इंडो-पैसिफिक स्पेस शब्द की रचना जर्मनी के भू-राजनीतिक विचारक कार्ल हौशोफर ने 1920 में की थी. शायद इंडो-पैसिफिक पर ये पहला अकादमिक बयान था. हौशोफर ने एशिया में दो महान सभ्यताओं- भारत और चीन को जोड़ने वाले समुद्री इलाक़े का अध्ययन किया. वैसे दोनों देशों को ज़मीनी सतह पर तिब्बत अलग करता है. इंडो-पैसिफिक में हौशोफर ने ही जापान की पहचान की जिसका पैसिफिक इलाक़े में जर्मनी की ही तरह ब्रिटेन और अमेरिका को हराने का लक्ष्य था. इंडो-पैसिफिक शब्द भू-राजनीतिक चर्चा में एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है और इसकी वजह है अगस्त 2007 में भारतीय संसद में भाषण के दौरान जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे द्वारा इस शब्द का इस्तेमाल.
इंडो-पैसिफिक शब्द भू-राजनीतिक चर्चा में एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है और इसकी वजह है अगस्त 2007 में भारतीय संसद में भाषण के दौरान जापान के प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे द्वारा इस शब्द का इस्तेमाल.
इंडो-पैसिफिक और क्वॉड में जर्मनी
जर्मनी के विदेश मंत्री हाइको मास बताते हैं: “आज ये पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि किसी और जगह के मुक़ाबले भविष्य की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के रूप का फ़ैसला इंडो-पैसिफिक में होगा. जर्मनी को सिर्फ़ पर्यवेक्षक बनकर नहीं रहना चाहिए और इसलिए सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए. इंडो-पैसिफिक पर जर्मनी की विदेश नीति नियम आधारित व्यवस्था पर होनी चाहिए.” पहली बार जर्मनी की सरकार ने इंडो-पैसिफिक के लिए 70 पन्नों की एक सामरिक नीति गाइडलाइन जारी की है. वैसे तो जर्मनी एक इंडो-पैसिफिक देश नहीं है लेकिन यूरोप के कई देश एशिया में व्यापार की विशाल संभावना की वजह से अटलांटिक को छोड़कर इंडो-पैसिफिक में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. इस तरह यूरोपियन यूनियन (EU) सत्ता के वैकल्पिक मॉडल को बढ़ावा देने में चीन को अपना प्रतिद्वंदी मानता है.
आज क्वॉड (भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया) को संस्थागत रूप दिया जा रहा है और संभवत: इसे व्यापक आधार वाला बनाया जा रहा है ताकि ज़्यादा साझेदारों को जोड़ा जा सके और इसका मक़सद स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक के लिए नियम आधारित व्यवस्थाको कायम रखना है. जापान में बीते दिनों क्वॉड की बैठक में अमेरिका के विदेश मंत्री ने कहा: “टोक्यो में इकट्ठा मंत्री साझा ख़तरे और अवसरों को समझने के लिए आए हैं ताकि वो चीन का मुक़ाबला करने के लिए न सिर्फ़ राजनयिक रूप से बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी मिलकर काम करें.” ये एक तथ्य है कि हिंद महासागर में चीन का निवेश और मौजूदगी बढ़ गई है और वर्तमान समय में आर्थिक और वित्तीय मामलों में चीन का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता. द्वीपीय देशों में चीन का हस्तक्षेप काफ़ी बढ़ गया है और श्रीलंका इसका साफ़ उदाहरण है. श्रीलंका को चीन ने बहुत ज़्यादा कर्ज़ दे रखा है. अमेरिकी विदेश मंत्री पॉम्पियो ने श्रीलंका के अपने दौरे में ज़रूर इंडो-पैसिफिक में नियम आधारित व्यवस्था के लिए भारत के साथ श्रीलंका को जोड़ने की कोशिश की होगी.
जापान में बीते दिनों क्वॉड की बैठक में अमेरिका के विदेश मंत्री ने कहा: “टोक्यो में इकट्ठा मंत्री साझा ख़तरे और अवसरों को समझने के लिए आए हैं ताकि वो चीन का मुक़ाबला करने के लिए न सिर्फ़ राजनयिक रूप से बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी मिलकर काम करें.”
कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं को अपारदर्शी कर्ज़
अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर चेतावनी देते हैं कि अगर मौजूदा अमेरिका-चीन तनाव जारी रहा तो “हम पहले विश्व युद्ध जैसी स्थिति में जा सकते हैं.” अमेरिकी प्रशासन ने चीन पर कोविड-19 फैलाने, हुवावे से लेकर टिकटॉक तक आर्थिक जासूसी, दक्षिणी चीन सागर में ज़िद्दी रवैया अपनाने और कई देशों को अपारदर्शी कर्ज़ देने का आरोप लगाया है. चीन के अपारदर्शी कर्ज़ को लेकर श्रीलंका का ज़िक्र कई बार किया गया है. श्रीलंका में अमेरिकी राजदूत अलाइना बी. टेप्लिट्ज़ ने धमकी दी कि “श्रीलंका को चीन के साथ मेल-जोल बढ़ाना चाहिए लेकिन उसको ये काम इस तरह करना चाहिए कि वो अपनी संप्रभुता की रक्षा कर सके और न सिर्फ़ कुलीन लोगों बल्कि हर किसी के लिए वास्तविक समृद्धि का मौक़ा पैदा कर सके. ये देशों के बीच चुनने की बात नहीं है, ये पारदर्शिता और ऐसा रास्ता चुनने की बात है जो श्रीलंका के सभी लोगों के लिए फ़ायदेमंद हो.” अमेरिकी राजदूत की चेतावनी खुल्लमखुल्ला है. चीन से अपेक्षा रखने से पीछे हटने के लिए श्रीलंका के पास काफ़ी कम विकल्प हैं. चीन केंद्रित निर्भरता इस कदर है कि दूसरे विकल्प की तरफ़ श्रीलंका सरकार नहीं देख सकती. जब एक के बाद एक सरकारों ने राष्ट्रीय संपत्तियों को लीज़ पर देकर कर्ज़ लिया हो तो संप्रभुता पर ख़तरा ज़रूर होगा. अमेरिकी राजदूत के बयान पर श्रीलंका में चीन के दूतावास ने अपने ‘वॉल्फ वॉरियर’ अंदाज़ में प्रतिक्रिया दी: “अमेरिका को कोई अधिकार या ज़िम्मेदारी नहीं है कि वो चीन-श्रीलंका रिश्तों पर भाषण दे. इस तरह खुलेआम आधिपत्य, सर्वोच्चता और पावर पॉलिटिक्स न तो चीन स्वीकार करेगा न ही श्रीलंका.” संप्रभुता पर ख़तरा कमज़ोर या नाकाम देशों में होगा. अमेरिका का उदारवादी आधिपत्य मिशन, हस्तक्षेप को वैध करार देना या चीन की कर्ज़ जाल वाली कूटनीति कमज़ोर देशों की तरफ़ निशाना है. कुछ हफ़्ते पहले मूडीज़ की इन्वेस्टर सर्विस ने श्रीलंका की रेटिंग पहले की B2 से घटाकर Caa1 या ‘बहुत ज़्यादा क्रेडिट जोखिम’ वाला कर दिया जो कि इराक़, माली, अंगोला और कांगो के बराबर है. कोविड-19 की वजह से हुए वैश्विक आर्थिक हादसे के बीच आर्थिक संकट के हालात बन रहे हैं और आशंका जताई जा रही है कि आने वाले वर्षों में श्रीलंका की तरफ़ से भारी-भरकम कर्ज़ के भुगतान का समय आने वाला है.
