Published on Jan 18, 2020 Updated 0 Hours ago

अब्दुल्ला यामीन के हाथ हार ही लगती है. और ऊपरी अदालतें भी उन्हें दोषी मानते हुए उन की सज़ा पर मुहर लगाती हैं. और वो एक साल के लिए भी जेल में क़ैद रहते हैं. तो वो 2023 के राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित हो जाएंगे.

मालदीव में गठबंधन के नेतृत्व को लेकर उठापटक तेज़

मालदीव के पीपीएम-पीएनसी गठबंधन के नेता अब्दुल्ला यामीन की क़ैद को एक महीने पूरे हो गए हैं. अब्दुल्ला यामीन पर अपने राष्ट्रपति पद के कार्यकाल के आख़िरी दिनों में मनी लॉन्डरिंग के आरोप हैं. उन की अपील पर मालदीव की अदालत में सुनवाई लंबित है. अब्दुल्ला यामीन के जेल में होने की वजह से उन की अगुवाई वाले गठबंधन के तमाम नेताओं के बीच यामीन की जगह लेने के लिए होड़ मची हुई है. ये नेता चाहते हैं कि अगर अब्दुल्ला यामीन जेल में ही रहते हैं तो वो किसी न किसी तरह से पीपीएम-पीएनसी के गठबंधन का नेतृत्व हथिया लें. इन नेताओं की नेतृत्व की तलब बढ़ने की वजह ये है कि मालदीव की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी एमडीपी के नेता और राष्ट्रपति इब्राहिम अबू सोलिह ने देश भर में होने वाले स्थानीय चुनावों को टालने की घोषणाएं बंद कर दी हैं. और अब उम्मीद की जा रही है कि मालदीव के तमाम द्वीपों में परिषदों के ये चुनाव, उन के तीन साल के कार्यकाल ख़त्म होने पर यानी अप्रैल महीने में होंगे.

पीपीएम-पीएनसी गठबंधन का नया नेता बनने की होड़ में कई नेता हैं. इन में नंबर एक पर हैं, अब्दुल्ला यामीन सरकार में गृह मंत्री रहे उमर नसीर. 2013 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले पीपीएम के अंदरूनी चुनाव में उमर नसीर  ने अब्दुल्ला यामीन को चुनौती दी थी. हालांकि, वो कामयाब नहीं रहे थे. अब्दुल्ला यामीन ने पार्टी का भी चुनाव जीता था और बाद में वो देश के राष्ट्रपति भी बने. पीपीएम-पीएनसी गठबंधन में अब्दुल्ला यामीन की जगह लेने वालों की रेस के अन्य नेता हैं, डॉक्टर मोहम्मद जमील अहमद, जो अब्दुल्ला यामीन सरकार में उप-राष्ट्रपति थे. और उन पर भी महाभियोग चलाया गया था. डॉक्टर मोहम्मद जमील अहमद ने बाद में एमडीपी के पूर्व अध्यक्ष मोहम्मद अन्नी नशीद से हाथ मिला लिया था. नशीद इस वक़्त ख़ुद ही देश से बाहर रह रहे हैं. जमील अहमद, बाद में नशीद की अगुवाई वाले विपक्षी गठबंधन में शामिल हुए थे. हालांकि, 2008 में मालदीव में पहले लोकतांत्रिक चुनाव के बाद में डॉक्टर मोहम्मद जमील अहमद की मोहम्मद अन्नी नशीद से अनबन हो गई थी.

अब्दुल्ला यामीन के जेल जाने के बाद एक टीवी कार्यक्रम में उमर नसीर ने कहा था कि इस वक़्त देश के विपक्षी दलों को एक बाज़ या शेर जैसे आक्रामक नेता की ज़रूरत है, तो पार्टी में इंक़लाब ला सके. इस बयान के ज़रिए उमर नसीर ने पार्टी का नेतृत्व करने की अपनी ख़्वाहिश का खुलेआम इज़हार किया था. उमर नसीर ने उस वक़्त प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ़ मालदीव की सदस्यता ली थी, जब चुनाव में हार के बाद उस वक़्त के राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने अपनी ही बनाई पुरानी पार्टी धिवेही रैय्यथुंगे पार्टी (डीआरपी)को छोड़ कर इस नए दल का गठन किया था. उस समय उमर नसीर धार्मिक विचारधारा वाली इस्लामिक डेमोक्रेटिक पार्टी (आईडीपी)के अगुवा थे. और राष्ट्रपति चुनाव के पहले दौर में केवल 1.4 प्रतिशत वोट पाने के बाद वो रेस से बाहर हो गए थे.

