Published on Jan 06, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन एक तरफ कर्ज़ के जाल में फंसा देने वाली अपनी कूटनीति का इस्तेमाल करता है तो दूसरी तरफ अपनी सैन्य दुस्साहस और आक्रामकता का प्रदर्शन करता है. 

ईयू-चीन समझौता — यूरोपीय संघ की अदूरदर्शिता, और भावी यू-टर्न
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अगर यूरोपीय संघ के राजनीतिक नेतृत्व के पास थोड़ी भी राजनीतिक समझ बाकी बची होगी तो वो अपने नौकरशाहों द्वारा रणनीतिक मोर्चे पर उठाए गए सबसे आत्मघाती कदम को सिरे से नकार देगी. निवेश पर हुई इस सैद्धांतिक सहमति को समग्र निवेश समझौता (सीएआई) का नाम दिया गया है. इस पर यूरोपीय आयोग (ईसी) और चीन ने दस्तख़त किए हैं. ये समझौता यूरोप की बुनियादी उसूलों से खिलवाड़ करने जैसा है. इस समझौते के ज़रिए यूरोप मानों चीन के हाथों में खेल गया है. बदले में उसे आश्वासनों के अलावा कुछ भी हासिल होता नहीं दिख रहा. इस तरह के आश्वासनों का न तो अतीत में कोई मतलब था और ना ही आने वाले समय में इनका कोई अर्थ रहने वाला है. यूरोपीय आयोग का रवैया इस मामले में एक अनाड़ी नौसिखिए जैसा रहा है. यूरोपीय आयोग का काम अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामलों में यूरोपीय संसद और यूरोपीय संघ के परिषद द्वारा पारित फ़ैसलों को लागू करवाना और नए क़ानूनों की प्रस्तावना करना है. इस संस्था में वैसे गैर-निर्वाचित लोग भरे पड़े हैं जिनका एकमात्र लक्ष्य अपने-अपने पदों पर चिपके रहना है. सौदे को सबके फायदे में बताना चीन के लिए सटीक बैठता है. देखा जाए तो चीन अब तक दो बार विजयी रहा है. विश्व व्यापार संगठन से जुड़ी वार्ताओं के दौरान चीन का जो रवैया सामने आया था, उससे साफ है कि चीन कभी बदलने वाला नहीं है. दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में जिन नियमों से कामकाज होते हैं, चीन उन्हीं नियम-क़ानूनों का इस्तेमाल अपने यूरोपीय साझीदार देशों को दबाने और कुचलने में करेगा.

यूरोपीय आयोग का रवैया इस मामले में एक अनाड़ी नौसिखिए जैसा रहा है. यूरोपीय आयोग का काम अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामलों में यूरोपीय संसद और यूरोपीय संघ के परिषद द्वारा पारित फ़ैसलों को लागू करवाना और नए क़ानूनों की प्रस्तावना करना है.

यूरोपीय संघ की अफ़सरशाही चीन के हिसाब से चल रही है, चल क्या रही है मानो चीन के इशारों पर नाच रही है. समझौते की घोषणा में ‘मूल्यों’ शब्द का इस्तेमाल इस शब्द और इसके अर्थ का अपमान करने जैसा है. यह समझौता चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चीन में मानवाधिकारों का अंधाधुंध उल्लंघन करने, अंतरराष्ट्रीय सौदों में लगातार नियम भंग करने, ऑस्ट्रेलिया और नॉर्वे जैसे देशों पर दादागीरी दिखाने और भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों की सीमाओं और दक्षिण चीन सागर पर कब्ज़े की उसकी कोशिशों से जैसे मुंह फेरता दिख रहा है. यहां इस बात की भी अनदेखी की गई कि इस सौदे से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बेल्ट एंड रोड योजना को यूरोपीय संघ तक ले जाने में मदद मिलेगी. दूसरी ओर इससे हुआवेई की यूरोप में 5जी दूरसंचार सिस्टम तक भी पहुंच हो जाएगी. इस तरह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पहुंच 21वीं सदी की सबसे मूल्यवान वस्तु- नागरिकों से जुड़े डेटा तक हो जाएगी. सबसे बुरी बात तो ये है कि इस सौदे में चीन के राष्ट्रीय खुफ़िया कानून पर सवाल उठाने की बात तो दूर उसका उल्लेख़ तक नहीं है. इस कानून के ज़रिए चीन के किसी भी प्रतिष्ठान को खुद ब खुद खुफ़िया जानकारी जुटाने के अधिकार मिल जाते हैं.

