ये लेख हमारी श्रृंखला रायसीना एडिट 2023 का हिस्सा है.
भू-राजनीतिक दृष्टिकोण से दुनिया आज 1945 के बाद अब तक के सबसे अहम पड़ाव पर है. परमाणु हथियारों से लैस महाशक्ति रूस ने अपने यूरोपीय पड़ोसी के ख़िलाफ़ पूर्णकालिक युद्ध छेड़ रखा है. इस जंग को उपनिवेशवादी साम्राज्यवाद के संदर्भ में देखा जा सकता है. जिसमें अतीत का आका एक राष्ट्र को राज्यसत्ता के अधिकार हासिल करने से रोकने की कोशिश कर रहा है, क्योंकि वो महाशक्ति उसे अपना एक प्रांत समझती है. रूस की ये हरकत संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के साथ-साथ समूचे बहुपक्षीय ढांचे के लिए बड़ी चुनौती है. मौजूदा घटनाक्रम वैश्विक संस्थाओं का गंभीर इम्तिहान है. ऐसे में देखना होगा कि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी नियम-आधारित व्यवस्था की धाक जमाने में कामयाब हो पाती है या नहीं.
पिछले 12 महीनों में यूरोपीय संघ (EU)ने अपनी अनेकवर्जनाओं को तोड़ते हुए राजनीतिक एकीकरण की दिशा में तमाम निर्णायक क़दम उठाए हैं. EU के भीतरी समीकरण काफ़ी हद तक बदल चुके हैं. जहां अतीत में फ़्रांस और जर्मनी की जोड़ी यूरोपीय संघ के फ़ैसलों को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त रहती थी, वहीं अब इस मोर्चे पर कई नए किरदार सामने आ गए हैं. मौजूदा वक़्त मध्य और पूर्वी यूरोप का है.
“हमने तो पहले ही बता दिया था”
चलिए यूक्रेन पर रूसी चढ़ाई से पहले के कुछ वर्षों पर नज़र दौड़ाते हैं. अक्सर इस बात को भुला दिया जाता है कि फ़रवरी 2022 में जंग की शुरुआत से पहले कुछ किरदार (मध्य और पूर्वी यूरोपीय सदस्य देश, CEE) ऐसे थे जिन्हें हालात की अच्छी समझ हो चुकी थी. एस्टोनिया, पोलैंड और स्लोवाकिया जैसे देश 2008 के जॉर्जिया युद्ध और 2014 में क्रीमिया को रूस में मिलाए जाने की क़वायद को लेकर सबसे ज़्यादा मुखर थे. रूस की ओर से पेश ख़तरों को ठीक से भांपने और समझने में यूरोप के बाक़ी देशों को कई और साल और एक अन्य युद्ध शुरू होने तक का वक़्त लग गया. यूरोप की संसद अनेक प्रस्तावोंको सामने लाने की मांग उठाने लगी. बहरहाल, इस क़वायद की अगुवाई कौन कर रहे थे?इसमें यूरोपीय संसद के ज़्यादातर स्लोवाक, लिथुआनियन, चेक और पोलिश सदस्य थे. ये तमाम देश अतीत में रूस की दमनकारी गतिविधियों का दंश झेल चुके हैं. इसके बावजूद उनकी सलाह पर वक़्त रहते ध्यान नहीं दिया गया.
EU के भीतरी समीकरण काफ़ी हद तक बदल चुके हैं. जहां अतीत में फ़्रांस और जर्मनी की जोड़ी यूरोपीय संघ के फ़ैसलों को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त रहती थी, वहीं अब इस मोर्चे पर कई नए किरदार सामने आ गए हैं.
