Author : Kabir Taneja

Published on Jun 15, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत और श्रीलंका के बीच तनातनी के ऐतिहासिक मसलों की विरासत की लंबी फ़ेहरिस्त है. लेकिन, इस्लामिक स्टेट से मुक़ाबला करना एक ऐसा मसला है, जिसका पुरानी तल्ख़ियों से कोई ताल्लुक़ नहीं दिखता.

श्रीलंका में आतंकी हमले की बरसी: आतंक के खिलाफ़ एक साझा रणनीति अपनाने की ज़रूरत

पिछले साल इन्हीं महीनों में  श्रीलंका, इस्लामिक स्टेट के आतंकवाद से प्रेरित दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी हमले का निशाना बना था. नौ आतंकवादियों ने श्रीलंका में चर्चों, होटलों और अन्य ठिकानों को निशाना बनाया था. राजधानी कोलंबो समेत देश के तीन शहरों में हुए इस आतंकवादी हमले में लगभग 250 लोग मारे गए थे.

श्रीलंका में आईएसआईएस से प्रेरित इस आतंकवादी हमले ने न केवल पूरे दक्षिण एशिया को हिला कर रख दिया था. बल्कि, इसके कारण पूरे विश्व में तथाकथित इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ संघर्ष को भी झटका लगा था. पिछले साल अप्रैल महीने तक, आईएसआईएस (जिसे इस्लामिक स्टेट, आईएसआईएल या अरबी में दाएश के नाम से भी जाना जाता है), अपनी 2014 से 2016 के दौरान की शक्ति का महज़ आईना बन कर रह गया था. इन चार वर्षों के दौरान, इस्लामिक स्टेट का सीरिया और इराक़ के इतने बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा था, जितना ब्रिटेन का क्षेत्रफल है. पूरे इलाक़े के शहरों और क़स्बों में इस्लामिक स्टेट का दबदबा था. उसका क़ानून चलता था. श्रीलंका में इस भयंकर आतंकवादी हमले के छह महीने बाद इस्लामिक स्टेट के प्रमुख अबू बकर अल बग़दादी को अमेरिकी सेना के एक अभियान में उत्तरी सीरिया में मार गिराया गया था. इसी कारण से इस आतंकवादी संगठन का नेतृत्व और भविष्य दोनों ही अंधेरे में डूब गए थे.

आज इस्लामिक स्टेट की विचारधारा में इस बात की पर्याप्त शक्ति है जो किसी आतंकवादी घटना के लिए लोगों को एकजुट करने और उन्हें ऐसे हमले के लिए प्रेरित करने की ताक़त रखती है

इसके बावजूद, आज इस्लामिक स्टेट के संगठन और उसकी ख़िलाफ़त की मौजूदगी के बजाय इसकी विचारधारा महत्वपूर्ण हो गई है. और इसमें कोई दो राय नहीं है कि बग़दादी की मौत का इस अभियान पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा है. इससे पहले इस्लामिक स्टेट अपने पास एक रियासत या ख़िलाफ़त होने का दम भरता था. ख़ुद को एक ऐसी इस्लामिक रियासत का हुक्मरान बताता था, जैसी रियासत बनाने की उपलब्धि अल क़ायदा या ऐसा कोई अन्य आतंकवादी संगठन नहीं हासिल कर सका था. आज इस्लामिक स्टेट की विचारधारा में इस बात की पर्याप्त शक्ति है जो किसी आतंकवादी घटना के लिए लोगों को एकजुट करने और उन्हें ऐसे हमले के लिए प्रेरित करने की ताक़त रखती है. भले ही आज की तारीख़ में ख़ुद इस संगठन की अपनी शक्ति बेहद क्षीण हो गई है (हालांकि कुछ हालिया रिपोर्ट ये दावा करती हैं कि इस्लामिक स्टेट की ख़िलाफ़त वाले कुछ हिस्सों में ये संगठन फिर से ताक़तवर हो रहा है).

