Published on Apr 10, 2018 Updated 0 Hours ago
क्षेत्रीय साझेदारियों से भारत का अलग-थलग रहना ठीक नहीं!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लीक से हटकर एक अनूठा और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए वर्ष 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में समस्‍त सार्क देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया था। इसके पीछे मुख्‍य अभिलाषा भारत के पड़ोसी देशों के साथ एकजुटता और घनिष्ठता सदैव बनाए रखने की थी। हालांकि, अब सार्क पिछले दो वर्षों से निष्क्रिय पड़ा है। नवंबर 2016 में इस्लामाबाद में प्रस्‍तावित इसकी आखिरी बैठक नहीं हो पाई थी क्योंकि पहले भारत ने और फि‍र उसके बाद बांग्लादेश, अफगानिस्तान, मालदीव, भूटान एवं श्रीलंका ने भी इसमें शिरकत न करने का निर्णय लिया था। भारत ने पाकिस्तान की सरकार द्वारा प्रायोजित उरी हमले पर कड़ी आपत्ति व्‍यक्‍त करते हुए यह निर्णय लिया था।

नेपाल के नव निर्वाचित प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली, जो वर्तमान में भारत की यात्रा पर हैं, बेशक सार्क की पुनर्बहाली के बारे में बात करेंगे। नेपाल ही फि‍लहाल सार्क की अध्यक्षता संभाल रहा है। उन्होंने संभवत: पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खाकन अब्बासी के साथ इस मसले पर चर्चा की है जो हाल ही में काठमांडू गए थे।

क्या भारत इस पर सहमत होगा, यह अभी तय नहीं है। यह भारत के प्रति पाकिस्तान के बर्ताव अथवा सलूक पर निर्भर करेगा। हालांकि, इस बात के ही प्रबल आसार नजर आ रहे हैं कि सार्क बैठक वर्ष 2018 में भी आयोजित नहीं हो पाएगी। सार्क ही एकमात्र ऐसा बड़ा समूह है जो दक्षिण एशियाई क्षेत्र के समस्‍त 8 देशों को एक प्‍लेटफॉर्म पर लाता है। यही नहीं, कोई और समूह इसकी व्‍यापक कवरेज के साथ-साथ बड़ी दृढ़ता से इस क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने की क्षमता के मामले में सार्क का स्‍थान ले सकता है।

इस क्षेत्र की भी गिनती दुनिया के सबसे गरीब क्षेत्रों में की जाती है। यही नहीं, इसके सदस्य देशों का समान इतिहास एवं संस्कृति और विकास संबंधी समान समस्याएं हैं। सार्क ने अब तक 30 से भी अधिक वर्षों के अपने अस्तित्व के दौरान ऐसे कई क्षेत्रों को कवर किया है जिसमें इसके सदस्य देश पारस्परिक लाभ के लिए सहयोग कर सकते हैं। वैसे तो सार्क के अंदर व्यापार के साथ-साथ यह इस तरह की अन्य क्षेत्रीय व्यापार व्यवस्थाओं (आरटीए) जैसे कि यूरोपीय संघ और आसियान में भी परवान नहीं चढ़ पाया, लेकिन इसके सदस्य देशों के बीच सहयोग के क्षेत्रों को तय करने और व्यापार संबंधी अवरोधों को आसान बनाने की दिशा में अपेक्षित प्रगति हुई है। इस क्षेत्र की आबादी विशाल होने के परिणामस्‍वरूप सार्क में निवेश, पर्यटन और सेवा एवं जिंस व्यापार बढ़ाने की व्‍यापक संभावनाएं हैं।

चीन भी सात अन्‍य देशों के साथ एक पर्यवेक्षक (ऑब्‍जर्बर) है। चीन इस समूह में एक हस्‍ती है और इसके कुछ सदस्‍य देशों ने वर्ष 2015 में आयोजित पिछली सार्क बैठक में चीन की पूर्ण सदस्‍यता को खुलकर अपना समर्थन व्‍यक्‍त किया था।