शी जिनपिंग की नीतियों ने चीन को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां कोई भी उसपर भरोसा करने को तैयार नहीं है. कायदे से तो यूरोपीय आयोग को इस सौदे की ओर पूरी तरह से आंखें मूंद लेना चाहिए था

इनके साथ-साथ ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि शी जिनपिंग की नीतियों ने चीन को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां कोई भी उसपर भरोसा करने को तैयार नहीं है. कायदे से तो यूरोपीय आयोग को इस सौदे की ओर पूरी तरह से आंखें मूंद लेना चाहिए था. जैसा कि अमृता नर्लिकर और समीर सरन ने पहले ही स्पष्ट किया है, चीन ने व्यावहारिक राजनीति में सबको छला है तो वहीं यूरोपीय संघ ने अपने मूल्यों को धता बताकर और अपने मित्रों और सहयोगी देशों की स्थिति को कमतर कर अपने हाथ कमज़ोर किए हैं.

कॉरपोरेट के निजी फायदे

ये स्थिति यूरोपीय संघ और इसके ज़रिए बाकी दुनिया तक पहुंच रखने वाली आपूर्ति श्रृंखला के लिए नुक़सानदेह है. एक बात स्पष्ट है और वो ये कि 21वीं सदी में अब ‘निवेश’ का कोई समझौता नहीं होता. चीन किसी भी दृष्टिकोण से अमेरिका या भारत जैसा नहीं है. इस देश के साथ होने वाले किसी भी सौदे को राष्ट्रीय सुरक्षा के नज़रिए से देखना ज़रूरी हो जाता है. ऐसा लगता है कि इस सौदे के पीछे जर्मनी से लेकर फ्रांस तक के कॉरपोरेट संस्थानों के निजी हित हैं. मगर कॉरपोरेट हितों से राष्ट्रीय हित ज़्यादा बड़े हैं और इसमें तालमेल बेहद ज़रूरी है. जिस वक्त इस सौदे पर दस्तख़त हो रहे थे उस वक्त ये ख़बरें आई थीं कि स्वीडेन की दूरसंचार उपकरण बनाने वाली कंपनी एरिकसन ने वहां की सरकार पर हुआवेई को अपनी सीमाओं के अंदर दाखिल होने की मंज़ूरी देने का दबाव बनाया था और ऐसा न किए जाने पर अपना कारोबार कहीं और ले जाने की बात कही थी. कॉरपोरेट सेक्टर द्वारा राष्ट्रीय हितों के खिलाफ़ काम करने का ये एक और उदाहरण है. वो भी तब जब स्वीडेन के सशस्त्र बलों और वहां की सिक्योरिटी सर्विस की सलाह इसके ठीक विपरीत थी.

सीएआई सौदा इस कपोल-कल्पना पर आधारित है कि चूंकि चीन ने समझौते पर दस्तख़त किए हैं लिहाजा वो इसका पालन करेगा. या फिर यूरोपीय संघ चाहता है कि चीन इसका पालन करे तो चीन ऐसा ही करेगा या ये कि अमेरिकी दबावों का सामना कर रहा चीन इस बार ईमानदारी बरतेगा. 

सीएआई सौदा इस कपोल-कल्पना पर आधारित है कि चूंकि चीन ने समझौते पर दस्तख़त किए हैं लिहाजा वो इसका पालन करेगा. या फिर यूरोपीय संघ चाहता है कि चीन इसका पालन करे तो चीन ऐसा ही करेगा या ये कि अमेरिकी दबावों का सामना कर रहा चीन इस बार ईमानदारी बरतेगा. जिसे यूरोपीय आयोग सौदा बताकर ज़ोरशोर से प्रचारित कर रहा है वो और कुछ नहीं वही चंद ज़रूरी बातें हैं जिन्हें लोग अक्सर हल्के में लेते हैं. जैसे कि कोई ये कहे कि ठेके की शर्तों का पालन होना चाहिए, तकनीक की छीनाझपटी नहीं होनी चाहिए, बौद्धिक संपदा का सम्मान होना चाहिए आदि.

