पिछले लगभग एक साल के अधिक समय से, जापान और दक्षिण कोरिया के बीच संबंधों में लगातार गिरावट आई है. इस क्षेत्र के लंबे विवादास्पद इतिहास और लंबे समय से चल रहे विवाद के तौर पर हुई शुरुआत, अब एक अर्ध-संघर्ष (quasi-conflict) में परिवर्तित हो गई है और इसका प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी नेतृत्व वाले क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे पर दूरगामी परिणाम होगा.
इस विवाद का केंद्र, जापान द्वारा सन् 1910 से द्वितीय विश्व युद्ध के अंत यानी साल 1945 तक कोरिया का विवादास्पद उपनिवेशीकरण है. इस दौरान, जापान द्वारा किए गए अपराधों की सूची भी लंबी है: जबरन श्रम, वेश्यावृत्ति और सामूहिक हत्याएं. जब दोनों देशों ने अंततः 1965 में संबंधों को सामान्य किया, तब जापान ने मुआवज़े और आर्थिक बहाली के बदले 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता की पेशकश की और बदले में कोरिया ने जापान के खिलाफ़ सभी युद्धकालीन दावों को “पूरी तरह से और अंतत:” निपटाने पर सहमति जताई. इसके बावजूद, यह ऐतिहासिक मुद्दा द्विपक्षीय संबंधों में एक खुले घाव की तरह रहा है.
साल 2018 में, दक्षिण कोरिया के सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि दो जापानी कंपनियां उन कोरियाई लोगों को मुआवज़ा देने के लिए उत्तरदायी थीं, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में इन कंपनियों के लिए काम करने के लिए मजबूर किया गया था.
साल 2018 में, दक्षिण कोरिया के सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि दो जापानी कंपनियां उन कोरियाई लोगों को मुआवज़ा देने के लिए उत्तरदायी थीं, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में इन कंपनियों के लिए काम करने के लिए मजबूर किया गया था. मुआवज़े के दावों को फिर से खोलने को लेकर, जापान ने कोरिया पर 1965 की संधि का उल्लंघन करने का आरोप लगाया, और इसके बाद दोनों देशों के बीच आरोप-प्रत्यारोप बढ़ते ही गए.
यह मामला बद से बदतर तब हुआ जब जापान ने घोषणा की, कि वह स्मार्टफोन और सेमीकंडक्टर्स के निर्माण में इस्तेमाल होने वाले कुछ उच्च प्रौद्योगिकी रसायनों के निर्यात को प्रतिबंधित कर रहा है. जापान ने दावा किया सियोल के निर्यात नियंत्रण उपाय, इन संवेदनशील तकनीकों को उत्तर कोरिया, सीरिया और ईरान जैसे देशों के हाथों में आने से रोकने में विफल रहे हैं. यह प्रतिबंध दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा झटका था, क्योंकि सैमसंग और एसके हाइनिक्स (SK Hynix) जैसी कोरियाई कंपनियां सेमीकंडक्टर्स के लिए वैश्विक बाज़ारों की अग्रणी कंपनियां थीं. जापान ने इसके बाद पसंदीदा व्यापारिक साझेदारों (preferred trading partners) की “व्हाइट लिस्ट” से कोरिया को हटाकर, इस कार्रवाई को एक क़दम आगे ले जाने का काम किया. इस सूची के अंतर्गत आने वाले देश, फास्ट-ट्रैक निर्यात प्रक्रियाओं से लाभान्वित होते हैं. जबकि जापान ने दावा किया कि उसका निर्णय विशुद्ध रूप से एक तकनीकी कानून प्रवर्तन से जुड़ा मुद्दा था, सियोल ने इसे साल 2018 में कोरियाई सुप्रीम कोर्ट के फैसले के स्वरूप, प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के रूप में देखा. कोरिया ने इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप अपनी खुद की ‘व्हाइट लिस्ट’ से जापान को हटाने का फैसला किया.
