अमेरिका की नेशनल इंटेलीजेंस काउंसिल (एनआईसी) ने पिछले महीने अपनी ग्लोबल ट्रेंड्स रिपोर्ट जारी की। ‘पैराडॉक्स ऑफ प्रोग्रेस’ शीर्षक की इस रिपोर्ट ने इसके पाठकों को धीरे धीरे बढ़ने वाले अशांत भविष्य के लिए खुद को तैयार रहने को आगाह किया। इसमें कहा गया है कि ज्यादातर अशांति एक ऐसी अवधारणा से उत्पन्न होगी जिसे दुनिया ने पिछले कुछ समय से, कम से कम शीत युद्ध के समय के बाद से नहीं देखा है: यह है बड़ी ताकतों के बीच क्षेत्रीय वर्चस्व को लेकर टकराव। एनआईसी के अनुसार, अमेरिकी ताकत में गिरावट ऐसे अशुभ पुर्वानुमान की सबसे मुख्य वजहों में से एक है। लेकिन इसके साथ साथ चीन द्वारा अमेरिकी आधिपत्य की जगह लिए जाने के आसार भी कम नहीं हैं। संक्षेप में, रिपोर्ट एक ऐसी धारणा की पुष्टि करती नजर आती है जो पहले से ही विद्यमान है और वह यह है कि वैश्विक उदार व्यवस्था, जो मुख्य रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अमेरिकी शक्ति का एक परिणाम है, अल्पकालिक साबित हो सकती है। शक्ति के इस बदलाव का सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव भारत-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी आधिपत्य पर पड़ सकता है।
कहा जा सकता है कि अमेरिकी ताकत में गिरावट की झलक सबसे अधिक अमेरिकी विदेश नीति में वर्तमान अंदरुनी रुझानों में प्रतिबिंबित हो रही है। अमेरिका अब एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपने सहयोगियों के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को लेकर ज्यादा दखल नहीं करना चाह रहा और सक्रियतापूर्वक अब उन्हें उनकी गठबंधन प्रतिबद्धताओं का ज्यादा बोझ खुद ही उठाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका का हावभाव अब भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन की ताकत को सक्रिय रूप से संतुलित करने के बजाये, थोड़ी दूरी बनाने वाले एक संतुलनकारी देश जैसा होता जा रहा है। विश्लेषकों को डर है कि अमेरिकी राजनीति में उभर रहीं नई प्रवृतियां अब क्षेत्र में चीन की दबदबे वाली भूमिका को और ज्यादा मजबूत बना सकती हैं।
एशिया में अमेरिकी ताकत में कमी आने की एक डरावनी अवधारणा और चीन के उदय के बावजूद, सहज रूप से यह स्पष्ट नहीं है कि भारत-प्रशांत क्षेत्र की क्षेत्रीय व्यवस्था में चीन का दबदबा दिखेगा ही। क्षेत्रीय आधिपत्य अर्जित करने के लिए तीन शर्तें आवश्यक हैं। पहली शर्त, एक क्षेत्रीय आधिपत्य को कारगर रूप से न केवल प्रभाव के महाद्वीपीय क्षेत्र बल्कि सामुद्रिक क्षेत्र को नियंत्रित करना पड़ेगा। दूसरी शर्त, क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए आवश्यक है कि सभी संभावित प्रतिद्वंदियों को निष्प्रभावी बना दिया जाए। अंतिम शर्त यह कि आधिपत्य से अनिवार्य रूप से एक सौम्य चरित्र का आभास होना चाहिए क्योंकि आधिपत्य और अपरिष्कृत ताकत में अंतर केवल वैधता का है। चीन इनमें से किसी भी मापदंड पर खरा नहीं उतरता।
