Published on Sep 23, 2020 Updated 0 Hours ago

इंटरनेट सेवाओं की मांग बढ़ने के साथ-साथ और सोशल मीडिया पर उठाए जाने वाले विषयों की अत्यधिक विविधता के कारण, ये भी देखने में आया कि लोग उन मुद्दों पर भी चर्चा कर रहे थे, जो बेहद ख़तरनाक माने जाते हैं.

ऑनलाइन हिंसक उग्रवाद से निपटने के लिए अब ज़रूरी हो गया है संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क की माँग!

पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था, सामाजिक संबंधों और देशों की राजनीति पर कोविड-19 की महामारी के भयंकर दुष्प्रभाव तब सामान्य लगने लगते हैं, जब हम इनकी तुलना प्राकृतिक आपदाओं, युद्धों और महामारियों से पूरी दुनिया में मची तबाही के ऐतिहासिक प्रभावों का विश्लेषण करते हैं. तब हम पाते हैं कि कोविड-19 के मुक़ाबले इन आपदाओं से इंसानों की जान जाने, आर्थिक झटके लगने और सेहत व मेडिकल संसाधनों के क्षरण के बुरे प्रभाव अधिक हैं. इसी कारण से कोविड-19 के चलते दुनिया के संसाधनों पर पड़ा दुष्प्रभाव सीमित लगता है. हालांकि, अलग-अलग देशों में हम इसके बिल्कुल विभिन्न प्रभाव देख पा रहे हैं.[1]

इन सबके बावजूद, हमें इस बात को लेकर सजग रहना चाहिए कि वर्ष 2020 की शुरुआत से दुनिया पर क़हर बरपाने वाली कोविड-19 की महामारी ने दुनियाभर में हो रहे मनोवैज्ञानिक, नैतिक और प्रतीकात्मक बदलावों की रफ़्तार तेज़ कर दी है. और बड़ी तेज़ी से आ रहे इन बदलावों के चलते मानव के अस्तित्व पर गहरे ज़ख़्म बन गए हैं. व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों के नेटवर्क में गहरी दरारें दिखने लगी हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस महामारी से इंसानों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक संबंधों के स्तर पर जो गहरा झटका लगा है, उससे लोगों के बर्ताव में भी ज़बरदस्त परिवर्तन आ गया है.

कोरोना वायरस के प्रकोप की शुरुआत के साथ ही लोगों के जीवन में जो सबसे पहला झटका लगा था, वो ये था कि महामारी की साथ ही आर्थिक उत्पादन की व्यवस्था में भयंकर गिरावट आ गई थी. उत्पादन की इकाइयों को लॉकडाउन के चलते बंद कर दिया गया था. लोगों की आवाजाही पर भी तमाम प्रतिबंध लगा दिए गए थे. इसका मक़सद लोगों के बीच आपसी संपर्क को कम करना था, जिससे कि वायरस के संक्रमण की रफ़्तार को कम किया जा सके. इसीलिए लोगों को क्वारंटीन करने और लॉकडाउन के सख़्त उपाय तमाम देशों ने तब से ही शुरू कर दिए थे, जब से संयुक्त राष्ट्र ने 11 मार्च को कोविड-19 को एक वैश्विक महामारी घोषित किया था.

कोरोना वायरस के प्रकोप की शुरुआत के साथ ही लोगों के जीवन में जो सबसे पहला झटका लगा था, वो ये था कि महामारी की साथ ही आर्थिक उत्पादन की व्यवस्था में भयंकर गिरावट आ गई थी. उत्पादन की इकाइयों को लॉकडाउन के चलते बंद कर दिया गया था. लोगों की आवाजाही पर भी तमाम प्रतिबंध लगा दिए गए थे.

लॉकडाउन और अन्य प्रतिबंधों के कारण न केवल आर्थिक एवं सामान के उत्पादन में गिरावट आई थी. बल्कि, लोगों की क्रिएटिविटी, कला और मनोरंजन के क्षेत्र से संबंधित उत्पादकता भी कम हो गई.

