#यूरेशिया: रूस को लेकर यूरोप में बढ़ रहा है मतभेद!
आज यूरोप और यूरोपीय संघ पहले से कहीं ज़्यादा बंटे हुए नज़र आ रहे हैं, ख़ास तौर से यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद तो और ज़्यादा. यूक्रेन और रूस के बीच चल रही लड़ाई के पेशतर हिस्से के दौरान यूरोप ने आम तौर पर ख़ुद को तमाशबीन की भूमिका तक सीमित कर रखा है. ये यूरोपीय संघ में एकता की कमी, उसकी अक्षमता और यूरोप की सुरक्षा के लिए ऐतिहासिक रूप से अमेरिका पर निर्भर होने का नतीजा है. यूरोप के लिए रूस और यूक्रेन के संघर्ष से चुनौती बहुत मुश्किल दौर में पैदा हुई है. आज ब्रिटेन के प्रधानमंत्री घरेलू विवाद में फंसे हुए हैं; फ्रांस, अप्रैल में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में उलझा हुआ है; जर्मनी की नई साझा सरकार रूस के ख़िलाफ़ अभी एकजुट राय क़ायम नहीं कर पाई है; और, ईंधन की क़ीमतों में भारी इज़ाफ़े के चलते यूरोपीय देशों को बढ़ी हुई महंगाई का सामना करना पड़ रहा है. अपने यहां के ऐसे जटिल हालात के बीच में यूरोप ने आम राय से यूक्रेन संकट को लेकर अपनी सुरक्षा और कूटनीतिक कोशिशों की ज़िम्मेदारी अमेरिका के हवाले कर दी है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान यूरोप और अमेरिका के रिश्ते भी उलझ गए हैं, और अमेरिका के प्रभुत्व के चलते उनमें एक असंतुलन बन गया है.
2017 में सत्ता में आने के बाद से ही फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों एक असली यूरोपीय सेना का गठन करने और यूरोप का सैन्य ख़र्च बढ़ाने की वकालत करते रहे हैं. हालांकि, यूरोपीय संघ के भीतर उनकी इन बातों को बेहद मामूली समर्थन हासिल हो सका है.
2017 में सत्ता में आने के बाद से ही फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों एक असली यूरोपीय सेना का गठन करने और यूरोप का सैन्य ख़र्च बढ़ाने की वकालत करते रहे हैं. हालांकि, यूरोपीय संघ के भीतर उनकी इन बातों को बेहद मामूली समर्थन हासिल हो सका है. यूरोपीय संघ के ज़्यादातर देश ये मानते हैं कि यूरोप की सेना खड़ी करने से बेहतर विकल्प तो यही है कि वो अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका के भरोसे रहें. इसके अलावा यूरोपीय संघ का साझा रक्षा ख़र्च भी घटता जा रहा है. 2017 में जहां ये ख़र्च 5.5 अरब यूरो था, वहीं वर्ष 2020 में ये घटकर 4.1 अरब यूरो ही रह गया. इसका एक नतीजा ये हुआ है यूरोपीय संघ के देश 2017 में किए गए अपने उस वादे को पूरा करने में नाकाम रहे हैं, जिसके तहते उन्हें अपने हथियारों की ख़रीद के ख़र्च का कम से कम 35 फ़ीसद हिस्सा अन्य सदस्य देशों के साथ साझा करना था. इसी तरह सेना पर यूरोप का ख़र्च 2008 में 303 अरब डॉलर से घटकर 2020 में 292 अरब डॉलर ही रह गया है. परमानेंट स्ट्रक्चर्ड को-ऑपरेशन (PESCO), यूरोपियन डिफेंस एक्शन प्लान और यूरोपीय संघ के लिए नई सैन्य क्षमताएं विकसित करने के लिए रिसर्च और विकास में ख़र्च बढ़ाने जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाएं भी परवान नहीं चढ़ सकी हैं. इसी वजह से यूरोपीय रक्षा एजेंसी (EDA) ने यूरोपीय संघ के देशों को रक्षा क्षेत्र के रिसर्च और तकनीक में ख़र्च की कमी को लेकर चेतावनी भी दी थी. यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने के चलते भी रूस से निपटने के लिए यूरोप एकजुट मोर्चेबंदी बनाने में नाकाम रहा है. पिछले कई साल से लगातार बढ़ते जा रहे मतभेद पाटने में नाकाम रहने के चलते आज, यूक्रेन पर रूस के हमला बोलने के बाद, यूरोपीय संघ के बीच की दरारें खुलकर सामने आ गई हैं.