अपनी प्रकृति के कारण चीन हमेशा ही एक महाद्वीपीय ताकत रहा है। यह तीन दिशाओं से भूमि सीमाओं से घिरा हुआ है। इनमें से कुछ विवादास्पद रहे हैं, जैसेकि भारत-चीन सीमा। मध्य एशिया में, अपने प्रभाव क्षेत्र को विस्तारित करने के इसके इरादे को रूस से टक्कर मिलती है। भले ही, चीन ने अपने अधिकांश क्षेत्रीय विवादों को शांत कर दिया है, पर महाद्वीपीय मोर्चे पर इसके प्रतिवाद अभी भी सक्रिय हैं। इसके अतिरिक्त, महाद्वीपीय क्षेत्र में भले ही इसका प्रभुत्व बढ़ रहा हो, पर इसकी सामुद्रिक सीमाएं अभी भी स्थिर नहीं हुई हैं। चीन की सामुद्रिक उपस्थिति खुद भौगोलिक रूप से भी प्रतिबंधित है। प्रशांत महासागर तक इसकी पहुंच द्वेषपूर्ण द्वीप श्रृंखलाओं के एक चक्र से घिरी हुई है। ताईवान, फिलीपींस एवं जापान जैसे देशों की उपस्थिति चीन के सामुद्रिक प्रभाव क्षेत्र के लिए प्राकृतिक बाधाएं हैं। इसी प्रकार हिन्द महासागर तक इसकी पहुंच भी भूगोल की क्रूरता खासकर, इसकी मलाका डिलेमा (दुविधा) से बाधित है। बहरहाल, चीन के लिए वास्तविक समस्या अमेरिकी नौसेना की उपस्थिति और एशिया-प्रशांत सामुद्रिक क्षेत्र के ऊपर उसका बेजोड़ नियंत्रण है। एक मजबूत पनडुब्बी बेड़े एवं एंटी-एक्सेस मिसाइल के रूप में चीन की सामुद्रिक क्षमताएं मुख्य रूप से रक्षात्मक प्रणालियां हैं जो उसकी ताकत को प्रदर्शित करने की चीन की क्षमता में कोई खास बढोतरी या मदद नहीं करतीं।
जैसाकि डेविड शामबौघ तर्क देते हैं, ‘चीन की सैन्य शक्ति के पास अभी भी पारंपरिक वैश्विक ताकत-प्रदर्शन क्षमताएं नहीं हैं।’ ताकत के प्रदर्शन के लिए समुद्र नियंत्रण क्षमताओं-विमान वाहकों (एयरक्राफ्ट कैरियरों) के एक बड़े बेड़े की आवश्यकता होती है। चीन के पहले वायुयान वाहक का अभी निर्माण कार्य चल ही रहा है, और ऐसी संभावना है कि इसके लिए अभी और उल्लेखनीय प्रयासों और समय की आवश्यकता होगी। इससे इसकी अपनी समुद्र नियंत्रण परिसंपत्तियों के खिलाफ विषम संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी जैसी कि वर्तमान में अमेरिकी नौसेना के खिलाफ चीन की रणनीति है। और उस स्थिति में भी जब अमेरिका धीरे धीरे भारत-प्रशांत क्षेत्र से बाहर निकलने का फैसला कर भी लेता है, जिसकी वास्तव में एक परोक्ष संभावना हो सकती है, चीन को नौसेना के लिहाज से दूसरी सक्षम ताकतों-पूर्वी एशिया में जापान एवं हिन्द महासागर में भारत-से संघर्ष करना पड़ सकता है। इसलिए, भारत-प्रशांत समुद्री क्षेत्र पर आधिपत्य की चीन की संभावनाएं काफी कम हैं। और अगर बड़ी ताकतों के बीच प्रतिद्वंदिता के इतिहास का समसामयिक विश्लेषण से कुछ वास्ता है तो यह स्पष्ट है कि किसी भी महादेशीय ताकत का तब तक क्षेत्रीय प्रभुत्व नहीं हो सकता जब तक वह सामुद्रिक क्षेत्र पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित न कर ले। चीन अपनी सामुद्रिक असुरक्षा को महसूस करता है, यह भूमि गलियारों एवं नौसैनिक अड्डों के जरिये हिन्द महासागर तक पहुंचने की उसकी व्यग्र कोशिशों से स्पष्ट है, जिसकी सफलता को लेकर कई लोगों को अब भी संदेह है।
दूसरी बात यह कि, महाद्वीपीय शक्तियों में सामुद्रिक शक्तियों की तुलना में अधिक टकराव होता है। जैसाकि एडवार्ड लटवॉक ‘लॉजिक ऑफ स्ट्रैटेजी’ में इसकी व्याख्या करते हैं, चीनी ताकत का उदय स्वाभाविक रूप से बराबर करने वाले संतुलनों को जन्म देगा।