इनमें ये बातें शामिल हैं:

  • यूरोपीय संघ के निवेशकों के लिए प्रतिस्पर्धा के समान अवसर
  • चीन की सरकार द्वारा संचालित उद्यमों के लिए स्पष्ट नियम
  • सब्सिडी पर पूरी पारदर्शिता
  • जबरन तकनीकी हस्तांतरण की पाबंदी
  • यूरोपीय कंपनियों के लिए आसान नियम और बिना दिक्कत के मंज़ूरी पाने की प्रक्रिया
  • चीनी मानक तैयार करने वाली संस्थाओं तक यूरोपीय कंपनियों की पहुंच

मिसाल के तौर पर, चीन के सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों (एसओई) की भूमिका की पड़ताल करते हैं. ये समझौता ‘एसओई के रवैये में अनुशासन लाना चाहता है’ और उनसे उम्मीद करता है कि वो व्यापारिक तौर तरीके से और बिना किसी भेदभाव के अपना काम करें. लेकिन प्रेस को जारी विज्ञप्ति की बारीकी से पड़ताल करें तो ये बात साफ है कि- किसी कंपनी विशेष का बर्ताव सीएआई के तहत स्वीकारे गए नियमों के हिसाब से है या नहीं, इसका पता लगाने के लिए जो भी जांच प्रक्रिया शुरू की जाएगी उसकी ‘मंज़ूरी’ चीन ही देगा. अगर समस्या का निपटारा नहीं हो पाता है तो फिर ऐसे मामले सीएआई के तहत विवाद निपटाने के लिए बने तंत्र के पास जाएंगे. अगर यूरोपीय संघ यह समझता है कि चीन खुद को किसी नियम-कानून से बांधेगा और उसके तहत ही कदम आगे बढ़ाएगा तो उसे भविष्य में लगने वाले झटकों के लिए तैयार रहना चाहिए. चीन की जीडीपी में इन सरकारी कंपनियों का योगदान 30 प्रतिशत है. जीडीपी के इतने बड़े हिस्से को ‘विवाद निपटारा तंत्र’ जैसी बचकानी चीज़ों के लिए खतरे में डालना चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की फितरत नहीं हो सकती. आखिरकार ऐसे तंत्र तो उन्हीं देशों में काम करते हैं जहां नियम-क़ानूनों का पालन करने की परंपरा है.

यूरोप का कोई छोटा या मझौला उद्यम जिसकी पहुंच सत्ता तक नहीं है और जो अपना कारोबार और व्यापारिक कामकाज नियमों के हिसाब से चलाता है उसे आगे चलकर पता चलेगा कि चीन में न्याय हासिल कर पाना आसान नहीं है क्योंकि वहां स्वतंत्र न्यायपालिका है ही नहीं.

एक ऐसा देश जो कानून के राज में भरोसा ही नहीं करता हो, नियम-आधारित व्यवस्था में काम करने की जिसकी कभी कोई मंशा ही न हो और बौद्धिक संपदा और कारोबारी व्यवहार को को लेकर जिसका ट्रैक रिकॉर्ड बेहद खराब रहा हो, वो एक डील पर कुछ स्वार्थी नौकरशाहों द्वारा दस्तख़त भर कर देने से रातों-रात अपना रवैया बदल लेगा, इस बात पर बड़े कॉरपोरेट तो भरोसा कर सकते हैं लेकिन अनुभवी राजनीतिक नेतृत्व इसपर कतई विश्वास नहीं कर सकता. यूरोप का कोई छोटा या मझौला उद्यम जिसकी पहुंच सत्ता तक नहीं है और जो अपना कारोबार और व्यापारिक कामकाज नियमों के हिसाब से चलाता है उसे आगे चलकर पता चलेगा कि चीन में न्याय हासिल कर पाना आसान नहीं है क्योंकि वहां स्वतंत्र न्यायपालिका है ही नहीं.

