Published on Sep 17, 2020 Updated 0 Hours ago

'सुविधापूर्ण' अथवा 'आलस्यपूर्ण' जैसी आलोचना का शिकार होने के बावजूद—ऑनलाइन आंदोलन का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है. इक्कीसवीं सदी में यह आंदोलनों के स्वयंसिद्ध रूप में स्थापित हो चुका है.

सड़क से होकर ट्वीटर तक का सफ़र: सरकारों को जगाने में ऑनलाइन आंदोलन कितने प्रभावी?

प्रतिरोध के जिस माहौल में जनवरी में साल 2020 की शुरूआत हुई थी वह आठ माह बाद भी हवा में तैर रहा है. मार्च के महीने से हालांकि कोविड-19 महामारी से भारत में विरोध लगभग पूरी तरह ऑनलाइन हो गया.

भारत की जनता साल 2019 के आखिरी महीनों में विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) तथा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के विरूद्ध प्रदर्शनों में लिप्त रही. इस प्रतिरोध में भी सोशल मीडिया के प्रयोग की प्रमुख भूमिका रही जिस पर प्रतिरोधी अपनी आवाज़ बुलंद करके समर्थन पाने के लिए निर्भर रहे. अनेक लोग जो सशरीर प्रदर्शनों में शामिल नहीं हो पाए उन्होंने प्रदर्शन स्थलों की अद्यतन जानकारी पाने तथा खुद को शिक्षित करने के लिए ऑनलाइन जारी हो रही सूचनाओं पर लगातार निगाह रखी.

सीएए/एनआरसी के पक्षधर/विपक्षी दोनों ने ही सोशल मीडिया का जम कर प्रयोग किया और व्हाट्सऐप एवं ट्विटर जैसे मंचों के माध्यम से अपनी धारणा के अनुरूप तर्क/विमर्श, प्रसारित/प्रचारित किए. उदाहरण के लिए चेंज डॉट ओआरजी एवं झटका जैसे माध्यमों से सरकार को अधिनियम के विरोध तथा समर्थन दोनों में ही भेजे गए ज्ञापनों को बड़ी संख्या में शेयर किया गया.

सोशल मीडिया की ताकत एवं प्रभाव भारत के संदर्भ में साफ दिखता है और इससे कोई भी मुंह नहीं चुरा सकता. फिर भी विशेषज्ञों के बीच यह बहस चलती रहती है कि क्या ऑनलाइन असहमति वास्तव में उपयोगी है और इससे उल्लेखनीय अंतर आ पाता है?

भारत में प्रदर्शनों एवं असहमति का आंकलन करते हुए यह लेख ये दिखाना चाहता है ‘सुविधाजनक’ अथवा ‘आलस्यपूर्ण’ बताकर इनकी आलोचना के बावजूद ऑनलाइन आंदोलन का उल्लेखनीय प्रभाव होता है तथा 21वीं सदी में आंदोलनों का यह अविभाज्य अंग बन गया है.

