Published on Feb 19, 2020 Updated 0 Hours ago

मौजूदा दौर में व्यापार व्यवस्था संकट में है. क्योंकि ये लगातार नुक़सान उठा रही है. और इनपर संकट बढ़ते ही जा रहे है.

बहुपक्षीय व्यापार: संभावनाएं या संकट?

विश्व व्यापार संगठन का मौजूदा ढांचा अभी कई परिवर्तनों से गुज़रेगा.  इनमें से कई बदलाव बहुत गहरा असर छोड़ने वाले होंगे. हम आने वाले समय में उदासीनता और उथल-पुथल के दौर से गुज़रेंगे. और ये चक्र तब तक चलता रहेगा, जब तक विश्व की नई व्यापार व्यवस्था स्थिर नहीं हो जाती.

विश्व व्यापार संगठन मारकेश समझौते के नतीजे के तौर पर सामने आया था. ये समझौता 1994 में हुआ था. जब सोवियत संघ के विघटन को दो वर्ष व्यतीत हो चुके थे. जबकि बर्लिन की दीवार गिरे हुए पांच बरस बीत चुके थे. मारकेश समझौता, विश्व व्यापार के उरुग्वे दौर के सफलतापूर्वक समापन के पश्चात हुआ था. मारकेश समझौता बहुपक्षीय व्यवस्था के लिहाज़ से बहुत बड़ी सफलता था. इसे नई विश्व व्यवस्था के एक मज़बूत स्तंभ के तौर पर प्रचारित किया गया था और सराहा गया गया था. कहा गया था कि वैश्विक व्यापार के मुद्दों को हल करने के लिए ये सबसे न्यायोचित समाधान है. इसके बाद से कई बहुपक्षीय संस्थानों का उदय हुआ, जो नई उदार व्यवस्था में शीत युद्ध की विजेता महाशक्ति, अमेरिका के नेतृत्व में चलाए जा रहे थे.

आरंभिक वर्षों में विश्व व्यापार संगठन बेहद सफल रहा था. इसके ताज का सबसे चमकदार नगीना था विवाद निस्तारण बोर्ड (Dispute Settlement Board-DSB) जिसके साथ व्यापारिक पंचायत का काम करने वाली सहयोगी अपीलीय संस्था (Appellate Body) भी थी. इन दोनों को मिलाकर, नियमों पर चलने वाली एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण योगदान के तौर पर देखा जाता था. शुरुआत में कई महत्वपूर्ण सदस्य देश डीएसबी और एबी को संदेह की दृष्टि से देखते थे. उन्हें लगता था कि ये विकासशील देशों के छद्म रूप से सहयोगी बन जाएंगे. लेकिन, डीएसबी और एबी ने संयुक्त रूप से अपने व्यवहार में जो संतुलन बनाया, वो बेहद आश्चर्यजनक था. इन दोनों संस्थाओं ने अलग-अलग सदस्य देशों की शिकायतों का निस्तारण बेहद संतुलित तरीक़े से किया. और सभी पक्षों को न्यायोचित अवसर दिया कि वो अपनी शंकाओं को दूर करने के लिए आवश्यक प्रश्न पूछ सकें. भले ही कोई देश आर्थिक तौर पर कितना ही संपन्न अथवा विपन्न क्यों न हो.

