ये लेख स्ट्रैटेजिक हाई टाइड इन द इंडो-पैसिफ़िक: इकॉनोमिक्स, इकोलॉजी, एंड सिक्योरिटी नाम की निबंध श्रृंखला का हिस्सा है.
आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे पर एशिया की बढ़ती अहमियत पर अब किसी को कोई शक़ नहीं रह गया है. एशिया से ही शुरू हुई कोविड-19 महामारी (Covid_19) ने यहां की आर्थिक प्रगति की रफ़्तार को धीमा भले कर दिया हो लेकिन यहां की विकास यात्रा न तो बेपटरी हुई है और न ही पीछे गई है. निश्चित रूप से एशिया में हुई तेज़ आर्थिक तरक्की ने करोड़ों लोगों को ग़रीबी से उबारने में कामयाबी दिलाई है. विकास की इसी तेज़ रफ़्तार के बूते एशिया दोबारा वैश्विक अर्थव्यवस्था का केंद्र बनता जा रहा है. ग़ौरतलब है कि 16वीं शताब्दी तक एशिया ही दुनिया की अर्थव्यवस्था का केंद्र-बिंदु था.
मोबाइल कम्युनिकेशन नेटवर्क के विस्तार से निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों के ग्रामीण इलाक़ों की अर्थव्यवस्था और उत्पादकता में सुधार आता है.
यक़ीनन दुनिया भर की नज़रें एशियाई बाज़ारों पर टिकी हैं. यहां मध्यम वर्ग की आबादी और उसकी आर्थिक ताक़त (क्रय शक्ति या purchasing power) में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है. ऐसे में स्वाभाविक है कि एशिया में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं का एशिया में ही उपभोग भी बढ़ता जाएगा. इससे एशिया के भीतर कारोबार में बढ़ोतरी होगी. हालांकि इसके लिए व्यापार के रास्ते की बाधाओं को कम करना होगा. साथ ही अनेक स्तरों पर कनेक्टिविटी मुहैया कराने के लिए सामूहिक प्रयास करने होंगे. समाज के ज़्यादा से ज़्यादा हिस्से के मुनाफ़े के लिए समावेशी व्यापार की ज़रूरत है. इस क़वायद की कामयाबी के लिए बहुआयामी कनेक्टिविटी पहली ज़रूरी शर्त है.
कनेक्टिविटी
शोध कार्यों के सबसे ठोस नतीजे व्यवस्थित समीक्षाओं से हासिल होते हैं. इसमें रिसर्च प्रोटोकॉल्स के रजिस्ट्रेशन, शोध लेखों के व्यवस्थित संग्रह, शोधकर्ताओं की टीम द्वारा उनकी पड़ताल और छंटाई से जुड़े सख़्त नियम-क़ायदों और प्रक्रियाओं पर अमल किया जाता है. हाल ही में शोध की सुनियोजित समीक्षा से ये बात पुख़्ता तौर पर सामने आई है कि मोबाइल कम्युनिकेशन नेटवर्क के विस्तार से निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों के ग्रामीण इलाक़ों की अर्थव्यवस्था और उत्पादकता में सुधार आता है.
मोबाइल कम्युनिकेशन नेटवर्क के विस्तार से निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों के ग्रामीण इलाक़ों की अर्थव्यवस्था और उत्पादकता में सुधार आता है.
अब तक अलग-अलग बाज़ारों में सक्रिय रहे ख़रीदारों और विक्रेताओं के बीच तालमेल में सुधार से जुड़ी व्यवस्थागत बदलाव से ये कामयाबी हासिल हुई है. दरअसल मोबाइल नेटवर्क के विस्तार से ये तमाम किरदार एक बड़े बाज़ार से जुड़ जाते हैं. हालांकि इस प्रक्रिया की कामयाबी के लिए पहले कुछ शर्तें पूरी करने की ज़रूरत होती है. अगर परिवहन सुविधाएं नदारद हों या संस्थागत कारकों के चलते व्यापार मुमकिन ही न हो सके, तो ऊपर बताए गए फ़ायदे ज़मीन पर नहीं उतर सकेंगे.