ऊर्जा क्षेत्र में भी ऐसी ही सुस्ती बरक़रार रही. एक ओर जर्मनी नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन परियोजना को आगे बढ़ाता रहा, जबकि लिथुआनिया ऊर्जा के मोर्चे पर स्वतंत्रता की दिशा में काम करता आ रहा था. बाल्टिक के इस छोटे से देश ने ऊर्जा को संभावित हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जाने की क़वायद को अनुभव किया था. उसे इस बात का एहसास हो चुका था कि बाज़ार पर अपनी धाक की बदौलत रूस क्या-क्या ख़ुराफ़ात कर सकता है. जब रूस ने लिथुआनिया की निर्भरता को देखते हुए उसपर लगाम लगाने के लिए गैस की क़ीमतों को हथियार के तौर पर प्रयोग करने की कोशिश की तब लिथुआनिया की सरकार ने एक तैरते LNG टर्मिनल के निर्माण का आदेश दे दिया. इस टर्मिनल से लिथुआनिया को अपने ऊर्जा आयातों में विविधता लाने का मौक़ा मिल गया. नतीजतन रूसी कंपनी गैज़प्रॉम क़ीमतों में 20 प्रतिशत तक की कटौती करने पर मजबूर हो गई. रूस के इरादों पर संदेह रखने वाला एक और देश पोलैंड भी नई नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन के विरोध में मज़बूती से आवाज़ उठाता आ रहा है.
पूरब का बढ़ता रसूख़
24 फ़रवरी 2022 को जंग की शुरुआत के वक़्त अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की आम धारणा यही थी कि यूक्रेन इस संघर्ष में कुछ ही दिन टिक पाएगा. कइयों को उम्मीद थी कि यूरोप की प्रतिक्रिया ज़ुबानी तौर पर तो मज़बूत होगी, लेकिन अतीत के कई मौक़ों की तरह उसकी कार्रवाइयां सुस्त, अनिर्णायक और बिना कोई नुक़सान पहुंचाने वाली रहेंगी. दरअसल,एक लंबे अर्से तक रूस ने यूरोप को सियासी तौर पर कमज़ोर और विभाजित इकाई के तौर पर देखा है. EU ऐसे निर्णायक क़दमों, कार्रवाइयों या प्रतिबंधों पर रज़ामंद नहीं होता जिनसे आर्थिक तौर पर यूरोप पर भी चोट पड़ने का ख़तरा रहता है.रूस का आकलन था कि फ़रवरी 2022 का कालखंड युद्ध छेड़ने के लिए भू-राजनीतिक तौर पर एक आदर्श समय था. रूस काये आकलन कई बुनियादों पर आधारित था: जर्मनी की पूर्व चांसलर मर्केल के बाद का युग, फ़्रांस-जर्मनी की कमज़ोर पड़ती पकड़, जर्मनी में एक नए चांसलर का सत्ता संभालना, अमेरिका का एक ऐसा राष्ट्रपति जो टकराव की बजाए संवाद को वरीयता देता है, और ब्रेक्ज़िट के दुष्परिणामों से जूझ रही ज़ख़्मी ब्रिटिश राज्यसत्ता.
बहरहाल, रूस ने जिस बात पर तवज्जो नहीं दी वो थी आमतौर पर विभाजित रहने वाले मध्य और पूर्वी यूरोप का निर्णायक नेतृत्व. यक़ीनन एकीकृत यूरोप के इतिहास में ये पहला मौक़ा है जब CEE देशों ने EU और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) की प्रतिक्रिया को उद्देश्यपूर्ण रूप से आकार देने का काम कियाहै. इन देशों की ऐसी क़वायद अनेक क्षेत्रों में दिखाई देती रही है.
एक लंबे अर्से तक रूस ने यूरोप को सियासी तौर पर कमज़ोर और विभाजित इकाई के तौर पर देखा है. EU ऐसे निर्णायक क़दमों, कार्रवाइयों या प्रतिबंधों पर रज़ामंद नहीं होता जिनसे आर्थिक तौर पर यूरोप पर भी चोट पड़ने का ख़तरा रहता है.
