Author : Ayjaz Wani

Published on Mar 13, 2019 Updated 0 Hours ago

मसूद अजहर की अगुवाई वाला जैश-ए-मोहम्मद उन अनेक आतंकवादी गुटों में से एक है, जिन्हें चीन अपने अशांत झिंजियांग प्रान्त की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण साधन समझता है।

मसूद अजहर के बारे में चीन के दृष्टिकोण के पीछे की असल मंशा

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बीजिंग में बातचीत में हिस्सा ले रहे हैं। स्रोत: Getty

14 फरवरी को सीआरपीएफ के काफिले पर हमले के लिए जिम्मेदार मसूद अजहर की अगुवाई वाला जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) उन अनेक आतंकवादी गुटों में से एक है, जिन्हें चीन अपने अशांत झिंजियांग प्रान्त की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण साधन समझता है। मसूद अजहर, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के अंतर्गत चीन के भू-सामरिक निवेशों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की दृष्टि से भी सबसे ज्यादा भरोसेमंद है। सीपीईसी, दुनिया में सबसे ज्यादा आतंकवादियों वाली जगहों में शुमार अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में चीन की बेल्ट एन्ड रोड इनिसिएटिव (बीआरआई) के तहत उसकी प्रमुख योजना है।

दुखद बात यह है कि पुलवामा में हाल के आत्मघाती हमले के बाद भी अपने इस शख्स के प्रति चीन के आत्म-तुष्टिकरण के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। इस हमले में सीआरपीएफ के 40 से ज्यादा जवान शहीद हो गये थे। इस हमले को अंजाम देने वाला शख्स भले ही कश्मीरी था, लेकिन उसके दिमाग में ऐसे विचार भरने का काम जेईएम की सरगना और उसके सदस्यों ने किया था। इस हमले की निंदा करने वाला चीन लगभग सबसे आखिरी देश था। उसके आधिकारिक बयान में अजहर या उसके आतंकवादी गुट के बारे में सीधे तौर पर कुछ भी नहीं कहा गया। चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेन्ह शाउंग ने सिर्फ इतना ही कहा कि चीन ने “आत्मघाती आतंकवादी हमले की रिपोर्ट्स देखी हैं” और “उन्होंने घायलों तथा शहीदों के परिजनों के प्रति गहरी संवेदना और सहानुभूति व्यक्त की।” उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी नामित किए जाने के बारे में चीन का आधिकारिक रुख दोहराते हुए कहा, “जहां तक उसका नाम आतंकवादियों की सूची में शुमार किए जाने का सवाल है, मैं आपको बता सकता हूं कि 1267 समिति.. में आतंकवादी संगठनों को सूचीबद्ध करने और प्रक्रियाओं के बारे में स्पष्ट व्यवस्था की गई है।”

चीन का रवैया उस समय और भी उजागर हुआ, जब उसके सरकारी समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स ने 16 फरवरी, 2019 को “भारत के नियंत्रण वाले कश्मीर में हुए विस्फोट से भारतीय सैन्य अधिकारीयों की मौत” शीर्षक से संक्षिप्त समाचार प्रकाशित किया। इस संक्षिप्त समाचार में पुलवामा हमले का सरसरी तौर पर जिक्र किया गया था: “वृहस्पतिवार को पुलवामा जिले में हुए भीषण विस्फोट में अर्धसैनिक बल के करीब 40 सुरक्षाकर्मी….मारे गए और कई अन्य घायल हो गए।”

अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में आतंकवादियों के साथ चीन के मधुर रिश्तों की उसके निहित आर्थिक, सुरक्षा और भू-सामरिक हितों पर आधारित ऐतिहासिक विरासत रही है। चीन का उइगर मुस्लिम बहुल झिंजियांग प्रांत 1978 की सुधारों की अवधि के बाद के अर्से में पाकिस्तान के सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव में आया।

