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नदियों के साथ बहकर आ रही ये तलछट पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण और समृद्धि के लिए उत्तरदायी है. इसीलिए, ये कहना बिल्कुल ग़लत होगा कि हमारी नदियां खलनायिकाएं हैं.
भारत एक ऐसा देश है, जहां बड़ी संख्या में नदियों का पानी उपलब्ध है. नदियां हमारे देश की संस्कृति और पहचान का अटूट हिस्सा रही हैं. नदियों ने सभ्यताओं को जन्म दिया, उन्हें पाला-पोसा और कई बार वो सभ्यताओं के विनाश का कारण भी बनीं. आज भी हमारे देश की नदियां, हमारा भविष्य तय कर रही हैं. हमारी आस्था और एक देश के तौर पर हमारी साझा नियति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं. इसीलिए, अगर नदियां हमारी सभ्यता की जड़ों का अभिन्न अंग हैं, तो उनकी वजह से आने वाली बाढ़ भी हमारे देश का हिस्सा हैं.
अगर हम जलीय और मौसम विज्ञान की दृष्टि से कहें तो, भारत में बाढ़ का सीधा संबंध देश में मॉनसून के सीज़न में होने वाली बारिश से है. भारतीय उप-महाद्वीप में मॉनसूनी बारिश तब से होती आ रही है, जब करोड़ों साल पहले भूमध्य सागर की तलहटी, एशिया से टकराई थी और हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ था. और इस कारण से समंदर की तलछट हिमालय पर्वत की तराई वाले इलाक़ों में इकट्ठा हो गई थी. उससे पहले भारतीय उप महाद्वीप गोंडवानालैंड नाम के एक विशाल महाद्वीप का हिस्सा था. हिमालय पर्वत श्रृंखला का निर्माण होने से उत्तर में तिब्बत के पठारी इलाक़े और दक्षिण में भारत के मैदानी इलाक़ों के बीच एक पर्वतीय बैरियर बन गया था. हिमालय पर्वत की चट्टानों के टूटकर छोटे छोटे टुकड़ों की शक्ल में नदियों के साथ बहकर आने के पीछे, मॉनसून की बाऱिश की बहुत बड़ी भूमिका रही है. बारिश की बूंदों और पहाड़ की चट्टानों के टकराने से जो छोटे छोटे कण तैयार होते हैं, वो नदियों के साथ बहते हुए मैदानी इलाक़ों में आते हैं. आज भारत का अनाज का टोकरा कहा जाने वाला पंजाब हो या फिर, पूर्वोत्तर भारत के राज्य. इन इलाक़ों में हज़ारों वर्षों से नदियों के पानी के साथ पहाड़ी मिट्टी और चट्टानों के कण बहकर आ रहे हैं और जमा हो रहे हैं. हिमालय पर्वत से निकलने वाली तीन नदियों के बेसिन ही मुख्य़ रूप से इसके लिए ज़िम्मेदार हैं. पश्चिम में सिंधु नदी, उत्तर में गंगा नदी और पूर्वोत्तर में ब्रह्मपुत्र नदी. (संदर्भ: फिगर-1). इन नदियों से बहकर आने वाला पानी और ये उर्वर कण हज़ारों साल से करोड़ों लोगों का पेट भरते आ रहे हैं. नदियों के साथ बहकर आ रही ये तलछट पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण और समृद्धि के लिए उत्तरदायी है. इसीलिए, ये कहना बिल्कुल ग़लत होगा कि हमारी नदियां खलनायिकाएं हैं. फिर चाहे कोसी को बिहार का शोक कहा जाए या फिर ब्रह्मपुत्र और घाघरा नदियों को संबंधित राज्यों का शोक कह कर उन्हें कोसा जाना. ये बिल्कुल ग़लत बात है.
अगर हम जलीय और मौसम विज्ञान की दृष्टि से कहें तो, भारत में बाढ़ का सीधा संबंध देश में मॉनसून के सीज़न में होने वाली बारिश से है. भारतीय उप-महाद्वीप में मॉनसूनी बारिश तब से होती आ रही है, जब करोड़ों साल पहले भूमध्य सागर की तलहटी, एशिया से टकराई थी और हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ था.
