Author : Harsh V. Pant

Published on Jan 06, 2022 Updated 0 Hours ago

2020 के साल ने ये बात साफ़ कर दी कि अमेरिका और चीन के बीच सामरिक प्रतिद्वंदिता, डॉनल्ड ट्रंप का ख़्याली पुलाव नहीं है.

दुनिया की बड़ी शक्तियों के बीच मुक़ाबले के दौर की नये रूप में वापसी

ये कहना एक घिसी-पिटी बात को दोहराने जैसा ही है कि कोविड-19 महामारी ने वैश्विक राजनीति में बड़ा बदलाव लाने वाला असर डाला है. इसमें कोई दो राय नहीं कि सेहत के मसले का दुनिया के राजनीतिक समीकरणों के केंद्र में आना एक दुर्लभ बदलाव है. हालांकि, पहले भी महामारियां वैश्विक समीकरणों पर बहुत गहरा असर डालती रही हैं. पिछले कई दशकों से इस बात को लेकर काफ़ी चर्चाएं होती रहीं कि सुरक्षा का नज़रिया बदल रहा है. लेकिन, कोविड-19 महामारी की मार ने दुनिया को ये एहसास करने को मजबूर कर दिया कि जिन्हें सुरक्षा से जुड़े जिन मसलों को ग़ैर पारंपरिक कहा जाता था, वो असल में पारंपरिक मुद्दे ही हैं. आज जब दुनिया स्वास्थ्य के इस संकट से जूझ रही है, तो ये संपत्ति के संकट के रूप में भी तब्दील हो चुकी है और इसने नीति नियंताओं को अपनी पुरानी धारणाओं का नए सिरे से मूल्यांकन करने को मजबूर कर दिया है.

 पिछले कई दशकों से इस बात को लेकर काफ़ी चर्चाएं होती रहीं कि सुरक्षा का नज़रिया बदल रहा है. लेकिन, कोविड-19 महामारी की मार ने दुनिया को ये एहसास करने को मजबूर कर दिया कि जिन्हें सुरक्षा से जुड़े जिन मसलों को ग़ैर पारंपरिक कहा जाता था, वो असल में पारंपरिक मुद्दे ही हैं

हालांकि, अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक के अपने अलग तरह के तर्क होते हैं. महामारी आती या नहीं, मगर 1945 के बाद की विश्व व्यवस्था की चूलें हिलनी पहले ही शुरू हो चुकी थीं. विश्व व्यवस्था में जो बदलाव आते दिख रहे थे, उन्हें पिछले साल वुहान से पैदा हुई कोविड-19 महामारी ने एक तरह से रफ़्तार देने का काम किया है. बड़ी ताक़तों के बीच की होड़ को सामने आने के लिए किसी महामारी का बहाना नहीं चाहिए. चीन के उभार ने विश्व राजनीतिक व्यवस्था को हिला दिया है. महामारी के बाद से इस बात ने विश्व व्यवस्था पर गहरा असर डालने वाले आयाम उजागर किए हैं. इनसे लगता है कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में दुनिया में एक ऐसी बड़ी ताक़त उभर रही है, जो यथा-स्थिति को हिला देने पर आमादा है.

शी जिनपिंग के नेतृत्व वाला चीन अब न तो अपनी ताक़त को छुपा रहा है और न ही वो अपनी बारी आने का इंतज़ार करने के हक़ में है. चीन का वक़्त आ गया है और दुनिया को इस पर ध्यान देना चाहिए. भले ही आज का चीन, हिटलर के दौर के जर्मनी जैसा न हो, मगर इसका बर्ताव ठीक वैसा ही है, जैसा दूसरे विश्व युद्ध के पहले के दौर में हमने यूरोप के अखाड़े में देखा था. एक उभरती हुई शक्ति आज एक ऐसी व्यवस्था की बुनियादों को हिला रही है, जिसे बाक़ी दुनिया ने हल्के में लेना शुरू कर दिया था. मौजूदा महाशक्ति अमेरिका इस चुनौती से निपट पाने में अब तक कमज़ोर दिख रहा है, और इसका नतीजा ये हुआ है कि आने वाला बड़ी उठा-पटक वाला लग रहा है.

अमेरिका- चीन के बीच सामरिक होड़

वर्ष 2020 ने ये बात साफ़ कर दी कि है, अमेरिका और चीन के बीच सामरिक होड़, डॉनाल्ड ट्रंप के दिमाग़ की उपज भर नहीं है. उनके बाद राष्ट्रपति बने जो बाइडेन ने न सिर्फ़ चीन विरोधी बयानों की धार और तेज़ कर दी है, बल्कि अमेरिका और चीन के बीच मुक़ाबले का दायरा भी कई और मसलों तक बढ़ा दिया है. मानव अधिकारों से लेकर तकनीक तक, आपूर्ति श्रृंखलाओं से लेकर रक्षा क्षेत्र तक ये होड़ अब तेज़ होने लगी है. इससे न केवल अन्य देशों पर दबाव पड़ रहा है- फिर चाहे वो किसी पक्ष के दोस्त हों या दुश्मन- बल्कि, अमेरिका और चीन के टकराव का असर मौजूदा विश्व व्यवस्था के ढांचे पर भी पड़ रहा है.

