Published on Apr 01, 2017 Updated 0 Hours ago

केंद्र और तमिलनाडु दोनों की सरकारों ने समय समय पर समुद्री तटों पर रहने वाले मछुआरों के व्यापार/कैरियर के विकल्पों में बदलाव लाने की कमजोर कोशिशें की हैं।

भारतीय मछुआरों की हत्याओं ने उठाए संप्रभुता के सवाल
स्रोत: सिरीसेना/फेसबुक

संभवतः पहली बार मीडिया रिपोर्टों में तमिलनाडु के एक मछुआरे 21 वर्षीय के. ब्रिज्टो की मौत की जांच के बारे जानकारी दी गई है जिसकी मृत्यु श्रीलंका की नौसेना (एसएलएन) द्वारा गोलीबारी की एक घटना के दौरान हो गई थी। रामेश्वरम में ‘द हिन्दू’ के विशेष संवाददाता ने जांच अधिकारियों के हवाले से रिपोर्ट दी है कि मछली पकड़ने वाली भारतीय नौका भगाए जाने के बाद घर की ओर वापसी करने के दौरान मुड़ते हुए एक एसएलएन पोत-जो या तो एक वॉटर स्कूटर था या इनफ्लेटेबल-बोट से टकरा गया था। समाचारों में डॉक्टरों के बारे में भी चर्चा की गई है जिन्होंने मछुआरे की लाश का पोस्टमार्टम किया और उसके शरीर से गोली निकालने के बाद उसे पुलिस को सुपुर्द कर दिया। केरल तट पर घटित ‘इतालवी नौसेना मामले’ को उद्धृत करते हुए रामेश्वरम के मछुआरों और पूरे तमिलनाडु के मछुआरों ने इस मामले से जुड़े एसएलएन कार्मिक की गिरफ्तारी और उसे सजा दिए जाने की मांग की है। ‘न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ ने एलायंस फॉर द रिलीज ऑफ इनोसेंट फिशरमैन के अध्यक्ष यू अरुलननदम के हवाले से कहा, भारतीय तट रक्षक बल (आईसीजी) द्वारा किसी श्रीलंकाई अधिकारी को दो भारतीय मछुआरों — सुसैयापार एवं अल्पोंस — को मन्नार की खाड़ी में कथित रूप से मार गिराए जाने के बाद गिरफ्तार करने का केवल एक ही मामला है जो 1985 में संभवतः तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय एम जी रामचंद्रन के दबाव में किया गया था

बाद में गिरफ्तार एसएलएन अधिकारी को रिहा कर दिया गया।

वर्तमान मामले में, पुलिस जांच दलों ने भी संभवतः जीपीएस डाटा और उस बदकिस्मत नौका पर सवार मछुआरों के मोबाइल फोेनों को को जब्त कर लिया है जिसमें ब्रिज्टो एवं पांच अन्य मछुआरे 6 मार्च, 2017 की रात यात्रा कर रहे थे। इससे उनके इन दावों का सत्यापन किया जा सकेगा कि एसएलएन पोत ने भारतीय जल सीमा में घुसपैठ की थी जहां वे अकेले मछली पकड़ रहे थे। अन्य रिपोर्टों में भी यह दावा किया गया है कि पुलिस ने उस बुलेट की पहचान कर ली है जो एक एके-47 राइफल से चलाई गई थी, पर इनकी पुष्टि की जानी अभी बाकी है। रिपोर्टों में कहा गया है कि विस्तृत जानकारी भारतीय विशेषज्ञों द्वारा फोरेन्सिक जांच के बाद प्राप्त हो पाएगी।

