Published on Mar 13, 2020 Updated 0 Hours ago

अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के लिए मांग में उठान लाना और श्रम-गहन उद्योगों में सरकारी ख़र्चा बढ़ाना होगा. सिर्फ ब्याज दरों में कटौती की मौद्रिक नीति पर ही भरोसा कायम करके नहीं चला जा सकता. सरकार को रोज़गार के सृजन के मामले में सरकार को सक्रिय भूमिका निभानी होगी.

अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारने के लिए श्रम-प्रधान उद्योगों पर सरकारी ख़र्चा बढ़ाना होगा

भले ही सरकार दावा कर रही है कि आर्थिक बढ़वार की बेल में फिर नयी कोंपलें फूटनी शुरु हुई हैं और अर्थव्यवस्था के फिर से पटरी पर आने के संकेत मिलने शुरु हो गये हैं लेकिन अर्थव्यवस्था को गंभीर सुस्ती के दौर से बाहर निकालने में अभी कुछ समय लगेगा. ये बात नवीनतम तीसरी तिमाही में जीडीपी की 4.7 फीसद की निम्नतम वृद्धि से बहुत स्पष्ट है. इस सिलसिले की सबसे पहली और ज़रुरी बात ये कि मांग में उठान लानी होगी. श्रम-प्रधान उद्योगों में सरकारी ख़र्चा बढ़ाना होगा और मांग को प्रोत्साहित करने के लिए ब्याज दरों में कटौती की मौद्रिक नीति पर ही एक अकेले भरोसा कायम करके नहीं चला जा सकता. रोज़गार के सृजन के मामले में सरकार को सक्रिय भूमिका निभानी होगी क्योंकि भारत अभी 7.3 प्रतिशत की ऊंची बेरोज़गारी दर की चुनौती का सामना कर रहा है. कुल 2200 कंपनियों के कारोबार के आंकड़े से पता चलता है कि तीसरी तिमाही में उनकी निवल बिक्री या मुनाफ़े में कोई बढ़त नहीं हुई.

रोज़गार के बढ़ने से कामगारों जैसे निर्माण कार्य में लगे दिहाड़ी मजदूरों के हाथ में पैसा आयेगा और उनकी खर्चे में चाहे थोड़ी ही सही लेकिन बढ़ोत्तरी होगी. निर्माण-उद्योग को अधिक लागत जैसी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है और इस कारण निर्माण-उद्योग की रफ्तार मंद पड़ी है. सरकार ने बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के लिए एक बड़ी रकम के भुगतान का वादा किया है और अगर ये रकम समय पर मिल जाती है तो फिर रोज़गार का सृजन किया जा सकेगा. कैम्ब्रिज के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे.एम. कीन्स के अनुसार आर्थिक सुस्ती के ऐसे समय में लोगों को बेरोज़गार रखने से कहीं बेहतर है कि उन्हें गढ्ढा खोदने और उसे भरने के काम पर लगा दिया जाये.

अगला मोर्चा निर्यात का है जिसमें तेजी आने पर उपभोक्ता-मांग में बढ़वार हो सकती है. लेकिन इस मोर्चे पर देखने में यही आया है कि हमारे निर्यात एक लंबी अवधि से ठहराव और घटती का शिकार रहे हैं. निर्यात के मोर्चे पर निश्चित रूप से अधिक ध्यान देने की जरुरत है और ऐसा प्रतिस्पर्धा की शक्ति में सुधार लाकर किया जा सकता है. निर्यात के मोर्चे पर हमारे पड़ोसी देश हमसे कहीं ज्यादा बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, खासकर कुछ क्षेत्रों जैसे वस्त्रों के निर्यात के मामले में. निर्यात के मामले में सुस्ती का मूल कारण है बुनियादी ढांचे से जुड़ी मुश्किलों का बना होना. सरकार इस सिलसिले की कुछ गहरी समस्याओं को सुलझाने के कदम उठा रही है, जैसे बेहतर बंदरगाहों का निर्माण, माल को भेजने में लगने वाले समय को कम करना और नियमित बिजली आपूर्ति को बढ़ाना. कामगारों की उत्पादकता को बढ़ाने के लिहाज से उन्हें कौशल का प्रशिक्षण देना भी महत्वपूर्ण है. इससे अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में हमारा माल कहीं ज्यादा किफायती साबित होगा.