संकलित किया गया शोध देशों में आंतरिक तौर पर होने वाले व्यापार के सकारात्मक प्रभावों पर आधारित था. हालांकि देशों की सरहदों के बाहर होने वाले व्यापार के सिलसिले में भी इस शोध को विस्तृत स्वरूप देना लाज़िमी हो जाता है. देशों के बीच डिजिटल कनेक्टिविटी बढ़ने (वैश्विक व्यापार मंचों समेत) से व्यापार के मोर्चे पर एकीकरण के ज़रूरी अवसर हासिल होते हैं. आर्थिक तौर पर इसके सकारात्मक नतीजे देखने को मिलते हैं. हालाकि आवश्यक और पर्याप्त सुविधाओं या हालातों की ग़ैर-मौजूदगी में ऐसे सकारात्मक नतीजे हासिल नहीं हो सकते. यहां ग़ौर करने वाली बात ये है कि घरेलू संदर्भों के विपरीत वैश्विक या अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में इन ज़रूरी शर्तों को पूरा करना कहीं ज़्यादा कठिन और पेचीदा होता है.
वस्तुओं के व्यापार के लिए परिवहन और रसद से जुड़ी सुविधाओं की मौजूदगी अनिवार्य है. साथ ही व्यापार के सिलसिले में करों और शुल्कों पर आधारित (tariff) और शुल्कों से इतर (non-tariff) रुकावटों की ज़रूरत से ज़्यादा मौजूदगी नहीं होनी चाहिए. सेवाओं के व्यापार (जैसे ऑनलाइन फ़्रीलांसिंग) प्लैटफ़ॉर्मों के ज़रिए आसान हो जाते हैं. हालांकि अंतरराष्ट्रीय भुगतानों और अदायगियों से जुड़ी कठिनाइयों से इनके रास्ते में भी रुकावटें आ सकती हैं.
एशिया के भीतर एकीकरण से जुड़ी क़वायद के फ़ायदे हासिल करने के लिए एशियाई क्षेत्र में हर स्वरूप में कनेक्टिविटी में सुधार लाना होगा. इससे वस्तुओं, लोगों और तमाम छोटे-बड़ी चीज़ों को कम लागत पर लाने-ले जाने की क्षमता में बढ़ोतरी होती है. बंदरगाहों, हवाई अड्डों, रेलवे और सड़क मार्गों का सुधार ज़रूरी है. इसी की बदौलत देशों के भीतर और अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार वस्तुओं और सेवाओं का आवागमन कुशलता के साथ संभव हो सकता है. एशियन हाईवे और ट्रांस एशियन रेलवे नेटवर्क जैसी क्षेत्रीय क़वायद दशकों पहले शुरू की गई थीं. एशिया प्रशांत के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक आयोग (ESCAP) के तहत इस कार्यक्रम का आग़ाज़ हुआ था. द्विपक्षीय तौर पर कई अलग-अलग पहलों के ज़रिए इस दिशा में और भी कार्य किए जा रहे हैं.
भारतीय वस्तुओं का सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार (16.79 प्रतिशत) अमेरिका है. दक्षिण एशिया में भारत का कोई भी पड़ोसी देश भारतीय सामानों के आयातक देशों की सूची में शीर्ष पांच में नहीं है.