इस तथ्य से नदियों को लेकर हमारे विचारों में साफ़ परिवर्तन आ जाता है. नदियों से बहकर आने वाले पानी की भारी मात्रा को हम अपने अस्तित्व के लिए ख़तरा मानने लगते हैं. जबकि, सच ये है कि नदियां जो पानी अपने साथ ले आती हैं, वो हमारे लिए असल में वरदान है. पर, बाढ़ को बढ़ती मानवीय समृद्धि की राह का रोड़ा मान लिया गया. हमें ये परिभाषा, हमारे साम्राज्यवादी शासकों ने दी. उनके लिए पूरा भारतीय उप-महाद्वीप एक भयानक जंगली जीव जैसा था, जिसे कंपनी का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए क़ाबू किया जाना ज़रूरी था. इसी के बाद से इंजीनियरिंग की मदद से ज़मीन के इस्तेमाल में जो बदलाव लाने शुरू किए गए, वो इससे पहले इस उप-महाद्वीप में कभी नहीं देखे गए थे. हमारा जो स्वदेशी ज्ञान था, जिसकी मदद से हम नदियों के जल से इंसान को समृद्ध किया करते थे और समुदायों को इसके ख़तरों से बचाया करते थे, वो ज़्यादा से ज़्यादा लाभ कमाने के चक्कर में गुम हो गया.
वैज्ञानिकों और इंजीनियरों ने डिज़ाइन के सिद्धांत को बड़े अहंकारी तरीक़े से बाढ़ के प्रति सहिष्णुता से बदल कर बाढ़ को क़ाबू करने पर केंद्रित कर दिया. इस वजह से हमारे देश में समस्याएं कम होने के बजाय और बढ़ ही गईं. उत्तरी बिहार में आने वाली वार्षिक बाढ़ को लेकर अपने शानदार रिसर्च में डॉक्टर दिनेश मिश्रा ने इस बात की विस्तार से व्याख्या की है कि कैसे पहले गांवों के लोग नालियों के मुंह खोल देते थे, जिससे नदियों की बाढ़ का पानी तालाबों में भर जाता था. और बाढ़ का दौर ख़त्म होने के बाद भी तालाब में पानी भरा रहता था. इसी तरह बंगाल प्रेसीडेंसी का बर्दवान ज़िला पूरब का अनाज का टोकरा बना तो उसके पीछे धान की खेती करने वालों की विशुद्ध चतुराई थी. क्योंकि स्थानीय लोगों ने धान की फ़सल की बुवाई को मॉनसून की बारिश के साथ साध लिया था. खेतों में ऐसी व्यवस्था की जाती थी कि बारिश का पानी दूर दूर तक फैल जाए. इससे खेतों में नदी की तलछट जमा हो जाती थी. जिससे खेतों को पोषक तत्व मिलते थे. और मछलियां व अंडे भी मिल जाते थे.
उत्तरी बिहार में आने वाली वार्षिक बाढ़ को लेकर अपने शानदार रिसर्च में डॉक्टर दिनेश मिश्रा ने इस बात की विस्तार से व्याख्या की है कि कैसे पहले गांवों के लोग नालियों के मुंह खोल देते थे, जिससे नदियों की बाढ़ का पानी तालाबों में भर जाता था. और बाढ़ का दौर ख़त्म होने के बाद भी तालाब में पानी भरा रहता था.
अगर किसी साल बहुत ज़्यादा बारिश होती थी, तो गांव के लोग ऊंचे इलाक़ों की ओर चले जाते थे. और बाढ़ के पानी में खेतों को डूब जाने देते थे. इससे पानी एक बड़े इलाक़े में फैल जाता था और जन-धन की कम हानि होती थी. लेकिन, भारत में बाढ़ से निपटने की इन पारंपरिक व्यवस्थाओं में बदलाव तब आया जब साम्राज्यवादी जलीय विचारधारा का आगमन हुआ. और इन साम्राज्यवादियों ने नदियों को एक ख़ास रास्ते से ही गुज़रने के लिए ‘प्रशिक्षित’ करना शुरू किया. जिससे कि एक एक इंच ज़मीन का आर्थिक लाभउठा कर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया जा सके. इसके लिए मुख्य तौर पर सिंचाई के प्रोजेक्ट बनाए गए. इसके अलावा बड़े बड़े बांध बनाए गए. अंग्रेज़ों को इस काम में ज़मींदारी व्यवस्था से मदद मिली. ज़मींदारी व्यवस्था थी तो लोगों का शोषण करने वाली, मगर साम्राज्यवादी ताक़तों के लिए वो बहुत काम की चीज़ साबित हुई.
