Author : Samir Saran

Published on Feb 05, 2020 Updated 0 Hours ago

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आज ऐसी व्यवस्था बनाने की भी ज़रूरत है, जिस में बड़ी तकनीकी कंपनियों के प्लेटफॉर्म एक-दूसरे के साथ मिल कर काम कर सकें.

भौगोलिक राजनीति के डिजिटलीकरण का सफ़र

विश्व में अपना प्रभुत्व जमाने की भौगोलिक राजनीति में हमेशा ही नई नई तकनीकों को हथियार बनाया जाता रहा है. फिर चाहे वो स्टीम इंजन हो, पेनिसिलिन हो या फिर एटमब बम. इन नए-नए आविष्कारों का इस्तेमाल तमाम देशों ने दुनिया पर अपनी धाक जमाने के लिए और अपने समय की मौजूदा विश्व व्यवस्था को चुनौती देने के लिए किया है. ऐसी उठा-पटक अक्सर नई तकनीक हासिल करने की होड़ के तौर पर नुमायां होती रही है. या फिर इन नए वैज्ञानिक आविष्कारों से हासिल तकनीकों को अपनी कूटनीति से जोड़ कर अपना प्रभुत्व बनाए रखने और विरोधियों को नई तकनीक से महरूम रखने की कोशिश के तौर पर भी देखा गया है. हाल के कुछ बरसों में डिजिटल तकनीक के क्षेत्र में नए आविष्कारों ने विश्व राजनीति में तनाव को बढ़ाया है. ये तकनीक से भू-राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने के ऐतिहासिक चलन का ही नया रूप है. क्योंकि आज डिजिटल तकनीक की पहुंच बहुत दूर दूर तक है. डिजिटल तकनीक अपने लोकतांत्रिक स्वरूप की वजह से हर ख़ास-ओ-आम को उपलब्ध भी है. इसी वजह से आज डिजिटलीकरण का दुनिया के भौगोलिक राजनीतिक समीकरणों पर गहरा असर पड़ रहा है.

डिजिटलीकरण और बाक़ी उथलपुथल में फ़र्क़

इस से पहले की तीन औद्योगिक क्रांतियों और आविष्कारों ने अपने समय के वैश्विक शक्ति संतुलनों और ताक़त के समीकरणों को उलट-पुलट दिया था. भाप के इंजन और बारूद के आविष्कार ने यूरोप की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को हवा दी थी. इन तकनीकों का इस्तेमाल कर के यूरोपीय देशों ने एशिया और अफ्रीका की सांस्कृतिक प्रासंगिकता को हाशिए पर धकेल दिया. और, उन्हें अव्यवस्थित कर के ‘तीसरी दुनिया’ के देशों का नाम दे दिया था. और एटम बम ने दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. जिस के बाद अमेरिका का एक सुपरपावर के तौर पर उदय हुआ. इस ने दुनिया में अंतरराष्ट्रीय उदारवाद के लिए जगह और मांग पैदा की.

अब अमेरिका और चीन के बीच व्यापार को ले कर छिड़ी जंग हो, या फिर तकनीक को लेकर चल रही खींचतान. श्रम क़ानूनों को लेकर मतभेद हों या डिजिटल प्लेटफॉर्म के इस्तेमाल का विवाद हो. रोज़गार को लेकर संघर्ष हो या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डेटा के प्रवाह के प्रबंधन को लेकर मतभिन्नता, जो कि बौद्धिकता, मूल्यों और संपत्ति के वाहक हैं. आज दुनिया में चौथी औद्योगिक क्रांति भी विश्व व्यवस्था में सत्ता के संतुलन में उथल-पुथल मचा रही है. नए संघर्षों और परिवर्तनों को जन्म दे रही है. इन सब के बावजूद डिजिटल तकनीक और इन से हो रही उथल-पुथल कम से कम चार अहम मायनों में बिल्कुल अलग है.

