Author : Sushant Sareen

Published on Apr 30, 2018 Updated 0 Hours ago

सवाल यह है कि पख्तून आखिर सड़कों पर उतरे क्योंं? इस सवाल का जवाब बीते दो दशकों के, खासकर फेडरल एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया (फाटा), बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के घटनाक्रमों में छिपा है।

पख्तूनों से डरी पाकिस्तानी सत्ता

पाकिस्तानी फौजी हुक्मरान और राजनेता इन दिनों एक ऐसी उलझन में हैं, जिससे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें नहीं सूझ रहा। उनकी चिंता की वजह पख्तून हैं, जिनका ‘पख्तून तहफ्फुज मूवमेंट’ पूरे पाकिस्तान में जगह-जगह चल रहा है। फौज चाहकर भी इसका दमन नहीं कर पा रही, क्योंकि करीब 25 फीसदी फौजी पख्तून हैं। नेताओं की मुश्किल यह है कि इस आंदोलन का विरोध करना उन्हें अच्छे-खासे पख्तूनी वोट-बैंक से दूर कर सकता है, तो इनका समर्थन कर वे फौजी आलाकमान की नाराजगी का पात्र बन सकते हैं। उन्हें यह भी डर है कि आंदोलन का साथ देने से कहीं आंदोलनकारी उनकी सियासी जमीन ही न झटक ले जाएं।

सवाल यह है कि पख्तून आखिर सड़कों पर उतरे क्योंं? इस सवाल का जवाब बीते दो दशकों के, खासकर फेडरल एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया (फाटा), बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के घटनाक्रमों में छिपा है। असल में, साल 2001 में पाकिस्तान ने पाक-तालिबान के खिलाफ जो कथित ‘जंग’ शुरू की, उससे ये इलाके काफी प्रभावित हुए। यह सच है कि कुछ पख्तून नौजवान दहशतगर्दी में शामिल रहे हैं, पर उनके बहाने पूरे कौम को निशाने पर ले लिया गया है। सूबों में जहां-तहां बारूदी सुरंगें बिछाई गईं, चेक-पोस्ट लगाए गए और तलाशी व धर-पकड़ के नाम पर औरतों-बच्चों को जलील किया गया। पख्तून राष्ट्रवाद की वकालत करने वाली सियासी पार्टियां भी उन दिनों खामोश ही रहीं। नतीजतन, फौजी निरंकुशता बढ़ती चली गई।

साल 2001 में पाकिस्तान ने पाक-तालिबान के खिलाफ जो कथित ‘जंग’ शुरू की, उससे ये इलाके काफी प्रभावित हुए। यह सच है कि कुछ पख्तून नौजवान दहशतगर्दी में शामिल रहे हैं, पर उनके बहाने पूरे कौम को निशाने पर ले लिया गया है।

साल 2007 के बाद तो वहां मानो ‘डंडा राज’ ही कायम हो गया। दहशतगर्दी के खिलाफ कार्रवाई के नाम फौज ने यहां पारंपरिक जंग शुरू कर दी। कभी शक के आधार पर, तो कभी आपसी रंजिश में पख्तूनों को घरों से उठाया जाने लगा। हजारों लोग गायब कर दिए गए, जिनका आज तक कहीं कोई सुराग नहीं मिल सका है। इससे यहां पलायन की स्थिति बनी। मगर मुश्किल यह रही कि पख्तून जब अपनी जमीन छोड़कर कराची और पंजाब पहुंचे, तो वहां भी उनका खूब दमन हुआ।

इन सबके बावजूद बीते वर्षों में पख्तूनों में एक बदलाव भी आया, जिसका असर इस आंदोलन में महसूस हो रहा है। दरअसल, इन 12-15 वर्षों में पख्तूनों की दो नस्लें बड़ी हुईं। ये बच्चे अपने ऊपर हो रहे जुल्मो-सितम तो देख ही रहे थे, सांविधानिक व मानवाधिकार भी खूब समझने लगे थे। इसी कारण, मुल्क में जगह-जगह ‘स्टूडेंट एक्टिविज्म’ शुरू होने लगा। लेकिन मौजूदा आंदोलन का तात्कालिक कारण है, कराची में नकीबुल्लाह मेहसूद का फर्जी एनकाउंटर। पुलिस ने मेहसूद को आदतन तालिबानी दहशतगर्द बताया था, पर सोशल मीडिया ने यह साफ कर दिया कि असलियत में वह एक उभरते मॉडल थे और पैसे की लालच में उनका एनकाउंटर किया गया था। इस सच्चाई के सामने आते ही वर्षों से गम और गुस्से को पीते चले आ रहे पख्तून उबल पड़े। ‘पख्तून तहफ्फुज मूवमेंट’ एक स्वत: स्फूर्त सामाजिक आंदोलन है, जिसके पीछे कोई राजनीतिक ताकत नहीं है। 26 साल के युवा मंजूर पख्तीन इसका नेतृत्व कर रहे हैं। आंदोलनकारी न सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर पख्तूनों के दमन का विरोध कर रहे हैं, बल्कि अपने लिए वे तमाम अधिकार भी मांग रहे हैं, जो अन्य पाकिस्तानी सामाजिक समूहों को हासिल हैं। गायब पख्तूनों की जानकारी मिलना एक बड़ा मसला है ही।