श्रीलंका का इंकार

पहले के कई अन्य अवसरों की तरह एसएलएन ने इंकार किया है कि ऐसी कोई दुर्घटना हुई है। विदेश राज्य मंत्री एम जे अकबर ने संसद में बताया कि श्रीलंका सरकार ने मामले की जांच करने का वादा किया है। अगर श्रीलंका अपने वादे पर गंभीरता से अमल करता है तो या तो उसे अपनी नौसेना के साथ खड़ा रहना चाहिए या/और वह भौतिक साक्ष्य मांगना चाहिए जो वर्तमान में भारतीय जांचकर्ताओं के पास उपलब्ध बताया जाता है।

श्रीलंका के फोरेन्सिक जांचकर्ताओं को भी इसे ‘सत्यापित’ करने के लिए गोली के अवशेषों की आवश्यकता होगी जिससे पता चलेगा कि क्या गोली उस वक्त पड़ोसी समुद्री क्षेत्र में गश्त लगा रहे एसएलएन जवानों के हाथों से किसी अन्य हथियार से चलाई गई थी। वे न केवल भारतीय मछली पकड़ने वाली नौका के बारे में ‘पता लगाने’ के लिए बल्कि उस क्षेत्र में उनके पोतों के बारे में और दोनों के बीच दूरी का पता लगाने के लिए भी जीपीएस डाटा की भी मांग करेंगे।

अंतर्राष्ट्रीय कानून में कहा गया है कि दूसरे देशों के समुद्रों में अवैध मछली पकड़ने की स्थिति में भी घुसपैठियों पर गोली नहीं चलाई जानी चाहिए। भारत और श्रीलंका के बीच, इसके लिए अक्तूबर 2008 को एक समझौता किया गया इसके बाद समुद्र के बीच में गिरफ्तारियों और गोलीबारी की घटनाओं में कमी ( या, लगभग बिल्कुल नहीं) के एक युग की शुरुआत हुई। इसमें कोई संदेह नहीं कि एसएलएन द्वारा भारतीय समुद्र सीमा को कोई भी उल्लंघन, निर्दोष मछुआरों द्वारा श्रीलंका के समुद्र को कोई उल्लंघन कहीं ज्यादा बड़ा एक मुद्दा है जिसमें भारत की संप्रभुता, सुरक्षा एवं क्षेत्रीय एकजुटता शामिल है। 2008 से पूर्व, जब कभी भारतीय मछुआरे इसका दावा किया करते थे कि एसएलएन ने भारतीय समुद्र में घुसपैठ की है और उनके व्यवसाय के साथ हस्तक्षेप किया है, अधिकतर समय इसकी पुष्टि नहीं हो पाती थी और इसे कोई चुनौती नहीं दी जाती थी। उस वक्त भारतीय नौसेना के वरिष्ठ अधिकारियों ने उनसे अपील करना आरंभ किया कि वे अधिकारियो के समक्ष विवरण प्रस्तुत करें, नहीं तो भारतीय क्षेत्र में ऐसी घुसपैठों का समुचित प्रत्युत्तर नहीं दिया सकेगा। इसके बावजूद कि तकनीकी प्रगति भारतीय समुद्र में भारतीय मछुआरों एवं उनकी नौकाओं के स्थान तथा घुसपैठ करने वाले एसएलएन पोतों दोनों की पहचान करने में मददगार साबित हुई है तब से ज्यादा मामले या विवरण नहीं आए हैं।

जश्नों का बहिष्कार

मृतक मछुआरे के परिवार ने तमिलनाडु सरकार की क्षतिपूर्ति को लेने से, खासकर, पोस्टमार्टम जांच के बाद, इंकार कर दिया है। चाहे इसका सह-संबंध केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार की देश में अन्यत्र विधानसभा चुनावों में जीत से रहा हो या फिर एक सप्ताह के बाद थकन के कारण हो, उन्होंने 12 मार्च को केंद्रीय राज्य मंत्रियों निर्मला सीतारमण एवं पोन राधाकृष्णन के हस्तक्षेप के बाद विरोधों को वापस लेने की घोषणा कर दी है।