कॉरपोरेट जगत धन की ढेरी पर बैठा है लेकिन निवेश करने के लिए कदम आगे नहीं बढ़ा रहा है. मांग में सुस्ती के कारण उनके पास पहले से ही बड़ी संख्या में चीजें बिक्री के लिए पड़ी हुई हैं. कारपोरेट जगत की क्षमता की उपयोग-शक्ति में बढोत्तरी नहीं हुई है इसलिए वो नया निवेश करने से बच रहा है

मांग को बढ़ाने का मुख्य सूत्र है निजी उपभोग-व्यय का बढ़ना. निजी उपभोग-व्यय का हमारी जीडीपी में 58 फीसद का योगदान है. इस किस्म की मांग को हमेशा बढ़ाये रखना होता है. साल 2010 से 2019 के बीच निजी उपभोग-व्यय में गिरावट आयी है. दूसरी तरफ ये भी देखने में आया कि कारपोरेट जगत को करों में छूट दी गई लेकिन ये छूट कारपोरेटी कारोबार की बढ़वार में वैसी छलांग नहीं ला पायी जैसा कि शिकार को दबोचने के लिए झपटते किसी शिकारी पशु से उम्मीद की जाती है. यों भी देखें तो साफ जान पड़ेगा कि कॉरपोरेट जगत धन की ढेरी पर बैठा है लेकिन निवेश करने के लिए कदम आगे नहीं बढ़ा रहा है. मांग में सुस्ती के कारण उनके पास पहले से ही बड़ी संख्या में चीजें बिक्री के लिए पड़ी हुई हैं. कारपोरेट जगत की क्षमता की उपयोग-शक्ति में बढोत्तरी नहीं हुई है इसलिए वो नया निवेश करने से बच रहा है. सो, कॉरपोरेट जगत मांग को बढ़ाने वाली प्रेरक शक्ति की तौर पर काम नहीं करने जा रहा. निवेश तथा सकल स्थायी पूंजी-निर्माण(ग्रॉस कैपिटल फॉरमेशन) मांग को बढ़ाने के अन्य कारक हैं लेकिन इनमें गिरावट आयी है.

निजी उपभोग-व्यय के मोर्चे पर देखें तो इसमें धनी तथा उच्च मध्यवर्ग के लोगों पर नज़र जाती है लेकिन ये तबका भी जी खोलकर खर्च नहीं करने जा रहा. बीते कुछ सालों में आमदनी के मामले में असमानता बढ़ी है और इसका फायदा शीर्ष की 10 फीसद आबादी को हुआ है. जहां तक स्थानीय माल की खपत का सवाल है, इस तबके में ऐसी चीजों की मांग से भरे पूरे और ये तबका विदेश निर्मित लकदक (शानदार) किस्म की चीजों के उपभोग पर नज़र गड़ाये हुए है. इस वर्ग के अनेक परिवारों के पास पांच से ज्यादा कार है. सो, कीमत में भारी छूट देने के बावजूद ऐसे परिवारों को नयी कार की खरीद के लिए तैयार कर पाना आसान नहीं जैसा कि पिछले त्योहारी सीजन में देखने में भी आया. सो धनी और उच्च मध्यवर्ग के लोगों से घरेलू मांग में बढ़ोत्तरी नहीं होने वाली. इस तबके के उपभोग के तरीके को देखें तो नज़र आयेगा कि ये लोग विदेश में छुट्टियां बिताने, विदेश निर्मित फैन्सी चीजों की खरीद तथा ऊंची जीवनशैली से जुड़ी चीजों और सेवाओं की खरीद पर ज्यादा खर्च करते हैं. ऐसी खरीद में भारतीय चीजें बड़ी थोड़ी ही होती हैं.

देश के कार्यबल में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या 89 प्रतिशत है और कार्यबल का ये हिस्सा बेशक अधिक खर्च करना चाहेगा लेकिन उसके हाथ में इस समय पर्याप्त रकम नहीं है. नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी का कहना है कि अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों के हाथ में पैसा आये तो वे निश्चित ही अभी की तुलना में ज्यादा खर्च करेंगे. अभिजीत बनर्जी कांग्रेस पार्टी की न्याय योजना के प्रवर्तक हैं. इस योजना के अन्तर्गत कांग्रेस पार्टी ने देश के सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों को प्रतिमाह 6000 रुपये देने का वादा किया था. लेकिन कांग्रेस पार्टी लोकसभा के चुनावों में हार गई और ये योजना परवान चढ़ने से पहले ही धराशायी हो गई. कहा जा सकता है कि ये योजना अगर अमल में आती तो समय के इस मोड़ पर कम आमदनी वाले लोगों के हाथ में कुछ अतिरिक्त रकम पहुंचाने में मदद मिलती.