डिजिटल कनेक्टिविटी के सिलसिले में सुधारवादी प्रयास अभी हाल ही में शुरू किए गए हैं. 10 साल पहले बांग्लादेश दुनिया के साथ समुद्र के नीचे बिछाए गए इकलौते केबल (SEA-ME-WE4) के ज़रिए जुड़ा था. वहीं 20 साल पहले तो ये सुविधा भी मौजूद नहीं थी. तीन तरफ़ से भारत से घिरे होने के बावजूद बांग्लादेश का डिजिटल कनेक्टिविटी के मामले में 2010 तक प्रत्यक्ष रूप से भारत से सीधा जुड़ाव नहीं था. दरअसल पर्याप्त टैरेस्ट्रियल कनेक्टिविटी का अभाव ऊंची क़ीमतों और कम विश्वसनीयता के ज़िम्मेदार कारकों में से है. UN ESCAP ने क़रीब-क़रीब उसी वक़्त इस समस्या की पड़ताल शुरू कर दी थी. नतीजतन एशिया प्रशांत इंफ़ॉर्मेशन सुपरहाईवे को उसके कार्यक्रमों में प्राथमिकता के आधार पर शामिल किया गया.
इस पूरी क़वायद का मकसद एशियन हाईवे और ट्रांस एशियन रेलवे नेटवर्क के साथ-साथ मुक्त रूप से सबकी पहुंच में आने वाला और ऊंची बैंडबिड्थ वाला फ़ाइबर ऑप्टिक केबल बिछाना था. इसके साथ-साथ घनी आबादी वाले दूसरे बड़े केंद्रों तक भी इसकी पहुंच सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा गया था. दरअसल राजमार्गों के किनारे केबल बिछाने की इस विशाल परियोजना के साथ समुद्र के नीचे निरंतर बढ़ते केबल नेटवर्क को एकीकृत किए जाने का उद्देश्य रखा गया था. इसके ज़रिए महादेशों में कनेक्टिविटी का जाल फैलाने का लक्ष्य था. इस पूरी क़वायद के पीछे मानव-निर्मित संकटों या प्राकृतिक आपदाओं से निपटने को लेकर बेहद ज़रूरी वैकल्पिक तौर-तरीक़े विकसित करने की सोच काम कर रही थी. इससे लागत में कमी और गुणवत्ता में सुधार आना भी तय था. वक़्त के साथ-साथ इन मसलों की ख़ासियतें सामने आने पर निजी केबलों की संरचना में उसी हिसाब से बदलाव होने की उम्मीद की गई थी. वाकई आगे चलकर ये उम्मीद हक़ीक़त में बदल गई.
वैसे सिर्फ़ मज़बूत डिजिटल कनेक्टिविटी अपने-आप में नाकाफ़ी है. दरअसल उन्नत डिजिटल नेटवर्क पर सूचना तंत्र को विभिन्न प्रयोगों के हिसाब से निर्धारित कर व्यापार समझौतों के साथ जोड़े जाने से बाज़ारों के जुड़ाव और सकारात्मक परिणाम हासिल करने में मदद मिलती है. इसके लिए कई तौर-तरीक़े अमल में लाए गए हैं. व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCTAD) द्वारा समर्थित कार्यक्रम ऑटोमेटेड सिस्टम्स फ़ॉर कस्टम्स डेटा (ASYCUDA) की मिसाल दी जा सकती है. हालांकि एशिया के संदर्भ में देखें तो ऐसे सूचना तंत्रों की तैनाती भी इसके पीछे के विशाल मकसदों के लिए पर्याप्त नहीं हैं. दरअसल दुनिया के इस इलाक़े के देशों के बीच का आपसी जुड़ाव यूरोप और उत्तरी अमेरिका जैसे महादेशों के देशों के पारस्परिक जुड़ावों की तुलना में कमज़ोर है. लिहाज़ा डिजिटल कनेक्टिविटी के मोर्चे पर पूरी कामयाबी के लिए शुल्क और ग़ैर-शुल्क रुकावटों (NTBs) को निचले स्तर पर लाना होगा. व्यापार समझौतों के ज़रिए ही ऐसा किया जा सकता है.