पहली बात तो ये है कि जिस तरह आज डिजिटल तकनीक बड़े व्यापक स्तर पर इंसान की ज़िंदगी में दख़लंदाज़ी कर रही है, वैसा इस से पहले ईजाद की गई किसी और तकनीक ने नहीं किया था. सब से अहम बात तो ये है कि इस से पहले ईजाद हुई नई तकनीकों ने कभी भी एक आभासी दुनिया का निर्माण नहीं किया था. न तो वाह्य स्वरूप में और न ही माध्यम के तौर पर. जब कि डिजिटल तकनीक ने हमारी ज़िंदगियों में एक समानांतर वर्चुअल दुनिया का निर्माण किया है. आज जैसे-जैसे डिजिटिल दुनिया में प्रौढ़ता आ रही है, वैसे-वैसे हक़ीक़ी और आभासी दुनिया के बीच का फ़र्क़ मिटता जा रहा है. वर्चुअल दुनिया का असर असल दुनिया पर भी पड़ रहा है. मसलन सोशल मीडिया पर छिड़े #MeToo आंदोलन का असर असल दुनिया पर भी दिखा था और लोग इसे लेकर सड़कों पर आंदोलित हुए. यूरोप, अमेरिका और एशिया के तमाम देशों में डिजिटल आंदोलनों ने अपने अपने इलाक़ों में राजनीतिक नतीजों को प्रभावित किया. 2019 में हॉन्ग कॉन्ग के विशेष स्वायत्त क्षेत्र में हुआ आंदोलन इस बात की एक और मिसाल है. इस दौरान प्रदर्शनकारियों ने संचार की नई तकनीकों को शानदार तरीक़े से प्रयोग किया, ताकि अपने ज़मीनी विरोध प्रदर्शन को और मज़बूती दे सकें. वहीं, चीन की सरकार ने पश्चिमी मीडिया के डिजिटल प्लेटफॉर्म के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई से इस विरोध को ख़त्म करने की कोशिश की. जैसे कि ट्विटर और फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ चीन की सख़्त कार्रवाई. ताकि चीन की सरकार अपने तरीक़े से देश और विदेश में अपने इरादों का स्पष्ट संकेत दे सके.

आगे चलकर, वक़्त के साथ जब नई-नई तकनीकें आएंगी, तो जैविक, डिजिटल और आभासी के बीच का फ़र्क़ और मिटता जाएगा. जैसे कि इंसान के दिमाग़ और मशीन के बीच संवाद स्थापित करने वाली तकनीक और वर्चुअल रियलिटी. इन नई तकनीकों से किसी भी सरकार को अपनी हुक़ूमत चलाने के लिए भी नए माध्यम मिलेंगे. इस के बाद उदारवादी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और इस के बरक्स, अनुदारवादी व्यवस्था के बीच फ़र्क़ कर पाना मुश्किल हो जाएगा. आख़िरकार, हम ये देख ही चुके हैं कि वर्चुअल दुनिया में ऐसे नियम क़ायदे नहीं हैं, जो अच्छे और बुरे का फ़र्क़ कर सकें.