सामुद्रिक शक्तियों के विपरीत जो समुद्रों को नियंत्रित करने का इरादा रखती हैं और क्षेत्रीय आक्रामकताओं को आगे बढ़ाने की जिनकी सीमित क्षमता होती हैं, महाद्वीपीय शक्तियां क्षेत्रीय तरीके से नुकसान पहुंचाने की उनकी क्षमताओं के कारण अधिक विद्वेषपूर्ण प्रतीत होती हैं। शक्ति का संतुलन अक्सर सामुद्रिक शक्तियों की तुलना में महाद्वीपीय शक्तियों के खिलाफ अधिक अर्जित किया जाता है। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी का मामला इसका बड़ा उदाहरण है। लेकिन शीत युद्ध के दौरान रूस का मामला भी एक अलग उदाहरण था। चीन का अपने अधिकतर पड़ोसी देशों के साथ विवाद इस विस्फोटक मिश्रण को और भी तीखा बना देते हैं। अगर समग्रता से देखा जाए तो इस क्षेत्र में चीन के उदय ने इस क्षेत्र के अन्य देशों की संतुलनकारी ग्रतिविधियों को बढ़ा दिया है, चाहे वे बड़े देश हों, या फिर छोटे देश। भारत से लेकर जापान एवं वियतनाम तक, इस क्षेत्र में आंतरिक संतुलनकारी (सैन्य खर्चों में बढोतरी) गतिविधियों एवं बाह्य संतुलनकारी गतिविधियों दोनों में ही वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है। बाह्य संतुलनकारी गतिविधियां विशेष रूप से भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, वियतनाम एवं अमेरिका के बीच रणनीतिक अंतःसंपर्कों में दिखाई दे रही हैं। भारत-प्रशांत क्षेत्र में, चीन को लगातार एक विद्वेषपूर्ण शक्ति के रूप में देखा जा रहा है, ऐसी ताकत जो ‘अकेली’ भी बनी हुई है।
अगर चीन संभवतः अपने महाद्वीपीय चरित्र को एक दबंग सामुद्रिक ताकत में तबदील करने में कामयाब नहीं हो पाता और इसका उदय अन्य देशों के साथ अधिक संघर्ष पैदा करना जारी रखता है तो इसकी सबसे जटिल आंतरिक चुनौती इसकी बढ़ते ताकत को वैधता का मुखौटा पहनाने की होगी। अमेरिकी प्रभुत्व ने एक ऐसी उदार वैश्विक व्यवस्था को जन्म दिया जिससे सभी देशों को कुछ हद तक लाभ पहुंचा। शताब्दी के अंतिम 25 वर्षों में चीन का उदय बिना अमेरिका के नेतृत्व में एक उदार व्यवस्था के संभव नहीं हो पाता होता। भले ही, कुछ हलकों में अमेरिका के प्रभुत्व को चुनौती दी गई, व्यापक रूप से इसे स्वीकार भी किया गया था क्योंकि अमेरिका ने अपने प्रभुत्व के लाभों को अन्य हितधारकों तक भी मूर्त रूप में प्रकट किया और उन्हें विस्तारित किया, चाहे यह वाणिज्य, संस्थानों, नियमों एवं मानदंडों के जरिये क्यों न हो। मैत्रीपूर्ण एवं शांतिपूर्ण उदय का चीन का संदेश भी एक ऐसा ही प्रयास था जो व्यापक भारत-प्रशांत क्षेत्र को अधिक स्वीकार्य बनाता। लेकिन हाल के वर्षों में चीन के व्यवहार ने इसके लिए एक अतिरिक्त वैधता का सृजन करने के बजाये, दूसरे देशों को ज्यादा बेचैन करने का काम किया है। चीन की आवरणयुक्त घरेलू नीति इस व्यग्रता की एक बड़ी वजह है। लोकतांत्रिक ताकतों के विपरीत, चीन की आंतरिक राजनीति में पारदर्शिता की कमी इसके इरादों को लेेकर संदेह पैदा करती है। चीन के सैन्य खर्च पर चर्चा के मामले में यह सबसे ज्यादा स्पष्ट है। चीन की एकदलीय राजनीतिक प्रणाली इसकी घरेलू नीति पर किसी भी प्रकार के बाहरी प्रभाव की अनुमति नहीं देेता। कुछ लोगों का सुझाव है कि अमेरिकी प्रभुत्व विशेष रूप से इसलिए अनुकूल था क्योंकि इसकी घरेलू नीति हमेशा ही कई प्रकार की आबादियों एवं राष्ट्रीयताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले हित-समूहों द्वारा प्रभावित