Author : Ramanath Jha

Published on Nov 05, 2020 Updated 0 Hours ago

समस्या का हल बहुत सीधा है. पहला कदम नीति को सही तरीके से तय करना है. सरकारों को मौजूदा किराया क़ानूनों को ख़त्म करने से शुरुआत करनी होगी.

भारत के शहरी इलाकों में इमारतों के ढहने की समस्या: एक विश्लेषण

भिवंडी-निज़ामपुर नगर निगम इमारत की समस्याओं से परिचित था और उसने इसके मालिक को बार-बार नोटिस दिए थे.

ठाणे से 15 किलोमीटर दूर और मुंबई महानगर क्षेत्र (MMR) का एक हिस्सा, भिवंडी, देश में सबसे बड़ी संख्या वाले टेक्सटाइल पावरलूम का शहर है. 1976 में इसकी आबादी 1,00,000 से कम थी. 1980 और 90 के दशक में शहर तेज़ी से बढ़ा और अब यह महानगरीय शहर (10 लाख आबादी) बनने के क़रीब है. इसके उद्योगों और उनमें काम करने वालों की ज़रूरत ने बहुत से लोगों को आकर्षित किया, जिसके नतीजे में बड़ी संख्या में मकान और दूसरे निर्माण हुए. दुर्भाग्य से, ऐसे कुछ निर्माणों और शहर के विस्तार में मानकों और शहरी नियोजन के मानदंडों और सिद्धांतों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया. ऐसे बेलगाम शहरीकरण के चलते इसका नकारात्मक असर पड़ना ही था.

भिवंडी में 21 सितंबर 2020 तड़के एक तीन मंज़िला इमारत हादसे का शिकार हो गई, जिसमें तीन दर्जन से ज़्यादा लोग नींद में मारे गए और दो दर्जन लोग ज़ख्मी हो गए. यह ज़्यादा पुरानी इमारत नहीं थी. इसे साढ़े तीन दशक पहले बनाया गया था. ज़ाहिर है, बिल्डिंग निर्माण के नियमों की अनदेखी की गई थी. शहर के प्रशासन का प्रभारी शहरी स्थानीय निकाय (ULB) भिवंडी-निज़ामपुर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन को इस इमारत की समस्याओं के बारे में पता था और उसने इसके मालिक को बार-बार नोटिस दिए थे. इन पर कोई कदम नहीं उठाया गया और अफ़सरों ने लिखित चेतावनी देने के बाद कुछ नहीं किया. हमेशा की तरह, जांच बिठा दी गई है और दो सरकारी अफ़सरों को निलंबित कर दिया गया है, जबकि नेशनल डिज़ास्टर रिस्पांस फ़ोर्स (NDRF) ने आपदा से निपटने में स्थानीय निकाय और इसकी अग्निशमन सेवाओं की मदद की.

भिवंडी में 21 सितंबर 2020 तड़के एक तीन मंज़िला इमारत हादसे का शिकार हो गई, जिसमें तीन दर्जन से ज़्यादा लोग नींद में मारे गए और दो दर्जन लोग ज़ख्मी हो गए. यह ज़्यादा पुरानी इमारत नहीं थी. इसे साढ़े तीन दशक पहले बनाया गया था. ज़ाहिर है, बिल्डिंग निर्माण के नियमों की अनदेखी की गई थी.

अच्छी बात यह है कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने मामले का स्वतः संज्ञान लिया. कल्याण-डोंबिवली में निर्माण के एक मामले की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की, “भिवंडी में एक इमारत गिर गई, कई लोगों की जान चली गई. हमें बताया गया है कि मुंबई में भी स्थिति काफी गंभीर है.” उन्होंने आगे कहा, “हम सरकार और सभी स्थानीय निकायों को पक्षकार बना रहे हैं और नोटिस जारी कर रहे हैं.” उम्मीद है कि हाई कोर्ट के अंतिम निर्देशों से शहरी स्थानीय निकायों द्वारा अनधिकृत निर्माणों की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने के लिए और अधिक सक्रिय प्रयास होंगे.