बहरहाल, तब तक पड़ोसी मछुआरा समुदायों ने सेंट एंथोनी के चर्च पर छोटे काटचटिवु आइलेट पर वार्षिक उत्सवों का बहिष्कार करना समाप्त कर दिया था जिसे लेकर केंद्र एवं तमिलनाडु सरकार के विचार अलग अलग हैं। भारत ने अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा (आईएमबीएल) के श्रीलंका की तरफ पड़ने वाले आईलेट पर सहमति व्यक्त की थी जब इस पर पहली बार वार्ता की गई थी और 1974 में यूएनसीएलओएस के तहत इसे अधिसूचित कर दिया गया था। इसके सटीक/तकनीकी कारण अस्पष्ट हैं, लेकिन 1971 के ‘बांग्लादेश युद्ध’ जिसमें भारत ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, के कुछ वर्षों बाद वजूद में आने वाले काटचटिवु आइलेट समझौते ने हिन्द महासागर के दक्षिण स्थित पड़ोसी को एक सकारात्मक संदेश भेजने के उद्देश्य को भी पूरा किया।

यह मुद्दा अभी भी अनसुलझा है कि क्या यह समझौता, खासकर, 1976 में दूसरे समझौते के बाद भारतीय मछुआरों को काटचटिवु के आसपास समुद्र में अपना व्यवसाय आरंभ की आजादी है। बहरहाल, अन्नाद्रमुक की मुख्यमंत्री स्वर्गीय जयललिता, जो उस वक्त विपक्ष में थीं, ने इसके विरोध में सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली थीं और हस्तांतरण की संवैधानिकता एवं वैधता को चुनौती दी थी। इसके बाद, इसी प्रकार की एक अलग याचिका तत्कालीन विपक्ष के नेता एम करूणानिधि, जो खुद एक वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री थे, द्वारा दायर की गई।

2011 में जयललिता के सत्ता में लौटने के बाद तमिलनाडु की सरकार ने खुद को इसमें अभियोजित कर लिया और उसका समर्थन किया जिसे उन्होंने एक निजी नागरिक के बतौर दायर किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक इस मामले में नियमित सुनवाई नहीं की है जिससे कि इस मामले की जल्द सुनवाई हो सके। जयललिता अब जीवित नहीं हैं। समाचारों एवं पार्टी नेतृत्व के दावों के अनुसार, करुणानिधि अब शारीरिक रूप् से लगभग अक्षम हो चुके हैं।

इससे एक तरफ जयललिता के वाद के रखरखाव को लेकर प्रश्न खड़े होते हैं, वहीं दूसरी तरफ करुणानिधि की कानूनी टीम के आवश्यकता पड़ने पर अपने मुवक्किल से निर्देश पाने की संभावना बनी हुई है। क्या अन्य लोग नई याचिका दायर कर सकते हैं या विचाराधीन याचिकाओं में भी खुद को शामिल कर सकते हैं, यह ऐसा प्रश्न है जिस पर न्यायालय को, मुख्य मामले की सुनवाई एवं निपटाने के लिए इसे उठाए जाने के समय निर्देश देना पड़ सकता है।

बहरहाल, मामला के विचाराधीन रहते, केंद्र ने मई 2009 में श्रीलंका के जातीय युद्ध की समाप्ति के बाद श्रीलंका की सरकार के साथ हुए एक द्विपक्षीय समझौते के आधार पर वार्षिक उत्सवों के दौरान रामेश्वरम के मछुआरों के लिए सेंट एंथोनी चर्च में प्रार्थना का अधिकार प्राप्त किया था। इसके तहत भारतीय अधिकारी वैधता की जांच के लिए सहभागियों की सूची को सत्यापित करेंगे और श्रीलंका की नौसेना ने आवश्यकता पड़ने पर सुरक्षा जांच का अधिकार सुरक्षित रखा था।