इसके बाद, अगस्त 2019 में, दक्षिण कोरिया ने सैन्य खुफ़िया समझौते (General Security of Military Intelligence Agreement-GSOMIA) से हटने की घोषणा की. साल 2016 में, इस तीन-तरफ़ा खुफ़िया साझाकरण समझौते ने टोक्यो और सियोल को वॉशिंगटन के माध्यम से संवेदनशील खुफ़िया जानकारी साझा करके उत्तर कोरिया को साधने और उससे निपटने की दिशा में सक्षम बनाया था. संयुक्त राज्य अमेरिका के दबाव में, राष्ट्रपति मून जे-इन ने इस समझौते का विस्तार करने के लिए सहमति जताई थी, अब लेकिन जीएसओएमआईए (GSOMIA) से बाहर निकलने संबंधी दक्षिण कोरिया की चेतावनी कई कारणों से चिंताजनक है. कोरिया में राजनेताओं ने लंबे समय तक जापान के साथ मज़बूत रणनीतिक सहयोग के लिए वातावरण तैयार करने के लिए संघर्ष किया है.
कोरिया में राजनेताओं ने लंबे समय तक जापान के साथ मज़बूत रणनीतिक सहयोग के लिए वातावरण तैयार करने के लिए संघर्ष किया है. यह राष्ट्रपति ली मुंग बक ही थे, जिन्होंने एक ऐसी नीति तैयार की जिसमें जापान के साथ घनिष्ठ संबंध की मांग की गई.
यह राष्ट्रपति ली मुंग बक ही थे, जिन्होंने एक ऐसी नीति तैयार की जिसमें जापान के साथ घनिष्ठ संबंध की मांग की गई. ली ने उत्तर कोरिया से निपटने के लिए, जापान के साथ काम करने को लेकर अपने देश को प्रतिबद्ध किया, जिसमें नौसेना पर्यवेक्षकों का आदान-प्रदान और संयुक्त सैन्य अभ्यास में भाग लेना शामिल था. हालाँकि ली मुंग बक, कोरियाई जनता को एक अधिक व्यापक सहयोग संधि के लिए तैयार नहीं कर पाए, क्योंकि औपनिवेशिक इतिहास को फिर से लिखने और नज़रअंदाज करने, व जापान के कथित प्रयासों को लेकर, कोरियाई जनता की नाराज़गी बेहद व्यापक और जटिल थी. साल 2016 में, शिंजो आबे के नेतृत्व वाले जापान के साथ संबंधों को गहरा करने के प्रयासों के तहत दक्षिण कोरिया ने जीएसओएमआईए को अनुमोदित किया. चीन की आक्रामकता वाले इस दौर में, दक्षिण कोरिया द्वारा, इस महत्वपूर्ण खुफ़िया साझाकरण समझौते से बाहर निकलने की धमकी भर देना टोक्यो, वॉशिंगटन और अन्य संबंधित देशों के लिए ख़तरे की घंटी है.
सुलह की कोशिश
इस सबके बीच, एक साल से अधिक समय में, दोनों पक्षों ने तनाव को कम करने के प्रयास में सुलह की कोशिशें की हैं. नवंबर 2019 में चीजें देखने में बेहतर लग रही थीं, जब कोरिया ने न केवल जीएसओएमआईए को नवीनीकृत किया बल्कि जापान के पूर्वोक्त प्रौद्योगिकी निर्यात नियंत्रण के ख़िलाफ़ प्रस्तावित डब्ल्यूटीओ (WTO) मामले को सुलझाने के लिए भी सहमत हुआ. हालांकि, फरवरी 2020 में, जापान ने डब्ल्यूटीओ में, अपने जहाज निर्माण उद्योग के लिए कोरिया की सरकारी सहायता को चुनौती देने वाला मामला दर्ज किया, और कोरिया ने जवाबी कार्रवाई के तौर पर, जापान के ख़िलाफ़ अपना मामला फिर से खोला. डोकडो/ताकेशिमा द्वीपों (Dokdo/Takeshima Islands) पर दोनों पक्षों के दावों ने, दोनों देशों के बीच चल रहे विवादों की कड़ी में एक और विवाद को जोड़ा है, और हालात और बदतर हो गए. इस बीच, जनवरी 2020 में, जापान ने एक राष्ट्रीय संग्रहालय खोला, जो सियोल के विरोध प्रदर्शनों के मद्देनज़र, द्वीप देशों पर जापान के ऐतिहासिक दावों का विवरण देता है.