दूसरी अहम बात ये है कि बीसवीं सदी और उस से पहले भौगोलिक राजनीति का ताल्लुक़ हमेशा ही हुक़ूमत से रहा था. केवल हुक़ूमत के पास ही अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर के अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मन मुताबिक़ बदलाव लाने की क्षमता हुआ करती थी. मिसाल के लिए ग्लोबल पोज़िशनिंग सिस्टम (GPS) को ही लीजिए. जीपीएस, अपनी निगरानी और ख़ुफ़िया जानकारियां जुटाने की क्षमता की वजह से दुनिया में अमेरिकी ताक़त का बेहतरीन माध्यम बन गया. ख़ास तौर से बर्लिन की दीवार गिरने के बाद उभरी एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में. जब 1999 में पाकिस्तान के साथ कारगिल युद्ध के दौरान भारत ने अमेरिका से जीपीएस के आंकड़े मांगे, तो अमेरिका ने इन्हें भारत के साथ साझा करने से इनकार कर दिया था. लेकिन, हाल के दिनों में विकसित हुई नई डिजिटल तकनीकों ने सरकारों की ताक़तों के प्रभुत्व को चुनौती दी है. ख़ास तौर से नागरिकों और संसाधनों के मामले में. डिजिटल युग में कई नए खिलाड़ी भू-राजनीति की दशा-दिशा तय कर रहे हैं. इन में बड़ी तकनीकी कंपनियां हैं. स्वायत्त संस्थाएं हैं. हुक़ूमत के ख़िलाफ़ काम करने वाली ताक़तें यानी नॉन स्टेट एक्टर्स मसलन, आतंकवादी संगठन हैं. ये सब आज डिजिटल माध्यमों से लोगों को अपने साथ जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. नए लक्ष्य हासिल कर रहे हैं. यहां तक कि प्रभावशाली लोग अकेले भी डिजिटल माध्यम से बड़ी ताक़त बन कर उभर रहे हैं.

आगे चलकर, वक़्त के साथ जब नई-नई तकनीकें आएंगी, तो जैविक, डिजिटल और आभासी के बीच का फ़र्क़ और मिटता जाएगा. जैसे कि इंसान के दिमाग़ और मशीन के बीच संवाद स्थापित करने वाली तकनीक और वर्चुअल रियलिटी.

इन परिवर्तनों पर ग़ौर फ़रमाइए: सोशल मीडिया पर मौजूद सामग्री की वजह से म्यांमार और श्रीलंका में हिंसक घटनाएं हुई हैं. आज चीन की तकनीकी कंपनियां तमाम विकासशील देशों को अपने नागरिकों की जासूसी करने वाले उपकरण बेच रही हैं. इस्लामिक स्टेट ने जो ऑनलाइन दुष्प्रचार किया, उस का नतीजा हम ने ब्रसेल्स में 2016 में हुई बमबारी के तौर पर देखा. सोशल मीडिया पर #MeToo समुदाय ने एक विश्व स्तरीय राजनीतिक आंदोलन को जन्म दिया. जिस में लोग अपने-अपने स्तर पर जुड़ते गए. उन्हें एक-दूसरे से सीधे वार्ता करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. न ही कोई कूटनीतिक प्रयासों की आवश्यकता हुई. न पर्दे के पीछे किसी मोल-भाव की ज़रूरत पड़ी. ये सभी घटनाएं एक-दूसरे से अलग-अलग मालूम होंगी. लेकिन, ये सभी घटनाएं एक ही तरफ़ इशारा करती हैं. आज हुक़ूमत से इतर भी ऐसे संगठन, संस्थाएं और व्यक्ति उभर रहे हैं जो प्रमुख घटनाओं में अहम किरदार निभा रहे हैं. ये ऐसी घटनाएं हैं जो कई बार सरकार के हक़ में होती हैं, तो कई बार उन के ख़िलाफ़ या अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चुनौती देने वाली भी होती हैं.