हालांकि, दो ऐसे परिवर्तन आए, जो बहुत प्रासंगिक हैं-

  • पहला तो ये कि दुनिया की इकलौती महाशक्ति अमेरिका के विकल्प के तौर पर चीन एक बड़ी शक्ति के तौर पर उभरा. चीन व्यापार के क्षेत्र में काफ़ी सक्रिय हो गया. 11 दिसंबर 2001 को चीन को विश्व व्यापार संगठन का एक सदस्य बनाया गया.
  • इसके अतिरिक्त, जो दूसरा बड़ा परिवर्तन नई विश्व व्यापार व्यवस्था में देखने को मिला, वो ये था कि व्यापार से जुड़े विवादों में नई-नई पेचीदगियों का उदय हुआ. इसके भी दो कारण थे. पहली बात तो ये गैट यानी जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ़ ऐंड ट्रेड तथा उसके बाद विश्व व्यापार संगठन की स्थापना से जुड़ी उरुग्वे दौर की वार्ताओं के बाद आगे अन्य समझौतों की गुंजाईश बहुत ही कम रह गई थी. ज़्यादातर देश उदारीकरण के उच्च स्तर तक पहुंच चुके थे. और अब नई रियायतें देने के लिए उनके पास कुछ ख़ास नहीं था. इसके अतिरिक्त सदस्य देशों पर घरेलू व्यापारिक संगठनों के दबाव भी थे, जिनकी अनदेखी कर पाना असंभव सा था. इसका नतीजा ये हुआ कि विश्व व्यापार में और समझौतों की गुंजाईश बेहद कम रह गई थी. दूसरी बात ये कि उत्पादन के नए तरीके, ख़ास तौर से ग्लोबल वैल्यू चेन व्यवस्था ने व्यापार के समीकरणों और हिसाब-किताब को गड़बड़ कर दिया था. इसकी वजह से व्यापार में असंतुलन के नए अनुमानों की मांग तेज़ हो रही थी.

धीरे-धीरे इन कारणों ने विश्व व्यापार संगठन के लिए नई समस्याओं को जन्म देना शुरू कर दिया. 1999 में सिएटल में हुए विरोध प्रदर्शनों, 2003 में कैनकन वार्ताओं की असफलता और दोहार दौर की व्यापार वार्ता में रुकावटों जैसे संकेतों की उचित ढंग से व्याख्या नहीं की गई. इसके अतिरिक्त कई बड़ी भौगोलिक-सामरिक घटनाओं, जैसे अमेरिका पर 9/11 का आतंकवादी हमला, 2003 का हाउसिंग संकट और 2007-8 के वित्तीय संकटों ने मुक्त व्यापार की राह में कई ऊंची और सुरक्षात्मक दीवारें खड़ी कर दीं. सदस्य देशों ने अपने-अपने यहां तरह तरह के व्यापारिक नियम लागू करने शुरू कर दिए, जो रोज़मर्रा की व्यापारिक गतिविधियों को प्रभावित करने लगे थे.

विश्व व्यापार संगठन में चीन के प्रवेश का परिणाम अमेरिका और उसके क़रीबी देशों की दादागीरी के लिए बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया. जिसके पश्चात अमेरिका और उसके सहयोगी देश चीन की अर्थव्यवस्था की विलक्षणता और व्यापार पर इसके असर की शिकायतें करने लगे. इसका सबसे बड़ा उदाहरण चीन की सरकार नियंत्रित कंपनियों को बताया जाने लगा.

10 दिसंबर 2019 से, विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था यानी एबी का कामकाज क़ोरम न पूरा होने की वजह से ठप पड़ा है. इसकी प्रमुख वजह ये है कि अमेरिकी राष्ट्रपति, इस संस्था के नए सदस्यों के नाम पर अपनी सहमति नहीं दे रहे हैं

डीएसबी और एबी की सफलता की अर्थशास्त्रियों और व्यापारिक क़ानूनविदों ने निंदा करनी प्रारंभ कर दी. ये आलोचना क़ानूनी पेचीदगियों के बढ़ने से लेकर व्यापारिक नियमों और प्रक्रियाओं को न्यायिक गलियारे में लाने तक विस्तार पा रही थीं. यहां तक कि अब ये आलोचक संस्था से ही असंतुष्टि जताने लगे थे.

अब अमेरिका को ये एहसास होने लगा था कि जिस बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था को उसने बड़ी लगन से खड़ा किया था, वो संस्थागत तरीक़े से उसके हितों के विपरीत जाने लगी थी. अमेरिका को ये भी लगने लगा कि जब भी व्यापार को बढ़ावा देने के लिए त्वरित निर्णयों की आवश्यकता होती थी, तो ये नई व्यापार व्यवस्था ही राह में बाधा बन रही थी. अमेरिका की ये सोच बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल के दौरान स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगी थी.

10 दिसंबर 2019 से, विश्व व्यापार संगठन की अपीलीय संस्था यानी एबी का कामकाज क़ोरम न पूरा होने की वजह से ठप पड़ा है. इसकी प्रमुख वजह ये है कि अमेरिकी राष्ट्रपति, इस संस्था के नए सदस्यों के नाम पर अपनी सहमति नहीं दे रहे हैं. विश्व व्यापार संगठन पर पहले से ही कई प्रश्नचिह्न लग रहे थे. ऐसे में जब वो बहुपक्षीय व्यापार संगठन की कुछ बुनियादी ज़रूरतों- यानी सदस्य देशों के बीच विवादों के निपटारे को ही नहीं पूरा कर पा रहा है, वो जल्द ही ख़ुद को अप्रासंगिक होता देखेगा.