और कुछ नही तो इन त्यौहारों ने तमिलनाडु के मछुआरों के लिए दोनों देशों के बीच सामाजिक रूप से मिलने जुलने और कभी कभी पारिवारिक संबंधों का नवीकरण करने -और मछुआरों से संबंधित विवाद पर विचारों के आदान प्रदान/बातचीत को आगे बढ़ाने का भी अवसर प्रदान किया है। बहरहाल, इस बार भारतीय मछुआरा समुदाय ने एसएलएन गोलीबारी का विरोध करने के लिए 11-12 मार्च को हुए काटचटिवु उत्सवों का बहिष्कार करने का फैसला किया।

अन्य मुद्वों के अतिरिक्त, यह बहिष्कार श्रीलंका के लिए भारतीय तीर्थयात्रियों को अगले वर्ष से आईलेट की यात्रा से मना करने का एक दृष्टांत भी प्रदान कर सकता है। उस वक्त, श्रीलंका यह तर्क भी दे सकता है कि मछुआरों ने खुद ही एक धार्मिक कही जाने वाली परंपरा को तोड़ने का फैसला किया, भले ही युद्ध के वर्षों के दौरान जबरन बंद किए जाने के बाद उन्होंने केवल एक ही बार इसे तोड़ा हो, जिससे अब भविष्य में भी दूर रहने की उम्मीद की जा सकती है।

अभी भी समस्याग्रस्त

भारत-श्रीलंका मछुआरा विवाद पर लिखने वाले लगभग सभी लोगों ने कई बार ‘संकटग्रस्त जल में मछली पकड़ने’ के मुहावरे का प्रयोग किया है। यह मुहावरा अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है। यह अपने लिए कोई समाधान भी नहीं ढूंढ पाया है। जब किसी संकट या किसी परेशानी की स्थिति आती है तो दोनों राष्ट्रीय सरकारें इसमें हस्तक्षेप करती हैं और एक दूसरे देश के नाविकों को गिरफ्तार कर लेती हैं जिन्हें जल्द ही छोड़ भी दिया जाता है। इस बार भी मामला ऐसा ही है — और यह विशेष रूप से बंदी मछुआरों के परिवार के सदस्यों के लिए अपने आप में एक राहत की बात भी है।

युद्ध के बाद के फैसले पर अडिग रहते हुए, जोकि जरुरी नहीं कि हमेशा तथ्यों पर ही आधारित हो, श्रीलंका ने एक बार फिर उनकी नौकाओं को रिहा न करने का निर्णय लिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार ने यह मान लिया है-जोकि हमेशा सच नहीं होता- कि बंदी बनाए गए भारतीय मछुआरे गरीब हैं और वास्तविक नौका मालिक समृद्ध हैं और वे श्रमिकों को उन्हें दी जा रही मजदूरी के बदले जोखिम मोल लेने के लिए विवश कर रहे हैं। हमेशा ऐसा हो, यह जरुरी नहीं है, लेकिन कोई भी इसे स्पष्ट करने या इसकी पुष्टि करने की जहमत नहीं मोल लेता।

यह दूसरी बात है कि इस प्रकार की समय समय पर की गई गिरफ्तारियों ने तमिलनाडु के मछुआरों को जोखिम मोल लेने से निरुत्साहित नहीं किया है, खासकर, यह देखते हुए कि भीतरी प्रदेश में रहने वाले लोगों की विपरीत, उन्हें किसी और व्यवसाय का ज्ञान नहीं है जो कम जोखिम लें और अधिक आकर्षक व्यापारों और व्यवसायों का रास्ता अपना सकें। केंद्र और तमिलनाडु दोनों की सरकारों ने समय समय पर समुद्री तटों पर रहने वाले मछुआरों के व्यापार/कैरियर के विकल्पों में बदलाव लाने की कमजोर कोशिशें की हैं और श्रीलंका केंद्रित समस्याएं न भी हों तो भी हर प्रदेशों में मछली पकड़ने में गिरावट आ रही है। एक पीढ़ी में इसका परिणाम अर्जित नहीं किया जा सकता।