इससे ज़्यादा कर्ज़ नहीं और विरोधाभासी नीतियां
क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे से अमेरिका के अलग होने से न सिर्फ़ नये प्रकार का सुरक्षा ख़तरा बढ़ेगा बल्कि ये अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में नियम आधारित व्यवस्था से भी दूर करेगा. इससे अंतर्राष्ट्रीय मामलों की बुनियाद को ही ख़तरा होगा. इंडो-पैसिफिक रणनीति और चीन के BRI के बीच फंसा श्रीलंका एक संतुलित विदेश नीति कैसे बनाएगा? हाल के एक इंटरव्यू में श्रीलंका के नये मनोनीत विदेश मंत्री जयंत कोलंबेज ने बयान दिया: “राष्ट्रपति ने कहा है कि अब कर्ज़ नहीं लेंगे. GDP के मुक़ाबले हमारा विदेशी कर्ज़ 86% है, अगर हम 100 डॉलर कमाते हैं तो 86 डॉलर कर्ज़ के रूप में चुकाना होता है.” इसे और समझाते हुए वो बोले, “हम दूसरों को अपने मैदान में फुटबॉल खेलने की इजाज़त नहीं देंगे. कम-से-कम हमें टीम का सदस्य होना चाहिए.” हाल के घटनाक्रमों पर विचार करते हुए लगता है कि बड़ी मात्रा में वित्तीय सहायता और निर्भरता की वजह से श्रीलंका चीन की टीम में शामिल हो गया है. उसने 50 करोड़ डॉलर का 10 साल वाला रियायती कर्ज़ भी लिया है. करोड़ों डॉलर का एक और अनुदान हाल में चीन के उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल के दौरे के बाद दिया गया. चीन के अनुदान को जहां स्वीकार कर लिया गया वहीं अमेरिकी अनुदान पर काफ़ी राजनीति हुई और उसे रोक दिया गया. ये स्थिति श्रीलंका की प्रचलित विदेश नीति, जिसके मुताबिक़ चीन और अमेरिका दोनों के साथ नज़दीकी संबंध रखने है, को ख़तरे में डाल देगी.
एक इंटरव्यू में श्रीलंका के नये मनोनीत विदेश मंत्री जयंत कोलंबेज ने बयान दिया: “राष्ट्रपति ने कहा है कि अब कर्ज़ नहीं लेंगे. GDP के मुक़ाबले हमारा विदेशी कर्ज़ 86% है, अगर हम 100 डॉलर कमाते हैं तो 86 डॉलर कर्ज़ के रूप में चुकाना होता है.” इसे और समझाते हुए वो बोले, “हम दूसरों को अपने मैदान में फुटबॉल खेलने की इजाज़त नहीं देंगे. कम-से-कम हमें टीम का सदस्य होना चाहिए.”
BRI पर चीन की कूटनीति
यांग जीची और वांग यी की अध्यक्षता वाले चीन के दो उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल अक्टूबर 2020 में दो दिशाओं के दौरे पर गया. इस दौरे में दक्षिण एशिया, मध्य-पूर्व, उत्तरी अफ्रीका, बालकन और पूर्वी एशिया के चार देश शामिल हैं. वरिष्ठ राजनयिक यांग को तीन समुद्री देशों- श्रीलंका, UAE, अल्जीरिया- और एक ज़मीन से घिरे देश- सर्बिया- का दौरा करना था. ये देश चीन के BRI में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. उस इलाक़े में 56 प्रतिशत के साथ चीन के निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा सर्बिया में हुआ है. सर्बिया केंद्रीय और दक्षिणी यूरोप के चौराहे पर स्थित है. क़रीब 10 अरब अमेरिकी डॉलर के व्यापार के साथ अफ्रीका में अल्जीरिया चीन का पांचवां सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया है. 50 अरब अमेरिकी डॉलर (गैर-तेल) के द्विपक्षीय व्यापार के साथ UAE BRI में प्रमुख सामरिक साझेदार बन गया है जो चीन को एशिया और यूरोप के बाज़ारों से जोड़ता है. दक्षिण एशिया में श्रीलंका- हिंद महासागर में अपनी ख़ास भौगोलिक स्थिति और महिंदा राजपक्षे के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान BRI के साथ मज़बूत साझेदारी के साथ- एक बार फिर प्रमुख भूमिका में आ गया है. यांग जीची का दौरा महामारी के बाद दक्षिण एशिया में चीन का पहला उच्च-स्तरीय दौरा था और श्रीलंका इसमें पहली मंज़िल बन गया. राजपक्षे