इटली से लेकर पोलैंड और बेल्जियम से लेकर स्पेन तक के राजनयिकों ने जर्मनी और फ्रांस द्वारा चीन के साथ निवेश समझौते पर आगे बढ़ने के तौर-तरीकों पर सवाल खड़े किए. उन्होंने इस बात को लेकर चिंता जताई है कि इस सौदे से बाइडेन प्रशासन के नाराज़ होने का खतरा है

शुक्र है कि इस सौदे को अभी दो इम्तिहानों और मंज़ूरी प्रक्रिया से गुज़रना है. अब भी दो संस्थाएं हैं जो कानूनी जामा पहनने से पहले इस सौदे में ज़रूरी संतुलन बिठा सकती हैं. वो दो संस्थाएं हैं- यूरोपीय संघ का परिषद और यूरोपीय संसद. ये दोनों ही संस्थाएं अपने वोटरों के प्रति उत्तरदायी हैं और ये अफसरशाही के मुकाबले इस सौदे के पीछे की राजनीति को बेहतर तरीके से समझती हैं. अगर ये संस्थाएं अपने पूरे होशोहवास में फैसला करती हैं तो वो इस सौदे पर रोक लगा देंगी. उस समय तक अमेरिका में नए राष्ट्रपति का दफ्तर भी पूरी तरह से कामकाज संभाल लेगा. तब जिस जल्दबाज़ी में इस सौदे पर दस्तख़त किए गए उसकी पूरी पड़ताल हो सकेगी. ये पड़ताल ईयू के सबसे मज़बूत रणनीतिक सहयोगी देश के इर्द गिर्द भू-राजनीति और भू-अर्थव्यवस्था के व्यापक दायरों में होगी. जबतक कि बाइडन प्रशासन भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के इशारों पर न चलने लगे तबतक इस डील के अस्तित्व में आने की कोई संभावना नहीं है.

कई यूरोपीय देशों ने उठाए सवाल

यूरोपीय  देशों में फ्रांस और जर्मनी ने सामरिक और सुरक्षा के मामलों में अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए हैं. सितंबर 2020 में जर्मनी ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र के लिए अपनी नीति से जुड़े दिशानिर्देश जारी किए थे. इसके तहत इस क्षेत्र को एक महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग के तौर पर देखने और दक्षिण चीन सागर का संचालन चीन और आसियान देशों के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी ‘आचार संहिता’ के तहत करने की व्यवस्था की बात कही गई. जर्मनी की नीति के हिसाब से चीन के प्रति उसका यही रुख़ भविष्य में चीन के साथ यूरोपीय संघ की रणनीति के बुनियाद के तौर पर काम करेगा. कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाने की बात एक तरफ रख दें तो भी इस तरह का दिशानिर्देश सही दिशा में उठाया गया सही कदम था. फ्रांस और नीदरलैंड्स भी भारत-प्रशांत क्षेत्र को अपनी विदेश नीति के हिस्से के तौर पर देखते हैं. यूरोपीय देशों द्वारा सामरिक रूप से महत्वपूर्ण भारत-प्रशांत क्षेत्र और दक्षिण चीन सागर के विवादित इलाके में प्रवेश जैसे मुद्दे बेहद गंभीर हैं और ये चीन की सामरिक महत्वाकांक्षाओं के ठीक विपरीत हैं. मगर चीन के प्रति यूरोपीय देशों के सामरिक इरादों और आर्थिक मोर्चे पर दोस्ती बढ़ाने की उनकी कोशिशों में जो विरोधाभास है वो समझ से परे है.

यूरोपीय संघ की कथनी कुछ है और करनी कुछ और है और वो सिर्फ़ बातों के ही शेर हैं. नतीजतन, शी की विदेश नीति, ख़ासतौर से ईयू-चीन के संबंधों में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आएगा.

हालांकि यूरोपीय संघ के भीतर ऐसा नहीं है कि मुट्ठी भर देश बाकी सदस्य देशों को चीन के आगे घुटने टेकने वाली नीति अपनाने को मजबूर कर दें. ख़बरों के मुताबिक इटली से लेकर पोलैंड और बेल्जियम से लेकर स्पेन तक के राजनयिकों ने जर्मनी और फ्रांस द्वारा चीन के साथ निवेश समझौते पर आगे बढ़ने के तौर-तरीकों पर सवाल खड़े किए. उन्होंने इस बात को लेकर चिंता जताई है कि इस सौदे से बाइडेन प्रशासन के नाराज़ होने का खतरा है. ऐसे माहौल में सामरिक तौर पर सोचे-विचारे बिना सिर्फ़ कॉरपोरेट-हितों से संचालित सौदे के रास्ते में कदम आगे बढ़ना एक किस्म का बेसुरापन दिखाता है. इस पेच को यूरोपीय संघ की उत्तरदायी राजनीतिक संस्थाएं- यूरोपीय संघ परिषद और यूरोपीय संसद ही सुलझा सकती हैं.