पहला, युद्ध के शुरुआती दौर में रूस ने पश्चिम को चेतावनी दी थी कि यूक्रेन को हथियार भेजने की किसी भी कोशिश को टकराव को बढ़ावा देने वाली हरकत के तौर पर देखा जाएगा. इस धमकी के बावजूद CEE देशों ने किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं दिखाई. वो यूक्रेन को हथियारों और गोला-बारूद सौंपने वाले पहले देशों में शुमार रहे. उनकी कार्रवाई का नेटो पर प्रभाव उस समय अस्पष्ट था. पोलैंड के नेतृत्व वाला “नया यूरोप” यूक्रेन को पेट्रियट हवाई रक्षा प्रणालियों और मुख्य युद्धक टैंक भेजने के प्रयासों की अगुवाई करता रहा है. इसी तरह स्लोवाकिया ने यूक्रेन की जंगी क़वायदों को धार देने के लिए उसे हवाई रक्षा प्रणाली, स्वयं-संचालित तोपों काबेड़ा और सोवियत संघ के ज़माने के टैंक दान में दिए हैं. दरअसलमध्य यूरोपीय देशों ने एक भू-राजनीतिक बाज़ी खेली और उसको जीता. नतीजतन उन्हें कूटनीतिक सराहना और आख़िरकार नेटो गठजोड़ की सहायता हासिल हुई. ये कार्रवाइयांअनेक पारंपरिक वर्जनाओं को तोड़नेमें मददगार साबित हुई हैं. आगे चलकर फ़्रांस, जर्मनी और बाक़ी का “पुराना यूरोप” भी इससे जुड़ता चला गया. हथियार मुहैया करानानेटो और EU की मानक नीति बन गई है. समय के साथ-साथ इसकी गुणवत्ता और पैमाने में बढ़ोतरी होती चली गई है.
दूसरा, मध्य और पूर्वी यूरोपीय नेतृत्व के बलबूते एक और वर्जना से पार पा लिया गया है: वो है यूक्रेन को यूरोपीय संघ की उम्मीदवारी का दर्जा देना. युद्ध में उलझे किसी देश को ऐसा दर्जा देने को शुरुआती दौर में कपोल-कल्पना समझा गया था, लेकिन CEE देशों के दबाव में इस रुख़ में बदलाव आ गया. अब यूक्रेन EU में शामिल होने को लेकर आधिकारिक वार्ताओंकी शुरुआत कर चुका है.
तीसरा, संघर्ष में उलझे यूक्रेनी समाज और नेतृत्व के प्रति समर्थन जताने के लिए स्लोवाक, चेक और पोलैंड के नेताओं ने ही सबसे पहले कीव का दौरा किया था. पश्चिमी यूरोप के कई साथियों ने इसे मौलिक रूप से “ग़ैर-ज़िम्मेदार” सियासी क़दम के तौर पर देखा था, लेकिन अब ये पश्चिम का सामान्य कूटनीतिक हथकंडा बन गया है. पूर्वी यूरोपीय देशों के तत्काल बाद यूरोप के लगभग हर राज्य-प्रमुख और सरकार के मुखिया ने भारी सुरक्षा जोख़िमों के बावजूद कीव का दौरा कर यूक्रेन के प्रति अपना समर्थन जताया है.
चौथा, जब रूस ने यूक्रेन के ख़िलाफ़ अपने आक्रामक अभियान की शुरुआत की थी, तब लाखों यूक्रेनियों ने सुरक्षित ठिकानों की तलाश में पलायन किया था. चेक रिपब्लिक, हंगरी, पोलैंड और स्लोवाकिया की चौकड़ी (V4) ने इन लोगों की मदद में सबसे पहले हाथ बढ़ाया था. इन देशों ने लाखों लोगों को अस्थायी रिहाइश के साथ-साथ EU के अन्य देशों तक पहुंचने का रास्ता मुहैया कराया था. मुसीबत में घिरे यूक्रेनियों के प्रति असाधारण हमदर्दी दिखाने के लिए CEE देशों को पूरे यूरोप में ज़बरदस्त प्रशंसा और सराहना हासिल हुई. इसी दबाव के चलते यूरोप के बाक़ी देशों को भी अपने दरवाज़े खोलने और यूक्रेनी लोगों को शरणार्थी और कामगार के तौर पर स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा. ग़ौरतलब है कि कुल मिलाकर 80 लाख शरणार्थियों ने यूक्रेन से पलायन किया था. इनमें से ज़्यादातर मध्य और पूर्वी यूरोप से होकर गुज़रे थे. इस दौरान उन्हें सबसे पहली पनाह पोलैंड, स्लोवाकिया, रोमानिया, हंगरी और बाल्टिक गणराज्यों में हासिल हुई थी.