सिलेक्टिविज़्म और अंतर पैदा करना

सोशल मीडिया की ताकत एवं प्रभाव भारत के संदर्भ में साफ दिखता है और इससे कोई भी मुंह नहीं चुरा सकता. फिर भी विशेषज्ञों के बीच यह बहस चलती रहती है कि क्या ऑनलाइन असहमति वास्तव में उपयोगी है और इससे उल्लेखनीय अंतर आ पाता है? कुछ लोगों का कहना है कि यह महज सुविधाजनक एवं आलस्यपूर्ण हरकत है और जिस मकसद से की जाती है उसे वास्तव में हासिल नहीं कर पाती. इसे बहुधा ‘सिलेक्टिविज्म़’ (स्लैकर अर्थात ढीले—ढाले तथा ऐक्टिविज्म़ यानी आंदोलन के घालमेल से गढ़ा गया जुमला) इस प्रकार की ऑनलाइन असह​मति में प्रयोक्ता की परिवर्तन की चाहत तो निहित होती है मगर वैसा करने संबंधी ठोस एवं मूर्त उपायों को अपनाए बग़ैर सिर्फ़ ‘अच्छा अहसास कराने वाले’ उपायों के जरिए जैसे मुद्दों संबंधी पोस्ट को लाइक करके,ऑनलाइन ज्ञापनों पर दस्तख़त यानी अपनी सहमति दर्ज करके अथवा अपने प्रोफाइल यानी परिचय संबंधी तस्वीर को विशिष्ट रंग में परिवर्तित करके. न्यू यॉर्कर पत्रिका में 2010 में सोशल मीडिया क्रांति के आगाज़ के अवसर मैल्कम ग्लैडवैल आश्वस्त थे कि,”[ऑनलाइन] आंदोलन लोगों को असल में बलिदान करने के लिए नहीं बल्कि ऐसे काम करने को प्रेरित करके सफल होता है जो वे असल में बलिदान के लिए तैयार नहीं होने पर कर सकते हैं”. सरलतापूर्वक कहें तो ऑनलाइन आंदोलन लोगों को मुद्दे में लिप्त तो बखूबी करता है मगर कम भौतिक प्रयास के ज़रिए प्रतीकात्मक समर्थन के अलावा कोई सफल परिणाम नहीं दे पाता. इसका प्रभाव इतना गहरा नहीं होता कि तात्कालिक ध्यानाकर्षण के बजाय उन्हें लंबे समय तक जोड़े रह सके.

इंटरनेट के अस्थिर स्वभाव तथा सोशल मीडिया के सूचना के प्रामाणिक स्रोत के रूप में उभरने के कारण वे अब भी कहते हैं कि सोशल मीडिया पर पोस्ट शेयर करने और सड़क पर सामूहिक प्रदर्शन में वास्तव में शामिल हो कर विरोध करने में कोई समानता नहीं हो सकती. ग्लैडवैल के ‘ऐंटी सिलेक्टिविज्म़’ लेख छपने के बाद बीते दस साल की अवधि में सोशल मीडिया के मंचों की लोकप्रियता बेतहाशा बढ़ी है. अपने विशाल प्रयोगकर्ताओं, लोकतांत्रिक स्वभाव तथा सूचना की त्वरित एवं व्यापक प्रसार  क्षमता के बूते जनता की राय को ढालने में उनकी प्रमुख भूमिका हो गई है. सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर जानकारी पाने के लिए नागरिक बहुधा उनका प्रयोग करते हैं. इसके बावजूद एक्टिविज़्म/स्लैक्टिविज़्म पर वाद—विवाद साल 2020 में भी सामयिक बना हुआ है.

भारत में जागरूकता बढ़ाने तथा मुद्दों पर समर्थन जुटाने के लिए लोगों तक पहुंचने के माध्यम के रूप में व्हाट्सऐप कहीं अधिक लोकप्रिय एवं विश्वसनीय साबित हो रहा है. यह ‘मैसेजिंग’ यानी संदेश प्रसारक ऐप अशुद्ध एवं राजनीति में पगी सूचना प्रसारित करने के लिए बदनाम हो रहा है.

लेकिन सोशल मीडिया की शक्ति एवं पहुंच तथा उसके प्रयोगकर्ताओं द्वारा किए जाने वाले आंदोलन का अतिरेकी अनुमान लगा पाना कठिन है. भारत में जागरूकता बढ़ाने तथा मुद्दों पर समर्थन जुटाने के लिए लोगों तक पहुंचने के माध्यम के रूप में व्हाट्सऐप कहीं अधिक लोकप्रिय एवं विश्वसनीय साबित हो रहा है. यह ‘मैसेजिंग’ यानी संदेश प्रसारक ऐप अशुद्ध एवं राजनीति में पगी सूचना प्रसारित करने के लिए बदनाम हो रहा है. उस सूचना को यह मंच अन्य हज़ारों लोगों को ‘फॉरवर्ड’ करने यानी भेजने की सुविधा भी दे रहा है. यह भले ही ग्लैडवैल द्वारा कल्पित सामूहिकता का भले बहुत गहन मकसद पूरा न करे मगर सोशल मीडिया कम से कम विश्वसनीयता पर ग्रहण हटाने एवं सूचना तक अधिक पहुंच बनाने में पूर्णत: उपयोगी रहा है.