भारत को बाढ़ नियंत्रण के इस आयाम से मुक्ति पाने में 200 साल से ज़्यादा समय लग गया. 27 जुलाई 1956 को संसद में पेश किए गए एक बयान में पहली बार आधिकारिक रूप से माना गया कि बाढ़ से होने वाले नुक़सान से पूरी तरह से बच पाना असंभव है. और भविष्य में भी इससे छुटकारा पा सकना मुश्किल है. इसके बाद बाढ़ पर एक उच्च स्तरीय कमेटी (1957) बनी जिसने वर्ष 1958 में बयान जारी किया. जिसमें साफ़ तौर से कहा गया कि बाढ़ नियंत्रण के लिए बाढ़ प्रभावित इलाक़ों को ज़ोन में बांटना और बाढ़ की भविष्यवाणी करने जैसे उपाय आज़माए जाने चाहिए. क्योंकि इससे किसी विशाल बांध या ऐसी ही किसी अन्य संरचना का निर्माण करने की ज़रूरत नहीं होगी, जिसमें भारी मात्रा में पूंजी निवेश हो.
केंद्रीय जल आयोग लंबे समय से ये कहता आया है कि राज्यों को अपने अपने यहां बाढ़ ग्रस्त इलाक़ों को अलग अलग ज़ोन में बांटना चाहिए. इससे बाढ़ से होने वाले नुक़सान को कम किया जा सकेगा. इसके साथ साथ नदियों को भी ‘अपने रास्ते पर बहने’ देने दिया जा सकेगा. चूंकि, संविधान के अनुसार ज़मीन को लिस्ट-2 की 18वीं एंट्री के तहत राज्यों का विषय माना गया है, तो केंद्र सरकार ने बाढ़ नियंत्रइ के लिए वर्ष 1975 में एक मॉडल बिल फॉर फ्लड प्लेन ज़ोनिंग (MBFPZ) को राज्यों से साझा किया था. जिससे कि राज्यों में बाढ़ प्रभावित इलाक़ों को अलग अलग क्षेत्रों में बांटने को लेकर परिचर्चा को आगे बढ़ाया जा सके.
एक नीति के दौर पर फ्लड प्लेन ज़ोनिंग (FPZ) के ज़रिए दो प्रमुख लक्ष्य हासिल करने की कोशिश होती है. पहली तो ये कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों से अतिक्रमण हटाया जाए. और दूसरा ये कि इन बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में ज़मीन के इस्तेमाल को नियमित किया जाए. यानी बाढ़ प्रभावित इलाक़े को ज़ोन में बांटने के पीछे का तर्क बिल्कुल स्पष्ट है. बाढ़ के चलते होने वाला नुक़सान लगातार बढ़ रहा है. इसकी बड़ी वजह ये है कि डूब क्षेत्र में आने वाले इलाक़ों में पिछले कुछ वर्षों के दौरान आर्थिक गतिविधियां बहुत बढ़ गई हैं. और, इंसानी बस्तियां भी बस रही हैं. इससे नदियों के डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों के बाढ़ के शिकार होने की आशंका साल दर साल बढ़ती ही जात रही है. नतीजा ये कि नदी का क़ुदरती बहाव क्षेत्र बाढ़ का शिकार इलाक़ा नज़र आने लगता है.
हाल के वर्षों में नदियों के पानी से डूबने वाले क्षेत्रों में शहरी बस्तियां बसने की रफ़्तार तेज़ हो गई है. इस कारण से भी बाढ़ से होने वाली क्षति का दायरा बढ़ रहा है. क्योंकि किसी भी शहर का भौगोलिक दायरा और आबादी बढ़ने से ज़्यादा से ज़्यादा लोगो के बाढ़ के शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है. जैसे ही बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में बस्तियां बसने लगती हैं, तो बाढ़ के पानी के निकलने का रास्ता रुक जाता है. इससे बाढ़ का पानी निकल नहीं पाता. फिर बस्तियों को बाढ़ के पानी से बचाने के लिए उनके इर्द गिर्द बंध बनाए जाते हैं. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बस्तियां बसने और इन बंधों के बनने से नदी घाटी और नदियों के इकोसिस्टम पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है.