यदि अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों को बेहतर सामाजिक सुरक्षा-कवच, जैसे स्वास्थ्य बीमा तथा बच्चों के लिए निशुल्क गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, मिले तो वे भी निश्चित ही अधिक खर्च करेंगे. लेकिन दुर्भाग्य कहिए कि उनपर हर समय नौकरी से निकाले जाने की तलवार लटकती रहती है और ऐसे कामगारों को दुर्घटना बीमा या फिर मातृत्व-लाभ सरीखी सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं. इतनी सारी अनिश्चितताओं का सामना करने के कारण वे मुट्ठी बांधकर खर्च करने में यकीन करते हैं.

सरकार अब स्वीकार करने लगी है कि आर्थिक सुस्ती संरचनागत है और इसे दूर करने के लिए कठोर आर्थिक सुधारों की जरुरत है

गांवों में, ग्रामीण खेत- मज़दूर तथा गैर-खेतिहर कामों में लगे श्रमिकों को मजदूरी की दरों में गिरावट की चुनौती से जूझना पड़ रहा है और वे बिस्कुट से लेकर दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुओं तक तुरंत उपभोग की तमाम चीजों (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुडस्) पर अपने खर्च में कटौती करने में लगे हैं. किसान भले ही बम्पर फसल काट रहे हों लेकिन वे अब भी बेहाल हैं क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य के ऊंचे होने के बावजूद उनकी आमदनी गिरावट पर है. ऊंचे समर्थन मूल्य के बावजूद किसानों को फायदा नहीं हो पा रहा क्योंकि फसल की सरकारी खरीद में मुश्किलें हैं. ये उम्मीद नहीं पाली जा सकती कि किसान अपना ख़र्चा आसानी से बढ़ा पायेंगे. दरअसल, एनएसओ के एक आधिकारिक सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण-क्षेत्रों में मांग में गिरावट आयी है. खाद्य मुद्रास्फ़ीति के बढ़ने से यह आशा जगी है कि किसानों की आमदनी में बढोत्तरी होगी.

इस तरह देखें तो एकमात्र विकल्प यही बचा है कि सरकारी ख़र्चा बढ़ाया जाय जो मुद्रास्फ़ीति के बढ़ने की आशंका से ज्यादा मात्रा में होने की संभावना नहीं है. जनवरी 2020 में खुदरा महंगाई दर 7.59 प्रतिशत पर पहुंच गई. एक बात ये भी है कि इस दौरान सरकार जारी आर्थिक सुस्ती को नकारने में लगी रही और इसे प्रत्यावर्ती आर्थिक-घटना चक्र का हिस्सा कहकर पल्ला झाड़ लिया. लेकिन सरकार अब स्वीकार करने लगी है कि आर्थिक सुस्ती संरचनागत है और इसे दूर करने के लिए कठोर आर्थिक सुधारों की जरुरत है.

विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष चाहते हैं कि भारत में भूमि-अधिग्रहण की प्रक्रिया को आसान बनाया जाय और श्रम-कानून लचीले हों ताकि कंपनियां आसानी से कामगारों को नौकरी पर रख और निकाल सकें. भारत में कारपोरेट सेक्टर में कुल कार्यबल के 9 प्रतिशत हिस्से को रोज़गार हासिल है और कारपोरेट सेक्टर के अधिकतर हिस्से में अनुबंध के आधार पर कामगारों को रखने का चलन अमल में आ चुका है. सो, अब इस सेक्टर में कामगारों को नौकरी पर रखना और निकालना बहुत आसान हो गया है. भूमि-अधिग्रहण के कानूनों को बदलना कहीं ज्यादा कठिन है और एनडीए सरकार को इसका अनुभव हो चुका है. बैकिंग सेक्टर में भी तत्काल सुधार के कदम उठाने की जरुरत है और एनबीएफसी’ज् (नन बैंकिंग फायनान्शियल कंपनियों) को मजबूत बनाने की आवश्यकता है. लेकिन इससे भी ज्यादा ज़रुरी है रोज़गार के सृजन के साथ-साथ उपभोक्ताओं के बीच विश्वास की बहाली करना ताकि वे ज्यादा खर्च करें और अर्थव्यवस्था को सुस्ती से उबारकर पटरी पर लाने में मदद मिले.

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