कम प्रयास, अधिक प्रभाव?

ऑनलाइन आंदोलन बहुधा अत्यंत पश्चिमी तरीका माना जाता है — पश्चिम में इसका जैसा प्रभाव है, जहां सामान्यत: स्थिर लोकतंत्र को अवश्यंभावी माना जाता है, वह दुनिया के अन्य भागों में सोशल मीडिया के प्रयोग एवं लामबंदी के तरीकों से एकदम भिन्न है. डॉ कोर्टनी रैड्श ने अरब क्रांति के उफान के समय 2011 में साफ़ लिखा कि वे ऑनलाइन आंदोलन को ‘आलस्यपूण’ एवं ‘सुविधाजनक’ मानने की धारणा से असहमत हैं. रैड्श कहते हैं,”सोशल मीडिया कोई क्षेत्र में फैली राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं का हल नहीं हैं मगर उनमें घरेलू मुद्दों को संगठित, लामबंद, प्रचारित एवं अंतरराष्ट्रीय एजंडे में शामिल कराने के सशक्त उपकरण होने की प्रबल संभावना हैं.” सोशल मीडिया का प्रयोग हालांकि महत्वपूर्ण है मगर इतने विस्तृत मंच पर लोगों को लामबंद करने में लगने वाला मानवीय प्रयास तथा उसे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर लेने की सूझबूझ उससे भी अधिक उल्लेखनीय है.

सोशल मीडिया का प्रयोग हालांकि महत्वपूर्ण है मगर इतने विस्तृत मंच पर लोगों को लामबंद करने में लगने वाला मानवीय प्रयास तथा उसे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर लेने की सूझबूझ उससे भी अधिक उल्लेखनीय है.

 राज्यों में जहां पारंपरिक मीडिया को सत्तारूढ़ सरकार कठपुतली बना लेती हैं वहां सरकार नियंत्रित पारंपरिक मीडिया के प्रचार को को बेनकाब करने तथा विविध आवाज़ों को सुनाने का काम सोशल मीडिया ही करता है. ऑनलाइन असहमति के मीडिया में उल्लेख में मुख्यत: उन्हीं मंचों पर ध्यान देता है जिनका प्रयोग हो रहा है.

रैड्श यह भी कहते हैं,” ‘विकी क्रांति’तथा ‘ट्विटर क्रांति’ जैसे सारगर्भित, आसान मंच ऐसी प्रौद्योगिकी का लक्षण हैं जो दरअसल व्यापक मताधिकार वंचन एवं आर्थिक निराशा के साथ—साथ राष्ट्रपति के भ्रष्टाचार के प्रति वितृष्णा संबंधी प्रतिक्रिया है.”

कोविड19 के काल में ऑनलाइन आंदोलन

महामारी के संदर्भ में भारत के पत्रकार एवं नागरिकों ने प्रवासियों एवं दिहाड़ी मजदूरों से सरकारी सलूक की निंदा करने तथा आधी—अधूरी तैयारी के साथ पहला लॉकडाउन करने के विरोध के लिए सोशल मीडिया को माध्यम बनाया. उनका तर्क था कि लॉकडाउन ने देश के अपने घर लौटने से लाचार सबसे गरीब लोगों को परदेस में बेसहारा अटका दिया जिससे उनके सामने खाद्य असुरक्षा पैदा हो गई. चिंतित नेटीजनों यानी इंटरनेट प्रयोक्ताओं ने ट्विटर पर लगातार यह मांग करते रहे कि प्रवासी कामगारों को अपने गृह प्रदेशों में सुरक्षित वापसी के लिए भरपूर धनराशि एवं साधन उपलब्ध करवाए जाएं. विभिन्न विषयों पर ध्यान देने तथा कार्रवाई करने की मांग वाले ऑनलाइन ज्ञापनों का हजारों लोगों ने समर्थन किया है.