कुल मिलाकर 80 लाख शरणार्थियों ने यूक्रेन से पलायन किया था. इनमें से ज़्यादातर मध्य और पूर्वी यूरोप से होकर गुज़रे थे. इस दौरान उन्हें सबसे पहली पनाह पोलैंड, स्लोवाकिया, रोमानिया, हंगरी और बाल्टिक गणराज्यों में हासिल हुई थी.
इस बीच अन्य पश्चिमी साथियों के साथ मिलकर EU ने रूस के ख़िलाफ़ तमाम अभूतपूर्व प्रतिबंध आयद कर दिए. इनमें रूसी बैंकों को SWIFT से हटाना, रूसी परिसंपत्तियों को ज़ब्त करने के अलावा रूसी तेल और गैस पर ज़बरदस्त पाबंदियां और रोक लागू करना शामिल है. EU ने आर्थिक और सियासी तकलीफ़ों की परवाह किए बिना रूसी हाइड्रोकार्बन से दूर हटने का बुद्धिमानी भरा फ़ैसला ले लिया.
आख़िरकार, सालों तक महज़ ज़ुबानी शिगूफ़ों तक सीमित रहने के बाद नेटो और EU के बीच कारगर सहयोग का विचार ज़मीनी तौर पर साकार हुआ.बाइडेन के नेतृत्व वाले अमेरिका और EU से बाहर के यूरोपीय सदस्यों (जैसे ग्रेट ब्रिटेन या नॉर्वे) के साथ समन्वय क़ायम करने की ज़रूरत के मद्देनज़र ऐसी क़वायद को आकार मिला. EU इन दिनोंनेटो के साथ सचमुच क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ रहा है.
इस सामरिक बदलाव की शुरुआत मध्य और पूर्वी यूरोप में हुई और जल्द ही पूरे महादेश में इसका विस्तार हो गया. CEE की सरकारों और समाज द्वारा दिखाए गए बेहतरीन नेतृत्व की बदौलत अभूतपूर्व फ़ैसले लिए गए.
अब आगे क्या?
यूक्रेन पर रूस की चढ़ाई की पहली सालगिरह हमें भविष्य के लिए कई अहम निष्कर्षों की ओर ले जा रही है. मध्य और पूर्वी यूरोप ने EU के सियासी आयामों को और सक्रिय कर दिया है. उन्होंने EU के भविष्य को आकार देने में अपनी अहमियत का प्रदर्शन किया है. हमें ये बात स्वीकारनी होगी कि विदेश नीति के मोर्चे पर यूरोप का एजेंडा तय करने के मद्देनज़र CEE देशों के पास इस समूह में और ज़्यादा प्रभावशाली बनकर उभरने का बेहद व्यावहारिक अवसर है. CEE के तमाम देश उपनिवेशवाद के बाद के दौर में किसी भी तरह के वैचारिक बोझ से आज़ाद हैं. ये तमाम देश भारत जैसे वैश्विक साथियों के साथ यूरोपीय संवाद को आगे बढ़ाने में मदद करने को लेकर यूरोप की ओर से बेहतर उम्मीदवार साबित हो सकते हैं.
मध्य और पूर्वी यूरोप के देश रक्षा के क्षेत्र में अपने निवेश में नाटकीय रूप से बढ़ोतरी कर रहे हैं. ऐसे में उनके यूरोप में हथियारों से बेहतरीन रूप से लैस देश बनकरउभरने के पूरे आसार हैं. मिसाल के तौर पर पोलैंड ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का 4 प्रतिशत हिस्सा रक्षा के क्षेत्र में ख़र्च करने का एलान किया है.यूक्रेन का संभावित पुनर्निर्माण शुरू होने वाला है, ऐसे में शिक्षित, कुशल और सस्ते श्रम संसाधनों के साथ आर्थिक गतिविधियों का पूर्व की ओर प्रसार होने की प्रबल संभावना है.
बाक़ी दुनिया को यूरोपीय इतिहास के इस लम्हे को एक अहम भू-राजनीतिक बदलाव के तौर पर देखना चाहिए. एक ऐसा पल जब यूरोप अपने दो फेफड़ों के ज़रिए पूरी तरह से सांस लेना शुरू कर रहा है, जब महादेश का पूर्वी और पश्चिमी हिस्सा एक-दूसरे का पूरक बनकर काम करने लगा है.
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