रही है। चीन में, ऐसे बाहरी प्रभाव मुमकिन नहीं हैं। अंत में, अगर चीन क्षेत्रीय विकास का वाहक हो गया होता तो भी जैसा हाल के रूझानों से संकेत मिलता है कि चीन क्षेत्र में आर्थिक लाभों को भी प्रकट करने में सक्षम नहीं हो सकता । गैर-भूमंडलीकरण की प्रक्रिया चीन को इसी प्रकार की नव-व्यापारिक आर्थिक नीतियों को अपनाने को बाध्य कर देगी। इसने पहले ही अपनी निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था को ऐसी व्यवस्था में तबदील करना आरंभ कर दिया है जो आंतरिक उपभोग द्वारा कायम है। इसलिए, एशिया की कई छोटी अर्थव्यस्थाओं के लिए चीन के बाजार में प्रवेश करना एक निरंतर कष्टदायक कवायद है।
क्षेत्र में एवं इससे आगे उभरती अव्यवस्था पर एनआईसी के जोर के बावजूद, भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन का प्रभुत्व कुछ हद तक विलुप्त हो गया प्रतीत होता है। अमेरिकी ताकत में आई कमी और खासकर, भारत-प्रशांत क्षेत्र में संलिप्त होने में इसकी अनिच्छा निर्विवाद हो सकती है लेकिन, ऐसा संकेत देना कि चीन स्वाभाविक रूप से क्षेत्रीय दबंग के रूप में अमेरिका की जगह ले लेगा, एक बहुत दूर की सोच हो सकती है। वर्तमान रणनीतिक तनातनी निश्चित रूप से क्षेत्र एवं दुनिया को अधिक अराजक बना रहा है लेकिन यह भारत जैसे अन्य उभरती ताकतों को भी अवसर प्रदान कर रहा है। कम से कम इतना तो जरूर है कि यह भारत को अधिक रणनीतिक स्थान प्रदान कर रहा है जिसका अगर विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग किया जाए तो यह चीन से कुछ रियायत ले पाने में जरुर सफल हो सकता है। अगर इतिहास चीन के व्यवहार के लिए कोई पथप्रदर्शक रहा है तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति के साथ जुड़ाव हमेशा से ही भारत के प्रति चीन के व्यवहार में एक बड़ा निर्धारक रहा है। उदाहरण के लिए, 1969 के मार्च के चीनी-सोवियत संघर्षों के बाद, भारत और चीन ने 1962 के बाद पहली बार अपनी पहली बातचीत आरंभ की। अमेरिका के साथ अपने प्रभुत्व वाले संघर्ष में अपनी कथित निर्बलता पर चीन की संवेदनशीलता का उपयोग करने के द्वारा भारत इस रणनीतिक तनातनी का लाभ उठा सकता है। यह उसे भारत-प्रशांत की नई वैश्विक व्यवस्था में अपनी स्थिति को मजबूत बनाने और जापान एवं दक्षिण कोरिया जैसे देशों के साथ ठोस साझीदारी विकसित करने का अवसर सृजित करने में भी सहायक होगा जिसकी भारत को अपने आर्थिक विकास के लिए आवश्यकता है।
अंत में, भारत जैसे किसी भी उभरती ताकत को क्षेत्रीय स्तर पर अपना अनुसरण करने वालों की आवश्यकता होती है। जैसे जैसे चीन की ताकत बढ़ रही है और क्षेत्र में अमेरिकी गिरावट की धारणा बलवती हो रही है, एक उदार क्षेत्रीय व्यवस्था के लिए मध्यस्थता करने और उसके लिए खड़े रहने के भारत के प्रयास खासकर, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) में उसके प्रभाव में बढोतरी कर सकते हैं। जैसाकि एनआईसी की रिपोर्ट से संकेत मिलता है, बढ़ती अनिश्चितता से अराजकता पैदा होती है लेकिन ऐसे हालात भारत जैसे प्रमुख परिवर्तनीय देशों का महत्व बढ़ा भी सकते हैं। उभरती ताकतों के लिए, कुछ अराजकता एक अवसर या एक गुण भी है।
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