हाल के दशक में, विश्व भर में जहां अनेकानेक राजनैतिक उन्नति हुई है, उनमें सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव है विभिन्न राजनैतिक भूमिकाओं में महिलाओं की सहभागिता और प्रतिनिधित्व. हमारी आधी आबादी महिलाओं से बनती है, परंतु संख्या की तुलना में, हमारी राजनीति तंत्र में वे कम प्रतिनिधित्व करती हैं. हर स्तर पर, घर से लेकर सरकार के सबसे ऊंचे स्तर पर, महिलाओं को निर्णय लेने के अधिकार से सदैव ही दूर रखा गया है. राजनीति में महिलाओं के निर्णय लेने संबंधी संलिप्तता का महिलाओं के सशक्तिकरण पर पर्याप्त प्रभाव पड़ सकता है, इसी की वजह से भारत लैंगिक असमानता के मुद्दे से बेतरह जूझ रहा है. भारतीय संविधान में किए गए लैंगिक समानता के प्रावधान के बावजूद, वैद्यानिक समिति और राजनीतिक सहभागिता के दर एक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति काफी कम है. इसके संभावित वजहों को तलाशते हुए, यह देखना दिलचस्प होगा कि राजनीति में शिक्षा एक अलग ही भूमिका अदा करती है; हालांकि, सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही, क्योंकि पुरुष राजनीतिज्ञों की तुलना में, महिला राजनीतिज्ञों में साक्षरता दर ज़्यादा है, जिसके मायने ये हुए कि सिर्फ़ महिलाओं को ही राजनीतिक शिक्षा की ज़ररूरत है.
भारतीय संविधान में किए गए लैंगिक समानता के प्रावधान के बावजूद, वैद्यानिक समिति और राजनीतिक सहभागिता के दर एक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति काफी कम है.
महिलाओं का प्रतिनिधित्व दयनीय
भारतीय चुनाव आयोग, द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर, संसद के कुल सदस्यों में 10.5 प्रतिशत प्रतिनिधित्व महिलायें करती है. राज्य असेंबली में तो महिलाओं की और भी बुरी दशा है, जहां पर उनका नेतृत्व मात्र 9 प्रतिशत ही है. स्वतंत्रता के 75 साल बीत जाने के बाद भी लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं बढ़ी है. भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों में महिला कार्यकर्ताओं की भरमार है, परंतु ज़्यादातर उन्हे चुनाव लड़ने के लिए ज़रुरी टिकट नहीं दी जाती है और उन्हे हाशिये पर रखा जाता है. हालांकि, भारतीय राजनीति में महिलाओं के इस दयनीय प्रतिनिधित्व के लिए और भी कई कारण जिम्मेदार है जैसे चली आ रही लिंग संबंधी रूढ़ियाँ, राजनीतिक नेटवर्क की कमी, वित्तीय तनाव, और संसाधनों की कमी, आदि. परंतु एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक जो राजनीति में महिलाओं की सहभागिता में बाधक है वो है देश के भीतर महिलाओं में राजनीतिक शिक्षा की कमी. ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के अनुसार, 153 देशों में भारत ने शिक्षा प्राप्ति के क्षेत्र में 112वें पायदान पर है, जिससे पता चलता है कि राजनीति में महिलाओं की सहभागिता में शिक्षा एक गंभीर साझेदारी अदा करती है. महिलाओं की सामाजिक गतिशीलता, शिक्षा से काफी प्रभावित हो रही है. शैक्षिक संस्थानों में दिए जाने वाले औपचारिक शिक्षा, लोगों में नेतृत्व के अवसर और उनमे महत्वपूर्ण नेतृत्व क्षमता पैदा करती है. राजनीतिक ज्ञान की कमी के कारण, महिलायें अपनी बुनियादी और राजनीतिक अधिकारों से बेख़बर है.
