Published on Oct 06, 2020 Updated 0 Hours ago

एर्दोगान की इस्लामिक तुर्की को पुनर्जीवित करने की उपद्रवी कोशिश, और उनकी वैसी ही दुराग्रही विदेश नीति को ‘नव-ऑटोमनवाद’ नाम दिया गया है, जो तुर्की में पांच सदियों तक चले भूतपूर्व साम्राज्य के आचरण से मिलती-जुलती है.

हागिया सोफ़िया के बहाने: तुर्की की विदेश नीति में ‘नव-ऑटोमनवाद’ की लहर

ऐतिहासिक हागिया सोफ़िया को जो चर्च से मस्जिद बना, फिर मस्जिद से म्यूजियम बना, को दोबारा मस्जिद में बदल देने के एक महीने बाद तुर्की के राष्ट्रपति रेसिप तईप एर्दोगान ने इस्तांबूल में चोरा चर्च भी मुसलमानों की नमाज़ के लिए खोल दिया है. यह एर्दोगान का खांटी धर्मनिरपेक्ष, पश्चिम-परस्त राष्ट्र की छवि वाले तुर्की को कट्टर इस्लामी देश में बदलने के लिए उठाया सबसे ताज़ा कदम है.

ऐसा ही रवैया इज़राइल के वेस्ट बैंक पर कब्जे को लेकर उसके प्रति दुश्मनी और दूसरे मौकों पर सर्व-इस्लामवादी के मुद्दों पर ठोस समर्थन में भी सामने आया है. जैसा कि उन्होंने हागिया सोफ़िया के परिवर्तन पर अपने भाषण में कहा था कि लाइन में अगला कदम ‘‘यरूशलम में अल-अक़्सा मस्जिद की मुक्ति’ है, जो इस्लाम का तीसरा सबसे पवित्र स्थान है. इज़राइल और यूएई के बीच ‘शांति समझौते’ पर खासतौर से अरब देशों की चुप्पी की तुलना में एर्दोगान की गुस्से भरी प्रतिक्रिया ध्यान खींचती है. एर्दोगान की इस्लामिक तुर्की को पुनर्जीवित करने की उपद्रवी कोशिश, और उनकी वैसी ही दुराग्रही विदेश नीति को ‘नव-ऑटोमनवाद’ नाम दिया गया है, जो तुर्की में पांच सदियों तक चले भूतपूर्व साम्राज्य के आचरण से मिलती-जुलती है. 

एर्दोगान की इस्लामिक तुर्की को पुनर्जीवित करने की उपद्रवी कोशिश, और उनकी वैसी ही दुराग्रही विदेश नीति को ‘नव-ऑटोमनवाद’ नाम दिया गया है, जो तुर्की में पांच सदियों तक चले भूतपूर्व साम्राज्य के आचरण से मिलती-जुलती है.

घरेलू राजनीतिक मजबूरियां 

दक्षिणपंथी जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी (एकेपी) के अध्यक्ष पद पर आसीन एर्दोगान 16 सालों से सत्ता में हैं. हालांकि, अपनी स्थिति में अच्छी तरह से स्थापित होने के बावजूद वह विपक्ष के राजनीतिक ख़तरों से सुरक्षित नहीं हैं. उन्होंने 2016 में अपनी सेना द्वारा की गई  तख़्तापलट की कोशिश को कुचल दिया था, जो उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए किया गया था. 2018 में उन्होंने कार्यकारी राष्ट्रपति प्रणाली की शुरुआत की, जो न्यायपालिका और संसद के अधिकारों को काफ़ी सीमित करती है. एर्दोगान के शासन के साथ तुर्की जनता की थकान 2019 में इस्तांबूल मेयर चुनावों में ज़ाहिर हुई थी, जब रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) के एकरेम इमामालु ने एकेपी उम्मीदवार को एक नहीं बल्कि दो-दो बार हराया, जब एर्दोगान ने दोबारा चुनाव कराए. इस्तांबूल में उस एकेपी को मुंह की खानी पड़ी, जो एर्दोगान के राजनीतिक उत्थान का उद्गम स्थल था, यह उनकी मौजूदा स्थिति की अनिश्चितता का इशारा देता है.