बहुपक्षीय व्यावापर व्यवस्था का भविष्य क्या है?

इस प्रश्न का उत्तर दो भागों में विभाजित है.

पहला तो ये कि, आज आपस में जुड़ी हुई दुनिया एक बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ रही है. ऐसे में आज एक नियमों पर आधारित, बहुपक्षीय सहमति वाली व्यापार व्यवस्था के बिना गुज़ारा मुश्किल है. इसमें कोई दो राय नहीं कि मौजूदा दौर में व्यापार व्यवस्था संकट में है. क्योंकि ये लगातार नुक़सान उठा रही है. और इनपर संकट बढ़ते ही जा रहे है. हालांकि, ये किसी न किसी तरह ख़ुद को बचा पाने में समर्थ होगी. अमेरिका और चीन, दोनों ही देश और इनके अतिरिक्त अन्य बड़ी आर्थिक शक्तियां, फिर वो चाहे विकासशील देश हों या कम विकसित राष्ट्र, आज सबको एक ऐसी आधारभूत ढांचे की आवश्यकता है, जो उनके व्यापारिक संबंधों का दिशा-निर्देशन कर सके. सभी देशों की ये आवश्यकता ही मौजूदा संरचना को बचाने के लिए उत्प्रेरक का काम करेगी.

दूसरी बात ये कि, इसके साथ ही साथ एक और प्रक्रिया भी होगी. अब तक हुई घटनाओं ने विश्व व्यापार व्यवस्था में कई गहरी दरारें पैदा कर दी हैं. और इनसे मौजूदा ढांचे की डिज़ाइन और प्रक्रिया की नाकामियां सामने आ गई हैं. विश्व व्यापार संगठन का मौजूदा ढांचा और इससे जुड़े अन्य चिह्नों, जैसे आदर्श व्यापार समझौतों में अलग-अलग तरह के कई परिवर्तन देखने को मिलेंगे. इनमें से कुछ परिवर्तन तो बेहद दूरगामी होंगे. इसके कई उदाहरण पहले से मौजूद हैं. जैसे कि डीएसबी और एबी में परिवर्तन को अब और टाला नहीं जा सकता. इसी तरह अंदरूनी नियमों को लेकर चीन के साथ वार्तालाप को भी नहीं टाला जा सकता, जबकि ये समस्या का कारक हो सकता है. इसके अलावा नई उत्पादन तकनीकों एवं उत्प्रेरकों को लेकर अभिनव व्यापारिक प्रक्रियाओं को अपनाने पर भी परिचर्चा आवश्यक हो गई है.

विकसित देश, जैसे कि यूरोपीय यूनियन के सदस्यों को इन संघर्षों से काफ़ी नुक़सान हो सकता है. हो सकता है कि इससे उनकी घरेलू अर्थव्यवस्थाओं को भी व्यापक क्षति उठानी पड़ जाए. इसके अतिरिक्त विकासशील देशों ने लंबे संघर्ष के बाद अपने लिए जो बाज़ार बनाए हैं, उनसे इन देशों को हाथ धोना पड़ सकता है