सरकारों और मछुआरों के बीच बीच-बीच में जो वार्ताएं होती रही हैं, उनका भी कोई नतीजा नहीं निकला है और न ही निकट भविष्य में कोई उम्मीद की रोशनी ही दिख रही है। अगर कुछ हुआ है तो वह यह कि श्रीलंका की सत्तारूढ़ सरकार ने खासकर, देश के उत्तरी क्षेत्र में तमिल मछुआरों के जोर दिए जाने दिए जाने से इस पर अपना रुख कठोर ही कर लिया है। श्रीलंका की संसद में विपक्षी तमिल नेशनल एलांयस (टीएनए), जिसे तमिल कंेद्रित उत्तरी प्रांतीय परिषद (एनपीसी) में भारी बहुमत हासिल है, ने इस पर अपना रुख और कठोर कर लिया है।

तमिलनाडु के मछुआरे, और उससे भी अधिक उनके स्थानीय समर्थक तो इस तथ्य से अनजान हैं या उन्होंने इस तथ्य के प्रति अपनी आंखें मूंद रखी हैं। वे अभी भी युद्ध के समय के अतीत में जी रहे हैं और हर चीज के लिए कोलंबो में बहुमत हासिल सिंहल सरकार और ‘सिंहल’ नौसेना को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उन्हें यह स्वीकार करने में कठिनाई हुई है कि किसी भी देश की नौसेना का दायित्व है कि वह उस देश की संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता की रक्षा करे।

नाउम्मीदी

इसके अतिरिक्त, ‘ऐतिहासिक समुद्र’ और ‘पारंपरिक अधिकारों’ के बड़े मुद्दे भी हैं जिसकी वजह से खासकर, तमिलनाडु के मछुआरों का पिछले लगभग एक दशक से कोई भला नहीं हुआ है। वर्तमान में राज्य में मछुआरों के कुछ संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार आयोग के समक्ष जाने की योजना बना रहे हैं, जो पहले ही श्रीलंका के प्रजातीय मोर्चे के मुद्दे से बंधा हुआ है और वर्तमान में उसके समधान की कोई सूरत दिखाई भी नहीं दे रही।

भारत के मछुआरे अधिक से अधिक एसएलएन जवानों के बंदूकों के हमले से संरक्षण की मांग कर सकते हैं, अगर पहले की इस प्रकार की कोई कार्रवाई साबित हो जाती है। लेकिन श्रीलंका के समुद्र में तमिलनाडु के मछुआरों के अधिकार पर प्रश्न यूएनसीएलओएस पर भी निर्भर करेंगे कि क्या भारत सरकार ने लगातार जो पक्ष रखा है वह श्रीलंका के दावों के अनुरूप है, क्योंकि दोनों ही, खासकर, काटचटिवु पर 1974 एवं 1976 के दोहरे-समझौतों से बंधे हैं, लेकिन इसे स्वतः ही मछली पकडने तक विस्तारित कऱ सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, श्रीलंकाई संप्रभुता एवं युद्ध-पश्चात श्रीलंकाई (तमिल) मछुआरों के अधिकारों के कथित उल्लंघन के मामले भी हैं, जिनके साथ कहा जाता है कि उनके भारतीय भाई बंधु ‘हस्तक्षेप’ कर रहे हैं जो कभी कभार हिंसक भी हो जाता है। राज्य में उनकी अपनी सरकारों एवं केंद्र सरकार को शर्मिन्दा करने के अतिरिक्त, संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार आयोग जाने का तमिलनाडु के मछुआरों का कोई भी कदम निष्फल बना रह सकता है और जिसकी वे अपेक्षा कर रहे हैं, उससे उलटा हो सकता है।