द्विपक्षीय संबंधों के टूटने के भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिए भी गंभीर परिणाम हो सकते हैं. विश्वभर में फैली महामारी को लेकर पैदा हुआ आर्थिक तनाव गहरा रहा है, और विश्व के सभी देश शायद ही कभी इससे ख़राब़ दौर से गुज़रे हों. कोविड-19 की महामारी ने आपूर्ति श्रृंखलाओं के तहस-नहस कर दिया है, और इस घटनाक्रम से पहले ही वैश्विक अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो रही थी, क्योंकि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध ने निवेशकों के विश्वास को प्रभावित किया था. ऐसे में वैश्विक आर्थिक संभावनाओं के क्षीण होने के साथ, दक्षिण कोरिया अब अपने सेमीकंडक्टर उद्योग और कंपनियों के निर्यात की वृद्धि पर पूरी तरह निर्भर है, और जापान के निर्यात प्रतिबंध ने उसकी आर्थिक स्थिति को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया है. सेमीकंडक्टर उत्पादन में किसी भी तरह का व्यवधान, एप्पल, डैल और हुआवेई जैसे वैश्विक कंपनियों को प्रभावित कर सकता है. मामले को बदतर बनाने के लिए, दक्षिण कोरिया की आबादी ने जापान की कार्रवाई पर बेहद रोष भरी प्रतिक्रिया दी है, और जनता द्वारा चलाए गए, व्यापक बहिष्कार अभियानों ने, जापानी कंपनियों को सफलतापूर्वक लक्षित किया है.
इसके अलावा, डोकडो/ताकेशिमा इलाके को लेकर बढ़ रहे तनाव ने जापान-कोरिया रक्षा साझेदारी में महत्वपूर्ण कमज़ोरियों को उजागर किया है, ऐसे समय में जब चीन के साथ प्रशिक्षण अभ्यास कर रहे एक रूसी जेट ने 2019 में द्वीप पर हवाई-क्षेत्र का उल्लंघन किया था. कोरिया और जापान दोनों ने स्थिति का जवाब देने के लिए मामले से पल्ला झाड़ने की कोशिश की थी और इस सवाल पर कि द्वीपों की रक्षा के लिए कौन सा पक्ष ज़िम्मेदार है, एक दूसरे को जवाबदेह बनाया था. कई लोगों का मानना है कि मॉस्को और बीजिंग ने, टोक्यो और सियोल के बीच पैदा हुए मतभेदों का फ़ायदा उठाकर, दोनों पक्षों को और दूर करने की साज़िश रची थी. उत्तर कोरिया के बढ़ते अक्खड़पन ने भी स्थिति को और ख़राब किया है.
दक्षिण कोरिया अब अपने सेमीकंडक्टर उद्योग और कंपनियों के निर्यात की वृद्धि पर पूरी तरह निर्भर है, और जापान के निर्यात प्रतिबंध ने उसकी आर्थिक स्थिति को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया है.