महिला राजनीतिज्ञों की एक बड़ी संख्या काफी पढ़ी लिखी है जैसे भारत की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ममता बनर्जी, बंगाल की मुख्यमंत्री; पश्चिम बंगाल से संसद, महुआ मोइत्रा; दिल्ली से एमएलए, आतिशी मरलेना; उत्तरप्रदेश की भूतपूर्व मुख्यमंत्री, मायावती. इससे इस सोच को काफी बल मिलती हैं जब बात राजनैतिक प्रतिनिधित्व की आती है कि महिलाओं के बीच साक्षरता की काफी अहम भूमिका होता है. साक्षरता का सवाल न सिर्फ़ चुनाव लड़ने से रोकता है बल्कि वो मतदान देने तक महत्वपूर्ण होता है; शुरुआत करने के लिए, उस राज्य में जहां महिला साक्षरता दर कम है वहाँ महिलाओं की कुल भागेदरी भी कम है और उस क्षेत्र में उनकी भागेदरी ज़्यादा है जहां साक्षरता दर ज़्यादा है. इसके अलावा, पिछले दशक में, महिला साक्षरता दर में सुधार के बावजूद महिला मतदाता की भागीदारी कमोबेश कमतर ही रही है. ये ध्यान योग्य भी ज़रूरी है कि पुरुष और साक्षरता के बीच साक्षरता की कोई भूमिका नहीं है. कुल मतदाता और महिला मतदाताओं के बीच की भागीदारी में व्याप्त ये असामानता उन राज्यों में ज़्यादा है जहां साक्षरता दर काफी कम है. पुरुष मतदाता भी उसी अनुपात में ही हैं चाहे वे साक्षर हो अथवा नहीं.
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 के अनुसार, 153 देशों में भारत नें शिक्षा प्राप्ति के क्षेत्र में 112वें पायदान पर है, जिससे पता चलता है कि राजनीति में महिलाओं की सहभागिता में शिक्षा एक गंभीर साझेदारी अदा करती है.
लैंगिक समानता कैसे साकार हो?
उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां मात्र 10 प्रतिशत महिला ही राज्य विधानसभा का प्रतिनिधित्व कर रही है, उनमें से 77.5 प्रतिशत महिला स्नातक और स्नातकोत्तर है जबकि पुरुषों की संख्या इस तुलना में तो काफी कम है. उसी तरह से पश्चिम बंगाल में, राज्य विधान सभा के लिए चुनी गई 14 प्रतिशत महिलाओं में साक्षरता दर 60 प्रतिशत रही है, और पुरुष नेताओं में भी कमतर है. ये तुलनात्मक आँकड़े भारतीय राजनीतिज्ञों में राजनीतिक शिक्षा की सच्चाई को बयान करते है, कि भारत में,महिला राजनीतिज्ञ, पुरुष राजनीतिज्ञों की तुलना में काफी ज़्यादा शिक्षित हैं, इसके बावजूद उनका प्रतिनिधित्व दर कम है. आम शिक्षा और राजनीतिक शिक्षा की कमी की वजह से, महिलाओं की राजनीति में भागेदारी नहीं बढ़ पा रही है और भारत में लैंगिक समानता कभी न साकार होने वाली एक स्वप्न मात्र ही रह गई है. बगैर किसी प्रश्न के, सतत विकास (एसडीजी 5 (5.5 और 5. सी) के लैंगिक समानता और नेतृत्व क्षमता एवं आम जनों के बीच सहभागिता, राजनीति और आर्थिक निर्णय लेने और इन सब सहभागियों की राह को आसान बनाने हेतु ज़रूरी नीतियों के निर्धारण पर विशेष ज़ोर देते हुए) इसके लिये तय लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रति जागरूक महिला प्रतिनिधित्व, देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, जहां कि एक देश में आधी मतदाता महिलाएं है और नीतियाँ पुरुष और महिला दोनों ही के लिए बनायी जाती है, प्रशासनिक और नीति-निर्धारण प्रक्रिया में वे बेहतर सहभागिता की हक़दार है क्यूंकि इसमें किसी भी प्रकार की कमी इन नीतियों के प्रभाव को कम ही करेगी.