बहरहाल, भारत सरकार तथाकथित और संभवतः गैर-विद्यमान लंबित समझौते पर विचार करते हुए रामेश्वरम के मछुआरों के वित्तपोषण, खासकर, उनके मछली पकड़ने वाले महाजालों को गहरे समुद्र में मछली पकड़ने वाले पोतों के रूप में रूपांतरित करने के तमिलनाडु के प्रस्ताव को पुनर्जीवित कर सकती है। सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री ‘एड्डापडी’ के पलानीसामी ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से हुई मुलाकात के दौरान इस उद्देश्य के लिए केंद्र से अनुदान/सहायता की तमिलनाडु की चिर लंबित मांग को फिर से उठाया।

पलानीसामी से पहले, उनकी नेता मुख्यमंत्री स्वर्गीय जयललिता ने प्रधानमंत्री के समक्ष यह मुद्दा उठाया था, जब मोदी ने मई 2014 में पदभार ग्रहण किया था। वह लगातार स्मरण पत्रों के जरिये समय समय पर प्रधानमंत्री को लंबित मांग की याद भी दिलाया करती थीं। दोनों सरकारें यहां से शुरुआत कर सकती हैं और समय समय पर स्थिति की समीक्षा कर सकती हैं तथा द्विपक्षीय वार्ता प्रक्रिया को बनाये रख सकती हैं तथा उसे आगे भी बढ़ा सकती हैं।

इसके साथ साथ, अगर किसी भी वजह से, वर्तमान मांग असंभाव्य पाई जाती है तो केंद्र सरकार राज्य सरकार को आवश्यक संसाधनों को पाने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है। एक साथ मिल कर, वे इस उद्देश्य के लिए मछुआरों और/या मछुआरा सहकारी संघों को ऋण सुविधाएं मुहैया कराने से संबंधित राजस्व जिलों के लिए राष्ट्रीयकृत अग्रणी बैंक को प्रोत्साहित करने की संभावना की भी खोज कर सकते हैं।

बेशक, बाद में कुछ राजनीतिक समर्थन के साथ ऋण/ब्याज माफी का मुद्दा उठ सकता है, लेकिन देश की सरकारों के लिए इस सुविधा को कृषि क्षेत्र में प्रदान करना कोई असामान्य बात नहीं रही है। इस उद्वेश्य के लिए और वैसे भी, केंद्र सरकार उनके लंबे और अखंड इतिहास को ध्यान में रखते हुए मछुआरा समुदाय को सभी सहायक लाभों एवं सुरक्षा के साथ संविधान के तहत ‘अनुसूचित जनजाति’ घोषित करने की अक्सर उठने वाली मांग पर विचार कर सकती है। इस बीच, अगर श्रीलंका सरकार मछुआरा ब्रिज्टो की हत्या की संयुक्त जांच के लिए आग्रह/मांग करती है तो भारत सरकार और तमिलनाडु को इस मामले में नीतिगत निर्णय उठाने के लिए बुलाया जाएगा।

इससे पूर्व, युद्ध के वर्षों के दौरान, श्रीलंका ने दोनों पक्षों की तरफ से किए जाने वाले उल्लंघनों एवं उल्लंघनकर्ताओं का पता लगाने के लिए साझा समुद्र की संयुक्त गश्ती का प्रस्ताव रखा थ लेकिन भारत की सरकारों ने उस पर हामी नहीं भरी थी। केंद्र सरकार, विशेष रूप से, प्रधानमंत्री मोदी कैबिनेट स्तर पर मछली पालन के लिए अलग से एक मंत्रालय के गठन पर विचार करने के द्वारा एक शुरुआत कर सकते हैं।

ऐसा भारत की 750 किमी लंबी तटीय रेखा और इससे जुड़े विकासात्मक एवं पर्यावरण संबंधी, सामुद्रिक और नौसेना के निहितार्थों के लिए भी है। यह न केवल ‘आजीविका के दृष्टिकोण’ को रेखांकित करने के लिए बल्कि दूसरे पक्ष की सुरक्षा चिंताओं को मान्यता देने के लिए भी-जैसाकि वर्तमान का मामला है।

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