पाकिस्तान के मुल्लाओं ने अफगानिस्तान में बने हालात के मद्देनजर उइगरों को भड़काने के लिए उन्हें इस्लाम की बुनियादी शिक्षा और जेहाद के बारे में अपनी विकृत व्याख्या बतानी शुरु कर दी। इस तरह के अनुपयुक्त धार्मिक जागरण ने उइगरों के बीच केंद्र से दूर जाने वाली प्रवृत्तियों को जन्म दिया और उन्होंने 1980, 1981, 1985 और 1987 में चीन-विरोधी प्रदर्शन शुरू कर दिए। सोवियत संघ का विघटन होते ही हालात बदल गए और मुजाहिदीनों ने अपने देश में सत्ता प्राप्त कर ली। पाकिस्तानी मुल्लाओं के बहकावे में आकर, झिंजियांग में अलगाववाद बल पकड़ने लगा और उरुमची, काश्गर, खोतान, कच्चा,अक्सु और अर्तुष में कुछ स्थानों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। बारेन घटना चीन के लिए परिवर्तनकारी थी, जब उइगरों ने 6 अप्रैल 1990 को चीन के खिलाफ जेहाद करने के लिए बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया और पूर्वी तुर्किस्तान राज्य की स्थापना की। इसके बाद भड़के दंगों में उइगरों ने पुलिस और सरकारी अधिकारियों के खिलाफ बमों और पिस्तौलों का इस्तेमाल किया, जिसके परिणामस्वरूप छह पुलिस अधिकारी मारे गए। चीन ने इस अशांति के लिए विदेशी हस्तक्षेप को दोषी ठहराया। उसने आरोप लगाया कि इन दंगाइयों को अफगान-पाकिस्तान क्षेत्र में प्रशिक्षण दिया गया था। सोवियत संघ के विघटन के बाद, चीन में इस बात की आशंका बढ़ गई कि विदेशी ताकतें तालिबान और पाकिस्तान — से गतिविधियां चलाने वाले आतंकवादियों का चीन के खिलाफ इस्तेमाल करेंगी।

चीन की प्रतिक्रिया दोतरफी रही। आंतरिक तौर पर, उसने सरकारी स्तर पर जातीय संहार का रास्ता अपनाया। यहां तक कि आज भी पूरे झिंजियांग में कथित तौर पर एक मिलियन से ज्यादा उइगर पुन: शिक्षा शिविरों (यातना शिविरों) में बंद हैं।

बाहरी तौर पर, चीन ने झिंजियांग के आतंकवाद के “प्रसार” पर अंकुश लगाने के लिए तालिबान और अन्य आतंकवादी गुटों को रिझाना शुरू कर दिया। चीन को आशा थी कि अफगानिस्तान-पाकिस्तान क्षेत्र में आतंकवादी गुटों के साथ मधुर संबंध बनाने से वे उइगर आतंकवाद और पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) को समर्थन नहीं देंगे।

चीन का “संकुचित दृष्टिकोण” और “अपने हितों से प्रेरित कूटनीति” उस समय जाहिर हो गए, जब पाकिस्तान में चीन के राजदूत लु शुलिन ने नवम्बर 2000 में तालिबान सरगना मुल्ला उमर से मुलाकात की। किसी गैर-मुस्लिम देश के शीर्ष राजनयिक का तालिबान सरगना से मुलाकात करने का यह पहला मौका था। मुल्ला उमर ने वादा किया कि तालिबान उइगरों को झिंजियांग में चीन पर हमले करने की इजाजत नहीं देंगे, बदले में उसने शर्त रखी कि वे लोग तालिबान गुटों में बने रहेंगे। तालिबान पर 2001 के अमेरिकी हमले के बाद भी चीन ने “संकुचित दृष्टिकोण” और “अपने हितों से प्रेरित कूटनीति अपनाते हुए क्वेटा शूरा के साथ रिश्ते बरकरार रखे और तालिबान को हथियार और गोला-बारूद उपलब्ध कराना जारी रखा, जिसके नतीजे चीन के लिए अच्छे रहे।” 1997 की गुल्जा घटना के बाद, झिंजियांग में न तो कोई बड़ा आतंकवादी हमला हुआ और न ही इस अशांत प्रांत में उइगरों ने स्वचालित हथियारों का उपयोग ही किया।