साल 2019 में, उत्तर कोरिया ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मिसाइल परीक्षणों पर रोक लगाने के एक साल बाद अंतर-महाद्वीपीय मिसाइल परीक्षण फिर से शुरू किया. इसके बाद मिसाइल परीक्षणों की झड़ी लग गई, जिसके ज़रिए प्योंगयांग ने नई अधिग्रहीत मारक क्षमता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया. यह विशेष रूप से चिंताजनक है, क्योंकि पिछले दिनों जापान और दक्षिण कोरिया ने चीन और उत्तर कोरिया के ख़िलाफ़ एक मज़बूत हिस्सेदारी बनाई थी. साल 2013 में चीन द्वारा एयर-डिफेंस आइडेंटिफिकेशन ज़ोन (ADIZ) बनाने का क़दम, जो जापान के अपने एडीआईज़ेड (ADIZ) कार्यक्रम की तर्ज पर शुरू किया गया था, उसे निष्प्राण करने के लिए, जापान और कोरिया ने बिना किसी पूर्व सूचना के, चीन के प्रस्तावित ज़ोन के भीतर संयुक्त अभ्यास किया और चीन की कोशिशों को निरस्त कर दिया था. मौजूदा हालात में इस तरह का सहयोग अब अतीत की बात की तरह लगता है.
अमेरिका की ‘नाकामयाबी’
इंडो-पैसिफिक सुरक्षा ढांचे के लिए और भी अधिक नुकसान अमेरिका की विशिष्ट अनुपस्थिति से हुआ है. प्रशांत क्षेत्र में अपने सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में, अमेरिका ने कूटनीतिक बारीकियों को छोड़कर संघर्ष से बाहर रहने का फैसला किया जिसे “आगे के रास्ते” के रूप में स्वीकार किया गया. चीन के साथ अपने स्वयं के व्यापार युद्ध और कोविड-19 की महामारी के परिणाम से प्रभावित अमेरिका, दोनों पक्षों के बीच समझौता करने के लिए आवश्यक ध्यान देने में असमर्थ रहा है. जब दोनों पक्ष आखिरकार समझौते के पक्ष में आए, तब तक अमेरिका के प्रयास बहुत फीके पड़ चुके थे. मामलों को शांत करने (de-escalation) पर चर्चा के लिए त्रैमासिक बैठकों को “शेड्यूलिंग मतभेदों” के कारण रद्द कर दिया गया, जबकि इस मुद्दे को लेकर सामने आई ख़बरों के मुताबिक, जापान और दक्षिण कोरिया दोनों, अपने मतभेदों को हल करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रवेश से नाखुश थे.
अमेरिकी नेतृत्व की अनुपस्थिति में, चीन ने हस्तक्षेप करने की पेशकश की है और यहां तक कि 2019 में युद्धरत दलों के साथ एक त्रिपक्षीय शिख़र सम्मेलन की मेज़बानी भी की. जबकि चीनी प्रयासों के सफल होने की संभावना नहीं है
जापान मामलों के अनुभवी विश्लेषक माइकल ग्रीन सहित कई विचारकों ने महसूस किया कि अमेरिकी प्रयास बहुत कम थे, और बहुत लंबित भी. अमेरिकी नेतृत्व की अनुपस्थिति में, चीन ने हस्तक्षेप करने की पेशकश की है और यहां तक कि 2019 में युद्धरत दलों के साथ एक त्रिपक्षीय शिख़र सम्मेलन की मेज़बानी भी की. जबकि चीनी प्रयासों के सफल होने की संभावना नहीं है, इस क्षेत्र में कम हो रहा अमेरिकी प्रभाव तेज़ी से स्पष्ट हो रहा है, और बढ़ती अस्थिरता में इसका भी योगदान हो सकता है.
तो ऐसे में क्या किया जाए? सबसे पहले, केविड-19 के प्रकोप और इसके नकारात्मक आर्थिक परिणामों के चलते, व्यापारिक दुश्मनी को जारी रखना बहुत महंगा साबित हो सकता है. सेमीकंडक्टर का उत्पादन जारी रखना, दक्षिण कोरिया के लिए एक ज़रूरी और सकारात्मक क़दम है, और इसी के साथ जापान भी अपनी लंबे समय से पीड़ित अर्थव्यवस्था को ख़तरे में नहीं डालना चाहता है. दूसरे स्तर पर, चीन और उत्तर कोरिया का आक्रामक होना पूर्वी एशिया की स्थिरता के लिए ख़तरा बना हुआ है. कोई भी यह नहीं चाहता कि चीन इस मामले में मनमानी पर उतरे. हालांकि, ऐतिहासिक विवादों के चलते, किसी भी तरह के आसान निपटान की संभावनाएं धूमिल हैं.
