Published on Oct 30, 2020 Updated 0 Hours ago

‘अब्राहम एकॉर्ड’ ने जिस तरह, मध्य पूर्व को लेकर अमेरिका की राजनीति व रणनीति के केंद्र में ईरान को स्थापित किया है, उससे ईरान के ख़िलाफ "अधिकतम दबाव" की ट्रंप प्रशासन की विरासत, जो बाइडेन के राष्ट्रपति काल में भी जारी रह सकती है.

मध्यपूर्व में ईरान संबंधित ‘जो बाइडेन’ की रणनीति ट्रंप के विरासत को आगे ले जाने की!

जनवरी 2017 में सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मध्य पूर्व संबंधी विदेश नीति के केंद्र में ईरान रहा है. साल 2016 में अपने चुनावी अभियान के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने लगातार, संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजना (JCPOA) जिसे “ईरान परमाणु समझौता” या “ईरान समझौते” के रूप में भी जाना जाता है, को रद्द करने की बात कही और अंततः मई 2018 में अमेरिका ने ख़ुद को इस समझौते से अलग कर लिया. डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद ईरान के प्रति अमेरिकी रुख में आए इस आमूल-चूल बदलाव ने ईरान पर लगे प्रतिबंधों को दोबारा लागू किया और उसे आर्थिक अलगाव की ओर धकेलते हुए, ईरान पर सैन्य दबाव बनाने की कार्रवाई की. इसके चलते तेहरान के साथ अमेरिका के गतिरोध को समाप्त करने के ओबामा प्रशासन के आठ साल लंबे प्रयास बेअसर हो गए और ईरान व अमेरिका के बीच सामंजस्य संबंधी सोच में भारी बदलाव हुआ.

साल 2013 और 2015 के बीच हुई, ईरान परमाणु समझौते की वार्ता ने मध्य पूर्व को बहुत हद तक विभाजित किया, जिसमें सुन्नी ब्लॉक यानी सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) व अन्य, ने लगातार इस बात पर चिंता ज़ाहिर की कि शिया ताक़त के रूप में ईरान को मुख्यधारा में लाकर, आर्थिक रूप से मज़बूत बनाया जा रहा है, बिना उसके विस्तारवादी एजेंडे पर कोई शिकंजा कसे या फिर उसे नियंत्रित किए हुए. इन देशों के मुताबिक, ईरान का विस्तारवादी एजेंडा, इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के नेतृत्व में, लेबनान में हिज़बुल्लाह और सीरिया, यमन और अन्य संघर्षशील इलाकों में उनके चुने हुए लोगों द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है. ईरान के ख़िलाफ़ दुश्मनी इस स्तर तक बढ़ गई थी, कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने तेज़ी से लेकिन गुपचुप तरीके से इज़राइल के साथ नज़दीकी बढ़ानी शुरु की, क्योंकि दोनों ही पक्ष एक रूप में, ईरान को अपने दुश्मन के तौर पर देखते थे. इस क्षेत्र में अमेरिका द्वारा दी जा रही सुरक्षा की गारंटी ने इन सवालों को और ज्वलंत बनाया है, क्योंकि वाशिंगटन अब इस इलाक़े में कम से कम सैन्य शक्ति लगाना चाहता था.

भले ही ट्रंप के शासनकाल में ईरान के साथ अमेरिका के सीधे सैन्य संघर्ष की परिकल्पना की जा रही थी, लेकिन इस क्षेत्र में मौजूद खाड़ी देशों ने ईरान के साथ, सीरिया, यमन और अन्य देशों में छद्म युद्ध लड़ने के बावजूद, अमेरिका और ईरान के बीच पूर्ण पैमाने पर युद्ध को टालने की पूरी कोशिश की.