स्थानीय सरकारों को कोविड-19 महामारी से तत्परता से निपटने के लिए कई वजहों से तारीफ़ मिली, जिसके चलते महामारी के प्रति एर्दोगान के ख़ुद के रवैये से तुलना की गई. एर्दोगान का ऐतिहासिक प्रतीकों जैसे कि हागिया सोफ़िया और चोरा चर्च का सहारा लेना, ख़ुद को उस राजनीतिक दलदल से उबारने का प्रयास है, जिसमें वह खुद को घिरा पाते हैं. आटोमन साम्राज्य के ताक़त के प्रतीकों के प्रति जनता की पसंद को देखते हुए इसके महिमामंडन का सहारा लेना उनको तात्कालिक लाभ दे सकता. लेकिन जबकि जनमत उनके खिलाफ़ जा रहा है, एर्दोगान को 2023 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए नए तरीक़े खोजने होंगे.

क्षेत्रीय वर्चस्व

विदेशों में ‘नव-ऑटोमनवाद’ का मतलब मोटे तौर पर मध्य-पूर्व क्षेत्र में तुर्की के प्रभाव को पुनर्जीवित करना और अंकारा को पड़ोसियों के बीच सर्वशक्तिशाली बनाना है. एर्दोगान की मुखर विदेश नीति के पीछे संचालक बल मध्य-पूर्व में क्षेत्रीय वर्चस्व हासिल करने की उनकी महत्वाकांक्षा है. एर्दोगान ने पिछले साल पीपुल्स प्रोटेक्शन यूनिट्स (वाईपीजी) को खदेड़ने के लिए अपने सैनिकों को उत्तर पश्चिमी सीरिया भेजा था. वाईपीजी कुर्द लड़ाके हैं, जिन्होंने आईएसआईएस का खात्मा करने की लड़ाई में अमेरिका की मदद की थी. उत्तरी सीरिया क्षेत्र में अब व्यावहारिक रूप से तुर्की का व्यापक स्तर पर नियंत्रण है और तुर्की लीरा यहां मान्यता प्राप्त मुद्रा है.

सीरिया में तुर्की की दख़लअंदाज़ी ने उसे तेल की अमीरी पर टिकी खाड़ी देशों की राजशाही के निशाने पर ला दिया है. सऊदी अरब और यूएई ने सीरिया के राष्ट्रपति बशीर अल असद पर अपना दांव लगाया है, जो उस समय तक उखाड़ फेंकने के कगार पर लग रहे थे जब तक कि 2015 में रूस और ईरान ने निर्णायक रूप से उन्हें बचाने के लिए दख़ल नहीं दिया. तुर्की और खाड़ी देशों के बीच रंजिश की वजह समझने के लिए 2011 के अरब स्प्रिंग (आंदोलन) को याद करें. अंकारा सक्रिय रूप से विरोध प्रदर्शनों को समर्थन दे रहा था, उदारवादी इस्लामी समूहों के पनपने और राजनीति में उनके दाख़िले के पक्ष में माहौल बनाने के लिए लंबे समय से क़ायम अरब बादशाहत के ख़िलाफ नफ़रत फैला रहा था.

एर्दोगान ने तुर्की को राजनीतिक इस्लाम के एक मॉडल के तौर पर पेश किया जो लोकतंत्र के साथ इस्तेमाल किया जा सकता था. जब मिस्र में निरंकुश होस्नी मुबारक को उखाड़ फेंका गया और मुस्लिम ब्रदरहुड के मोहम्मद मुर्सी ने लोकतांत्रिक चुनाव के माध्यम से सत्ता हासिल की, तो तुर्की ने झूम कर जश्न मनाया. हालांकि, सऊदी अरब और यूएई के बादशाहों में इस बात को लेकर खलबली मचा दी कि पड़ोसी देशों की हवा के असर में आख़िरकार उन्हें भी उखाड़ फेंका जा सकता है, जिससे मोर्सी को हटाने के समन्वित प्रयास शुरू हुए और मिस्र के मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल फतेह अल-सीसी का उदय हुआ.

एर्दोगान द्वारा ख़ुद को दुनिया भर के सुन्नी मुसलमानों के असली नुमाइंदे के तौर पर पेश करने की कोशिश के चलते सऊदी अरब अंकारा के ख़िलाफ़ एक अनूठी रंजिश रखता है. इसके साथ ही, सक्रिय रूप से राजनीतिक इस्लाम का समर्थन करने वाले देश क़तर के साथ तुर्की की एकजुटता का भी विस्तार हुआ है.