चीन द्वारा यूरोपीय संघ के सदस्यों के साथ किए गए निरंकुश, कठोर और उद्दंडतापूर्ण व्यवहार के चंद महीनों बाद ही यूरोपीय आयोग ऐसे किसी सौदे पर रज़ामंद कैसे हो सकता है ये बात भी समझ से परे है. चेक सीनेट के स्पीकर मिलोस वाइस्ट्रसिल के ताइवान दौरे पर टिप्पणी करते हुए चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने कहा था “इस दौरे ने उन्हें 1.4 अरब चीनी लोगों का दुश्मन बना दिया है”. उस वक्त जर्मनी और फ्रांस दोनों ही यूरोपीय संघ की मान्यताओं के पक्ष में उठ खड़े हुए थे. खुले तौर पर बदसलूकी भरे चीन के इस तरह के बर्ताव के सिर्फ़ चार महीने बाद ही यूरोपीय संघ के साथ इस तरह की डील होने से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और उसके कर्ताधर्ताओं के हौसले और बढ़ेंगे. आगे चलकर चीन को इससे भी बड़ी हिमाकत के लिए बढ़ावा मिलेगा. ऐसे में यूरोपीय संघ को आगे भी ऐसे अपमानजनक बर्तावों के लिए तैयार रहना चाहिए. चीन को पता चल गया है कि यूरोपीय संघ की कथनी कुछ है और करनी कुछ और है और वो सिर्फ़ बातों के ही शेर हैं. नतीजतन, शी की विदेश नीति, ख़ासतौर से ईयू-चीन के संबंधों में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आएगा. विदेश नीति के मोर्चे पर धमकियां बदस्तूर जारी रहेंगी या हो सकता है कि इनका सिलसिला और बढ़ जाए वहीं दूसरी ओर आर्थिक मोर्चे पर चीन की आपूर्ति श्रृंखला और मज़बूत होती जाएगी.

जो लोग ये समझते हैं कि दुनिया के देशों को एक-दूसरे को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने के लिए आपस में ज़्यादा से ज़्यादा घुलना-मिलना चाहिए वो अतीत में जी रहे हैं. विश्व व्यापार संगठन में प्रवेश के बाद भी चीन से जिस बदलाव की उम्मीद थी वो नहीं दिखी. चीन से झगड़े (जबरन तकनीकी हस्तांतरण, बौद्धिक संपदा की संस्थागत चोरी, बाज़ार तक पहुंच में बाधा) के बावजूद दुनिया चीन का पेट भरती रही. इससे चीन धीरे-धीरे बड़े से बड़ा और ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत होता गया. आज वो इतना ताक़तवर हो गया है कि उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती और अब वो दुनियाभर में अपनी धौंस दिखा रहा है. चाहे वो उसके पड़ोसी देश हों या अफ्रीकी महादेश के राष्ट्र, सबके साथ चीन एक तरफ कर्ज़ के जाल में फंसा देने वाली अपनी कूटनीति का इस्तेमाल करता है तो दूसरी तरफ अपनी सैन्य दुस्साहस और आक्रामकता का प्रदर्शन करता है. दिसंबर 2001 में 1.5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के तौर पर विश्व व्यापार संगठन में प्रवेश की मंज़ूरी मिलने के बाद भी चीन नहीं बदला. आज जब उसने 14.3 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने का शानदार कारनामा कर दिखाया है, उसके पास पहले से ज़्यादा ताकत और प्रभाव है, तब उसके बदलने की उम्मीद करना खुद को भुलावे में रखने जैसा है.

गेंद फिलहाल तीन पालों में है- यूरोपीय संसद, यूरोपीय संघ की परिषद और बाइडन प्रशासन. 20वीं सदी के मध्य में गढ़े गए उदार मूल्यों का ये तीनों किस प्रकार संरक्षण करते हैं, काफी हद तक इसी बात पर 21वीं सदी में यूरोपीय संघ का आर्थिक भविष्य निर्भर करेगा.

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