कोई संस्थागत व्यवस्था न होने के चलते, हिंद प्रशांत का समुद्री इलाक़ा आज क्वॉड और ऑकस जैसे नए विचारों के प्रयोग से लबरेज़ है. इस क्षेत्र में कई अलग अलग समीकरण एक साथ काम कर रहे हैं.

ये बात सबसे साफ़ तौर पर हिंद प्रशांत क्षेत्र में दिख रही है. नई शक्तियां इस इलाक़े में दाख़िल होने की कोशिश कर रही हैं. वहीं, मौजूदा प्रभावी ताक़तें आपसी संबंध की नई शर्तें तय कर रही हैं. कोई संस्थागत व्यवस्था न होने के चलते, हिंद प्रशांत का समुद्री इलाक़ा आज क्वॉड और ऑकस जैसे नए विचारों के प्रयोग से लबरेज़ है. इस क्षेत्र में कई अलग अलग समीकरण एक साथ काम कर रहे हैं. बहुत से देशों के बीच नए नए गठबंधन बन रहे हैं. इस क्षेत्र की दशा-दिशा भले ही अमेरिका और चीन के बीच की होड़ तय कर रही हो. मगर, असल में ये मध्यम दर्जे वाली ताक़ते हैं जो आख़िरकार नए हालात के हिसाब से अपना क़द बढ़ा रही हैं, और चीन की आक्रामकता का विरोध करते हुए संस्थागत और व्यवस्था के नियमों को तय करने में अहम भूमिका निभा रही हैं. मध्यम दर्जे की ताक़तों को ये लगता है कि अमेरिका अपनी घरेलू राजनीति में ही इस क़दर उलझा है कि उसके लिए पूरी दुनिया पर ध्यान दे पाना मुश्किल है. ऐसे में उन्हें लगता है कि ये उनके लिए अपने प्रभाव का विस्तार करने का अच्छा मौक़ा है. अब मध्यम दर्जे की ताक़त वाले देश इस मौक़े का कितना फ़ायदा उठा पाते हैं, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.

भारत के लिये अच्छा मौका

साल 2020 में, तानाशाही ताक़तों और लोकतांत्रिक देशों के बीच टकराव ने भी रफ़्तार पकड़ी. अमेरिका के राष्ट्रपति ने ‘लोकतांत्रिक देशों का शिखर सम्मेलन’ आयोजित किया. इसका मक़सद न केवल लोकतांत्रिक देशों के बीच और एकजुटता लाना था, बल्कि दुनिया भर के नेताओं से एक तरह से अपील भी थी कि वो अमेरिका के साथ मिलकर काम करें, जिससे कि चीन और रूस जैसे तानाशाही देशों के आक्रामक रुख़ के चलते, दुनिया भर में ‘पीछे हटते लोकतंत्र’ को नई मज़बूती दी जा सके. अब चूंकि, अमेरिका ने अपना पूरा ध्यान चीन से मिल रही राजनीतिक चुनौती पर लगा दिया है, तो वो आर्थिक भागीदारों को भी अपने साथ आने के लिए कह रहा है. हाल ही में अमेरिका के आर्थिक विकास ऊर्जा और पर्यावरण मामलों के अवर सचिव जोस डब्ल्यू फर्नांडिस ने अमेरिका के कारोबारी समुदाय से कहा कि वो अमेरिका और चीन के बीच बढ़ती सामरिक होड़ में ख़ुद को बस तमाशबीन न समझें, बल्कि, ‘इस बात का भी ख़याल रखें कि उनकी गतिविधियों से अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा और उसके लिए अहम मूल्यों पर क्या असर पड़ने वाला है’. ये बहुत बड़ा बदलाव है. अब तक राजनीति को आर्थिक हितों की पूर्ति का ज़रिया माना जाता था. लेकिन, एक बार फिर से राजनीतिक मक़सद को आर्थिक हितों पर तरज़ीह दी जा रही है.

अन्य देशों की तरह भारत को भी अपनी विदेश और रक्षा नीतियों को इस बदलाव के हिसाब ढालना पड़ेगा. लेकिन अगर हम अपने वैचारिक बोझ को उतार फेंकें तो इस बार वैश्विक राजनीति जिस मोड़ पर खड़ी है, उसमें भारत के लिए एक बड़ा मौक़ा है

बड़ी ताक़तों के बीच की ये होड़ एक बार फिर से विश्व व्यवस्था के हर आयाम पर असर डाल रही है. फिर चाहे वो जलवायु परिवर्तन और टिकाऊ विकास, मूलभूत ढांचे का विकास और कनेक्टिविटी, व्यापारिक साझेदारियों की दशा-दिशा, या फिर चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए तकनीकी विकास और वैश्विक स्वास्थ्य के आयाम हों. अन्य देशों की तरह भारत को भी अपनी विदेश और रक्षा नीतियों को इस बदलाव के हिसाब ढालना पड़ेगा. लेकिन अगर हम अपने वैचारिक बोझ को उतार फेंकें तो इस बार वैश्विक राजनीति जिस मोड़ पर खड़ी है, उसमें भारत के लिए एक बड़ा मौक़ा है कि वो असलियत में ख़ुद को एक ‘अग्रणी शक्ति’ के रूप में दुनिया के सामने पेश कर सकता है.


ये लेख मूल रूप से बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित हुआ था.

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Harsh V. Pant

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Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...

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