अरब स्प्रिंग नाकामयाब हो जाने पर, जिसके बारे में तुर्की को उम्मीद थी कि कामयाब होगा, खाड़ी देशों के प्रति उसकी दुश्मनी गहरी हो गई. एर्दोगान द्वारा ख़ुद को दुनिया भर के सुन्नी मुसलमानों के असली नुमाइंदे के तौर पर पेश करने की कोशिश के चलते सऊदी अरब अंकारा के ख़िलाफ़ एक अनूठी रंजिश रखता है. इसके साथ ही, सक्रिय रूप से राजनीतिक इस्लाम का समर्थन करने वाले देश क़तर के साथ तुर्की की एकजुटता का भी विस्तार हुआ है. दोहा अब भी इस क्षेत्र में अंकारा का इकलौता सहयोगी है.

वर्चस्व के लिए एर्दोगान की ख़्वाहिश का एक और आयाम पश्चिम, खासकर अमेरिका के प्रति, उनकी नफ़रत है. तुर्की की पुरानी छवि पश्चिम-परस्त नाटो के सहयोगी देश की है जो यूरोपीय संघ (ईयू) में शामिल होने की ख़्वाहिश रखता है. इसमें बदलाव एर्दोगान के 2015 में शरणार्थी संकट को ब्रसेल्स के खिलाफ़ राजनीतिक सौदेबाजी के उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने में दिखा. सीरिया के गृहयुद्ध से भागे शरणार्थी तुर्की की सीमा पर जमा हो गए तो एर्दोगान ने उनके लिए यूरोप की तरफ़ दरवाज़ा खोल देने की धमकी दी. इस कदम से अंकारा ने एक भरोसेमंद चौकीदार के रूप में अपनी स्थिति गंवा दी और यूरोपीय यूनियन में दाख़िले के लिए अपना नैतिक बल भी खो दिया. पिछले साल ही उन्होंने अप्रत्याशित रूप से मास्को से एस-400 मिसाइल सिस्टम ख़रीदकर पश्चिमी सुरक्षा गठबंधन को बेचैन कर दिया. अगर एर्दोगान एक और कदम उठाकर वाशिंगटन को नाराज़ कर देते हैं तो निश्चित रूप से उन पर पाबंदी लगाए जाने की पूरी संभावना है. 

भूमध्यसागर के पड़ोसियों से विवाद 

पूर्वी भूमध्यसागर तुर्की के लिए सामरिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है. इस मामले में लीबिया में एर्दोगान का सैन्य हस्तक्षेप एक उदाहरण है. उन्होंने त्रिपोली में संयुक्त राष्ट्र से मान्यता प्राप्त गवर्नमेंट ऑफ नेशनल एकॉर्ड (जीएनए) की मदद के लिए तुर्की सेना और सीरिया के भाड़े के सैनिकों को तैनात किया है. दूसरी तरफ़ संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और मिस्र ने संयुक्त राष्ट्र के हथियार प्रतिबंध का उल्लंघन कर भगोड़े सेना प्रमुख ख़लीफ़ा हफ़्तार के नेतृत्व वाली प्रतिद्वंद्वी लीबियन नेशनल आर्मी (एलएनए) को हथियार और गोला-बारूद मुहैया कराया. एलएनए के ख़तरे को निपटाने में तुर्की की कामयाबी ने मिस्र के अल-सीसी को संघर्ष में दख़लअंदाजी पर दोबारा विचार करने पर मजबूर किया.

लीबिया में एर्दोगान की दख़लअंदाजी को देश के समुद्री तट पर उनकी विशाल आर्थिक आकांक्षाओं से समझा जा सकता है. एर्दोगान ने जीएनए के प्रधानमंत्री फ़ायेज़-अल-सेराज के साथ एक करार पर दस्तख़त किए, जिसने तुर्की को लीबिया के तटों पर तेल और प्राकृतिक गैस के लिए खुदाई करने का अधिकार दिया. यूरोपीय यूनियन ने इस करार की निंदा करते हुए कहा कि यह ‘तीसरे राज्य के संप्रभु अधिकारों का उल्लंघन.. [और] समुद्री कानून का पालन नहीं करता.’ एर्दोगान ने पड़ोसी साइप्रस और ग्रीस के उनके पूर्वी भूमध्यसागरीय तट पर एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक ज़ोन (ईईजेड) को मान्यता देने से इनकार कर यूरोपीय यूनियन की नाराज़गी मोल ली है. एर्दोगान ने 2018 में एकतरफ़ा कदम उठाते हुए साइप्रस के समुद्री क्षेत्र में ड्रिलिंग उपकरण भेजे और ड्रिलिंग की, जिसके नतीजे में साइप्रस  द्वारा उसे ‘समुद्री डाकू राष्ट्र’ घोषित किया गया. विवाद का कूटनीतिक समाधान खोजने की एर्दोगान की अनिच्छा 26 अगस्त को उनके भाषण से स्पष्ट हो गई जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘तुर्की पूर्वी भूमध्य सागर में कोई रियायत नहीं देगा.’