साल 2015 में किए गए समझौते को लेकर दक्षिण कोरिया के रवैये को देखते हुए, जापान के इन संदेहों की पुष्टि हुई है कि कोरिया पर, ऐतिहासिक समझौतों को अंतिम रूप देने को लेकर भरोसा नहीं किया जा सकता है.
साल 2015 में, शिंज़ो आबे और कोरियाई राष्ट्रपति पार्क ग्यून-हाय ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जबरन वेश्यावृत्ति के शिकार लोगों की क्षतिपूर्ति के लिए एक संयुक्त कोष स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की. इस सौदे को लेकर कोरिया के विपक्षी दलों ने खासा हंगामा किया और साल 2018 में पद संभालने के बाद राष्ट्रपति मून जे-इन ने इस संयुक्त निधि को भंग कर दिया. आबे के समझौते के निरस्त होने के बाद, जापान ऐतिहासिक मुद्दों को सुलझाने की भूख खो रहा है. साल 2015 में किए गए समझौते को लेकर दक्षिण कोरिया के रवैये को देखते हुए, जापान के इन संदेहों की पुष्टि हुई है कि कोरिया पर, ऐतिहासिक समझौतों को अंतिम रूप देने को लेकर भरोसा नहीं किया जा सकता है. जैसा कि पूर्व संचार मंत्री शिंदो योशिताका ने पूछा है कि, जापान ऐसे देश के साथ कैसे बातचीत कर सकता है, जो “न केवल गोलपोस्ट (लक्ष्य) को स्थानांतरित करता है, बल्कि लक्ष्य को पूरी तरह बदल सकता है”.
अब कोई भी पक्ष पीछे नहीं हट सकता. दोनों देशों में राष्ट्रवादी भावनाओं को राष्ट्रपति मून जैसे नेताओं के भड़काऊ और बढ़चढ़ कर दिए बयानों के माध्यम से सुलगा दिया गया है, जिन्होंने कोरियाई लोगों से वादा किया था कि वे “जापान से दोबारा कभी नहीं हारेंगे”. दोनों राष्ट्रों के बीच बारहमासी रणनीतिक तनावों ने आम जनता के बीच भी स्थायी दुश्मनी पैदा कर दी है. जनमत सर्वेक्षणों से पता चला है कि दक्षिण कोरियाई उत्तरदाताओं में 70 फ़ीसदी से अधिक में जापान के प्रति नकारात्मक और प्रतिकूल भावनाएं थीं, जबकि जापान में 54.4 फ़ीसदी लोगों ने दक्षिण कोरिया के बारे में ऐसा ही विचार साझा किया. इन रुझानों से यह संकेत मिलता है, कि समझौते के माध्यम से संघर्ष को निपटाने में अत्यधिक fराजनीतिक पूंजी खर्च होगी, और ज़रूरी नहीं कि दोनों पक्ष इसके लिए तैयार हों.
दोनों देशों के नागरिकों अब आर्थिक तबाही और विदेशी आक्रामकता की परिस्थिति में भी समझौता करने को तैयार नहीं हैं और ऐसे में जापानी और कोरियाई नीति निर्माता केवल उस गढ्ढे को लेकर विस्मित हो सकते हैं, जो उन्होंने अपने लिए खोद लिया है और जिसे पाटने का कोई स्वरूप अब उन्हें नज़र नहीं आता. जैसा कि जॉन गालब्रेथ ने कहा है, कोरिया और जापान को अब “विनाशकारी और असंगत” के बीच चयन करना होगा.
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