मीडिया में गहन खबरें आने तथा क्रोध के ऑनलाइन इज़हार के कारण केंद्र सरकार को कामगारों को वित्तीय सहायता देकर उनके लिए सीमित रेलगाड़ियां चलानी पड़ीं और राज्य सरकारों को भी प्रवासी मजदूरों के लिए बस चलानी पड़ीं.

‘ट्विटर तूफान’— मतलब ट्विटर टाइमलाइन पर किसी भी आवश्यक मुद्दे पर हैशटैग एवं ट्वीट की बाढ़ आ जाना — भी जागरूकता बढ़ाने के प्रभावी उपकरण के रूप में प्रचलित हुए हैं। इनके कारण अधिकरणों पर बहुधा सामाजिक समस्याओं पर ध्यान देने और जनता की चिंता एवं गुस्से के निराकरण का दबाव बन जाता है. ऑनलाइन विरोध के इस इज़हार से उल्लेखनीय सफलता भी हासिल हुई है: मीडिया में गहन खबरें आने तथा क्रोध के ऑनलाइन इज़हार के कारण केंद्र सरकार को कामगारों को वित्तीय सहायता देकर उनके लिए सीमित रेलगाड़ियां चलानी पड़ीं और राज्य सरकारों को भी प्रवासी मजदूरों के लिए बस चलानी पड़ीं. रेलवे मंत्रालय के अनुसार खास तौर पर चलाई गई ‘श्रमिक ट्रेनों’ के ज़रिए 60 लाख से अधिक कामगारों ने मई में उन्हें चलाए जाने के बाद से उन पर यात्रा की. अनेक व्यक्तियों ने भी कामगारों को निजी तौर पर राशन बांटने तथा उनके लिए हवाई जहाज़ के टिकट बुक करने के लिए केट्टो जैसे मंचों के माध्यम से ऑनलाइन धनराशि जमा करने वास्ते सोशल मीडिया का प्रयोग किया है.

यह पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) 2020 नमूना दस्तावेज के मामले में बखूबी दिखा— ट्विटर तूफान एवं सफल ऑनलाइन ज्ञापनों से बने जन दबाव के कारण नमूना दस्तावेज पर चर्चा एवं सलाह—मशविरे के लिए समय सीमा को 30 जून की मूल सीमा से बढ़ाकर 11 अगस्त करना पड़ा. ऑनलाइन संसाधनों की बदौलत आम जनता भी सरकार को बड़ी संख्या में जवाबदेही एवं ईआईए के समस्यापरक प्रावधानों में कतर ब्योंत की मांग करते हुए ई—मेल भेजने में कामयाब रही. ऑनलाइन आंदोलन ने सिद्ध कर दिया कि जनता जिस बात को सही एवं न्यायपूर्ण समझती है उसके लिए लड़ने को तैयार है. इस तथ्य की अनेक मामलों में पुष्टि हुई है. सीएए विरोधी प्रतिरोध ने अपनी शुरूआत के आठ महीने बाद पूरी तरह ऑनलाइन पैठ बना ली है. प्रदर्शनकारी अब अपने मुहल्लों में छोटे—छोटे दस्तों में जमा होकर अधिनियम के प्रति अपना विरोध जता कर उनकी तसवीरें ऑनलाइन पोस्ट कर देते हैं. इस प्रकार जिसे वो अब भी ‘आलस्यपूर्ण’ आंदोलन मानते हैं वह आज लाखों नहीं तो हज़ारों लोगों का साथ ध्यान देने लायक अभियानों के समर्थन में जुटा रहा है. सोशल मीडिया का स्थापित होना एवं कोविड—19 महामारी ने जता दिया कि ऑनलाइन आंदोलन दरअसल सड़कों पर प्रदर्शन का पिछलग्गू भर नहीं है बल्कि 21वीं सदी में स्वयंसिद्ध सार्थक हस्ताक्षर है.

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