यूरोपीय संघ के सदस्य देशों का रक्षा पर कुल सरकारी ख़र्च 2019- GDP के प्रतिशत में
स्रोत: यूरोस्टैट
अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से ही यूरोप के नीति नियंता बड़ी सक्रियता से यूरोप की सामरिक स्वायत्तता में निवेश की वकालत कर रहे हैं, जिससे कि अमेरिका पर यूरोप की निर्भरता कम हो और यूरोपीय संघ स्वायत्त रूप से अपने फ़ैसले कर सके. फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों द्वारा यूरोपीय संघ की संप्रभुता को बढ़ावा देना, फ्रांस के यूरोपीय संघ के अध्यक्ष के कार्यकाल के प्रमुख एजेंडों में से एक था. लेकिन, अभी ये शुरुआती चरण में ही है. ब्रिटेन के अलग होने के बाद से यूरोपीय संघ के प्रशासन और नीति निर्माण में फ्रांस और जर्मनी दो बड़े अगुवा देश बन गए हैं. ऐसे में जर्मनी और फ्रांस, दोनों पर ही इस बात का भारी दबाव है कि वो अन्य सदस्य देशों के साथ सहयोग बढ़ाएं और रूस के आक्रामक रुख़ से निपटने के लिए एकजुट रणनीति तैयार करें. हालांकि, इस बाधा से पार पाना बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि यूरोप के अलग अलग क्षेत्र, रूस को पश्चिमी देशों द्वारा प्रचारित नज़रिए से देखने के बजाय, अपनी अलग-अलग दृष्टि से देखते हैं.
ब्रिटेन के अलग होने के बाद से यूरोपीय संघ के प्रशासन और नीति निर्माण में फ्रांस और जर्मनी दो बड़े अगुवा देश बन गए हैं. ऐसे में जर्मनी और फ्रांस, दोनों पर ही इस बात का भारी दबाव है कि वो अन्य सदस्य देशों के साथ सहयोग बढ़ाएं और रूस के आक्रामक रुख़ से निपटने के लिए एकजुट रणनीति तैयार करें.
छह मीटर लंबी मेज़
हाल ही में जब मैक्रों ने मॉस्को का दौरा किया था, तो उन्होंने युद्ध से बचने और रूस व यूरोपीय संघ के मतभेदों को कूटनीतिक रास्तों और विश्वास बहाली से दूर करने की बात दोहराई थी. उसी मुलाक़ात में रूस के राष्ट्रपति कार्यालय ने मैक्रों और रूसी राष्ट्रपति पुतिन की मुलाक़ात एक छह मीटर लंबी मेज़ पर कराई थी, जिसमें पुतिन और मैक्रों एक एक छोर पर बैठे थे. मुलाक़ात के लिए इतनी लंबी मेज़ के इस्तेमाल को, रूस और यूरोप के बीच आशंका और मतभेदों की मिसाल के तौर पर देखा गया था. जर्मनी के नए चांसलर ओलाफ शोल्ज़ ने भी पुतिन के साथ कूटनीतिक बातचीत की आख़िरी कोशिश के तौर पर मॉस्को का दौरा किया था. इस दौरान कई मुद्दों पर चर्चा हुई थी. इस मुलाक़ात में जर्मनी द्वारा यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति से इनकार करते, पूर्वी यूरोप में अपने सैनिकों की तैनाती बढ़ाने और नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन को लेकर ख़ास तौर से चर्चा हुई थी. अमेरिका इस पाइपलाइन का विरोध तब से करता आ रहा है, जब पहले पहल इसका प्रस्ताव पेश किया गया था, क्योंकि नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन, बाल्टिक सागर से होते हुए गुज़रती है और रूस से जर्मनी को गैस की आपूर्ति करती है. वैसे तो ये पाइपलाइन बनकर तैयार है. लेकिन, यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद जर्मनी ने इस पाइपलाइन को प्रमाणित करते का काम रद्द कर दिया है. यूक्रेन और रूस के संकट के दौरान, अमेरिका ने कहा था कि वो इस परियोजना को बंद कर देंगे.
