूरी अवधारणा बन जाने की समस्या पैदा हो गई.

भाजपा की कुछ चिंताएं सही हो सकती हैं क्योंकि भारत के खिलाफ प्रगतिशीलों की नाराज़गी चुनिंदा है लेकिन भाजपा के गुस्से की सिर्फ एक वजह है: “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?”- असुरक्षा की भावना. डेमोक्रेटिक पार्टी अपने मूल सिद्धांतों- मानवाधिकारों के सम्मान की वकालत- में से एक को बदलने वाली नहीं है, हालांकि चुनिंदा रूप से वह ऐसा कर सकती है.

मोदी समर्थक दो भारतीय-अमेरिकी सांसदों प्रमिला जयपाल और रो खन्ना से ख़ासतौर से चिढ़े हुए हैं, जो पिछले अगस्त में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद मोदी की नीतियों के खिलाफ मुखर रहे थे.

वास्तव में, डेमोक्रेटिक पार्टी का वामपंथी धड़ा पूरी कोशिश कर रहा है और एक हद तक पार्टी को सामाजिक मुद्दों पर बिल क्लिंटन के मध्यमार्ग से परे ले जाने में कामयाब रहा है. कहा जा रहा है कि यह जानना ज़रूरी है कि बाइडेन और कुछ दूसरे प्रमुख डेमोक्रेट मोदी, उनकी घरेलू नीतियों और भारत के बदलते स्वरूप को कैसे देखते हैं. और क्या बाइडेन के चुने जाने पर मोदी के लिए कम गर्मजोशी वाली भावनाएं नीति-निर्माण पर असर डालेंगी?

मोदी समर्थक दो भारतीय-अमेरिकी सांसदों प्रमिला जयपाल और रो खन्ना से ख़ासतौर से चिढ़े हुए हैं, जो पिछले अगस्त में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद मोदी की नीतियों के खिलाफ मुखर रहे थे. हालांकि अनुच्छेद 370 निरस्त करने पर कोई सवाल नहीं उठाया गया था, लेकिन नागरिक अधिकारों में कटौती, राजनीतिज्ञों की कैद और संचार पर लंबी पाबंदी को लेकर सवाल उठाया गया था. नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का पारित होना आलोचनाओं के ढेर में एक और बढ़ोत्तरी कर गया.

जयपाल, खन्ना और कुछ अन्य लोगों ने पिछले साल भारत में “पूर्ण मानवाधिकार” के मुद्दे को लेकर इस हद तक गए कि अक्सर ऐसा लगता था मानो पैसा लेने वाले लॉबीइस्ट हों या  साफ पहचान में आ रहे एजेंडे के तहत काम करने वाले समूहों की भाषा बोल रहे हैं. जयपाल ने तो पिछले दिसंबर में कश्मीर पर एक प्रस्ताव भी पेश किया, जिसमें भारत सरकार के रवैये की आलोचना की गई थी. लेकिन यह बात भी याद रखने लायक है कि मोदी के कश्मीर पर  कदमों को रिपब्लिकन पार्टी का भी स्पष्ट समर्थन नहीं मिला.

बहुत से भारतीयों के लिए अखरने वाली बात यह है कि जब कश्मीर में आतंकवादी नागरिकों को मारते हैं तो न तो जयपाल और न ही खन्ना बोलते हैं. अनंतनाग जिले में आतंकवादियों द्वारा एक सीआरपीएफ जवान के साथ मारे गए चार साल के बच्चे का हालिया मामला ऐसा सबसे नया मामला है. जब पाकिस्तान में हिंदुओं पर हमला किया जाता है या जबरन धर्म परिवर्तन कराया जाता है, तो प्रगतिशील सांसद ध्यान नहीं देते हैं. भारत के प्रति और उसके भीतर के घटनाक्रम पर उनकी गहरी समझ चुनिंदा तौर पर सक्रिय होती है. न ही ये दोनों तब बोले जब चीनी सैनिकों ने 20 भारतीय सैनिकों के साथ बर्बरता की और उनको मार डाला. यह ध्यान देने वाली बात है क्योंकि जयपाल बार-बार अपनी भारतीय जड़ों का जि़क्र करती हैं- वह 35 साल की उम्र तक भारतीय नागरिक थीं- और किस तरह भारत में बड़ी हुईं, उनका जीवन बताता है. उनके मां-बाप अभी भी भारत में रहते हैं.