बंधुओं की कैबिनेट ने BRI को लेकर चीन के लगातार समर्थन को सुनिश्चित किया है. साथ ही अपनी बीमार अर्थव्यवस्था को फिर से शुरू करने के लिए चीन के निवेशकों को आमंत्रित किया है. पहले गोटाबाया राजपक्षे की जीत और फिर संसदीय चुनाव में उनके भाई महिंदा राजपक्षे की जीत के साथ ही चीन ने तेज़ी से राजपक्षे की पिछली सरकार (2005-2010) की तरह राजनयिक संबंधों की स्थापना कर ली है. ये राजपक्षे की मौजूदा सरकार के दौरान भारी मात्रा में मुहैया कराई गई वित्तीय सहायता और चीन के बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के समर्थन को लेकर फिर से आश्वासन से ज़ाहिर है. यांग जीची का दौरा चीन-लंका साझेदारी को और बढ़ावा देगा क्योंकि चीन के राजनयिक ने पैसे की लगातार मदद से लेकर UNHRC जैसे अंतर्राष्ट्ररीय मंचों पर चीन के समर्थन का भरोसा दिया है. इस तरह राष्ट्रपति गोटाबाया की विकास नीति के ढांचे ‘समृद्धि और वैभव की इमारत‘ की तारीफ़ की गई. जीची ने कहा “हम शब्दों से नहीं बल्कि काम से समर्थन करेंगे.” राष्ट्रपति गोटाबाया ने जिस तरह चीन के ग़रीब गांवों में समृद्धि आई है, उसी तर्ज पर श्रीलंका के गांवों को विकसित करने में चीन की मदद का समर्थन किया है.चीन का ये सफल दौरा बढ़चढ़कर राजपक्षे की विदेश नीति की उस दिशा के बारे में बताता है जो चीन की तरफ़ झुकी हुई है जबकि वो शपथ तो लेते हैं सभी देशों से समान दूरी की. जहां समान दूरी सिर्फ़ एक बीमार अर्थव्यवस्था के लिए दिया गया बयान है, वहीं विदेशी भूराजनीति से इस इलाक़े को ख़तरा बरकरार है. भारतीय विद्वान श्रीकांत कोंडापल्ली का आकलन सही है कि ‘चीन चारों तरफ़ से भारत को घेरने की साज़िश रच रहा है. नेपाल और श्रीलंका का सक्रिय इस्तेमाल करने के अलावा चीन पाकिस्तान को भारत के ख़िलाफ़ दूसरे मोर्चे पर युद्ध के लिए उकसा रहा है.’ दुर्भाग्यवश श्रीलंका में विदेश नीति बनाने वालों ने इस बाहरी फैक्टर और दक्षिण एशिया में चीन के नये रूप का आकलन नहीं किया है. लेकिन पूर्व राजदूत शिवशंकर मेनन ने इसका सही आकलन किया है कि चीन दक्षिण एशिया के देशों की अंदरुनी राजनीति में सीधे या परोक्ष रूप से शामिल होना चाहता है. इस बात के पीछे उन्होंने श्रीलंका के चुनाव में एक उम्मीदवार के पक्ष में साफ़ तरजीह होने का हवाला दिया है.
भारतीय विद्वान श्रीकांत कोंडापल्ली का आकलन सही है कि ‘चीन चारों तरफ़ से भारत को घेरने की साज़िश रच रहा है. नेपाल और श्रीलंका का सक्रिय इस्तेमाल करने के अलावा चीन पाकिस्तान को भारत के ख़िलाफ़ दूसरे मोर्चे पर युद्ध के लिए उकसा रहा है.’ दुर्भाग्यवश श्रीलंका में विदेश नीति बनाने वालों ने इस बाहरी फैक्टर और दक्षिण एशिया में चीन के नये रूप का आकलन नहीं किया है.
किसी क्षेत्रीय सुरक्षा संचालन का काम करने के लिए सहयोगी सुरक्षा की धारणा का भरोसा होना चाहिए. आप जो देख रहे हैं वो चीन के जिद्दी रवैये का मुक़ाबला करने के लिए विशेष गठबंधन है. श्रीलंका के पड़ोसी और क्वॉड के मुख्य साझेदार भारत ने अमेरिका के साथ कई रक्षा समझौतों को आगे बढ़ाते हुए भौगोलिक रक्षा खुफिया जानकारी को साझा करने के लिए बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (BECA) भी किया है. चीन और श्रीलंका के संबंधों को भारत अपने ख़िलाफ़ पाएगा. गुटनिरपेक्षता या तटस्थ विदेश नीति अब बीते दिनों की बात हो गई है. कर्ज़ में डूबा श्रीलंका पहेली बना हुआ है. अंजाने में वो जाल में फंस गया है और अगर वो नियम आधारित व्यवस्था से दूर होगा तो कई अवसरों को गंवाएगा.
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