उधार के नारे

उमर नसीर ने अपने बयान में जिस नारे, ‘बाज़ और शेर जैसे नेता’ का ज़िक्र किया था, वो उन्होंने अब्दुल्ला यामीन का ही जुमला दोहराया था. जब अब्दुल्ला यामीन को ट्रायल कोर्ट की पांच जजों वाली बेंच ने मनी लॉन्डरिंग और पैसों की हेराफ़ेरी के जुर्म में पांच साल क़ैद और पचास लाख डॉलर के जुर्माने की सज़ा सुनाई थी. तो, अदालत के इस फ़ैसले से ठीक एक दिन पहले अब्दुल्ला यामीन ने प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ़ मालदीव के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि, वो किसी गिद्ध जैसे भूखे नेता को पार्टी पर क़ब्ज़ा न करने दें. ख़ास तौर से जब वो नेतृत्व करने के लिए मौजूद न हों. यामीन ने कहा था कि, ‘हमें ऐसे गिद्धों को मौक़ा नहीं देना है!’

वहीं, अपने टीवी कार्यक्रम में उमर नसीर ने कहा कि जब वो मामून अब्दुल गयूम की पार्टी डीआरपी के सदस्य थे, तब उन्होंने केवल तीन साल के भीतर ही सरकार की सियासी घेरेबंदी करने में कामयाबी हासिल की थी. डीआरपी के प्रमुख मामून अब्दुल गयूम, अब्दुल्ला यामीन के सौतेले भाई हैं. नसीर ने कहा कि उन के विरोध का ये नतीजा हुआ था कि उस वक़्त राष्ट्रपति मोहम्मद अन्नी नशीद को ख़ुद से इस्तीफ़ा देने पर मजबूर होना पड़ा था. नसीर ने कहा कि उन्हें पीपीएम के मौजूदा नेतृत्व से ऐसी धारदार सियासत और उस दर्ज़े के साहसी नेतृत्व की उम्मीद नहीं है.

हालांकि, अपने उत्साह में उमर नसीर ने वो हक़ीक़त बयां नहीं कि जो मोहम्मद नशीद के राष्ट्रपति पद से इस्तीफ़े की सब से प्रमुख वजह थी. मोहम्मद नशीद के पास उस समय संसद में बहुमत नहीं था. जब कि मौजूदा राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह के पास मालदीव की 87 सदस्यों वाली अवामी मजलिस में दो तिहाई बहुमत है. हालांकि, मोहम्मद नशीद के इस्तीफ़े का ज़िक्र कर के उमर नसीर शायद ये याद दिलाना चाहते हैं कि अब्दुल्ला यामीन के शासन काल यानी 2014-15 के दौरान किस तरह मोहम्मद नशीद की अगुवाई वाली एमडीपी ने उन की हुक़ूमत के ख़िलाफ़ उस समय विपक्षी दलों का बड़ा सियासी आंदोलन किया था.

अब उमर नसीर के इन खुले बाग़ी तेवरों के बाद पीएनसी के अध्यक्ष अब्दुल रहीम अब्दुल्ला ने कहा कि पार्टी में ऐसे गिद्ध और शेर हैं, जो पीपीएम-पीएनसी के गठबंधन की अगुवाई रखने की क्षमता रखते हैं. अब्दुल रहीम ने कहा कि उमर नसीर को एक सियासी सहयोगी की तलाश है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि उन के पास कोई सियासी मुस्तकिबल नहीं है. वो न तो पूरी तरह विपक्ष की राजनीति कर पा रहे हैं. और न ही वो सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बन पा रहे हैं. इस के बावजूद वो 2023 में राष्ट्रपति के चुनाव में उतरने के लिए पीपीएम का टिकट हासिल करना चाहते हैं. जब कि राष्ट्रपति चुनाव का उम्मीदवार बनने का वो टिकट तो पार्टी के अध्यक्ष अब्दुल्ला यामीन के लिए आरक्षित है. अब्दुल रहीम ने साफ़ किया कि इस मामले में कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है.

गठबंधन: नए या पुराने?