चीन ने भारत के आसपास अवस्थित सभी सदस्य देशों में व्‍यापक निवेश कर रखा है। सार्क के सभी सदस्य देशों को बुनियादी ढांचे की जरूरत है और चीन इसे बनाने में मदद कर सकता है। इसके सभी सदस्‍य देश चीन की भव्य योजना ‘बीआरआई’ से जुड़ चुके हैं। चीन विशेष रूप से अपनी ‘बीआरआई’ को बढ़ावा देने के मद्देनजर दक्षिण एशियाई क्षेत्र में काफी दिलचस्‍पी रखता है। ऋणों के जरिए इसके सदस्य देश अपने यहां बुनियादी ढांचे का निर्माण कर सकते हैं, जैसा कि पाकिस्तान सीपीईसी (चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरि‍डोर) के तहत कर रहा है जिसके अंतर्गत पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन में कशगर के साथ जोड़ा जा रहा है। चीन ने इस परियोजना के लिए 62 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता जताई है।

यदि भारत सार्क का बहिष्कार आगे भी करता रहता हैतो इसका मतलब सार्क का अंत नहीं होगाक्योंकि टीपीपी के मामले की भांति एक नया समूह बन सकता है। अमेरिका को बाहर करने के बाद 12 देशों के मूल टीपीपी समूह को अब सीपीटीपीपी (व्यापक प्रगतिशील ट्रांस प्रशांत साझेदारी) कहा जाता है। सार्क के मामले में भी ऐसा ही कुछ हो सकता है। भारत को बाहर करलेकिन चीन को शामिल कर 8 सदस्य देशों के साथ एक नया समूह बनाया जा सकता है।

भारत संभवत: ‘आरसीईपी’ में भी शामिल नहीं हो सकता है, जो 16 देशों के साथ सबसे बड़ी बहुपक्षीय व्यापार साझेदारी है। यह एक अत्‍यंत प्रभावशाली साझेदारी साबित होगी क्योंकि इसमें चीन और भारत दोनों ही शामिल हैं। आरसीईपी (क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी) में आसियान के सभी 10 सदस्‍य देशों के साथ-साथ जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत, चीन, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं। इन देशों में कुल मिलकर 3.4 अरब लोग रहते हैं और विश्व व्यापार में इन देशों की एक चौथाई हिस्‍सेदारी और विश्व सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इन देशों की 39 फीसदी हिस्सेदारी है।

हालांकि, भारत काफी दुविधा में है और वह चाहता है कि भारतीय आईटी प्रोफेशनलों के लिए आरसीईपी के सभी सदस्य देशों में सेवा व्यापार को खोल दिया जाए। इसके अलावा कृषि, विशेष रूप से डेयरी क्षेत्र को खोलने और आईपीआर को सख्त रूप से लागू करने के चलते दवा उत्पादों के मूल्य निर्धारण में भी समस्याएं हैं।

‘आरसीईपी’ पर इसी साल हस्ताक्षर किए जाने के आसार नजर आ रहे हैं और जापान एवं ऑस्ट्रेलिया इसके लिए विशेष जोर दे रहे हैं। जापान तो इसके लिए इतना ज्‍यादा उत्‍सुक है कि वह तो इस समझौते पर भारत के बिना भी हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाल सकता है। यहां तक कि चीन भी आरसीईपी पर हस्ताक्षर करने को इच्छुक है और चीन के वाणिज्य मंत्री ने हाल ही में नई दिल्ली में आरसीईपी के बारे में अपने भारतीय समकक्ष सुरेश प्रभु से बातचीत की है। चीन के साथ भारत के संबंधों में ढीलेपन को देखते हुए ऐसी संभावनाएं जताई जा रही हैं कि भारत उस समूह में शामिल नहीं होना चाहता है जिसमें चीन हो। चीन में अत्‍यधिक क्षमता स्‍थापित होने को लेकर भारत द्वारा व्‍यक्‍त की जा रही आशंका एक वास्तविकता है। यही नहीं, कई अन्य सदस्य देशों ने भी इस आशंका को साझा किया है। हालांकि, इस समस्‍या से डंपिंग रोधी कानूनों के जरिए ही निपटना चाहिए। भारत यदि ‘आरसीईपी’ में शामिल नहीं होता है, तो फि‍र भारत आखिरकार किस समूह से जुड़ेगा?

