2020 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव कई कारणों से अलग है लेकिन जिन लोगों की नज़र दूसरे देशों से इस चुनाव पर है उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण पहलू हो सकता है आख़िरी फ़ैसला आने में देरी और उस वक़्त की अनिश्चितता. मतदान के दिन 3 नवंबर के आख़िर में रुझानों का पता चल सकता है लेकिन डाक मतों को जमा करने, उनकी गिनती, उनकी प्रमाणिकता साबित होने और विजेता के एलान में कई दिन लग सकते हैं. अगर हारने वाला उम्मीदवार प्रक्रिया की वैधता पर शक ज़ाहिर करता है तो चुनाव को क़ानूनी चुनौती और प्रदर्शनों का दौर भी शुरू हो सकता है. विशेषज्ञ तो सत्ता में बदलाव की तैयारी के लिए कई परिदृश्यों के बारे में भी सोच रहे हैं.
2020 की चुनौतियों का मुक़ाबला करने में निर्वाचक प्रणाली की क्षमता पर भी सवाल हैं. सर्वश्रेष्ठ समय में भी अमेरिकी चुनाव प्रक्रिया प्रांतों के मुताबिक़ अलग-अलग पद्धतियों, नियमों और मतदाता पहचान की ज़रूरत को एक साथ जोड़ने का काम है. विवादों के निपटारे के लिए पेशेवर चुनाव आयोग की ग़ैर-मौजूदगी में पक्षपाती राज्य स्तर के अधिकारी उम्मीदवारों की क़िस्मत तय करते हैं. इस प्रक्रिया पर सवाल उठ जाते हैं. और 2020 सर्वश्रेष्ठ समय नहीं है- कोविड-19 महामारी तेज़ी से फैल रही है, गर्मी के मौसम के दौरान सामाजिक न्याय के लिए प्रदर्शन चलता रहा, लाखों लोग बेरोज़गार हैं, 2016 के मुक़ाबले देश ज़्यादा बंटा हुआ है और सरकार पर भरोसा सिर्फ़ 30% लोगों को है.
व्यापक अविश्वास और असंतोष अमेरिकी राजनीति को अप्रत्याशित ढंग से नया आकार दे सकता है ख़ासतौर पर तब जब चुनाव में बेहद क़रीबी मुक़ाबला हो. इस बात की संभावना बेहद कम है कि हारने वाला पक्ष नतीजे के बाद शांत हो जाएगा.
व्यापक अविश्वास और असंतोष अमेरिकी राजनीति को अप्रत्याशित ढंग से नया आकार दे सकता है ख़ासतौर पर तब जब चुनाव में बेहद क़रीबी मुक़ाबला हो. इस बात की संभावना बेहद कम है कि हारने वाला पक्ष नतीजे के बाद शांत हो जाएगा. समय बीतने के साथ अमेरिका के लोग राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के लिए हिंसा को जायज़ ठहराने लगे हैं. पिछले साल डेमोक्रेसी फंड के एक सर्वे के मुताबिक़ 22 प्रतिशत लोग इस बात पर यकीन करते हैं कि राजनीतिक विरोधियों को धमकी देना कभी-कभी ठीक है.
सिर्फ़ ये बातें ही काफ़ी नहीं हैं बल्कि राष्ट्रपति ट्रंप की तरफ़ से डींगें हांकना भी मुश्किल बढ़ाने वाला है. विरोधी प्रदर्शनकारियों को नियमित तौर पर “ठग” कहने वाले ट्रंप ने अपने समर्थकों को विरोधियों पर हमले के लिए उकसाकर सक्रिय तौर पर हिंसा को बढ़ावा दिया है. ट्रंप ने प्रवासियों को निशाना बनाया और विरोधियों को “अनैतिक समाजवादी” का नाम दिया. कई मामलों में तो ट्रंप के बड़बोले व्यवहार ने वास्तव में हिंसा को बढ़ावा दिया.