इस में कोई दो राय नहीं है कि मालदीव का विपक्षी पीपीएम-पीएनसी गठबंधन मुश्किल दौर से गुज़र रहा है. अब चूंकि अब्दुल्ला यामीन ज़ेल में हैं, तो गठबंधन की सियासी मुश्किलें और भी बढ़ सकती हैं. इस बात की उम्मीद कम ही है कि मालदीव के परिषद चुनावों से पहले, सज़ा के ख़िलाफ़ अब्दुल्ला यामीन की अपील पर सुनवाई होगी. ऐसे में ये देखने वाली बात होगी कि एमडीपी, इन राष्ट्रव्यापी चुनावों में किस तरह के गठबंधन के साथ आगे बढ़ेगी. और पीपीएम-पीएनसी का गठबंधन व अन्य वैध विपक्षी दल इस चुनाव में किस तरह शिरकत करेंगे. अभी भी इस मामले में पहल की उम्मीद एमडीपी से ही है. मालदीव के विभाजित विपक्ष से बस यही उम्मीद की जा सकती है कि, वो एमडीपी के सियासी दांव पर पलटवार करे. लेकिन, ऐसा तब ही होगा, जब एमपीडी अपने पत्ते फेंकेगी.

6 अप्रैल को होने वाले संसदीय चुनाव के लिए अपने गठबंधन के एलान में देरी कर के, एमडीपी ने 2018 के राष्ट्रपति चुनाव में अपनी सहयोगी रही तीन में से दो पार्टियों को अधर में छोड़ दिया है. एमडीपी की हीलाहवाली का सब से ज़्यादा नुक़सान अरबपति कारोबारी गासिम इब्राहिम की जम्हूरी पार्टी (जेपी) को हुआ है. एमडीपी कभी उस के साथ गठबंधन करती है, तो कभी दोनों अलग हो जाते हैं. वहीं, पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम की बनाई एक और पार्टी मामून रिफ़ॉर्म मूवमेंट (एमआरएम) का राजनीतिक भविष्य भी अधर में है. वहीं, धार्मिक आधार पर राजनीति करने वाली अदालत पार्टी (एपी)ने भी राष्ट्रपति चुनावों से ठीक पहले एमडीपी से गठबंधन किया था. मगर, बेमन से अनिश्चितता के माहौल में किए गए इस गठबंधन का अदालत पार्टी को कोई फ़ायदा नहीं हुआ था. वो एक भी सीट नहीं जीत सकी थी.

वहीं, जम्हूरी पार्टी के अध्यक्ष गासिम इब्राहिम ने अपने तमाम नेताओं की अनिच्छा के बावजूद आख़िरी वक़्त में अब्दुल्ला यामीन के पीपीएम-पीएनसी गठबंधन से हाथ मिला लिया था. गासिम इब्राहिम का ये फ़ैसला न जनता को पसंद आया और न ही पार्टी के नेताओं को. उप राष्ट्रपति फ़ैसल नसीम और मंत्री अली वहीद इस के लिए तैयार नहीं थे. अली वहीद, एक ज़माने में एमडीपी के अध्यक्ष हुआ करते थे. इस वक़्त वो इब्राहिम सोलिह की सरकार में बेहद महत्वपूर्ण पर्यटन मंत्रालय संभाल रहे हैं. इस गठबंधन में पीएनसी की अहमियत तब और बढ़ गई, जब संसदीय चुनावों से पहले अब्दुल्ला यामीन कैम्प अपने अदालती मामलों की वजह से मुश्किल में था. यामीन समर्थकों को डर था कि कहीं पीपीएम की कमान दोबारा मामून अब्दुल गयूम के हाथ में न चली जाए.

इस से भी बुरी बात ये थी कि संसदीय चुनाव में इस गठबंधन ने कुछ सीटें मामून अब्दुल गयूम और उन की पार्टी एमआरएम के लिए छोड़ रखी थीं. एमआरएम ने इन सीटों पर निर्दलीय चुनाव चिह्नों पर चुनाव लड़ा था. लेकिन, उन की पार्टी केवल एक सीट जीत सकी. एक वक़्त, पार्टी और सरकार में मामून अब्दुल गयूम के सियासी वारिस कहे जाने फ़रीश मामून भी राजधानी माले की अपनी सीट से चुनाव हार गए थे. जबकि फ़रीश मौमून ने अपनी पारंपरिक पारिवारिक सीट को छोड़ कर माले से चुनाव लड़ा था. जब कि फ़रीश मौमून के भाई घसन मौमून ने अब्दुल्ला यामीन के राष्ट्रपति रहने के दौरान पारिवारिक कलह के बाद यामीन के साथ ही रहने का फैसला किया था. घसन मौमून अपनी सीट से जीत गए थे.