आर्थिक और भू-सामरिक हित

चीन के पश्चिमोत्तर हिस्से में स्थित झिंजियांग उसकी बेहद प्रचारित बीआरआई परियोजनाओं, खासतौर पर विवादास्पद सीपीईसी का आरंभिक स्थल है। सीपीईसी के पीछे की मंशा स्पष्ट तौर पर पाकिस्तान की बीमार अर्थव्यवस्था की मदद करने के बजाए चीन के अपने भू-सामरिक और आर्थिक हितों की पूर्ति करना है। सीपीईसी की ढांचागत परियोजनाएं झिंजियांग के काश्गर को बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जोड़ती हैं, जिससे चीन को अपने ऊर्जा आयातों के लिए पश्चिम एशिया और अफ्रीका तक आसान पहुंच उपलब्ध होती है। इस तरह, सीपीईसी संकरे मलक्का जलडमरूमध्य या स्ट्रेट आफ मलक्का से होकर गुजरने वाले परम्परागत मार्ग पर चीन की निर्भरता में काफी कमी लाता है , जिसके अवरुद्ध होने का चीन पर आर्थिक प्रभाव पड़ सकता है।

अनुमान है कि 2022 तक बंदरगाह शहर ग्वादर में 5,00,000 चीनी नागरिक रह रहे होंगे। चीन सीपीईसी और पाकिस्तान में रहने वाले चीनियों की हिफाजत के लिए अजहर को रिझाने में जुटा है।

यूं तो चीन का मोटे तौर पर यह मानना है कि पाकिस्तान अपने खुद के हितों के लिए आतंकवादी गुटों के साथ संघर्ष करने का इच्छुक है, लेकिन अफगानिस्तान-पाकिस्तान के आतंकवादी बहुल क्षेत्र ने चीन को पाकिस्तान के प्रति शंकालु बना दिया है। 2007 में चीन ने पाकिस्तान को लाल मस्जिद स्थित मदरसे के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया, क्योंकि उस मदरसे में रहने वाले कट्टरपंथी ब्यूटी पार्लर चलाने वाली कुछ चीनी लड़कियों के अपहरण में शामिल थे। इस लाल मस्जिद वाले प्रकरण और अब्दुल राशिद गाजी की मौत ने आतंकवादी गुटों को वैश्विक जेहाद छेड़ने के लिए प्रेरित किया। लाल मस्जिद प्रकरण के बाद हुए ऑपरेशन सनराइज के छह महीने के भीतर 40,000 से ज्यादा आतंकवादियों पर प्रभाव रखने वाले 40 से ज्यादा आतंकवादी सरगना 14 दिसम्बर 2007 को वजीरिस्तान में इकट्ठे हुए। उन्होंने एक तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) नामक संयुक्त मोर्चे का गठन किया, जिसने अब्दुल राशिद की मौत का बदला लेने का संकल्प लिया। लाल मस्जिद प्रकरण पाकिस्तानी हुकूमत से लड़ने के लिए टीटीपी का नारा बन गया। इसके परिणामस्वरूप हुई आतंकवादी घटनाओं में 88 बम हमलों में 1,188 लोग मारे गए और 3,209 घायल हो गए, वह भी लाल मस्जिद की घेराबंदी किए जाने के महज एक साल के भीतर।

मसूद अजहर ने 2000 में जेईएम की स्थापना की ताकि वह कश्मीर पर भारत का नियंत्रण कमजोर करने के लिए उसके सरकारी लक्ष्यों पर सम्मिलित आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया जा सके। अजहर अपने भाषण देने के हुनर और जेहादियों को भर्ती करने वाला होने की अपनी छवि के कारण पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण बन गया। हालांकि टीटीपी के गठन के बाद, जेईएम उसके साथ गठबंधन करके उससे जुड़ गया और टीटीपी के अंग के रूप में उसने पाकिस्तान से गतिविधियां चलाना शुरू कर दिया। हालांकि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने अपनी “अच्छे” बनाम “बुरे” आतंकवादी की रणनीति के तहत 2008 में एक बार फिर से जेईएम को दोबारा खड़ा कर दिया। 2011 के बाद, आईएसआई ने ऑपरेशन जर्ब-ए-अजब से पहले टीटीपी में शामिल होने वाले सभी “अच्छे आतंकवादियों” को साथ मिला लिया, जबकि पाकिस्तानी सशस्त्र बलों ने आतंकवादी गठबंधन के खिलाफ ऑपरेशन्स चलाए। यह तथाकथित अच्छे आतंकवादी कश्मीर में जेहाद करने और अफगानिस्तान में तालिबान की मदद करने के लिए जेईएम में शामिल हो गए। इस तरह जेईएम के पुनर्गठन ने बुरे आतंकवादियों को अजहर की अगुवाई वाले अच्छे आतंकवादियों में परिवर्तित कर दिया। इसके अलावा, यूनाइटेड जेहाद काउंसिल (यूजेसी) का सदस्य होने के नाते, अजहर के जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम-फजलुर रहमान धड़ा (जेयूआई-एफ), सिपह-ए-सहाबा, लश्कर-ए-झांगवी और हरकत-उल-मुजाहिदीन जैसे कट्टर धार्मिक गुटों के साथ करीबी रिश्ते थे।