ट्रंप ने सार्वजनिक रूप से इस बात का भरोसा नहीं दिया है कि वो चुनाव के नतीजे को स्वीकार करेंगे और इस वजह से असमंजस के हालात बने हैं. अतीत में फ्लोरिडा में डाक के ज़रिए मतदान करने के बावजूद डाक मतों की वैधता को लेकर उनके मिले-जुले संदेशों ने डेमोक्रेटिक पार्टी को चौकन्ना कर दिया है. पिछले कुछ समय से उन्होंने दावा किया है कि डाक मतों में फ़र्ज़ीवाड़े का ख़तरा है. उन्होंने मतदाताओं से कहा है कि वो एक बार डाक के ज़रिए वोट डालें और फिर ख़ुद जाकर वोट डालने की कोशिश करें ताकि सिस्टम की “परीक्षा” हो सके. इसके बाद उनके सलाहकारों को आनन-फानन में बयान देना पड़ा कि ऐसा करना ग़ैर-क़ानूनी होगा.
दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में से एक में सत्ता का परिवर्तन आसान नहीं होगा ख़ासतौर पर उस वक़्त जब दोनों तरफ़ जज़्बात चरम पर हों. किसी भी उम्मीदवार की जीत हो लेकिन विरोधी पक्ष के जल्दबाज़ी में हार मानने की उम्मीद कम है.
डेमोक्रेटिक पार्टी का कहना है कि डाक मतों को लेकर सवाल उठाने वाले ट्रंप के बयान उनकी चुनावी रणनीति का हिस्सा हैं जहां उसके उम्मीदवार जो बिडेन को निर्णायक बढ़त हासिल है. वास्तव में बिडेन का प्रचार अभियान महामारी की वजह से लोगों को डाक के ज़रिए मतदान को बढ़ावा देने के इर्द-गिर्द केंद्रित है. इस पृष्ठभूमि में ऐसा लगता है कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में से एक में सत्ता का परिवर्तन आसान नहीं होगा ख़ासतौर पर उस वक़्त जब दोनों तरफ़ जज़्बात चरम पर हों. किसी भी उम्मीदवार की जीत हो लेकिन विरोधी पक्ष के जल्दबाज़ी में हार मानने की उम्मीद कम है.
दूसरे शब्दों में एक संभावित राजनीतिक संकट मंडरा रहा है ख़ासतौर पर हाल के इतिहास को देखते हुए. साल 2000 में “बुश बनाम गोर” मामले में सुप्रीम कोर्ट का विवादित फ़ैसला अभी भी डेमोक्रेटिक पार्टी को परेशान करता है, उसे लगता है कि राष्ट्रपति का पद उससे चुरा लिया गया. उस वक़्त सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोरिडा में वोटों की फिर से गिनती पर रोक लगा दी, निचली अदालत के एक फ़ैसले को पलट दिया और वास्तव में जॉर्ज डब्ल्यू. बुश को राष्ट्रपति बना दिया. अभी भी ये फ़ैसला संविधान के विशेषज्ञों के बीच बहस का विषय बना हुआ है.
इतिहास में इससे भी पीछे जाएं तो 1876 का चुनाव सबक़ सिखाता है कि गेंद कितनी दूर तक भटक सकता है. उस वक़्त भी मौजूदा समय की तरह ध्रुवीकरण का माहौल था, पक्षपात बहुत ज़्यादा था और राष्ट्रपति पद का मामला सिर्फ़ राजनीतिक मोल-तोल से सुलझाया जा सकता था. डेमोक्रेटिक पार्टी ने रिपब्लिकन पार्टी को इस शर्त पर राष्ट्रपति का पद सौंपा कि वो बदले में पुनर्निर्माण को ख़त्म करे जिसके ज़रिए ग़ुलामी ख़त्म की गई थी और अश्वेतों को नागरिक अधिकार सौंपे गए थे. इसकी वजह से जिम-क्रो युग की शुरुआत हुई जिसके तहत क़ानूनी तौर पर अमेरिका के दक्षिण में नस्लीय अलगाव को अंजाम दिया गया. इसकी वजह से अफ्रीकी अमेरिकियों ने जो पाया था वो गंवा दिया.