नेटो देशों के रक्षा मंत्रियों ने मिलकर एक बैठक की थी ताकि वो रूस के ख़िलाफ़ कूटनीतिक रणनीति को और मज़बूत कर सकें. क्योंकि, शीत युद्ध के दिनों से ही रूस, यूरोपीय सुरक्षा के लिए एक बड़ा ख़तरा बना हुआ है. पूर्वी यूरोपीय देशों पर असर की आशंका को देखते हुए, नेटो के सैनिक पोलैंड और बाल्टिक देशों में तैनात किए गए हैं, ताकि रूस के किसी भी आक्रामक क़दम का सामना किया जा सके. इसके अलावा, दक्षिणी पूर्वी यूरोप के लिए नेटो चार नई युद्ध टुकड़ियां तैयार कर रहा है, क्योंकि फ्रांस ने रोमानिया में इन टुकड़ियों की अगुवाई करने का प्रस्ताव रखा है. यूक्रेन पर रूस के हमला करने के बाद, अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं; हालांकि इन प्रतिबंधों के चलते यूरोपीय देशों के सामने ऊर्जा सुरक्षा की दुविधा खड़ी हो सकती है. यूरोपीय संघ अपनी कुल गैस खपत का 39 फ़ीसद और तेल आयात का 30 प्रतिशत रूस से ख़रीदता है. मध्य और पूर्वी यूरोपीय (CEE) देश तो अपनी गैस की ज़रूरतों के लिए शत-प्रतिशत रूस के भरोसे हैं. रूस की तरफ़ से तनातनी बढ़ते रहने के चलते, यूरोप ने क़तर और जापान से कहा है कि वो रूस से पेट्रोलियम आयात के विकल्प के तौर पर तरल प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करें. हालांकि ये दूरगामी समस्या का अस्थायी हल है. यूरोपीय संघ, अपनी हाइड्रोकार्बन की ज़रूरतें अन्य स्रोतों से पूरी करने की कोशिश कर रहा है. इसके लिए वो नॉर्वे की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा है. दक्षिणी यूरोप, ट्रांस अनातोलियन नेचुरल गैस पाइपलाइन (TANAP) और ट्रांस एड्रियाट्रिक पाइपलाइन के ज़रिए गैस का आयात बढ़ा सकता है. इसके अलावा, यूरोपीय संघ अपनी ऊर्जा ज़रूरतों को परमाणु शक्ति से भी पूरी करने की कोशिश कर रहा है. हालांकि, पश्चिमी यूरोप में परमाणु बिजलीघर बंद होने और अन्य देशों द्वारा परमाणु ऊर्जा को तरज़ीह देने का विरोध करने के चलते, यूरोपीय संघ के पास परमाणु ऊर्जा से ईंधन की ज़रूरतें पूरी करने का विकल्प बहुत सीमित है. इसी वजह से अब यूरोपीय संघ, अफ्रीकी देशों से ऊर्जा का आयात बढ़ाने पर ज़ोर दे रहा है और दोनों पक्ष, नवीनीकरण योग्य ऊर्जा पर साझा रिसर्च में निवेश बढ़ाने को बेक़रार हैं. इसी वजह से यूरोपीय संघ अपने हाइड्रोजन आयात में अफ्रीका की भूमिका को और बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.
यूक्रेन पर रूस के हमला करने के बाद, अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं; हालांकि इन प्रतिबंधों के चलते यूरोपीय देशों के सामने ऊर्जा सुरक्षा की दुविधा खड़ी हो सकती है. यूरोपीय संघ अपनी कुल गैस खपत का 39 फ़ीसद और तेल आयात का 30 प्रतिशत रूस से ख़रीदता है.
यूरोप को गैस की आपूर्ति (2020) में रूस की हिस्सेदारी, राष्ट्रवार विश्लेषण
स्रोत: यूरोस्टैट और यूरोपीय संघ के ऊर्जा नियामकों के बीच तालमेल की एजेंसी से प्राप्त आंकड़े; लेखक द्वारा तैयार ग्राफ
बाल्टिक देशों की फ़िक्र
यूरोप के ताज़ा हालात ऐसे हैं जिनसे क्षेत्रीय सुरक्षा के मसलों का असर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाए जा रहे क़दमों पर पड़ेगा. इससे न केवल कार्बन न्यूट्रल होने के लक्ष्य हासिल करने की महत्वाकांक्षाओं पर बुरा असर पड़ेगा, बल्कि कुछ समय के लिए पूरे महाद्वीप के लोगों की रोज़ी-रोज़गार पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा. अब जबकि, जंग यूरोप की दहलीज तक आ पहुंची है, तो शीत युद्ध के बाद से यूरोप की सुरक्षा के लिए अब तक का ख़तरा पैदा हो गया है. यूरोप के ज़्यादातर लोग, यूक्रेन के युद्ध को यूरोप का संकट मानते हैं, जिसका यूरोप के प्रशासन पर बुरा असर पड़ सकता है. यूक्रेन पर रूस के आक्रमण से पोलैंड की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि उसकी सीमाएं यूक्रेन से मिलती हैं और युद्ध से बचने के लिए उसके यहां यूक्रेन के शरणार्थियों की बाढ़ आ सकती है. हाल के महीनों में पोलैंड और यूरोपीय संघ के बीच क़ानून के राज और ऐसे अन्य मसलों पर टकराव बढ़ा है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए बाधक माने जा रहे हैं. इसके अलावा, ख़ास तौर से पोलैंड और बेलारूस की सीमा पर अवैध अप्रवासियों की चुनौती से जूझने के बाद से अप्रवासियों का संकट भी यूरोपीय संघ और पोलैंड के लिए बढ़ गया है. वहीं, बाल्टिक देश इस बात को लेकर फ़िक्रमंद हैं कि कहीं रूस उनकी ऊर्जा की आपूर्ति न रोक दे. इससे पूरे क्षेत्र में आर्थिक संकट पैदा हो सकता है. फ्रांस, जहां अप्रैल में राष्ट्रपति चुनाव होने जा रहे हैं, वो अपने यहां साइबर हमले बढ़ने और चुनाव में रूस की दख़लंदाज़ी को लेकर चिंतित है.