सुन्नी ताक़तों की ओर ट्रंप का रुख

जनवरी 2020 में बग़दाद में अमेरिकी ड्रोन हमले में, ईरानी जनरल क़ासिम सोलेमानी की हत्या ने, अमेरिका-ईरान संबंधों को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया जहां से वापसी संभव नहीं थी. आईआरसीजीसी के प्रमुख के रूप में सोलेमानी, सीरिया के गृहयुद्ध में शियाओं के सत्ता विस्तार में सहायक थे, और शिया लड़ाकों को इज़राइल की सीमाओं तक लाने में उनका बड़ा हाथ था. इसने यरुशलम को दमिश्क और उसके आसपास के गोलान हाइट्स क्षेत्र में प्रत्यक्ष हमले शुरू करने के लिए प्रेरित किया. नतीजतन, ट्रंप प्रशासन, जिसने शुरू में सीरिया से सैनिकों को वापस लाने का फैसला किया था, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के दबाव के चलते, कुछ ही महीनों के भीतर सैनिकों को फिर से तैनात करने के लिए मजबूर हुआ. ट्रंप प्रशासन को यह क़दम उठाना पड़ा, बावजूद इसके कि नेटो में अमेरिका का सहयोगी देश तुर्की, स्थानीय इस्लामी मिलिशिया का समर्थन कर रहा था और वैकल्पिक बफ़र बनाने के लिए रूस के साथ तालमेल बना रहा था. समय के साथ, इसने खाड़ी देशों के प्रभाव को कम किया, जिन्होंने सीरियाई नेता बशर अल-असद के प्रति अपने दृष्टिकोण की समीक्षा शुरू कर दी थी. संयुक्त अरब अमीरात ने साल 2018 में दमिश्क में अपने दूतावास को फिर से खोल दिया था, जो खाड़ी के ताक़तवर देशों के दृष्टिकोण में बदलाव का संकेत था और सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात द्वारा कतर में की गई नाकेबंदी को लेकर, खाड़ी देशों के बीच आपसी समझ की ओर इशारा करता था.

जून 2019 में आई रिपोर्टों के मुताबिक ट्रंप ने ईरान में सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलों द्वारा अमेरिकी सैन्य ड्रोन गिराए जाने की रज़ामंदी दी. हालांकि, ईरान के ख़िलाफ़ अधिकृत इस ऑपरेशन को अचानक बीच में ही वापस ले लिया. भले ही ट्रंप के शासनकाल में ईरान के साथ अमेरिका के सीधे सैन्य संघर्ष की परिकल्पना की जा रही थी, लेकिन इस क्षेत्र में मौजूद खाड़ी देशों ने ईरान के साथ, सीरिया, यमन और अन्य देशों में छद्म युद्ध लड़ने के बावजूद, अमेरिका और ईरान के बीच पूर्ण पैमाने पर युद्ध को टालने की पूरी कोशिश की. इसके बजाय, वे चाहते थे कि अमेरिका अपनी सैन्य ताक़त का रणनीतिक रूप से इस्तेमाल कर ईरानी प्रशासन के ख़िलाफ़, इस तरह का दबाव बनाए जिसमें सामरिक शक्ति के उपयोग के बजाय रणनीतिक दबाव बनाना, ईरान के ख़िलाफ़ खुफ़िया तंत्र को मज़बूत करना और ईरान को फायदा पहुंचाने वाली कार्रवाई को कठोरता से रद्द करना शामिल था.

डोनाल्ड ट्रंप के हारने के बाद, अमेरिकी विदेश नीति को “बचाने” की अपनी प्रतिज्ञा के तहत, डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और पूर्व उप राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ईरान परमाणु समझौते को “फिर से” लागू करने की प्रतिबद्धता दिखाई है.