तीसरी प्रमुख बात ये है कि तकनीक वजह से जो घटनाएं हो रही हैं, उन की रफ़्तार और उन का दायरा दिनों-दिन व्यापक होता जा रहा है. आज से एक दशक पहले हम सोशल मीडिया और संचार की दूसरी तकनीकों के बारे में ये चर्चा कर रहे थे कि वो किस तरह लोगों की मुक्ति का माध्यम बनने की संभावनाओं से लैस हैं. जैसा कि हम ने ईरान में 2009 के सब्ज़ इंक़लाब और 2010-12 के दौरान अरब देशों में अरब क्रांति (Arab Spring) के तौर पर देखा था. हालांकि अब ये चर्चा नाटकीय तौर पर बड़ी तब्दीली की शिकार हो गई है. आज डिजिटल तकनीकों को राष्ट्रों की सुरक्षा कमज़ोर करने वाला माना जाने लगा है. या फिर ये तानाशाही निज़ामों के हाथ में वो ताक़तवर औज़ार बन गई है, जो बड़ी आबादी की आवाज़ को ख़ामोश कर सकती है. दूसरे तरीक़े से कहें तो, तमाम तकनीकी और राजनीतिक प्रक्रियाएं आपस में मिल गई हैं, तो ऐसा माहौल तैयार हो रहा है, जिस का नतीजा क्या होगा, किसी को नहीं पता. आज किसी के पास इस बात की भविष्यवाणी करने की क्षमता नहीं है कि कोई तकनीक, या कई तकनीकी जानकारियां मिल कर किस तरह के राजनीतिक समीकरणों या सुरक्षा के ख़तरों को जन्म दे सकती हैं.

और आख़िर में, डिजिटल तकनीकों ने एक अलग ही ‘प्लेटफॉर्म की दुनिया’ को जन्म दिया है. पहले के दौर में नागरिकों की व्यक्तिगत पहचान, राजनीतिक आवाज़ों की एकजुटता, आर्थिक तरक़्क़ी के कारक और राष्ट्रीय सुरक्षा की व्यवस्थाएं राष्ट्रीय सरकारों के अंतर्गत काम किया करती थीं. लेकिन, आज इन में से कई प्रक्रियाएं डिजिटल और वर्चुअल दुनिया में संचालित हो रही हैं. जल्द ही हम ऐसे दौर का आग़ाज़ होते देखेंगे, जहां वेस्टफेलियन हुकूमतें एक अव्यवस्थित ‘क्लाउड स्टेट’ यानी वर्चुअल सत्ता के साथ-साथ संचालित हुआ करेंगी. कभी ये एक-दूसरे के साथ मिल कर चलेंगी, तो कभी ये एक-दूसरे से मुक़ाबला करती दिखेंगी. आज ये आभासी दुनिया या ‘क्लाउड स्टेट’ भौगोलिक बंदिशों से आज़ाद हो चुका है. यहां पर घरेलू परिचर्चा केवल नागरिकों तक सीमित नहीं है. न ही आर्थिक संभावनाएं आज तमाम देशों की व्यापारिक क्षमताओं के बजाय इस ‘क्लाउड स्टेट’ पर ज़्यादा निर्भर हैं.

इस का एक नतीजा हम सत्ता चलाने के नए मंचों के विकास के तौर पर देख रहे हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो, तमाम सरकारें ये समझ रही हैं कि भौगोलिक राजनीतिक प्रभुत्व का लाभ हासिल करने के लिए उन्हें अपनी तकनीकी व्यवस्थाओं के वैश्वीकरण की तरफ़ जाना होगा. इस के लिए उन्हें इस नई आभासी दुनिया के मानकों, उत्पादों, नियमों और सामाजिक क़ायदों को मानना होगा. इस के लिए उन्हें ज़रूरी तकनीकी बुनियादी ढांचा भी चाहिए होगा. मिसाल के तौर पर, चीन की डिजिटल नियामक व्यवस्था अमेरिका से बिल्कुल अलग होगी. ये बात किसी के लिए चौंकाने वाली नहीं होना चाहिए कि मानक तय करने वाली संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ़ इलेक्ट्रिकल ऐंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर्स ने पिछले साल मई में तय किया कि वो चीन की कंपनी हुवावे के रिसर्चरों के पेपर अपनी पत्रिकाओं में नहीं छापेंगे. इस संस्था का ये फ़ैसला अमेरिकी सरकार के उस क़दम की प्रतिक्रया स्वरूप आया था, जिस में अमेरिका ने हुवावे को अपने यहां की सप्लाई चेन में ब्लैक लिस्ट कर दिया था. साथ ही साथ इस संस्था ने यूरोपीय संघ के जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेग्यूलेशन का इस्तेमाल कर के अपने साइबर नियमों को बनाने के प्रयासों से क़दम ताल मिलाने के लिए भी ऐसा किया था. इन के अलावा रूस, भारत और इंडोनेशिया जैसे देश अपने अपने हितों को बढ़ावा दे रहे हैं.