चीन ने कट्टरपंथी तत्वों पर अजहर के प्रभाव को पहचाना और उसका इस्तेमाल क्षेत्र में अपने सामरिक और आर्थिक हितों की हिफाजत के लिए किया।

चीन, अफगान सरकार के साथ भारत के मैत्रीपूर्ण संबंधों से भी खुश नहीं है। इसलिए पाकिस्तान और चीन द्वारा गुपचुप रूप से अजहर के प्रभाव का इस्तेमाल तालिबान को मजबूत बनाने के लिए किया गया, जो अफगानिस्तान के साथ ही साथ कश्मीर में भी भारतीय हितों के खिलाफ था। आतंकवाद पर दोहरे मापदंड दर्शाते हुए चीन ने बलूच आतंकवादियों के साथ सीधे वार्ता भी की, जिन्हें “बुरा आतंकवादी” समझा जाता है और फरवरी 2018 में वे जईएम के प्रभाव में भी नहीं थे। 2001 के बाद अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते तथा लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) पर हस्ताक्षर वे अन्य कारण हैं, जिन्होंने चीन को मसूद अजहर का तुष्टिकरण करने तथा तालिबान को रिझाने के लिए मजबूर किया। अगस्त 2016 में ग्लोबल टाइम्स ने एक सम्पादकीय लिखा, जिसमें कहा गया था: “अगर भारत जल्दबाजी में अमेरिकी गठबंधन प्रणाली में शामिल हो जाता है, तो इससे शायद चीन, पाकिस्तान और तो और रूस नाराज हो सकते हैं। यह भारत को सुरक्षित तो शायद न बनाए, लेकिन इससे उसके लिए सामरिक कठिनाइयां अवश्य उत्पन्न होंगी तथा वह खुद को एशिया में भू-राजनीति प्रतिद्वंद्विताओं का केंद्र बना लेगा।” इसी समाचार पत्र ने 10 नवम्बर 2017 को एक सम्पादकीय प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया: “जब भारत आतंकवाद पर दोहरे मानदंड अपनाने के लिए दुनिया की आलोचना करता है, तो उसने खुद भी लम्बे अर्से तक पाकिस्तान के बलूचिस्तान में अलगाववादी गुटों को समर्थन दिया है, जो देश में आतंकवादी हमलों को अंजाम देते हैं।” जैसे कि अपेक्षा थी, पाकिस्तान ने सुविधाजनक रूप से कराची स्थित चीनी वाणिज्य दूतावास पर बलूच आतंकवादियों के 23 नवम्बर 2018 के हमले के लिए भारत को दोषी ठहरा दिया।

पुलवामा हमले के बाद, कुछ वर्गों को ऐसा लग रहा था कि भारत सरकार द्वारा बढ़ाया गया दबाव चीन को मसूद अजहर के बारे में अपने रुख पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर सकता है। हालांकि चीन के “संकुचित दृष्टिकोण” को देखते हुए, ऐसे मौके पर उठाया गया इस तरह का कदम चीन और पाकिस्तान में रहने वाले चीनी लोगों को आतंकवाद के सामने और भी कमजोर बनाएगा। इसलिए फिलहाल मसूद अजहर के बारे में चीन द्वारा किसी तरह का यू-टर्न लिए जाने की संभावना नहीं है।

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