इसके अलावा, ट्रंप के राष्ट्रपति काल के दौरान, सुन्नी बहुलता वाले अरब देशों की व्यवस्था भी आंतरिक रूप से अस्त-व्यस्त रही है, और इस सब के बीच इन देशों को ट्रंप प्रशासन का समर्थन व सहयोग बेहद महत्वपूर्ण रहा. इसमें, सऊदी अरब के राजा के रूप में मोहम्मद बिन सलमान का गद्दी पर बैठना, जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के मामले में उनकी भूमिका और यमन व लीबिया के ख़िलाफ़, अबू धाबी व रियाद पर वाशिंगटन द्वारा दबाव बनाए जाने के अलावा, जीसीसी के भीतर कतर के साथ पैदा हुआ संकट और मानवाधिकार से जुड़े मुद्दे शामिल हैं- जिनके केंद्र में भी ईरान से होने वाला ख़तरा ही है.

ट्रंप प्रशासन वाले अमेरिकी राज में खाड़ी देशों को मिले अमेरिका के इस सहयोग के चलते ही खाड़ी देश अमेरिका में ट्रंप की वापसी चाहते हैं. यह बात विशेष रूप से स्पष्ट हुई जब संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल के बीच हालात को सामान्य बनाने वाले ‘अब्राहम एकॉर्ड’ पर हस्ताक्षर हुए. व्हाइट हाउस में हुए इस समझौते में, खाड़ी क्षेत्र के दो देश बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात के अलावा, इज़राइल शामिल था. यह समझौता इज़राइल और अरब देशों के बीच पिछले 26 सालों में हुआ पहला शांति समझौता है. इसने अमेरिका की विदेश नीति और घरेलू राजनीति, दोनों ही स्तरों पर ट्रंप प्रशासन को वाहवाही दिलवाई.

हालांकि सच यह है कि ट्रंप भले ही नवंबर में होने वाले चुनाव हार जाएं, फिर भी अमेरिका की विदेश नीति उनके बाद आने वाले जो बाइडेन को विरासत में मिलेगी.

अब्राहम एकॉर्ड को लेकर बाइडेन की सीमाएं

डोनाल्ड ट्रंप के हारने के बाद, अमेरिकी विदेश नीति को “बचाने” की अपनी प्रतिज्ञा के तहत, डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और पूर्व उप राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ईरान परमाणु समझौते को “फिर से” लागू करने की प्रतिबद्धता दिखाई है. ओबामा और जो बाइडेन के दिनों के इस ऐतिहासिक समझौते को बहाल करने के अलावा, बाइडेन ऐसा इसलिए भी करना चाहते हैं क्योंकि अमेरिका द्वारा ईरान परमाणु समझौते से हटने का, वाशिंगटन के ट्रांसअटलांटिक संबंधों पर विपरीत असर पड़ा है. हालांकि, ईरान के संदर्भ में देखें तो ट्रंप के प्रशासन वाले सालों में ईरान ने ख़ुद को धीरे-धीरे इस समझौते की प्रतिबद्धता से दूर कर लिया. मुख्य रूप से इस परिप्रेक्ष्य में कि इस समझौते के अंतर्गत किसी भी देश को यूरेनियम के जितने संसाधन रखने की इजाज़त है, ईरान के पास अब उसके मुक़ाबले, यूरेनियम के 10 गुना से भी अधिक संसाधन हैं. ऐसे में जो बाइडेन के लिए भी ईरान के प्रति अमेरिकी रुख को तेज़ी से बदलना बेहद मुश्किल होगा.

इसके अलावा, बाइडेन की इस योजना को लेकर कि वो “तेहरान को कूटनीति वापसी के लिए एक विश्वसनीय मौका प्रदान करेंगे” और इसे “बातचीत के लिए शुरुआती बिंदु के रूप में देखेंगे”, ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने कहा है कि ईरान अब “शर्तों पर फिर से बात नहीं करेगा.” इसलिए, पहले किए जा चुके समझौतों के बिंदुओं को कम से कम समय में दोबारा लागू करने के लिए बाइडेन प्रशासन, डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ईरान पर “अधिकतम दबाव” बनाए जाने की नीति को जारी रख सकता है, ताकि इस समझौते के मद्देनज़र ईरान को कम से कम उस स्थिति में वापस लाया जा सके, जहां वो डोनाल्ड ट्रंप के शासन में आने से पहले था.