डेमोक्रेटिक पार्टी ने रिपब्लिकन पार्टी को इस शर्त पर राष्ट्रपति का पद सौंपा कि वो बदले में पुनर्निर्माण को ख़त्म करे जिसके ज़रिए ग़ुलामी ख़त्म की गई थी और अश्वेतों को नागरिक अधिकार सौंपे गए थे. इसकी वजह से जिम-क्रो युग की शुरुआत हुई
आपने सही समझा. उस वक़्त डेमोक्रेटिक पार्टी इंसाफ़ के ख़िलाफ़ थी जबकि रिपब्लिकन पार्टी अफ्रीकी अमेरिकियों के अधिकार की हिफ़ाज़त करने वाली थी. ग़ुलामों को दासता से मुक्ति का एलान करने वाले अब्राहम लिंकन रिपब्लिकन पार्टी के थे. लेकिन पिछले पांच दशकों के दौरान हालात धीरे-धीरे बदले हैं और आज अफ्रीकी अमेरिकी ज़बरदस्त ढंग से डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन करते हैं.
क्या 1876 के हालात ख़ुद को दोहरा सकते हैं? जून में लॉन्च ट्रांज़िशन इंटिग्रिटी प्रोजेक्ट या TIP ने चार परिदृश्यों की संभावना पर गौर किया- अस्पष्ट नतीजे, बिडेन की साफ़ जीत, ट्रंप की साफ़ जीत और कम वोट से बिडेन की जीत.
रिपब्लिकन पार्टी और डेमोक्रेटिक पार्टी के 100 से ज़्यादा लोगों ने इस अभ्यास में भाग लिया और ये पाया कि “प्रशासनिक बदलाव की प्रक्रिया अपने-आप में बेहद रुकावट वाली होगी” क्योंकि ट्रंप सही तरीक़े से सत्ता सौंपने के बदले “व्यक्तिगत फ़ायदों और अपनी सुरक्षा को तरजीह देंगे.” सिर्फ़ बिडेन की बड़ी जीत की हालत में ही सत्ता का बदलाव अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण ढंग से होगा.
सामान्य सलाह: टक्कर वाले चुनाव की तैयारी कीजिए, प्रांतीय स्तर पर तैयारी की तरफ़ ध्यान दीजिए, पक्की और सटीक गिनती के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाइए और “मतदाता फ़र्ज़ीवाड़ा” के झूठ और संभावित हिंसा से निपटने के लिए तैयारी कीजिए. विशेषज्ञों ने ग़ौर किया है कि मौजूदा राष्ट्रपति होने की वजह से ट्रंप को “काफ़ी ज़्यादा फ़ायदा” है क्योंकि वो संघीय सेना का इस्तेमाल कर सकते हैं और अपने विरोधियों के ख़िलाफ़ न्याय विभाग को खड़ा कर सकते हैं. लेकिन ऐसे हालात के बारे में सोचा ही क्यों जाए? इसका छोटा सा जवाब है: राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव के लिए इलेक्टोरल कॉलेज और दो चरणों की प्रक्रिया का इस्तेमाल. ये जटिल प्रणाली हर चार साल में इस बात के लिए ज़िम्मेदार है कि अमेरिकियों को बहस करनी पड़ती है कि क्या उनका लोकतंत्र वाकई में प्रतिनिधित्व पर आधारित है.
ये प्रणाली उस उम्मीदवार को भी विजेता बनाती है जिसे ज़्यादातर मतदाता पसंद नहीं करते हैं. वास्तव में अमेरिका के मतदाता 538 निर्वाचकों के लिए वोट डालते हैं जो राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति को चुनते हैं. हर प्रांत के लिए “निर्वाचकों” की संख्या उतनी ही है जितने उस राज्य से कांग्रेस के प्रतिनिधि होते हैं. लेकिन इस सिस्टम को जटिल बनाती है “जीतने वाले को पूरा वोट मिलने” की प्रक्रिया जो विरोधी को मिले वोट को बेअसर करती है और जीतने वाले के इलेक्ट्रोरल कॉलेज वोट को बढ़ाती है. हिलेरी क्लिंटन को ट्रंप के मुक़ाबले 30 लाख से ज़्यादा वोट मिले लेकिन इलेक्टोरल कॉलेज में वो ट्रंप से हार गईं. फ्लोरिडा जैसे प्रांत निर्णायक भूमिका अदा कर सकते हैं जैसा कि साल 2000 में हुआ था.
शायद ये सही वक़्त है जब दुनिया के सबसे ताक़तवर लोकतंत्र में ज़्यादा पेशेवर ढंग से संचालित चुनाव प्रक्रिया और एक-समान नियम हों.
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