हालांकि, अगर हम कोविड-19 की महामारी के दुष्प्रभावों की तुलना इससे पहले की मानव निर्मित आपदाओं और क़ुदरत के क़हर की घटनाओं से करें, तो इस बार इंटरनेट और सोशल मीडिया ने महामारी के दौरान जो भूमिका अदा की, वो बिल्कुल नई थी. जिस समय पूरी दुनिया में लोगों की ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी पर कोविड-19 के बुरे प्रभाव को महसूस किया जा रहा था, तब एक उल्लेखनीय परिवर्तन और होता देखा जा रहा था. और वो था पूरी दुनिया में नई तकनीकों की मांग में तेज़ी से हो रही वृद्धि का परिवर्तन. ख़ासतौर से उन तकनीकों की मांग और बढ़ गई थी, जिनका संबंध सोशल मीडिया और वेब से था.

कोविड-19 की महामारी के दौरान इंटरनेट का इस्तेमाल काफ़ी बढ़ गया है. ख़ासतौर से जैसे-जैसे वायरस का प्रकोप बढ़ा, वैसे-वैसे जानकारी के प्रचार प्रसार के लिए इंटरनेट का उपयोग और इसकी उपयोगिता बढ़ी. इसकी मदद से एक तरफ़ तो महामारी से मुक़ाबला किया जा रहा था और दूसरी ओर इस घातक वायरस से लोगों की ज़िंदगियां बचाने की कोशिश की जा रही थी. इस वायरस को जड़ से पराजित करने के लिए वैक्सीन का विकास भी ज़ोर पकड़ने लगा. दूसरी अहम बात ये हुई कि इंटरनेट का उपयोग सिर्फ़ जानकारी हासिल करने के लिए नहीं बढ़ा. बल्कि लगातार नई से नई जानकारी प्राप्त करने के लिए भी लोग इंटरनेट के भरोसे हो गए. इसके अलावा अचानक घर में ही रहने के फ़रमान के कारण, उनके मनोरंजन का साधन भी इंटरनेट ही बन गया.

कोविड-19 की रोकथाम के लिए लगे लॉकडाउन के कारण सामान और अन्य उत्पादनों पर विपरीत प्रभाव पड़ा. और इससे व्यक्तियों, समूहों और छोटे, मध्यम व बड़े आकार के उद्योगों पर भी बुरा असर पड़ा. लेकिन, इसी दौरान इंटरनेट और तकनीकी क्षेत्र की बढ़ती मांग को आपदा में मिले एक अवसर के तौर पर देखा गया. इसे एक बड़ा शुभ संकेत माना गया. कहा गया कि इंटरनेट के इस इस्तेमाल से दूरसंचार क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों और सोशल नेटवर्किंग के कारोबारियों को लॉकडाउन के कारण जो ज़बरदस्त मुनाफ़ा हुआ है, उससे इन कंपनियों के हितों को आने वाले समय में और भी फ़ायदा मिलेगा. क्योंकि लोग नेटवर्किंग के लिए इस नए माध्यम का अधिक से अधिक उपयोग करेंगे.

रिसर्च कंपनी ग्लोबल मार्केट इनसाइस्ट ने पूर्वानुमान लगाया है कि वीडियो कांफ्रेंसिंग उद्योग जो वर्ष 2019 में 14 अरब डॉलर का था. वो वर्ष 2026 तक बढ़ कर 50 अरब डॉलर का हो जाएगा. यानी इस उद्योग में तीन गुने से भी ज़्यादा की वृद्धि होगी.

इन बड़ी कंपनियों ने कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन के दौरान ख़ूब मुनाफ़ा कमाया. क्योंकि इस दौरान इनके ग्राहकों की संख्या भी बढ़ी और उनके संसाधनों का इस्तेमाल भी कई गुना बढ़ गया. मिसाल के तौर पर रिसर्च कंपनी ग्लोबल मार्केट इनसाइस्ट ने पूर्वानुमान लगाया है कि वीडियो कांफ्रेंसिंग उद्योग जो वर्ष 2019 में 14 अरब डॉलर का था. वो वर्ष 2026 तक बढ़ कर 50 अरब डॉलर का हो जाएगा. यानी इस उद्योग में तीन गुने से भी ज़्यादा की वृद्धि होगी.[2]

इस बात को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं कि सोशल मीडिया में किन मुद्दों को लेकर परिचर्चाएं हावी रहीं. वो कैसे विषय, फिल्में और कार्यक्रम रहे जो इस महामारी के दौरान बहुत देखे सुने गए. सवाल ये भी है कि क्या कोविड-19 की महामारी के दौरान सोशल मीडिया नेटवर्क का इस्तेमाल इससे संबंधित जानकारी हासिल करने और इससे जुड़ी जानकारी प्रकाशित करने तक ही सीमित रहा? या फिर क्वारंटीन के दौरान घर पर रहने को मजबूर किए गए लोगों ने अपना समय काटने के लिए सोशल मीडिया नेटवर्क का अधिक उपयोग किया?