हाल के वर्षों में नदियों के पानी से डूबने वाले क्षेत्रों में शहरी बस्तियां बसने की रफ़्तार तेज़ हो गई है. इस कारण से भी बाढ़ से होने वाली क्षति का दायरा बढ़ रहा है. क्योंकि किसी भी शहर का भौगोलिक दायरा और आबादी बढ़ने से ज़्यादा से ज़्यादा लोगो के बाढ़ के शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है.
ऐसे में नदी के तेज़ बहाव के मानव समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का प्रबंधन वैज्ञानिक तरीक़े से किया जाए. तो, बाढ़ से होने वाले नुक़सान को भी काफ़ी हद तक कम किया जा सकता है. ऐसा करने के लिए मॉडल बिल फ़ॉर फ्लडप्लेन ज़ोनिंग और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority) को मिलाकर एक संयुक्त मगर व्यापक व्यवस्था का प्रावधान है. (फिगर-2 देखें). इस मॉडल बिल में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि बाढ़ की आमद के हिसाब से ही बाढ़ प्रभावित इलाक़ों का वर्गीकरण न हो, बल्कि इसके लिए किसी क्षेत्र में होने वाली बारिश को भी निर्धारण के समीकरण में शामिल किया जाए. इससे बाढ़ग्रस्त इलाक़ों का प्रबंधन बेहतर तरीक़े से हो सकेगा. उदाहरण के तौर पर, जो ज़ोन नदी के तट के बेहद क़रीब स्थित है और जहां नियमित रूप से बाढ़ आती है. और बड़ा इलाक़ा बाढ़ के पानी में डूब जाता है, वहां पर खुले इलाक़े जैसे कि बागीचे और खेल के मैदान बनाने का प्रावधान है. इसी तरह, जो ज़ोन नदी के डूब क्षेत्र से सबसे दूर के छोर पर स्थित है और जहां कभी-कभार ही बाढ़ का पानी पहुंचता है, वो इलाक़ा घर बनाने, बस्तियां बसाने और दूसरी सार्वजनिक सेवाओं का निर्माण करने में इस्तेमाल हो सकता है.
ये योजना और प्रावधान भले ही तार्किक लगते हों और फ्लडप्लेंन को ज़ोन में बांटने की व्यवस्था और नियमितीकरण से लाभ स्पष्ट रूप से दिखते हों, लेकिन, राज्यों के सत्ताधारी दलों ने हमेशा इसकी अनदेखी की है. जब ये मॉडल बिल पहली बार राज्यों से साझा किया गया था, तब से लेकर अब तक चार दशक बीत चुके हैं. और अब तक केवल तीन राज्यों-मणिपुर (1978), राजस्थान (1980) और उत्तराखंड (2012) ने ही बाढ़ प्रभावित इलाक़ों को ज़ोन में बांटने का क़ानून तैयार किया है. जबकि अन्य राज्य और ख़ास तौर से नियमित रूप से बाढ़ की त्रासदी झेलने वाला बिहार, लगातार इसका विरोध करते रहे हैं. इसकी दो प्रमुख वजहें हैं:बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में आबाद लोगों को डूब क्षेत्र से हटाना और दूसरी जगह पुनर्स्थापना. क्योंकि, इन लोगों को बसाने के लिए वैकल्पिक ज़मीन का राज्यों के पास अभाव है.
आज भी ज़मीन अधिग्रहण करना एक बहुत बड़ी चुनौती है. और सरकारों पर अक्सर ये आरोप लगते रहे हैं कि वो मुआवज़ा देने में निष्पक्षता नहीं बरतते और लोगों के पुनर्वास की सरकारी योजनाएं अपर्याप्त होती हैं. इसीलिए, यथास्थिति बनाए रखने के राजनीतिक लाभ अधिक हैं. क्योंकि इसमें हर सीज़न में बाढ़ पीड़ितों को राहत और मुआवज़ा देकर काम चल जाता है.