भारत के दृष्टिकोण के बारे में जयपाल और खन्ना को जानकारी देने के लिए किए गए राजनयिक प्रयास आमतौर पर बुनियादी तथ्यों के बारे में उनकी उदासीनता या अज्ञानता पर खत्म हो गए. एक अच्छा उदाहरण कश्मीर में “जनमत संग्रह” के लिए पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाना है, यह ऐसी बात है, जिसे सरसरी तौर पर इतिहास पढ़ने वाला भी समझ जाएगा कि यह क्यों नहीं किया गया था. लेकिन उनके कार्यालयों में सूचना का प्रवाह मुख्य रूप से पाकिस्तान की तरफ़दारी करने संगठनों और खालिस्तानी संगठनों से आता है. दिलचस्प बात यह है कि सदन में अन्य दो भारतीय अमेरिकियों- राजा कृष्णमूर्ति और अमि बेरा ने भारत में ताज़ा घटनाओं से वाकिफ़ रहने की कोशिश की और भारत-चीन सीमा का मुद्दा उठाया.

अगर उनकी वेबसाइट में मुसलमानों पर पोजी़शन पेपर की मानें तो, बाइडेन भी सीएए और मोदी की कश्मीर नीतियों के लिए आलोचक रहे हैं. यह उस पहेली का एक और टुकड़ा है, जिसने प्रवासी एक्टिविस्ट्स को उकसाया है, जो हिंदू अमेरिकियों पर भी ऐसा ही एक नीति-पत्र लाने की मांग कर रहे हैं.

इंटेलिजेंस पर हाउस की सलेक्ट कमेटी के सदस्य बनने वाले पहले भारतीय अमेरिकी सांसद  कृष्णमूर्ति ने पिछले हफ्ते एक सुनवाई में कहा,“भारत हमारे सबसे क़रीबी दोस्तों में से एक है, और यह ज़रूरी है कि हम चीनी सरकार के सीमा पर हमले को देखते हुए भारत के साथ खड़े हों. इस हमले पर निश्चित रूप से अमेरिका और क्षेत्र में हमारे सहयोगियों का भारत को स्पष्ट समर्थन होना चाहिए.” प्रगतिशीलों के अलावा कुछ मुख्यधारा के डेमोक्रेट्स ने भी ऐसे कदम उठाए हैं, जो दिल्ली में चिंता पैदा करते हैं. सीनेट की विदेश संबंध समिति के रैंकिंग सदस्य सीनेटर बॉब मेनेंडेज़ ने 7 मई को कोविड-19 राहत पर एक विधेयक में चीन और तुर्की के साथ भारत को भी शामिल करने की मांग की, जिसमें कहा गया था कि इन देशों की सरकारों ने “सार्वजनिक स्वास्थ्य के स्पष्ट प्राधिकार के बिना ऐसे कदम उठाए जो इनके नागरिकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करते थे.”

भारत को चीन के साथ रखना करना चिढ़ पैदा करने वाला और ग़लत सलाह पर उठाया कदम था, भले ही 148 पन्ने के विधेयक में इस पर एक ही पंक्ति थी. विधेयक का कुछ नहीं हुआ लेकिन मेनेंडेज़ का रुख ध्यान देने लायक है. अगर डेमोक्रेट नवंबर में सीनेट में जीतते हैं, तो वह समिति के चेयरमैन हो सकते हैं.