इंटरनेट सेवाओं की मांग बढ़ने के साथ-साथ और सोशल मीडिया पर उठाए जाने वाले विषयों की अत्यधिक विविधता के कारण, ये भी देखने में आया कि लोग उन मुद्दों पर भी चर्चा कर रहे थे, जो बेहद ख़तरनाक माने जाते हैं. जैसे कि उग्रवाद और आतंकवाद.

इंटरनेट और सोशल मीडिया में हिंसक कंटेंट पर लोगों का बढ़ता ध्यान सत्ताधारी वर्ग के सामने नई चुनौती बन कर खड़ा हो रहा है. ख़ासतौर से वर्चुअल दुनिया का ये संवाद, वास्तविक धरातल पर उग्रवादी चर्चाओ को बढ़ावा दे रहा है. इसके नतीजे बेहद ख़तरनाक हो सकते हैं. उग्रवादी बयानबाज़ी में आई इस ज़बरदस्त तेज़ी के चलते उन देशों को सबसे अधिक ख़तरा है, जिनका निर्माण बहुलता वाले भाषाई धरातल, विविधता भरी संस्कृति और धार्मिक बहुलता के आधार पर हुआ है. इसीलिए, इन देशों की समृद्धि का कारण बनने के बजाय इस विविधता का इस्तेमाल करके अराजकता और हिंसा को बढ़ावा दिया जा सकता है. हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने ‘कोविड-19 महामारी के आतंकवाद, आतंकवाद निरोधक अभियानों और हिंसक उग्रवाद की रोकथाम के उपायों पर पड़ने वाले प्रभाव’ के नाम से एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट में उन कारकों की पहचान करने की कोशिश की गई है, जिन्होंने कम अवधि के दौरान आतंकवादी समूहों को ये अवसर प्रदान किया है कि वो लोगों को भड़का और भटका कर अपने साथ नए सदस्य जोड़ सकें.[3] इन कारणों में बंधे बंधाए श्रोता. जैसे कि वो एक अरब लोग जो नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, उन्हें निशाना बनाना; कोविड-19 से पैदा हुए माहौल का फ़ायदा उठाकर आतंकवादी समूहों द्वारा अल्पसंख्यकों, सरकारों और अन्य अधिकारियों के ख़िलाफ़ साज़िश की बातों का दुष्प्रचार करना; और महामारी से पैदा हुए मौक़े का लाभ उठाकर आतंकवादी समूहों द्वारा उन क्षेत्रों में सामाजिक सेवा के कार्य करना जहां सरकारी संसाधन नहीं पहुंच पा रहे हैं या जहां तक सरकारी संगठनों की पहुंच पहले से ही कमज़ोर रही है.

इंटरनेट और सोशल मीडिया में हिंसक कंटेंट पर लोगों का बढ़ता ध्यान सत्ताधारी वर्ग के सामने नई चुनौती बन कर खड़ा हो रहा है. ख़ासतौर से वर्चुअल दुनिया का ये संवाद, वास्तविक धरातल पर उग्रवादी चर्चाओ को बढ़ावा दे रहा है. इसके नतीजे बेहद ख़तरनाक हो सकते हैं.

जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने UN की एक रिपोर्ट[4], ‘कोविड-19 और मानवाधिकार: इस संकट के समय हम सब साथ हैं’ को जारी किया. तो, उन्होंने चेतावनी दी थी कि, ‘कोरोना वायरस का कुछ समुदायों पर कुछ अधिक ही बुरा प्रभाव पड़ रहा है. क्योंकि इस दौरान नफ़रत भरे भाषणों में वृद्धि देखी जा रही है.[5] कमज़ोर तबक़ों को निशाना बनाया जा रहा है और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा ज़रूरत से अधिक सख़्ती बरती जा रही है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी उपायों को ही नुक़सान पहुंच रहा है.’ सामने खड़े इस ख़तरे को देखते हुए, निर्णय लेने का एकाधिकार रखने वाले सत्ताधारी वर्ग से ये उम्मीद की जा रही है कि वो सोशल मीडिया पर उग्रवाद और हिंसा का मुक़ाबला करने के लिए आवश्यक क़ानूनी क़दम उठाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे. इन क़ानूनी हथियारों की मदद से ही तमाम समाजों को एकजुट और संरक्षित रखा जा सकेगा, जिससे देश की एकता बनी रहे.