भारत में ‘यूरोपीय संघ-भारत बीटीआईए’ को लेकर भी समस्याएं हैं। भारत को उन अन्य देशों के साथ भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है जिसके साथ उसने मुक्‍त व्‍यापार समझौते (एफटीए) कर रखे हैं जैसे कि जापान, कोरिया और आसियान। यही नहीं, भारत बढ़ते व्यापार घाटे से नाखुश है। ‘आरसीईपी’ के तहत भी शुल्‍क दरों में तेज कटौती और इस क्षेत्र से आयात में भारी बढ़ोतरी की समान संभावनाएं नजर आ रही हैं।

ऐसे में भारत के लिए केवल बिम्सटेक (बहु क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग पर बंगाल की खाड़ी पहल) ही शेष बच जाता है जिसमें नेपालभूटानबांग्लादेशश्रीलंकाम्यांमार एवं थाईलैंड शामिल हैं और जो एक उप-क्षेत्रीय सहयोग समूह है। सार्क और आरसीईपी की तुलना में बिम्सटेक अपने कुल व्यापार एवं निवेश संभावनाओं की दृष्टि से काफी छोटा है और यह वास्‍तव में किसी एफटीए से जुड़ी एक योजना के साथ आगे नहीं बढ़ पाया है। भारतथाईलैंड और श्रीलंका के अलावा इस समूह में शामिल सभी अन्य देश वास्‍तव में अल्‍प विकसित देश हैं। ये सभी अल्‍प विकसित देश अपने स्वयं के विकास के लिए भारत से मदद के रूप में सहयोग प्राप्‍त करना चाहते हैं।

भारत एससीओ (शंघाई सहयोग संगठन) का भी एक सदस्य है जो कोई आर्थिक साझेदारी नहीं है और जो क्षेत्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए गठित किया गया एक राजनीतिक समूह है। हालांकि, यह समूह आज के जमाने में काफी मायने रखता है। इसमें रूस, भारत, चीन, पाकिस्तान और मध्य एशियाई देश (कजाकस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्‍बेकिस्तान) सदस्यों के रूप में शामिल हैं। इन देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है और दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इन देशों की एक चौथाई हिस्‍सेदारी है। इसकी अगली बैठक जून 2018 में चीन में होगी।

भविष्य में विकसित देशों द्वारा अपेक्षाकृत ज्‍यादा संरक्षणवाद को अपनाए जाने के आसार को देखते हुए आरसीईपी का सदस्य बनने से भारतीय कंपनियों को ऐसी वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनने का मौका मिल सकता है, जिसके तहत इसके सदस्य देशों में कहीं भी अवस्थित कंपनियों के लिए भारत में कुछ कलपुर्जों का निर्माण किया जा सकता है। आरसीईपी के सदस्‍य देश वैश्विक अर्थव्यवस्था में कम लागत वाले विनिर्माण एवं व्यापार का केंद्र हैं और इसमें ऑस्ट्रेलिया एवं सिंगापुर जैसे प्रमुख संसाधन संपन्न देश भी शामिल हैं और जो एक सेवा व्यापार एवं वित्तीय केंद्र है। यह भारत के लिए विश्व अर्थव्यवस्था की आपूर्ति श्रृंखला से खुद को जोड़ने का एक बढि़या अवसर है, जो अब दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन में अत्‍यंत कारगर अथवा प्रभावशाली है और इन देशों से होने वाले निर्यात के साथ-साथ वहां रोजगार सृजन को भी नई गति प्रदान कर रही है।

कुल मिलाकर ‘सार्क’ में नई जान फूंकना और ‘आरसीईपी’ पर हस्ताक्षर करना भारत में विनिर्माण क्षेत्र के विकास को नई गति प्रदान करने की दृष्टि से भारत के लिए बहुत अच्छे विकल्प प्रतीत होते हें।

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