हालांकि, इन सभी प्रक्रियाओं का नतीजा ये हुआ है कि आज साइबर दुनिया और विखंडित हो रही है. तकनीकी मंचों के बीच आपस में संवाद की संभावनाएं, पहले के मुक़ाबले कम से कमतर होती जा रही हैं. आज चीन और अमेरिका की तकनीकी कंपनियों के बीच जो अलगाव हो रहा है, वो इस बात का इशारा करता है कि आगे चल कर तकनीकी दुनिया में क्या होने जा रहा है. आने वाले समय में हम देखेंगे कि अधिकार क्षेत्र और भौगोलिक प्रभुत्व का ये संघर्ष और भी पेचीदा और अस्तव्यस्त होगा. ये सुपरपावर्स के परंपरागत संघर्ष से बिल्कुल अलग होगा.

डिजिटल दुनिया का प्रबंधन

सब मिलाकर ये चार चलन ही हमारे दौर में भूराजीनित की दशा-दिशा और रंग-रूप तय करेंगे. आने वाले समय में तमाम समुदाय और देश इस बात का संघर्ष करेंगे कि वो अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की हिफ़ाज़त कैसे कर सकें. इस के अलावा प्रभुत्व और अस्तित्व का ये संघर्ष हम निजी कंपनियों, नागरिकों और सरकारों के बीच भी होते देखेंगे. इस नई दुनिया के लिए नई वैश्विक व्यवस्था का विकास और प्रबंधन कैसे होगा, ये तय करने के लिए तमाम हुकूमतों को अपनी घरेलू संरचनाओं, संस्थाओं, व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं के सामने खड़ी होने वाली चुनौतियों का पहले से आकलन करना होगा. ताकि वो एक दूसरे पर आर्थिक निर्भरता को बनाए रख सकें. साथ ही साथ अपनी सामरिक कमज़ोरियों और राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियों का पता लगा कर इस नई व्यवस्था के लिए अंतरराष्ट्रीय नियमों और उन्हें लागू करना सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं का निर्माण कर सकें.

चूंकि अभी चौथी औद्योगिक क्रांति की प्रक्रिया चल ही रही है. और दुनिया का रंग-रूप बदल रहा. आज विश्व व्यवस्था बड़ी तेज़ी से बहुध्रुवीय होती जा रही है. ऐसे में किसी एक देश के पास इतनी राजनीतिक शक्ति नहीं होगी कि वो केवल अपने हितों को ही आगे बढ़ा सके. जैसे कि बहुध्रुवीय व्यवस्था में विश्व अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने के लिए जी-20 जैसे संगठन का उद्भव हुआ, वैसे ही आज एक डिजिटल संगठन की ज़रूरत है. इस संगठन को हम शायद D-20 कह कर पुकारें. जिस में दुनिया की बीस बड़ी डिजिटल अर्थव्यवस्थाएं और तकनीकी कंपनियां शामिल हों. इस संगठन को डिजिटल दुनिया के अगुवा के तौर पर काम करना होगा. जो डिजिटल तकनीकी के प्रभावों का प्रबंधन करे. ख़ास तौर से तब तक, जब तक नए औपचारिक विश्व संगठन असरदार तरीक़े से काम न करने लगें.