श्रीलंका में ईस्टर हमलों के बाद भारत के पास एक अच्छा अवसर था कि वो श्रीलंका के साथ अपने संबंध को नए सिरे से परिभाषित करे और इस्लामिक स्टेट और उसके जैसे दूसरे आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ संघर्ष में जीत को दक्षिण एशिया के देशों का साझा लक्ष्य बनाए

श्रीलंका में ईस्टर आतंकवादी हमले का दूरगामी असर पड़ा था. ख़ास तौर से श्रीलंका की सुरक्षा व्यवस्था पर. क्योंकि जब ये हमला हुआ तो श्रीलंका का पूरा सुरक्षा और ख़ुफ़िया ढांचा इसकी साज़िश का पता लगाने और इस हमले को रोक पाने में असफल रहा था. इस हमले के बाद, सूत्रों के हवाले से ख़बरें आईं कि भारत ने श्रीलंका को ऐसे आतंकवादी हमले की आशंका के प्रति आगाह किया था. वहीं, श्रीलंका ने इसका संबंध कश्मीर से बता कर अपनी जान छुड़ाने का प्रयास किया था. जबकि, श्रीलंका के पास इस बात के कोई ख़ुफ़िया सबूत भी नहीं थे. इस आतंकवादी हमले और उसके बाद के हालात से ज़ाहिर हो गया कि आतंकवाद जैसे मसले पर भी दक्षिणी एशिया के देश आपसी राजनीतिक मतभेद भुलाने और मिल कर काम करने को तैयार नहीं हैं. श्रीलंका में ईस्टर हमलों के बाद भारत के पास एक अच्छा अवसर था कि वो श्रीलंका के साथ अपने संबंध को नए सिरे से परिभाषित करे और इस्लामिक स्टेट और उसके जैसे दूसरे आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ संघर्ष में जीत को दक्षिण एशिया के देशों का साझा लक्ष्य बनाए.

अब इस बात के पर्याप्त दस्तावेज़ी सबूत उपलब्ध हैं कि दक्षिण एशियाई सहयोग संगठन यानी सार्क (SAARC) एक क्षेत्रीय संगठन के तौर पर पूरी तरह बेअसर रहा है. और, आज ये संगठन भारत और पाकिस्तान की आपसी दुश्मनी का अखाड़ा बन चुका है. इसी कारण से क्षेत्रीय सहयोग की कई संभावनाओं का उपयोग नहीं हो सका है. पाकिस्तान की सरकार द्वारा समर्थित आतंकवाद को एक राजनीतिक हथियार बनाना ही इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ सामूहिक रणनीति बनाने में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है. लेकिन, ये भारत के अधिकार क्षेत्र में है कि वो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को आतंकवाद के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय अभियान से किस तरह अलग करता है. ताकि पूरे दक्षिण एशिया में आतंकवाद के ख़िलाफ़ संवाद को मज़बूती प्रदान की जा सके. इस्लामिक स्टेट, अल क़ायदा, अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट खुरासान  और भारतीय उप महाद्वीप में अल क़ायदा के सहयोगी संगठनों से क्षेत्रीय सुरक्षा को मिलने वाली चुनौती बढ़ती ही जा रही है. हालांकि, अभी ये चुनौती इतनी बड़ी नहीं है, जितनी बड़ी पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद से भारत को रोज़मर्रा की तरह मिलने वाली चुनौती है. इस कारण से इस बात के लिए पूरा अवसर है कि पूरे दक्षिण एशिया में आतंकवाद का मुक़ाबला करने के लिए नए सिरे से संवाद शुरू किया जाए.