ईरान के विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने कहा है कि ईरान अब “शर्तों पर फिर से बात नहीं करेगा.” इसलिए, पहले किए जा चुके समझौतों के बिंदुओं को कम से कम समय में दोबारा लागू करने के लिए बाइडेन प्रशासन, डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ईरान पर “अधिकतम दबाव” बनाए जाने की नीति को जारी रख सकता है

इस बाबत, बाइडेन को घरेलू विरोध का सामना भी करना पड़ सकता है, खासकर अगर अमेरिकी सीनेट पर डेमोक्रेट पार्टी का नियंत्रण नहीं होता है. ऐसी स्थिति में, रिपब्लिकन पार्टी की अगुवाई वाली सीनेट, एक बार फिर इस सौदे में अमेरिकी भागीदारी की विरोधी बनकर उभर सकती है, क्योंकि इस सीनेट ने बराक ओबामा के कार्यकाल में साल 2015 में भी परमाणु समझौते को मंज़ूरी देने के लिए सहमति नहीं जताई थी. उस समय, विदेश नीति के मामलों में कूटनीतिक प्रोटोकॉल और संवैधानिक दायरे के स्पष्ट उल्लंघन के रूप में रिपब्लिकन सीनेट ने अयातुल्ला अली खामनेई को एक खुला पत्र भी लिखा था. इस पत्र ने ईरान के सर्वोच्च नेता को चेतावनी दी थी कि ओबामा के उत्तराधिकारी के पास यह संवैधानिक प्रावधान होगा कि वो “इस तरह के कार्यकारी समझौते को रद्द कर सके” जिसे “अमेरिकी कांग्रेस द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया है”. इस पत्र में कहा गया था कि यह फैसला बड़ी आसानी से, “कलम की एक लिखाई” के साथ किया जा सकता है, जैसा कि चुनावी जीत दर्ज करने और सत्ता में आने के बाद जैसा की ट्रंप ने किया भी.

इसके अलावा, ईरान के मुद्दे पर इज़राइल और अरब देशों के साथ आने के बाद, ईरान परमाणु समझौते का विरोध करने वाले, इज़राइल और अरब देशों को, इस समझौते के मुद्दे पर एक बार फिर शांत करना, बाइडेन प्रशासन के लिए बेहद मुश्किल होगा, क्योंकि ओबामा प्रशासन ने यह काम पी5+1 की वार्ता में उनकी सीधी भागीदारी को दरकिनार कर किया था. ख़ासतौर पर इज़राइल को लेकर जो बाइडेन ने आने वाली मुश्किलों को भांप लिया है, और यही वजह है कि उन्होंने अपने चुनावी अभियान में, इज़राइल को एक मुख्य सहयोगी के रूप में लगातार मदद देने और सुरक्षित रखने की ओर प्रतिबद्धता दिखाई है. इसके ज़रिए जो बाइडेन ने, ओबामा और बाइडेन प्रशासन द्वारा साल 2016 में दिए अब तक के सबसे बड़े सहायता पैकेज (10 वर्षों में 35 बिलियन अमेरिकी डॉलर) को एक बार फिर रेखांकित किया है.