जैसे कि बहुध्रुवीय व्यवस्था में विश्व अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने के लिए जी-20 जैसे संगठन का उद्भव हुआ, वैसे ही आज एक डिजिटल संगठन की ज़रूरत है. इस संगठन को हम शायद D-20 कह कर पुकारें.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आज ऐसी व्यवस्था बनाने की भी ज़रूरत है, जिस में बड़ी तकनीकी कंपनियों के प्लेटफॉर्म एक-दूसरे के साथ मिल कर काम कर सकें. विश्व की स्थिरता हमेशा एक दूसरे पर निर्भरता के अच्छे ढंग से काम करने पर ही बनी रहती है. जब इस में तमाम देशों के आर्थिक और राजनीतिक हित जुड़ते हैं, तो ही ये स्थिरता प्रभावी होती है. अगर हमारी वैश्विक तकनीकी व्यवस्था ऐसे ही टुकड़ों में बंटी रही, तो इस से प्रतिद्वंदिता और संघर्ष को बढ़ावा मिलेगा. जिस से अस्थिरता पैदा होनी तय है. ऐसे में आज ये ज़रूरी है कि तमाम देश मिल कर राष्ट्रीय तकनीकी व्यवस्था विकसित करें, जो तकनीकी, राजनीतिक और सामाजिक मतभेदों के बावजूद आपस में मिल कर काम करें. ये सहयोग बेहद ज़रूरी है.

आज अंतरराष्ट्रीय नियम तय करने की अनौपचारिक और नियामक व्यवस्थाओं को इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम करना चाहिए. बीसवीं सदी में दो ध्रुवीय और एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के दौरान संधि की व्यवस्था ने काफ़ी असरदार तरीक़े से काम किया था और दुनिया में स्थिरता क़ायम करने में बड़ा रोल निभाया था. लेकिन, ये भविष्य के लिए मिसाल नहीं हो सकती. कम वक़्त की बात करें, तो इस बात की संभावना भी कम ही है कि तमाम देश डिजिटल मुद्दों पर अपने हित आपस में साझा करेंगे. इस के बजाय, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आर्थिक और सुरक्षा के अभियानों के लिए कुछ बुनियादी मानक तय कर लेने चाहिए. साथ ही साथ उन्हें तमाम देशों को इस बात की आज़ादी भी देनी चाहिए कि वो घरेलू मोर्चे पर अपने अपने तरीक़े से इन नई तकनीकों से खड़ी होने वाली सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से निपट सकें. ये डिजिटल दुनिया के लिए एक अस्थाई व्यवस्था हो सकती है. लेकिन, फिलहाल जो अस्थिरता है, उस से तो ये बेहतर तरीक़े से काम करेगी और ज़्यादा असरदार साबित होगी.

आज हम जिन उभरती हुई तकनीकों की चर्चा कर रहे हैं, वो ज़्यादातर ऐसी तकनीकें हैं जो बीसवीं सदी के आख़िर में इंटरनेट से उत्पन्न होकर विकसित हुई हैं. अभी अंतरराष्ट्रीय समुदाय तो इन्हीं तकनीकों के विकास से पैदा हुई चुनौतियों से निपटने का ही संघर्ष कर रहा है. अब आगे क्या होने वाला है? अगले कुछ दशकों में हम तकनीक की दुनिया में और तेज़ी से बदलाव होते देखेंगे. इन में से कई ऐसे होंगे, तो इंसान के शरीर को मोर्चा बना कर किए जाएंगे. और हो सकता है कि इंसान के शरीर और तकनीक का मेल, नए भू-राजनीतिक संघर्ष को ही जन्म दे. इस के बीच का समय विश्व की सही सबक़ सीखने की क्षमताओं का इम्तिहान लेना होगा. देखना ये होगा कि आज जिन तनावों का समाधान आवश्यक है क्या दुनिया उन से कुछ सीखेगी. और क्या दुनिया के तमाम देश इस अनुभव का लाभ उठा कर इक्कीसवीं सदी के लिए नई और बेहतर व्यवस्थाओं का निर्माण कर सकेंगे?


यह लेख मुलरूप से द शेपिंग ए मल्टीकनसेक्शुअल वर्ल्ड में प्रकाशित हो चुका है.

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