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण से पोलैंड की चिंता बढ़ गई है, क्योंकि उसकी सीमाएं यूक्रेन से मिलती हैं और युद्ध से बचने के लिए उसके यहां यूक्रेन के शरणार्थियों की बाढ़ आ सकती है.
रूस के हमला करने से पहले, यूरोपीय आयोग ने यूक्रेन के लिए 1.2 अरब यूरोप के एक नई और आपातकालीन व्यापक वित्तीय मदद (MFA) कार्यक्रम का एलान किया था. यूक्रेन की आर्थिक स्थिति को स्थिर बनाए रखने के लिए इस कार्यक्रम में से 60 करोड़ यूरो की रक़म तो फ़ौरी तौर पर देने का प्रस्ताव किया गया था; हालांकि, जब तक यूरोपीय संघ के सभी देश यूक्रेन की मदद के इस पैकेज पर मुहर लगाते, उससे पहले ही रूस ने हमला कर दिया. यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने अपने भाषण में यूक्रेन को लेकर यूरोपीय संघ की प्रतिबद्धता को दोहराया था और कहा था कि संघ, रूस की धमकियों के डर से पीछे हटने वाला नहीं है. ज़ाहिर है यूरोप का भविष्य बेहद नाज़िक मोड़ पर खड़ा है, क्योंकि रूस और यूक्रेन के संघर्ष में यूरोपीय संघ ने मोटे तौर पर अपनी भूमिका को एक तमाशबीन तक ही सीमित रखा है.
ये चुनौतियां इस बात का संकेत हैं कि यूरोपीय संघ अपनी सामरिक संप्रभुता के विषय पर गहराई से विचार करे, जिससे कि यूरोपीय संघ बाहरी ख़तरों से निपटने के लिए ज़रूरी अपने भू-राजनीतिक फ़ैसले लेने की अगुवाई ख़ुद कर सके.
पिछले सात-आठ महीनों के दौरान यूरोपीय संघ ने रूस-यूक्रेन युद्ध के अलावा अफ़ग़ानिस्तान संकट, प्राकृतिक गैस की चुनौती, और पोलैंड और बेलारूस की सीमा पर अप्रवासियों के भारी जमावड़े जैसी कई भू-राजनीतिक चुनौतियों का सामना किया है. ये चुनौतियां इस बात का संकेत हैं कि यूरोपीय संघ अपनी सामरिक संप्रभुता के विषय पर गहराई से विचार करे, जिससे कि यूरोपीय संघ बाहरी ख़तरों से निपटने के लिए ज़रूरी अपने भू-राजनीतिक फ़ैसले लेने की अगुवाई ख़ुद कर सके. भविष्य के लिए समाधान तलाशने के दौरान यूरोपीय संघ, शायद गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की कहावत से मदद ले सकता है. इसके मुताबिक़, ‘टुकड़ों में विभाजित एक संघ से बेहतर एकजुट संघ होता है.’ इसी तरह, आपसी तालमेल वाला, एक साझा और एकजुट यूरोपीय संघ, बाहरी ख़तरों से निपटने के लिए अपनी अधिकतम शक्ति का इस्तेमाल कर सकेगा. वरना अगर वो खांचों में बंटा रहता है, तो इससे न सिर्फ़ यूरोप के लिए ख़तरा होगा, बल्कि इसके गंभीर भू-राजनीतिक नतीजे भी देखने को मिल सकते हैं.
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