नई मोर्चेबंदियां

एर्दोगान ने अप्रत्यक्ष रूप से अपने पड़ोसी दुश्मनों के बीच आपस में नज़दीकी बढ़ाने में योगदान दिया है. अपने समुद्री क्षेत्र में खनिजों के अपने अधिकार सुरक्षित करने के लिए मक़सद से कुछ समय पहले तुर्की-विरोधी राज्यों का एक गठबंधन बना है. पिछले साल साइप्रस, ग्रीस, इज़रायल, जॉर्डन, इटली और फिलिस्तीनी अथॉरिटी द्वारा युद्धोन्मत तुर्की के ख़िलाफ़ एकजुट मोर्चा बनाने के लिए ईस्टमेड गैस फ़ोरम का गठन किया गया था. लीबिया और दूसरी जगहों पर एर्दोगान की करतूतों के खुले आलोचक फ़्रांस ने इस साल के शुरू में संगठन की सदस्यता के लिए आवेदन किया था. इस तरह की मोर्चाबंदी के विरोध का सामना करते हुए, यह देखना बाकी है कि एर्दोगान इस क्षेत्र में तुर्की के हितों को सुरक्षित रखते हुए दबाव का किस तरह सामना करते हैं.

लेकिन इसके साथ ही, सीरिया में अपने मतभेदों के बावजूद ईरान और तुर्की के बीच दोस्ती बनी हुई है. राष्ट्रपति ट्रंप के दबाव अभियान का अधिकतम ख़ामियाज़ा तेहरान ने उठाया है और अंकारा के साथ ही सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात से रंजिश रखता है. ईरान के विदेश मंत्री जावेद ज़रीफ़ ने एक बयान में कहा है कि उनका देश लीबिया संघर्ष में तुर्की समर्थित जीएनए का समर्थन करता है. दोनों देश सीरिया में कुर्द-बहुल सीरियाई डेमोक्रेटिक फोर्स को एक दुश्मन के रूप में देखते हैं. ईरान का क़तर के साथ भी संबंध है, जो अंकारा का क़रीबी सहयोगी है.

देश में ज़बरदस्ती इस्लाम थोपने और विदेशों में कलह पैदा करना राष्ट्रपति एर्दोगान का ढर्रा है. बोझिल सैन्य अभियान ख़जाने पर असर डाल रहे हैं. सेना बहुत ज़्यादा व्यस्त है और अर्थव्यवस्था में मंदी आ रही है. इस सबके संयोजन ने देश में अचानक नई स्थितियां पैदा कर दी हैं जो एर्दोगान की लोकप्रियता को छीज रही हैं.

हालात ने मध्य-पूर्व में तुर्की, क़तर और ईरान को एक तरह के ‘अछूतों के गठबंधन’ से जोड़ दिया है. हालांकि, ईरान और तुर्की के बीच रणनीतिक गठजोड़ लंबे समय तक चलने की उम्मीद नहीं है. अगर अमेरिका तेहरान पर आर्थिक दबाव कम करने और टकराव टालने वाला रुख अपनाने (बाइडेन के राष्ट्रपति बनने पर ऐसी संभावना हो सकती है) या ईरान और खाड़ी की राजशाही के बीच रिश्तों में गर्मजोशी आती है, तो अंकारा के साथ बने इस्लामिक रिपब्लिक के नए-नए याराना का कुछ खास महत्व नहीं रह जाएगा.

निष्कर्ष 

देश में ज़बरदस्ती इस्लाम थोपने और विदेशों में कलह पैदा करना राष्ट्रपति एर्दोगान का ढर्रा है. बोझिल सैन्य अभियान ख़जाने पर असर डाल रहे हैं. सेना बहुत ज़्यादा व्यस्त है और अर्थव्यवस्था में मंदी आ रही है. इस सबके संयोजन ने देश में अचानक नई स्थितियां पैदा कर दी हैं जो एर्दोगान की लोकप्रियता को छीज रही हैं. हागिया सोफ़िया जैसे प्रतीकों के ज़रिये तुर्की की इस्लामी विरासत का सहारा लेना उनकी लोकप्रियता को बढ़ाने की एक हताशा भरी कोशिश है और दीर्घकाल में उनके राजनीतिक अस्तित्व की गारंटी नहीं दे सकता है. शायद जल्द ही, वह समझ जाएंगे कि उन्होंने मुंह से बड़ा निवाला निगल लिया है.

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