मिसाल के तौर पर, इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ जंग में, दोनों देशों के बीच जो ऐतिहासिक अविश्वास है, उसे ख़त्म करके राष्ट्रीय सुरक्षा की नई नीति की पौध तैयार किया जा सकती है. और इसके लिए आतंकवाद से मुक़ाबले का रास्ता अख़्तियार किया जा सकता है. और इस रास्ते की बुनियाद क्षेत्रीय स्तर पर साझा लक्ष्य प्राप्त करने से रखी जा सकती है. भारत और श्रीलंका के बीच तनातनी के ऐतिहासिक मसलों की विरासत की लंबी फ़ेहरिस्त है. लेकिन, इस्लामिक स्टेट से मुक़ाबला करना एक ऐसा मसला है, जिसका पुरानी तल्ख़ियों से कोई ताल्लुक़ नहीं दिखता. भारत को चाहिए कि वो केवल पाकिस्तान पर आधारित अपनी भू-सामरिक नीतियों पर नए सिरे से ग़ौर फ़रमाए और पाकिस्तान के रवैये पर ध्यान देने के बजाय पूरे क्षेत्र में आतंकवाद से निपटने के स्थायी और संस्थागत ढांचे के निर्माण को प्रोत्साहन दे. ये काम श्रीलंका में हुए आतंकवादी हमलों के बाद की परिस्थिति में कर पाना और आसान होगा. ताकि, इस्लामिक स्टेट से निपटने की कारगर रणनीति तैयार की जा सके. क्योंकि, अगर इस मामले में पाकिस्तान कोई कूटनीतिक चाल भी चलता है, तो वो बेअसर साबित होगी. और ये काम सार्क के दायरे से बाहर रहते हुए भी किया जा सकता है. इसके लिए एक ऐसी संकुचित व्यवस्था करनी होगी, जिससे दक्षिण एशिया के किसी भी देश में इस्लामिक स्टेट की विचारधारा और सुरक्षित ठिकानों की मौजूदगी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की जा सके. भले ही इस क्षेत्र में आपसी सहयोग की राह में कई बड़े हिमखंड पड़े हों. मगर कई तकनीकी क्षेत्रों के निर्माण में सहयोग की राह में भी कई चुनौतियां खड़ी हैं. रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग (RAW) के पूर्व विशेष सचिव, वी. बालाचंद्रन ने 2008 में अपने एक लेख में लिखा था कि, ‘आतंकवाद से निपटने के लिए पारंपरिक तरीक़े जैसे कि सशस्त्र पलटवार और ख़ुफ़िया जानकारी आज भी बेहद ज़रूरी हैं. लेकिन, आतंकवाद से निपटने में सरकारों के बीच अविश्वास की जो गहरी खाई है, उसे पाटा जाना ज़रूरी है. ये खाई न केवल सरकारों के बीच है, बल्कि उन देशों की जनता और पड़ोसी देशों के बीच भी है.’

इस बात से रज़ामंदी जताते हुए, इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध एक क्षेत्रीय एवं संस्थागत रणनीति की कमी आज भी स्पष्ट रूप से झलक रही है. लेकिन, एक अन्य क्षेत्र जहां तमाम देश अपने धन और क़ाबिल लोगों को एक साथ जोड़ कर काम कर सकते हैं, वो है नागरिक सहयोग का क्षेत्र. इसके लिए तमाम देशों के विश्वविद्यालयों, अनुसंधान केंद्रों, विद्वानों के बीच संपर्क और सहयोग बढ़े. और शायद सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि साझा और आपस में बांटा जा सकने वाला आंकड़ा जुटाया जाए.

आज दक्षिण एशियाई देशों के बीच जो अविश्वास है, उस अविश्वास का असर अन्य क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाओं पर नहीं पड़ना चाहिए. बल्कि, होना तो ये चाहिए कि सहयोग के ये अन्य क्षेत्र असल में अच्छे काम करने के मंच के तौर पर इस्तेमाल किए जाने चाहिए.