फौजी हुक्मरानों की चिंता है कि आंदोलन तेज होने पर फौज में विद्रोह भड़क सकता है। इतना ही नहीं, फौज के खिलाफ प्रदर्शनकारियों के स्वर काफी तीखे हैं। इनके नारे भी हैं- यह जो दहशतगर्दी है, उसके पीछे वरदी है। फौज के खिलाफ इतना सख्त लहजा पाकिस्तान में इससे पहले कभी सुनने में नहीं आया। प्रदर्शनकारी सीधे-सीधे सेना से टकरा रहे हैं। वे अपने परिवारों पर फौजी दमन के इतने रूप देख चुके हैं कि उनका भय खत्म हो गया है, और यही फौज की सबसे बड़ी चिंता का कारण भी है। इसीलिए अब आंदोलनकारियों पर पीठ पीछे हमला किया जा रहा है। कुछ प्रदर्शनकारी मार डाले गए हैं, तो कुछ को हिरासत में लिया गया है। इन्हें ‘राष्ट्र-विरोधी’ भी बताया जा रहा है। मगर इन सबका आंदोलन की सेहत पर कुछ खास असर नहीं पड़ रहा। इसके उलट, बौद्धिकों का एक तबका यह भी कहने लगा है कि हद से ज्यादा दमन कहीं 1971 की पुनरावृत्ति न कर दे, जब मुल्क का पूर्वी हिस्सा कटकर एक अलग आजाद मुल्क बांग्लादेश बन गया था।

फौज के खिलाफ इतना सख्त लहजा पाकिस्तान में इससे पहले कभी सुनने में नहीं आया। प्रदर्शनकारी सीधे-सीधे सेना से टकरा रहे हैं। वे अपने परिवारों पर फौजी दमन के इतने रूप देख चुके हैं कि उनका भय खत्म हो गया है, और यही फौज की सबसे बड़ी चिंता का कारण भी है।

इस आंदोलन का एक राजनीतिक पहलू भी है। मुमकिन है कि अगले एक-दो महीने में पाकिस्तान में आम चुनाव हों। चूंकि देश की करीब 20 फीसदी आबादी पख्तून है, इसलिए चुनाव में यह एक बड़ा मुद्दा बन सकता है। हालांकि यह कितना असरदार होगा, इसका आकलन फिलहाल मुश्किल है। प्रदर्शनकारियों ने अब तक अपनी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाहिर नहीं की है। लेकिन इतना तो तय है कि चुनाव में ये जिस दल का समर्थन या विरोध करेंगे, उसकी सेहत पर काफी असर पड़ेगा, खासकर पख्तून बहुल इलाकों में। यह चिंता उन पार्टियों में ज्यादा है, जो फौज की बोली बोलती हैं। इसलिए इमरान खान की पार्टी ‘पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ’ अधिक बेचैन है, जो अभी पख्तून बहुल खैबर पख्तूनख्वा में सत्तारूढ़ है।

आंदोलनकारियों की अपनी एकता बचाने की चुनौती भी कम नहीं है। फौज परदे के पीछे से इनके खिलाफ तमाम तरह के हथकंडे अपना रही है। वहीं पंजाबियों के साथ इनकी अदावत भी जगजाहिर है। मगर चूंकि इनके पास पर्याप्त संख्या है और ये जुझारू भी हैं, इसलिए इनके गुस्से को आसानी से अभी दबा पाना आसान नहीं लगता। देखा जाए, तो पाकिस्तान एक ऐसे मोड़ पर है, जहां से आगे का रास्ता साफ-साफ नहीं दिख रहा। अगर आंदोलन सफल होता है, तो फौज की ठसक को भारी चोट पहुंचेगी। जबकि इसके विफल रहने पर पख्तूनों का आक्रोश भविष्य में बड़ी बगावत का रूप ले सकता है। पाकिस्तानी फौज व सत्ता-प्रतिष्ठान इसी चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं।


यह लेख मूल रूप से Live हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई थी।

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