हालांकि, यह इमारत घटिया ढांचा, अवैध निर्माण और विकास नियंत्रण नियमों के उल्लंघन कर अवैध निर्माण गतिविधि का मामला था, जैसा कि एमएमआर के बड़े हिस्से में खुलेआम चलता है. एक एक्टिविस्ट ने आरोप लगाया कि पिछले पांच वर्षों में घटिया सामग्री से बनी और नियमों के तहत अनुमति दी जा सकने वाली संख्या का उल्लंघन कर पांच सौ अवैध इमारतें बनाई गई हैं. ऐसी इमारतें जहां-तहां खड़ी कर दी गई हैं. फायर ब्रिगेड की गाड़ियों के आने के रास्ते और खुली जगहें छोड़ने के नियम का खुला उल्लंघन किया गया है. नतीजतन आपदा की स्थिति में, तंग गलियों से इमारत तक पहुंचना और जगह खाली करना बेहद मुश्किल होता है. हालांकि, ऐसे उल्लंघनों का भिवंडी अकेला दोषी नहीं है. उल्हासनगर और मुंब्रा भी ऐसे ही नियमों का उल्लंघन करने वाले इलाके हैं. बल्कि मुंब्रा में 2013 में एक अवैध इमारत का गिरना इस तरह की सबसे बुरी त्रासदियों में से एक था, जिसमें 74 लोगों की जान चली गई थी.

एमएमआर में अवैध और घटिया निर्माण वाली बहुत सी पुरानी और जर्जर इमारतें हैं जो ख़तरनाक हैं, जिसका मतलब है कि इनसे ख़तरा है और इनकी बड़े पैमाने पर मरम्मत की ज़रूरत है. इनमें से ठाणे में 4,500 ऐसी इमारतें हैं, जिनकी निगम अधिकारियों ने कुछ समय पहले पहचान की थी. इनमें से 79 बेहद ख़तरनाक हैं, जिसका मतलब है कि वे कभी भी गिर सकती हैं और उन्हें तोड़ देने की ज़रूरत है. ख़ुद मुंबई में 14,000 से ज़्यादा इमारतें 50 साल से ज़्यादा पुरानी हैं. रख-रखाव की कमी के कारण, वे खतरे में हैं. इस तरह, हमारे सामने ऐसे हालात हैं जहां एमएमआर ऐसे निर्माणों से भरा है जो रूल बुक से आज़ाद हैं. बाकी बहुत सी इमारतें पूरी तरह अवैध और जर्जर हैं जो अगले कुछ सालों में कभी भी गिर सकती हैं.

एमएमआर में अवैध और घटिया निर्माण वाली बहुत सी पुरानी और जर्जर इमारतें हैं जो ख़तरनाक हैं, जिसका मतलब है कि इनसे ख़तरा है और इनकी बड़े पैमाने पर मरम्मत की ज़रूरत है. इनमें से ठाणे में 4,500 ऐसी इमारतें हैं, जिनकी निगम अधिकारियों ने कुछ समय पहले पहचान की थी.

चिंताजनक बात यह है कि पिछले दशकों में इनके बारे में ज़्यादा कुछ नहीं किया गया. पुरानी जर्जर इमारतों के मामले में, सबसे बड़ी अपराधी शहर निकाय और सरकार की तत्परता है जो क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियां चलाने की अनुमति देती है, लेकिन अर्थव्यवस्था को किफा़यती घरों की पर्याप्त संख्या की उपलब्धता के साथ सहारा नहीं देती. निश्चित रूप से, कामगार सिर पर छत के बिना आर्थिक गतिविधियों में शामिल नहीं हो सकता है. निजी तौर पर क़िफ़ायती घरों का निर्माण बाज़ार के लिए बहुत रुचिकर नहीं था; लेकिन महाराष्ट्र के किराया क़ानून द्वारा इसमें सबसे ज़्यादा रुकावट डाली गई, जो मकान मालिकों की पूरी तरह उपेक्षा करते हुए किरायेदारों के पक्ष में है. धीमी बढ़ोत्तरी के साथ किराए बहुत कम हो गए और किरायेदारों को निकाला नहीं जा सकता था. इसलिए, मकान मालिकों के लिए यह स्वाभाविक था कि वे अपनी इमारतों के रख-रखाव की उपेक्षा करें और किरायेदारों को उनकी किस्मत पर छोड़ दें.