एमडीपी के वोट शेयर में इस गिरावट के लिए संसद के मौजूदा अध्यक्ष मोहम्मद नशीद के राजनैतिक दांवों को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है. नशीद ने संसदीय चुनावों से पहले सियासी समझदारी दिखाते हुए, सत्ताधारी पार्टी के ख़िलाफ़ गठबंधन को मज़बूत बनाने में अहम भूमिका अदा की थी.

मशवरे न मानना-

हालांकि, मालदीव में राष्ट्रपति चुनाव अक्टूबर 2023 से पहले होने की उम्मीद नहीं के बराबर है. लेकिन, परिषद के चुनावों से, आने वाले समय में इस द्वीपीय देश की राजनीति की दशा-दिशा ज़रूर तय होगी. इन चुनावों के लिए होने वाले गठबंधन ही आगे की राजनीति में ध्रुवीकरण की ज़मीन तैयार करेंगे. इसे ऐसे समझिए. अक्टूबर 2018 के राष्ट्रपति चुनावों में जीतने वाली सत्ताधारी एमडीपी ने अप्रैल 2019 में हुए संसदी चुनावों में, 87 में से 65 सीटें जीती थीं. लेकिन, राष्ट्रपति चुनावों में जहां एमडीपी को 58 फ़ीसद वोट मिले थे. वहीं, संसदीय चुनावों में एमडीपी का वोट प्रतिशत घट कर महज़ 46 फ़ीसद रह गया.

एमडीपी के वोट शेयर में इस गिरावट के लिए संसद के मौजूदा अध्यक्ष मोहम्मद नशीद के राजनैतिक दांवों को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है. नशीद ने संसदीय चुनावों से पहले सियासी समझदारी दिखाते हुए, सत्ताधारी पार्टी के ख़िलाफ़ गठबंधन को मज़बूत बनाने में अहम भूमिका अदा की थी. इसका नतीजा ये हुआ कि संसदीय चुनावों में ग़ैर-एम़ीपी पार्टियों का वोट प्रतिशत, सत्ताधारी दल के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा यानी 54 फ़ीसद था. वोटों में विपक्ष की इस हिस्सेदारी ने ही मालदीव के बंटे हुए विपक्षी दलों को ये उम्मीद बंधाई है कि अगर मज़बूत नेता विपक्षी गठबंधन की अगुवाई करते हैं, और परिषद के चुनावों के लिए साथ आते हैं, तो वो सत्ताधारी दल को चुनौती दे सकेंगे.

इन हालात में उमर नसीर गिद्धों और शेरों की बात कर रहे हैं. उन्होंने 2023 के राष्ट्रपति चुनावों में उम्मीदवारी की अपनी महत्वाकांक्षा को इस बयान से साफ़ कर दिया है. वहीं, अब्दुल्ला यामीन ने भी अपने इरादे जता दिए हैं. ऐसे में विपक्षी गठबंधन की असल खिलाड़ी गासिम इब्राहिम की जम्हूरी पार्टी साबित हो सकती है. गासिम इब्राहिम ने कभी क़सम ली थी कि वो कभी राष्ट्रपति पद के चुनाव में शरीक नहीं होंगे. लेकिन, जब इब्राहिम सोलिह की सरकार ने मालदीव के दो सब से बड़े पदों के लिए 65 बरस आयु की सीमा को हटा लिया, तो गासिम इब्राहिम ने भी अपना मन बदला है. अब्दुल्ला यामीन की सरकार ने देश के दो सब से अहम पदों के लिए अधिकतम आयु सीमा 65 वर्ष तक सीमित कर दी थी.