“जहां महिलायें काफी शिक्षित और सशक्त हैं, अर्थव्यवस्थाएं काफी सशक्त और उत्पादक है. जहां महिलाओं का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व होता है, वहाँ समाज काफी शांतिप्रिय एवं स्थिर होता हैं.” (यूएनएससी 2013) संयुक्त राष्ट्र के सेक्रेटरी जनरल बन की-मून के इस उद्धरण पर ज़र देते हुए, लिंग समानता और देश को और भी जागरूक बनाने के लिए इसके औचित्य पर विशेष रूप से प्रभाव डाला. भारत में कन्या शिक्षा का दर काफी कम हैं और ये अब भी पितृसत्ता के अधीन है जिसकी वजह से महिलाओं को अब भी जिम्मेदारियाँ उसी पुरानी पारंपरिक और रूढ़िवादी सोच आधारित दी जाती है; हालांकि, इसके बदले में, और भी गूढ मुद्दे तैयार हो चुके है जहां हम नीति और परेशानियों के समावेश में प्रतिनिधित्व की कमी का सामना कर रहे हैं, जिनसे नावाकिफ़ होने की वजह से महिलायें स्वयं भी इस खराब चक्रव्यूह में फंसती जा रहीं हैं. सरकार ने औरतों को राजनीति में ज़मीनी तौर पर जुडने से प्रेरित करने के लिए संविधान में सुधार करके पंचायती राज संस्थान के अंतर्गत, महिला आरक्षण का प्रावधान (संविधान के आर्टिकल 243(दी) जिसके तहत महिलाओं के लिए कम से कम एक-तिहाई आरक्षित एक तिहाई भागेदारी को अपरिहार्य करने के प्रावधान) सहित महिला शिक्षा (“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”) महिला आरक्षण बिल 2008 का प्रस्ताव जिसके अंतर्गत लोकसभा और सभी राज्य विधान सभा में महिलाओं के लिए कुल सीटों में एक तिहाई सीट करने को काफी बढ़ावा दिया गया है.
आम शिक्षा और राजनीतिक शिक्षा की कमी की वजह से, महिलायें की राजनीति में भागेदारी नहीं बढ़ पा रही है और भारत में लैंगिक असमानता कभी न साकार होने वाली एक स्वप्न मात्र ही रह गई है.
महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी दूर की कौड़ी
सदियों से राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सबसे ज़्यादा प्रभावित हुई है और इस विषम परिस्थिति के मद्देनज़र जिसमें हम है, ये कच्चे कदम निरर्थक है, इसलिए, ऐसी नीतियों की सख्त़ और तत्काल ज़रूरत हैं जो और भी ज़्यादा सख्त़ नियम और देश भर में, गर्ल चाइल्ड को दी जाने वाली शिक्षा आदि के ज़रिए महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जा सके; विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा ऐसी पहल की जानी चाहिए जहां महिलाओं के राज्य विधान सभा और संसदीय चुनावों में, सहमतिपूर्वक उल्लेखित न्यूनतम भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके, महिला आरक्षण बिल के पास अथवा पारित होने की राह प्रशस्त हो सके, महिलाओं के लिए सुरक्षित राजनीतिक स्थल और महिलाओं के लिए पुराने घिसी-पिटी भूमिकाओं का परित्याग किया जाना चाहिए.
भारत में महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी को अभी और भी काफी दूर चलते हुए जाना है, ख़ासकर शासन की और ऊंचाई तक. हालांकि, बढ़ती तादाद में महिला राजनीतिक नेतृत्व और अधिक मात्रा में महिलाओं के द्वारा अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों का पालन करने की वजह से, हम उम्मीद कर सकते हैं कि नीतियों में बदलाव आयेगा जो भारत को अपनी राजनीतिक प्रदर्शन को और बेहतर करने में मददगार साबित होगा.
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