इन दोनों कारकों को मिला कर देखें तो आने वाले समय में विश्व व्यापार को लेकर हम उदासीनता और उथल-पुथल होते देखेंगे. और ये सिलसिला तब तक चलेगा, जब तक विश्व व्यापार की नई व्यवस्था स्थिर नहीं हो जाती. हो सकता है कि विश्व व्यापार संगठन के अधिकार क्षेत्र को लेकर गंभीर विवाद उत्पन्न हों. लेकिन, इन के व्यापक संबंधों और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के दूसरे पहलुओं को भी प्रभावित करने का अंदेशा है. नई संस्थाओं के लिए प्रस्ताव, अलग-अलग देशो के समूहों के बीच बहुपक्षीय फ्रेमवर्क में विभाजन के जोखिम के कारण, ऐसा भी हो सकता है कि उन्हें आपस में जोड़ने वाला एक ढीला-ढाला नया ढांचा खड़ा हो. इसके अतिरिक्त ज़्यादा संरक्षणात्मक विचारों वाली अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था की मौजूदा स्थिति भी बनी रह सकती है. सच तो ये है कि आगे चल कर हम इस संरक्षणवादी बयार को और तेज़ होता देख सकते हैं. जिसके अंतर्गत व्यापार युद्धों को अलग-अलग आवरण के साथ पेश किया जाएगा और इनके माध्यम से अलग-अलग मक़सद साधे जाएंगे. जैसे कि चुनाव में जीत हासिल करना, घरेलू नौकरियों को बचाना, व्यापार के नए नियम और रोड़े खड़े करना ताकि प्रतिद्वंदी और कई बार बेहतर तकनीक का प्रसार रोका जा सके. विकसित देश, जैसे कि यूरोपीय यूनियन के सदस्यों को इन संघर्षों से काफ़ी नुक़सान हो सकता है. हो सकता है कि इससे उनकी घरेलू अर्थव्यवस्थाओं को भी व्यापक क्षति उठानी पड़ जाए. इसके अतिरिक्त विकासशील देशों ने लंबे संघर्ष के बाद अपने लिए जो बाज़ार बनाए हैं, उनसे इन देशों को हाथ धोना पड़ सकता है. कुल मिलाकर, सभी को किसी न किसी तरह का नुक़सान उठाना पड़ेगा.

विश्व व्यापार के भविष्य की राह में फिलहाल तो बाधाएं ही बाधाएं दिखाई देती हैं. बहुत असंतोष, शिकायतें और छुपे हुए प्रतिद्वंदी लक्ष्यों के कारण फिलहाल तो शांतिपूर्ण समझौता वार्ताएं होना असंभव लगता है. हो सकता है कि इस उठा-पटक का निष्कर्ष एक नई बहुपक्षीय व्यवस्था के दौर पर सामने आए, जो निकट भविष्य में हम देख सकें. लेकिन, फिलहाल तो ये अटकलें लगाने जैसा ही है.

प्रासंगिक संकेत

हालांकि, जैसे-जैसे व्यापार का ढांचा बिखर रहा है, लेकिन ऐसे कई नीतिगत संकेत हैं जो हमें आने वाले समय में व्यापारिक व्यवस्था की तस्वीर दिखा सकते हैं.

पहला निर्धारक कारक ये है कि वो कौन से गठबंधन होंगे जो आगे आकर विवादों का वार्तालाप से समाधान खोजने का प्रयास करेंगे और व्यापारिक संस्थानों की पुनर्संरचना करेंगे.

हाल के दिनों में अमेरिका ‘एकला चलो रे’ की नीति पर चल रहा है, अपने विचार दूसरों पर थोपने का प्रयास कर रहा है. दुनिया में अलग-थलग पड़ता जा रहा है. यहां तक कि अपने ऐतिहासिक सहयोगियों जैसे कि यूरोपीय यूनियन से भी दूर होता जा रहा है. ऐसे में क्या यूरोपीय यूनियन, चीन के साथ हाथ मिलाएगा? चीन, विश्व व्यापार संगठन का ऐसा सदस्य है, जो डब्ल्यूटीओ में बहुपक्षीय व्यवस्था का सबसे ज़्यादा दबाव बनाता है. क्या यूरोपीय यूनियन और चीन मिल कर कुछ बड़े विकासशील देशों के साथ मिल कर एक बड़ा गठबंधन बनाएंगे, जो अमेरिका का विरोध तो नहीं करेगा. पर, उसके दबावों से मुक्त होगा. इन परिस्थितियों में क्या ब्राज़ील और भारत जैसे पारंपरिक और ताक़तवर वार्ताकार देश कौन सा रुख़ अपनाएंगे? क्या नई विश्व व्यापार व्यवस्था में अफ्रीका के देश एकजुट होकर इस परिचर्चा में भागीदार बनेंगे? या फिर अफ्रीका के देश अलग-अलग व्यापारिक गठबंधनों का हिस्सा बनेंगे?

जिस तरह से गठबंधन बनेंगे, जिस तरह नए प्रेशर ग्रुप बन कर उभरेंगे और किस तरह से हित और प्रस्ताव मिल कर अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं को साथ लाएंगे, उनसे हमें आने वाले समय में उभर रहे व्यापारिक ढांचे के संकेत मिलेंगे.