एक ओर ऑनलाइन दुनिया में हिंसक और उग्रवादी कंटेंट में लगातार वृद्धि सरकारों और सुरक्षा एजेंसियों की चिंता बढ़ा रही है. तो, दूसरी ओर नागरिक और सार्वभौम अधिकारों और आज़ादी को लेकर भी लोगों के बीच जागरूकता और दिलचस्पी बढ़ रही है. इस समय एक और चलन बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है कि इंटरनेट के नेटवर्क का इस्तेमाल करके अधिकारों और स्वतंत्रताओं की मांग उठाई जा रही है. मिसाल के तौर पर अमेरिका में ब्लैक लाइव मैटर्स हैशटैग के तहत तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तुरंत ही बहुत से देशों में भारी समर्थन जुटाया जा सका. इससे पहले किसी नए संघर्ष की ख़बर अन्य देश तक पहुंचने में हफ़्तों लग जाया करते थे. क्योंकि इन नए आंदोलनों के बारे में आधिकारिक न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों के माध्यम से ही जानकारी मिल पाती थी.

एक ओर ऑनलाइन दुनिया में हिंसक और उग्रवादी कंटेंट में लगातार वृद्धि सरकारों और सुरक्षा एजेंसियों की चिंता बढ़ा रही है. तो, दूसरी ओर नागरिक और सार्वभौम अधिकारों और आज़ादी को लेकर भी लोगों के बीच जागरूकता और दिलचस्पी बढ़ रही है.

बहुत से देशों में राजनीतिक संस्थाओं ने इंटरनेट में लोगों की दिलचस्पी का इस्तेमाल अपने ग़लत हितों को साधने में भी किया है. उन्होंने उन असाधारण अधिकारों और उपायों का इस्तेमाल अपने हित साधने में किया, जिन्हें इस वायरस का प्रकोप थामने के लिए लागू किया गया था. जैसे कि मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की गतिविधियों की रोकथाम करना. इस संदर्भ में कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने चिंता जताई है कि जिन अधिकारों को अभी हाल के दिनों तक नागरिकों की ज़िंदगी का अटूट हिस्सा माना जाता था, उन्हें एक झटके में छीन लिया गया. संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की अध्यक्ष एलिज़ाबेथ टिशी-फिसलबर्जर ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस को एक रिपोर्ट सौंपी है. इसमें लोगों के अधिकारों के दुनियाभर में हो रहे उल्लंघन के एक बड़े भाग की समीक्षा की गई है. और इस रिपोर्ट में ज़ोर देकर कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र को चाहिए कि वो मानव अधिकारों और सोशल मीडिया पर सक्रिय कार्यकर्ताओं के हितों की रक्षा के लिए जल्द से जल्द एक UN चार्टर विकसित करने का काम करें.[6]

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों के अधिकारों का संरक्षण करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय क़ानून बनाने के प्रस्ताव को पिछले 15 वर्षों से लगातार ख़ारिज किया जाता रहा है. उग्रवादी और हिंसक बयानबाज़ी, लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं का हनन और सोशल मीडिया पर सक्रिय कार्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई इसीलिए हो पा रही है क्योंकि इन लोगों के अधिकारों और सोशल मीडिया इस्तेमाल करने वालों के अधिकारों का संरक्षण करने के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय क़ानून नहीं है.

इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में चौथी औद्योगिक क्रांति के आरंभ से वास्तविक और आभासी यानी वर्चुअल दुनिया का संगम तो पहले से ही हो रहा था. कोविड-19 की महामारी ने इस प्रक्रिया को और भी तेज़ कर दिया है. इसीलिए अब ज़रूरी हो गया है कि ऑनलाइन दुनिया में उठने वाली चुनौतियों के लिए नियम क़ायदे तय कर दिए जाएं. क्योंकि, ये विषय भले ही ऑनलाइन दुनिया में उठ रहे हैं. लेकिन, इनका प्रभाव वास्तविक दुनिया पर भी पड़ रहा है. और हमें इसके गंभीर नतीजे देखने को मिल रहे हैं. कोविड-19 की महामारी और डिजिटल क्रांति ने ये साबित किया है कि इससे हिंसक उग्रवाद और सरकार द्वारा नागरिकों के अधिकारों के दमन की रफ़्तार कई गुना तेज़ हो गई है. बहुत सी सरकारें और सरकारी एजेंसियां भी ख़ुद को मिले असाधारण अधिकारों का दुरुपयोग सार्वजनिक स्वास्थ्य के इस संकट के दौरान कर रही हैं.

इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में चौथी औद्योगिक क्रांति के आरंभ से वास्तविक और आभासी यानी वर्चुअल दुनिया का संगम तो पहले से ही हो रहा था. कोविड-19 की महामारी ने इस प्रक्रिया को और भी तेज़ कर दिया है. इसीलिए अब ज़रूरी हो गया है कि ऑनलाइन दुनिया में उठने वाली चुनौतियों के लिए नियम क़ायदे तय कर दिए जाएं.

अब इससे ये सवाल उठना लाज़मी है कि जब ये महामारी ख़त्म हो जाएगी तब क्या सरकारें और सरकारी संस्थाएं ख़ुद को मिले असाधारण और असीमित अधिकारों को छोड़ने को राज़ी हो जाएंगी? और यही वो अवसर है जब संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों को चाहिए कि वो वास्तविक दुनिया से परे जाकर वर्चुअल वर्ल्ड में भी लोगों के मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए काम करें. ऑनलाइन दुनिया में हिंसक उग्रवाद से निपटने के नाम पर सरकारों को सुरक्षा के इतने सख़्त उपाय करने की भी इजाज़त नहीं दी जा सकती कि जिससे आम नागरिकों के अधिकारों का हनन होने लगे. मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा कोई ऐसा दस्तावेज़ नहीं है, जिसकी क़िस्मत में वक़्त के थपेड़ों के साथ बेकार हो जाने की नियति लिखी गई है. मानव अधिकारों की इस घोषणा को इक्कीसवीं सदी की बदलती हुई वास्तविकताओं के अनुरूप ढालने की आवश्यकता है. बदली हुई परिस्थितियों में संयुक्त राष्ट्र को चाहिए कि वो ऐसे नियम क़ायदों को तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभाए, जिनसे वास्तविक दुनिया ही नहीं वर्चुअल दुनिया में भी लोगों के अधिकारों का संरक्षण किया जा सके. इसके साथ साथ संयुक्त राष्ट्र को चाहिए कि वो नियमों पर आधारित एक ऐसी विश्व व्यवस्था को मज़बूत करे, जिससे कोविड-19 की महामारी ख़त्म होने के बाद स्वतंत्रता के एक नए युग की शुरुआत हो सके.


Endnotes 

[1] Making Better Decisions In Global Health: Understand Positive Outliers To Inform Policy And Practice”, Exemplars. Health.

[2] Preeti Wadhwani and Saloni Gankar, “Video Conferencing Market Size By Component (Hardware [Multipoint Control Unit (MCU), Codecs, Peripheral Devices], Software [On-Premise, Cloud], Service [Professional, Managed]), By Type (Room-Based, Telepresence, Desktop), By Application (Corporate Enterprise, Education, Government, Healthcare), Industry Analysis Report, Regional Outlook, Growth Potential, Competitive Market Share & Forecast, 2020 – 2026”, Global Market Insights, Inc., May 2020. .

[3] The Impact Of The COVID-19 Pandemic On Terrorism, Counter-Terrorism And Countering Violent Extremism”, United Nations Security Council Counter-Terrorism Committee Executive Directorate, June 2020.

[4] COVID-19 and Human Rights, We are all in this together”, United Nations, April 23, 2020.

[5] António Guterres (@antonioguterres), April 23, 2020.

[6] David Kaye, “Disease pandemics and the freedom of opinion and expression – Disease pandemics and the freedom of opinion and expression United Nations, April 23, 2020.

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