हर डूब क्षेत्र से लोगों को हटाने और तय दिशा-निर्देशों के अनुसार उन्हें कहीं और बसाने की चुनौती बहुत बड़ी है. और इसकी शुरुआत से ही बाधाएं आने लगती हैं. आज भी ज़मीन अधिग्रहण करना एक बहुत बड़ी चुनौती है. और सरकारों पर अक्सर ये आरोप लगते रहे हैं कि वो मुआवज़ा देने में निष्पक्षता नहीं बरतते और लोगों के पुनर्वास की सरकारी योजनाएं अपर्याप्त होती हैं. इसीलिए, यथास्थिति बनाए रखने के राजनीतिक लाभ अधिक हैं. क्योंकि इसमें हर सीज़न में बाढ़ पीड़ितों को राहत और मुआवज़ा देकर काम चल जाता है. इसीलिए राज्यों की ओर से दूसरे विकल्पों पर विचार नहीं किया जाता. क्योंकि, इससे उनके राजनीतिक हितों पर बुरा प्रभाव पड़ता है. इसके अलावा, यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि शहरी घनी बस्तियों को पूरी तरह से विस्थापित नहीं किया जा सकता. और इसके लिए इन बस्तियों के इर्द गिर्द बांध बनाकर उनकी सुरक्षा का इंतज़ाम करना भी ज़रूरी होता है. पर, इसके साथ ही साथ ये ज़रूर हो सकता है कि शहरों के बुनियादी ढांचे का और विकास रोका जाए. ताकि बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में और बस्तियां न बसें.
इन चुनौतियों के उलट अगर हम नदियों के क़ुदरती बहाव के रास्ते तैयार करने की कोशिश करें, तो इसमें भी बाढ़ नियंत्रण की काफ़ी संभावनाएं दिखती हैं. इससे बाढ़ से होने वाली क्षति को भी कम किया जा सकेगा. जिन इलाक़ों में अक्सर बाढ़ आया करती है, वहां ज़मीन के दाम ज़्यादा नहीं होते. इसीलिए, समाज के सबसे कमज़ोर तबक़े के लोग ही ऐसे जोखिम भरे इलाक़ों में आबाद होते हैं. जो अपनी ज़िंदगी बेहद ख़तरनाक जगह पर बिताते हैं. उन्हें सरकारी योजनाओं और सेवाओं का भी लाभ नहीं मिलता. ऐसे लोगों को अगर दूसरे स्थानों पर बसाया जाए, तो उनके पास ख़ुद को ग़रीबी के विषैले दुष्चक्र से आज़ाद करने का अवसर मिलेगा. वो हर साल आने वाली बाढ़ की तबाही से बच सकेंगे. इससे उनके सीमित पूंजीगत संसाधनों का भी संरक्षण हो सकेगा.
यहां पर एक और महत्वपूर्ण बात जो ध्यान देने योग्य है, वो ये है कि डूब क्षेत्र की ज़ोनिंग का लाभ आबादी के एक बड़े हिस्से और क्षेत्र को मिलेगा. मिसाल के तौर पर, अगर असम राज्य में डूब क्षेत्र को दोबारा संरक्षित किया जाए और ब्रह्मपुत्र नदी के प्राकृतिक बहाव के रास्ते को पुनर्जीवित किया जाए, तो इसका फ़ायदा बांग्लादेश तक को मिलेगा. क्योंकि तब बारिश होने और बाढ़ का पानी बांग्लादेश के निचले इलाक़ों तक पहुंचने के बीच काफ़ी समय मिल जाएगा. इससे नदियों में लंबे समय तक पानी का अच्छा स्तर भी बना रह सकेगा.यहां हमें ये स्वीकार करना होगा कि नदियां इस भूक्षेत्र का अभिन्न अंग हैं. ऐसे में इंसानों को अपनी गतिविधियां प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा तय की गई सीमाओं के दायरे में रहकर ही संचालित करनी होंगी. प्राचीन काल में जिस तरह मानवीय गतिविधियों को प्राकृतिक व्यवस्था के तालमेल से संचालित किया जाता था. उसी विचार को हमें नए सिरे से अपनाने के बारे में सोचना होगा. तभी हम इस महत्वपूर्ण नीति को ज़मीनी स्तर पर लागू कर सकेंगे, जो बरसों से धूल फांक रही है.
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Sayanangshu Modak was a Junior Fellow at ORFs Kolkata centre. He works on the broad themes of transboundary water governance hydro-diplomacy and flood-risk management.
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