आतंकवाद जैसे मसलों पर नागरिक क्षेत्र के आंकड़ों में सहयोग एक बड़ा क़दम हो सकता है. अगर अलग-अलग देशों के रिसर्चर, विद्वान और नागरिक संगठन आपस में मिलकर जानकारी को एक दूसरे से शेयर करें तो इससे पूरे दक्षिण एशिया का भला होगा. इसकी मदद से भविष्य में होने वाले किसी आतंकवादी हमले के ख़िलाफ़ मज़बूत रणनीति का निर्माण किया जा सकेगा. तमाम दक्षिण एशियाई देश ऐसे किसी भी प्रस्ताव पर सहयोग कर सकते हैं. ये देश सरकारी विश्वविद्यालयों और निजी रिसर्च केंद्रों, एनजीओ, विद्वानों और ऐसे संगठनों को अपने साथ जोड़ सकते हैं, जिन्हें इन आंकड़ों में महारत हासिल हो. इसके अलावा इसमें संयुक्त राष्ट्र और इसके उपगामी संगठनों जैसे कि संयुक्त राष्ट्र काउंटर टेररिज़्म कमेटी एक्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टरेट (UNCTED), जो मुख्य नहीं तो सहयोगी साझीदार की भूमिका में हों. इससे उनके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अनुभव का भी लाभ मिल सकेगा.

आज की तारीख़ में आतंकवाद के ख़िलाफ़ सूचना को महत्वपूर्ण अस्त्र नहीं माना जाता है. जबकि हम देख चुके हैं कि कैसे सही जानकारी की मदद से आतंकवादी हमले रोके जा सकते हैं. सही जानकारी न मिलने के कारण ही अमरीका पर 9/11 का आतंकवादी हमला हुआ. क्योंकि अमेरिका में ही कई संगठनों ने ऐसी कई जानकारियां अन्य संगठनों से साझा नहीं कीं, जो इस हमले को रोक सकती थीं. 9/11 के बाद अमरीका में सूचना और ख़ुफ़िया जानकारी के ढांचे को इतना ज़बरदस्त झटका लगा था. रिचर्ड जे. हैकनेट और जेम्स ए. स्टीवर ने इसकी तुलना ब्रह्मांड की किसी बहुत बड़ी खगोलीय घटना से की थी. जबकि, 2011 में ऑनलाइन दुनिया में कट्टरपंथ की ओर झुकाव को आतंकवाद से निपटने की रणनीति की मुख्यधारा में मौक़ा नहीं मिला था. वहीं, आज आंकड़े को ही नए दौर का कच्चा तेल कहा जा रहा है.

आज दक्षिण एशियाई देशों के बीच जो अविश्वास है, उस अविश्वास का असर अन्य क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाओं पर नहीं पड़ना चाहिए. बल्कि, होना तो ये चाहिए कि सहयोग के ये अन्य क्षेत्र असल में अच्छे काम करने के मंच के तौर पर इस्तेमाल किए जाने चाहिए. ख़ास तौर से जहां दक्षिण एशियाई देशों की सरकारें और अफ़सरशाही आपसी सहयोग की संभावनाए तलाशने में इसलिए नाकाम रहीं क्योंकि उन पर घरेलू सियासी दबाव था. लेकिन, सच तो ये है कि बहुत से लोग इस योजना से सहमत होंगे और इसे आज़माना चाहेंगे. इससे राष्ट्रीय हित भी सधेंगे और क्षेत्रीय हितों का भी भला होगा.

श्रीलंका में पिछले वर्ष हुए आतंकवादी हमले असल में एक अवसर हैं, जिसे दक्षिण एशिया के तमाम देशों को लपक लेना चाहिए ताकि वो एक साझा दुश्मन का मिल कर सामना कर सकें. श्रीलंका में पिछले ईस्टर पर हुए आतंकी हमले की गूंज अब तक सुनी जा सकती है. और चूंकि बांग्लादेश भी 2016 में ऐसे इस्लामिक स्टेट आतंकवादी संगठनों के हमलों का शिकार रहा है. इसके अलावा इस्लामिक स्टेट समर्थक नए संगठन और अल क़ायदा की शहर पर भी नए संगठन सामने आ रहे हैं जो भारत को निशाना बनाने की बातें कर रहे हैं. अभी कुछ दिनों पहले ही इस्लामिक स्टेट ने मालदीव में पहला आतंकवादी हमला किया था. ऐसे में ये बिल्कुल सही समय होगा, जब भारत के नेतृत्व में ऐसा आतंकवाद निरोधक संवाद शुरू हो, जो तमाम देशों में सक्रिय आतंकवादी संगठनों से निपटने का काम करे.

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