एकीकरण
इस समस्या को ठीक से दर्शाने के लिए दुनिया में सबसे कम आपसी जुड़ाव वाले इलाक़ों दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया की तुलना कर सकते हैं. भारतीय वस्तुओं का सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार (16.79 प्रतिशत) अमेरिका है. दक्षिण एशिया में भारत का कोई भी पड़ोसी देश भारतीय सामानों के आयातक देशों की सूची में शीर्ष पांच में नहीं है. एशिया से बाहर के बाज़ारों पर निर्भरता के मामले में दक्षिण एशिया के कुछ देश तो भारत से भी आगे निकल गए हैं. बांग्लादेश के कुल निर्यात का आधे से भी ज़्यादा हिस्सा अमेरिका और यूरोप को जाता है. एशिया का कोई भी देश बांग्लादेश के शीर्ष पांच निर्यात केंद्रों में शुमार नहीं है. निर्यात के नज़रिए से श्रीलंका का सबसे प्रमुख साथी देश अमेरिका है. श्रीलंकाई सामानों के कुल निर्यात में अमेरिका और यूरोप का हिस्सा 43 प्रतिशत है. इस सूची में भारत शीर्ष पांच में तो है लेकिन वास्तविक रूप से उसका हिस्सा काफ़ी छोटा है.
वस्तुओं और सेवाओं में B2C इलेक्ट्रॉनिक वाणिज्य के साथ ऐसा नहीं है. डिजिटल नेटवर्कों और उनके सहारे मुहैया कराए जाने वाले प्लैटफ़ॉर्मों के साथ कंपनियों और उपभोक्ताओं की एक बड़ी तादाद के जुड़े बग़ैर व्यापार के ऐसे स्वरूपों की कल्पना नामुमकिन है.
आर्थिक समूह के तौर पर दक्षिण एशिया के मुक़ाबले आसियान कहीं ज़्यादा एकीकृत है. क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) 1 जनवरी 2022 से प्रभावी हो रही है. लिहाज़ा यहां व्यापार में बढ़ोतरी तय है. यक़ीनन इससे आसियान में आपसी जुड़ाव और बढ़ जाएगा. आसियान ने व्यापार से जुड़े अनेक करारों के साथ ख़ुद को जोड़ा है और एक बड़ा बाज़ार समूह बनने की ओर आगे बढ़ रहा है. RCEP दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार समझौता है. ज़ाहिर तौर पर ये आसियान के द्विपक्षीय व्यापारिक करारों के मिले-जुले परिणाम के तौर पर सामने आया है.
व्यापार समझौतों से ही शुल्कों में गिरावट और ग़ैर-शुल्क रुकावटों में कमी आती है. अगर उम्मीदों के मुताबिक भारत RCEP में शामिल हो जाता तो एशियाई बाज़ारों को एकीकृत करने की प्रक्रिया में रफ़्तार लाई जा सकती थी. वैसे मौजूदा हालातों में भी बढ़ती डिजिटल कनेक्टिविटी की मदद से एशियाई बाज़ारों के एकीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आने की पूरी उम्मीद है. फ़िलहाल एशिया के बाज़ारों के आपसी जुड़ाव का स्तर यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बाज़ारों के साथ उनके जुड़ावों के मुक़ाबले कम है.
वस्तुओं और सेवाओं में बिज़नेस टू कंज़्यूमर (B2C) ई-कॉमर्स पर इसका सबसे स्पष्ट प्रभाव होगा. B2C ई-कॉमर्स की ज़्यादातर कंपनियां वैश्विक प्लैटफ़ॉर्मों पर आधारित हैं. ये छोटे-बड़े आपूर्तिकर्ताओं की एक विशाल फ़ौज को अनेक देशों में फैले करोड़ों व्यक्तियों और वाणिज्यिक उपभोक्ताओं से जोड़ने का काम करते हैं.