इस बात की संभावना ज़्यादा है कि शुरुआत में अमेरिका और चीन अपने अपने पक्ष में ज़्यादा से ज़्यादा देशों को लाने का प्रयास करेंगे. अमेरिका, अपने साथ आने वाले देशों को आधुनिकता, स्वतंत्रता और सुरक्षा का लालच देगा. तो, चीन मौजूदा बहुपक्षीय व्यवस्था के संरक्षण और उसमें सुधार का वादा करेगा. अभी ये स्पष्ट नहीं है कि अन्य देश किस तरह से इन प्रमुख खिलाड़ियों के साथ तालमेल बिठाने जा रहे हैं.

भविष्य की व्यापार व्यवस्था का दूसरा प्रमुख कारक ये होगा कि तकनीक किस तरह से विकसित होती है. कौन से क्षेत्र ऐसे होंगे जिन्हें विश्व व्यापार के दूसरे अवतार में संगठन में शामिल किया जा सकता है. और किन क्षेत्रों को इसके दायरे से बाहर रखा जा सकता है. जिससे कि एक नए बहुपक्षीय या वैविध्यपूर्ण मंच का निर्माण होगा? इस बात के कई उदाहरण उपलब्ध हैं. जैसे कि साइबर व्यापार और आंकड़े. इसी तरह नई उत्पादन तकनीकें और उन्नत सेवाओं के कार्य.

इसके अतिरक्त एक बड़ा प्रश्न ये भी होगा कि विश्व व्यापार संगठन अन्य बहुपक्षीय संगठनों से कैसे संवाद करेगा-ख़ास तौर से साइबर और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों के मुद्दों पर? सामानों और सेवाओं की वैश्विक पहुंच बनाने के लिए कौन से पैमाने होंगे, ये कैसे तय होगा और फिर उन्हें नई व्यापार व्यवस्था में शामिल किया जाएगा या नहीं? विश्व के कृषि व्यापार की लॉबी का समर्थन करने वाली शक्तिशाली ताक़तें इन प्रस्तावित विषयों पर कैसी प्रतिक्रिया देंगी? क्या वो किसी अन्य संगठन के प्रति स्वयं को समर्पित करने को तैयार होंगे? और आख़िरी फ़ैसलों में अपनी हिस्सेदारी के लिए संगठित सिविल सोसाइटी संगठन कैसे संघर्ष करेंगे?

मौजूदा वैश्विक आर्थिक प्रशासन में मौजूदा उठा-पटक आगे चल कर और भी बिगड़ सकती है. ऐसे में हम, इन दो कारकों को माप कर, उनका विश्लेषण करके हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि आने वाले समय में किस तरह की बहुपक्षीय, नियमों पर आधारित व्यापारिक व्यवस्था उभरेगी. और ऐसा होगा भी या नहीं.

कोडा: आख़िरी चुनौती

उपरोक्त सभी परिवर्तन बेहद नाज़ुक भौगोलिक-सामरिक परिस्थितियों में होंगे. अमेरिका के नए राष्ट्रपति कौन होंगे, इसका निर्णय इस वर्ष के अंत तक हो जाएगा. अमेरिका और ईरान का संघर्ष किस दिशा में जाता है, ये भी देखने वाली बात होगी. इसी तरह यूरोपीय यूनियन में ख़ुद को केंद्र में रख कर नई व्यवस्था खड़ी करने की क्षमता होगी या नहीं, ये भी महत्वपूर्ण होगा. अफ्रीका और लैटिन अमेरिका का सियासी तापमान कैसा रहेगा, ये भी अहम कारक होगा. आज दुनिया में जिस तरह पहचान और राष्ट्रवादी राजनीति, आर्थिक लक्ष्यों के साथ शामिल हो रही है, वो भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा. इसके अलावा भी कई अन्य कारक होंगे, जो विश्व व्यापार से जुड़ी परिचर्चाओं और इसके माध्यम से नई विश्व व्यवस्था विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे. इस बात की पूरी संभावना है कि व्यापार का प्रश्न, ज़्यादा अहम मुद्दों के द्वारा पीछे धकेल दिया जाएगा. और इस तरह से नया संतुलन विकसित करने में और भी क़ीमती समय लग जाएगा.

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