कमज़ोर होती इमारतों की समस्या के समाधान की कोशिश में सरकार ने रिपेयर्स एंड रीकंस्ट्रक्शन बोर्ड (मरम्मत एवं पुनर्निर्माण बोर्ड) बनाया. इसने मरम्मत के लिए किरायेदारों से शुल्क वसूला और किरायेदारों को सुरक्षित मकान देने की कोशिश की. बदकिस्मती से न तो पर्याप्त धन था और न ही उस धन को खर्च करने का सरकार के पास कौशल था. इसलिए बोर्ड का काम विवादों और चौतरफा असंतोष में घिर गया. नतीजे दुखदायी रहे. नगरपालिका के अफ़सरों ने जर्जर इमारतों के मालिकों और किरायेदारों को नोटिस दिए हैं. हालांकि, वे इससे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते थे, क्योंकि मकान मालिक मरम्मत पर ख़र्च करने के लिए इमारत से बहुत कम कमाते हैं. दूसरी ओर, किरायेदार घर छोड़कर नहीं जा सकते थे क्योंकि उन्हें या तो बहुत महंगे किराए पर घर लेना होता या बिना घर के रहना पड़ता. इसलिए, नियमित रूप से हमें हर साल कुछ इमारतों के गिरने और उनमें लोगों की दुखद मौतों की ख़बरें सुनाई देती हैं.

अवैध निर्माणों की — एक तरह से अच्छी बात— यह है कि इनसे लोगों को किसी तरह घर मिल जाता है. बुरी बात यह है कि ये ठीक से नहीं बनाए जाते हैं और इनमें से कुछ लोगों की ज़िंदगी ख़तरे में डाल देते हैं. स्थानीय निकाय के अधिकारियों को ऐसे निर्माणों को रोकने और गिराने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल नहीं करने का एक हद तक दोषी ठहराया जाता है. लेकिन ऐसा कहना आसान है, करना मुश्किल है. अतीत में जिन अफ़सरों ने नियम को लागू करने की हिम्मत की है, उन्हें जान से मारने की धमकी और जानलेवा हमलों का सामना करना पड़ा है. उदाहरण के लिए, उल्हासनगर में नवंबर 2018 में स्थानीय लोगों ने अवैध दुकानों के निर्माण और दुकानों से होने वाली परेशानी के बारे में शिकायत की. जब उल्हासनगर नगर निगम के संयुक्त आयुक्त ने शिकायत का संज्ञान लिया और अवैध दुकानों को गिराने के लिए साइट पर पहुंचे, तो उन्हें पंद्रह स्थानीय लोगों की एक भीड़ ने पीट दिया. यह इस तरह की अकेली घटना नहीं है. साफतौर पर एमएमआर के कुछ हिस्सों में, अनधिकृत निर्माण राजनीतिक दलों और दबंगों द्वारा समर्थित हैं. हालांकि, ईमानदारी से यह मान लिया जाना चाहिए कि अवैध निर्माण अब कमोबेश एक राष्ट्रस्तरीय शहरी घटना है और इसके ढेरों उदाहरण देश के लगभग सभी बड़े शहरों में पाए जा सकते हैं.

वर्ष 2015 में, भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय शहरी आवास किराया नीति (NURHP) का मसौदा तैयार किया और 2019 में एक मॉडल किरायादारी क़ानू का मसौदा पेश किया. दोनों एक क़ानूनी ढांचे की सिफारिश करते हैं जो मकान मालिक और किरायेदार के हित संतुलन बनाना हो.

समस्या का समाधान बिल्कुल सीधा है. पहला कदम सही तरीके से नीति बनाना है. सबसे पहले जिस तरह के किराए के क़ानून हैं, सरकारों को इन्हें खत्म करने से शुरुआत करनी होगी. राज्यों को ऐसा क़ानून बनाने की ज़रूरत है जो किरायेदार के साथ मकान मालिक के हितों में  संतुलन रखता है. वर्ष 2015 में, भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय शहरी आवास किराया नीति (NURHP) का मसौदा तैयार किया और 2019 में एक मॉडल किरायादारी क़ानू का मसौदा पेश किया. दोनों एक क़ानूनी ढांचे की सिफारिश करते हैं जो मकान मालिक और किरायेदार के हित संतुलन बनाना हो.

प्रस्तावित मॉडल क़ानून को राज्यों द्वारा अपनाया जा सकता है. इसके अलावा, सरकारों को क़िफ़ायती आवास उपलब्ध कराने में केंद्रीय भूमिका निभानी होगी. इसमें ख़ुद रहने के लिए और किराए पर देने दोनों के लिए मकान को शामिल किए जाने की ज़रूरत है. अच्छे, क़िफ़ायती मकान के निर्माण के लिए निवेश, प्रोत्साहन और बढ़ावा देना चाहिए. यह अवैध निर्माणों को बढ़ावा देने के बजाय हाशिये पर पहुंचा देगा, जिसे तब उचित निगरानी व्यवस्था के माध्यम से रोका जा सकेगा. समस्या के विशाल आकार को देखते हुए, नीति सुधार के बिना सुधार की कोई भी कोशिश क़ामयाब नहीं होगी.

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