हालांकि, ‘अब्राहम एकॉर्ड’ के बाद यह क्षेत्र जिस तरह इज़राइल-फ़लस्तीन संघर्ष के बजाय, ईरान के चारों ओर केंद्रित हो रहा है, इस बात की संभावना है कि यह दोनों मुद्दे जुड़ जाएंगे और इन्हें लेकर कोई संकट पैदा होगा. उदाहरण के लिए, जो बाइडेन ने इस बात को लेकर प्रतिबद्धता जताई है कि, इज़राइल इस तरह की कोई कार्रवाई नहीं करेगा जिससे दोनों पक्षों के बीच “टू स्टेट सल्यूशन, असंभव हो जाए”, जैसे कि वेस्ट बैंक पर कब्ज़ा या आक्रमण, जिनका इस्तेमाल, ईरान को लेकर अमेरिकी दृष्टिकोण को और मज़बूत करने के लिए किया जा सके. उदाहरण के लिए इस समझौते का विस्तार करने को लेकर, इज़राइल द्वारा जो बाइडेन पर बनाया जा रहा दबाव, इज़राइल को एक बार फिर से वेस्ट बैंक पर कब्ज़ा करने की ओर अग्रसित कर सकता है. इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा किए गए इस समझौते के केंद्र में भले ही, वेस्ट बैंक पर कब्ज़े पर “अस्थायी” रोक लगाना हो, लेकिन विदेश नीति के संदर्भ में, इस तरह के नए शांति समझौतों का, जो बाइडेन की गणनाओं पर पूरा असर पड़ेग

‘अब्राहम एकॉर्ड’ के बाद यह क्षेत्र जिस तरह इज़राइल-फ़लस्तीन संघर्ष के बजाय, ईरान के चारों ओर केंद्रित हो रहा है, इस बात की संभावना है कि यह दोनों मुद्दे जुड़ जाएंगे और इन्हें लेकर कोई संकट पैदा होगा. 

इसके अलावा, अरब देशों के लिए दी जा रही अतिरिक्त सुरक्षा गारंटी भी, अड़चनें पैदा कर सकती है. विशेष रूप से तब, जब संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच संबंधों को सामान्य बनाने के पीछे, मुख्य मकसद है, उन उन्नत अमेरिकी हथियारों को प्राप्त करना, जो वाशिंगटन की ओर से केवल उन मध्य पूर्वी देशों को बेचे जा सकते हैं, जिनके इज़राइल के साथ शांतिपूर्ण संबंध हों. इसके अलावा, अगर अन्य अरब देश भी इज़राइल के साथ अपने संबंधों को सामान्य बनाने की पहल करते हैं और इस लीग में शामिल होते हैं, तो अरब क्षेत्र में सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं को संबोधित करने का दबाव कई गुना बढ़ जाएगा- और इस विस्तार के ज़रिए, इस नए समझौते पर उनका प्रभाव या हस्तक्षेप भी बढ़ेगा. इसलिए, फ़लस्तीन के मुद्दे से बहुत हद तक अपना पीछा छुड़ाते हुए, इज़राइल के साथ अरब देशों की साझेदारी, इस रणनीतिक और राजनीतिक वास्तविकता को रेखांकित करती है कि, सुरक्षा को लेकर उनके समान हितों और अमेरिका द्वारा ईरान विरोधी रुख को बनाए रखने का रास्ता, यरूशलम से हो कर जाता है.

भारत के लिए, जो बाइडेन की सरकार निश्चित रूप से सहयोग और मदद का भाव रखेगी फिर चाहे वह चाबहार बंदरगाह जैसे रणनीतिक हितों की बात हो या फिर भारत की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ईरान को एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में बहाल करने की उसकी प्राथमिकता. हालांकि, इज़राइल और अरब देशों के बीच साझेदारी से जो बाइडेन के हाथ बंधे होने के चलते, नई दिल्ली के लिए यह मुश्किल होगा कि वह ईरान के साथ अपने संबंधों के मुद्दे पर सर्वसम्मति बना पाए.

इसलिए, मध्य पूर्व को लेकर अमेरिका की राजनीति और रणनीति के केंद्र में ईरान के होने के चलते, ट्रंप प्रशासन द्वारा ईरान के ख़िलाफ “अधिकतम दबाव” की विरासत, जो बाइडेन के राष्ट्रपति काल में भी जारी रह सकती है.

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