संसदीय चुनावों में ख़राब प्रदर्शन के बाद और राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह के नेतृत्व पर भरोसा न होने के बाद, ऐसा लगता है कि गासिम इब्राहिम अभी अपने पत्ते छुपा कर चल रहे हैं. हालांकि, सोलिह के नेतृत्व से अपनी नाख़ुशी का उन्होंने कभी खुल कर इज़हार नहीं किया. मगर, उनके बयानों से ये बात कई बार साफ़ हो चुकी है. जब, मालदीव में अगले राष्ट्रपति चुनाव होंगे, तो गासिम इब्राहिम की उम्र उस समय 73 बरस होगी. उस वक़्त वो शायद राष्ट्रपति पद के सब से उम्रदराज़ उम्मीदवार होंगे. जब कि पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने 30 साल तक राष्ट्रपति रहने के बाद 2008 में जब अपना आख़िरी राष्ट्रपति चुनाव लड़ा था, तो उस समय गयूम की उम्र 71 बरस थी. हालांकि वो उस चुनाव में पराजित हो गए थे.

अगर अब्दुल्ला यामीन आने वाले वर्षों में अगर राष्ट्रपति चुनाव होने तक जेल में ही रहते हैं, तो पीपीएम के नेतृत्व का सवाल अनसुलझा ही रहेगा. ऐसे में क्या अब्दुल्ला यामीन अपने सौतेले भाई मामून अब्दुल गयूम के बेटे और संसद सदस्य घसन गयूम को अपनी जगह आगे बढ़ाना चाहेंगे.

हालांकि, तीन बार हुए राष्ट्रपति के लोकतांत्रिक चुनावों में, यानी 2008, 2013 और 2018 के चुनाव में गासिम इब्राहिम की पार्टी बस किंग मेकर की भूमिका में आ सकी थी. जनता ने गासिम इब्राहिम को कभी भी किंग मेकर से आगे बढ़ कर देश का किंग यानी राष्ट्रपति नहीं बनाया. 2018 के राष्ट्रपति चुनाव में पहली बार हुआ था, जब वो गठबंधन चुनाव जीता, जिस में जम्हूरी पार्टी भी साझीदार थी. जबकि इस से पहले के दो राष्ट्रपति चुनावों में मुक़ाबला दूसरे राउंड तक गया था. इस की वजह से पहले राउंड में गासिम इब्राहिम ख़ुद को मिले अच्छे ख़ासे वोटों की वजह से सियासी मोलभाव में कामयाब रहे थे. 2008 के राष्ट्रपति चुनाव के पहले राउंड में उन की पार्टी को 15 फ़ीसद वोट मिले थे. जब कि 2013 के राष्ट्रपति चुनाव के पहले राउंड में गासिम को 24 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. दोनों ही बार के चुनावों के बाद गासिम का ये मानना था कि जीतने वालों ने उन की पीठ में खंज़र घोंपा था. 2008 में मोहम्मद नशीद चुनाव जीते थे. जब कि 2013 के चुनाव में अब्दुल्ला यामीन की जीत हुई थी.

अगर ऊपरी अदालतों में अपनी सज़ा के ख़िलाफ़ अपील में भी अब्दुल्ला यामीन के हाथ हार ही लगती है. और ऊपरी अदालतें भी उन्हें दोषी मानते हुए उन की सज़ा पर मुहर लगाती हैं. और वो एक साल के लिए भी जेल में क़ैद रहते हैं. तो वो 2023 के राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित हो जाएंगे. उमर नसीर के राष्ट्रपति चुनाव के लिए अभी से अपनी दावेदारी पेश करने को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. जब कि 2018 के बेहद ध्रुवीकृत राष्ट्रपति चुनावों के दौरान वो राजनीति के हाशिए पर ख़ामोश पड़े रहे थे.

हालांकि, ये और बात है कि अगर अब्दुल्ला यामीन आने वाले वर्षों में अगर राष्ट्रपति चुनाव होने तक जेल में ही रहते हैं, तो पीपीएम के नेतृत्व का सवाल अनसुलझा ही रहेगा. ऐसे में क्या अब्दुल्ला यामीन अपने सौतेले भाई मामून अब्दुल गयूम के बेटे और संसद सदस्य घसन गयूम को अपनी जगह आगे बढ़ाना चाहेंगे. या फिर मौमून खेमास फ़ारिश को असली दावेदार बता कर ज़मीनी स्तर पर पार्टी के नेतृत्व पर अपना दावा ठोकेगा? ऐसे में एक सवाल ये भी उठेगा कि क्या अब्दुल्ला यामीन पीपीएम और पीएनसी (पीपुल्स नेशनल कॉन्ग्रेस) को अलग-अलग पार्टियों के तौर पर बचाए रख पाने में कामयाब हो सकेंगे?

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