ऐसे प्लैटफ़ॉर्म ख़रीदारों और विक्रेताओं को एलगोरिदम्स और विज्ञापनों के इस्तेमाल से एक-दूसरे की तलाश करने में मददगार साबित होते हैं. ये ख़रीदारों और विक्रेताओं को ख़रीद को लेकर होने वाले करारों से जुड़ने की सुविधा मुहैया कराते हैं. डिजिटल भुगतान को आसान बनाने वाले पेमेंट इंजनों और डिलिवरी सिस्टम्स के ज़रिए लेन-देन की प्रक्रिया पूरी कर ली जाती है. कई मामलों में तो ऐसे प्लैटफ़ॉर्म उपभोक्ताओं की शिकायतों के निपटारे का तंत्र भी मुहैया कराते हैं. ये सारे क्रियाकलाप ख़रीदारों को स्पष्टता से दिखाई देते हैं. हालांकि इन तमाम क़वायदों को मुमकिन करने के पीछे होने वाली जुगत उन्हें दिखाई नहीं देती. इनमें रसद से जुड़ी व्यापक कार्रवाइयां और वस्तुओं को विभिन्न देशों में लाने-ले जाने के पीछे के तमाम उपाय शामिल हैं.
ऑनलाइन फ़्रीलांसिंग से जुड़े बाज़ार, सेवाओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के उदाहरण हैं. ख़ासतौर से तैयार डिजिटल प्लैटफ़ॉर्मों के ज़रिए ऐसे कारोबार संभव हो पाते हैं. यहां सेवाओं के ख़रीदार अपनी ज़रूरतों के बारे में सेवाओं के विक्रेताओं को जानकारी देते हैं. प्लैटफ़ॉर्म सेवाओं के प्रदाता उन विक्रेताओं को ख़रीदारों से रुबरु कराते हैं. इस तरह से दोनों के बीच करार हो सकते हैं, भुगतान किए जाते हैं और सेवाओं की डिलिवरी हो जाती है. हालांकि यहां कस्टम से जुड़े चेकप्वाइंटों का वजूद नहीं होता. वैसे जहां भुगतान के सुविधाजनक विकल्प (जैसे PayPal के ज़रिए होने रकम की आवक) मौजूद नहीं होते, वहां भी अनेक जुगाड़ या कामचलाऊ वैकल्पिक तौर-तरीक़े इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं. ख़ासकर भारत के आसपड़ोस में ऐसे तरीक़े अपनाए जा सकते हैं. वस्तुओं के व्यापार की सुविधा देने वाले प्लैटफ़ॉर्मों के मुक़ाबले सेवाओं (services) के व्यापार में मदद करने वाले प्लैटफ़ॉर्मों द्वारा मुहैया कराए जाने वाली सेवाओं की तादाद कम होती है. हालांकि दोनों ही प्लैटफ़ॉर्म अपनी सेवाओं के लिए शुल्क वसूलते हैं.
डिजिटल कनेक्टिविटी के दौर से पहले अंतरराष्ट्रीय व्यापार परंपरागत तौर-तरीक़ों से हुआ करता था. निश्चित रूप से इलेक्ट्रॉनिक डॉक्यूमेंटेशन के साथ-साथ मंज़ूरियों और भुगतानों के डिजिटल तौर-तरीक़ों से परंपरागत व्यापार में काफ़ी कार्यकुशलता आ गई है. आधुनिक समय में परंपरागत व्यापार के लिए ज़रूरी डिजिटल कनेक्टिविटी की हर जगह मौजूदगी ज़रूरी नहीं है. वस्तुओं और सेवाओं में B2C इलेक्ट्रॉनिक वाणिज्य के साथ ऐसा नहीं है. डिजिटल नेटवर्कों और उनके सहारे मुहैया कराए जाने वाले प्लैटफ़ॉर्मों के साथ कंपनियों और उपभोक्ताओं की एक बड़ी तादाद के जुड़े बग़ैर व्यापार के ऐसे स्वरूपों की कल्पना नामुमकिन है.
पूरा एशिया महामारी की चोट से उभर रहा है. ऐसे में देखना होगा कि एशियाई देशों की सरकारों के नीति-निर्माता और यहां का निजी क्षेत्र किस हद तक अंतरराष्ट्रीय और घरेलू B2C ई-कॉमर्स को बढ़ावा देते हैं. डिजिटल कनेक्टिविटी के बूते हासिल होने वाला सकारात्मक आर्थिक परिणाम इसी क़वायद पर निर्भर करेगा.
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