अगर उनकी वेबसाइट में मुसलमानों पर पोजी़शन पेपर की मानें तो, बाइडेन भी सीएए और मोदी की कश्मीर नीतियों के लिए आलोचक रहे हैं. यह उस पहेली का एक और टुकड़ा है, जिसने प्रवासी एक्टिविस्ट्स को उकसाया है, जो हिंदू अमेरिकियों पर भी ऐसा ही एक नीति-पत्र लाने की मांग कर रहे हैं.

मुमकिन है कि “जो बाइडेन’स एजेंडा फॉर मुस्लिम-अमेरिकन कम्युनिटीज़” शीर्षक वाला पोज़ीशन पेपर उम्मीदवारों को ट्रंप की मुस्लिम विरोधी बयानबाज़ी से अलग दिखाने के लिए वोट खींचने की क़वायद हो. इस पेपर पर छह लाइनों में अन्य बिंदुओं के साथ ही “असहमति पर पाबंदियां” और “इंटरनेट को बंद या धीमा करने” पर असंतोष जताया गया है- जिसकी खुद कई भारतीयों ने भी आलोचना की है.

भारत के आंतरिक मामलों पर टिप्पणी करने वाले अमेरिकी राजनेताओं के बारे में कोई भी सवाल उठा सकता है, लेकिन भारतीय अमेरिका में नस्ल के संबंधों पर कुछ भी बोलने के लिए आज़ाद हैं. राजनीतिक बयानबाज़ी का बहुत मतलब नहीं हैं, देखना होगा कि वह मुद्दों पर क्या कदम उठाते हैं. अंत में, आशंका है कि डेमोक्रेटिक प्रशासन भारत के लिए रिपब्लिकन जितना अनुकूल नहीं होगा, ख़ासकर मोदी को लेकर भावनाओं को देखते हुए, कुछ हद तक अतिरंजित हैं. सभी सरकारें अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के परिप्रेक्ष्य से और भारत के महत्व पर- मोदी के साथ या मोदी के बिना- ज़्यादा ज़ोर देंगी.

ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि क्या बाइडेन महत्व पाने के लिए संघर्ष कर रहे विभिन्न समूहों का समर्थन पा सकेंगे और ज़ाहिर तौर पर अपनी आत्मा को समझने की कोशिश कर रही पार्टी को एकजुट करने में मदद कर पाएंगे. उन्होंने बर्नी सैंडर्स और एलिजाबेथ वॉरेन कैंप में बड़ी संख्या में समर्थकों को अपनी ओर खींचा है. ज्यादातर डेमोक्रेट के लिए ट्रंप को हराना पार्टियों की लड़ाई से बड़ा लक्ष्य है. ओबामा प्रशासन के एक पूर्व अधिकारी ने मुझे बताया कि बाइडेन मुश्किल स्थितियों से निपटने के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं. अधिकांश लड़ाइयां घरेलू नीति पर होंगी और बाइडेन ने प्रगतिशीलतावादियों के लिए कुछ लक्ष्मण रेखाएं खींची हैं. वह भारत विरोधी बयानबाज़ी को भी खामोश करने में भी उतने ही सक्षम हैं.

डेमोक्रेटिक पार्टी के अंदरूनी लोग अपने “बेकाबू” लोगों को रिपब्लिकन की तुलना में बेहतर तरीके से काबू करने के प्रति आश्वस्त हैं, जिन्होंने टी पार्टी एक्सटर्मिज़्म (टैक्स की दरें कम रखने व कुछ अन्य मुद्दों को लेकर रिपब्लिकन पार्टी के अंदर चला आंदोलन) के आगे घुटने टेक दिए और चुनाव जीतने के लिए ट्रंप की विभाजनकारी नीतियों को स्वीकार कर लिया. एक डेमोक्रेट ने मुझसे कहा कि “एक सिरफिरा वामपंथी उतना अतिवादी नहीं हो सकता जितना सिरफिरा दक्षिणपंथी.” इससे भी महत्वपूर्ण बात, बाइडेन पुरानी सोच के परंपरावादी और मध्यममार्गी हैं.

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