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मूल मुद्दा चीन के साथ है जो पूरी दुनिया की-बेसिक ओपन डेमोक्रेटिक राइट्स - की लड़ाई है और यदि यह लड़ाई जीतनी हैं तो उसको लड़ने के एक ही ढंग है, जो हमारे ओपन डेमोक्रेटिक सोसायटी हैं वे ओपन और डेमोक्रेटिक रहकर ही इस लड़ाई को जीते.
आने वाले समय में दुनिया के ताक़तवर देशों के बीच एक नए तरह का शीत युद्ध छिड़ेगा जिसे न्यू टेक कोल्ड वॉर की संज्ञा दी जा रही है. तकनीक के इस बदलते हुए विश्व परिदृश्य में हम यह कह सकते हैं कि आगे आने वाले समय में टेक्नोलॉजी की सबसे ज़्यादा अहमियत रहेगी और जिस देश का टेक्नोलॉजी पर क़ब्ज़ा होगा दुनिया उसी की होगी. ख़ासतौर से कोरोना वायरस जब दुनिया में फैला और अमेरिका इसे वुहान वायरस पुकारने लगा तब यह लड़ाई और तीख़ी हुई है. और आज उसी का परिणाम है कि दुनिया के कई देश हुवावे कंपनी पर प्रतिबंध लगाए हैं. अब देखने वाली बात ये है कि चीन की प्रतिक्रिया इस पर क्या आ रही है? यूरोप के देश इसे कैसे देख रहे हैं? और यह लड़ाई अर्थात् न्यू टेक कोल्ड वॉर कैसे आगे बढ़ेगी?
अमेरिका का हमेशा से ही अपने सभी संगी-साथियों पर दबाव रहा है कि वह चीन की हुवावे कंपनी से अपने संबंधों को तोड़े या कम करें. वास्तव में अमेरिकी एडमिनिस्ट्रेशन चीन के कंपनियों को अपनी सुरक्षा की दृष्टि से एक ख़तरे के रूप में देखती चली जा रही है क्योंकि वो डेटा चुराते हैं, वो जासूसी करती हैं- विशेषकर हुवावे कंपनी को. और यही कारण था कि कुछ दिन पहले अमेरिका द्वॉरा चीन की ह्यूस्टन स्थित वाणिज्य दूतावास को बंद करने का आदेश दिया गया. क्योंकि इसमें भी अमेरिका का दावा है कि दूतावास के अधिकारी अमेरिका के कोरोनावायरस से संबंधित प्रमुख तकनीक (Key Technology), स्पेस रिसर्च और अन्य तरह की टेक्नोलॉजी के चोरी में संलग्न थी. इसलिए उन्हें बंद करने का आदेश दिया गया है. इसके बाद विरोध में चीन ने भी चेंगदू स्थित अमेरिकी वाणिज्य दूतावास को बंद करने का आदेश दिया है. इस तरह से टेक्नोलॉजी वॉर का माहौल लगातार गर्म होता जा रहा है. एक तरफ ट्रंप का चुनावी अभियान है और जिस तरह से उन्होंने कोरोना वायरस को संभाला है उसको लेकर वह अपने आपको एक घेरे में पाते हैं. इसके अलावा अमेरिका में कई तरह के विरोध शुरू हो रहे हैं जैसे ब्लैक लाइव्स मैटर और अमेरिकी सोसाइटी के मूल सिद्धांतों के बारे में प्रश्न उठ रहे हैं. साथ ही साथ अमेरिकी सिविल वॉर में उनके जनरल की जो मूर्तियां लगी हुई थी उन्हें पब्लिक बिल्डिंग से हटाने की प्रक्रिया शुरू हो गई हैं. तो इस समय अमेरिका स्वयं एक द्वंद में है. और ऐसे समय में ट्रंप जब अपने चुनावी अभियान में अमेरिकी नेश्नलिज्म की बात करते हैं तो वो राष्ट्रवाद कहीं न कहीं कमज़ोर होता दिख रहा हैं.
आज यह ख़तरा मंडरा रहा है कि विश्व दो गोलार्धो में बंट सकता हैं- एक चीनी टेक्नोलॉजी का गोलार्ध तथा दूसरा अमेरिका और उसके अन्य सहयोगी देशों को मिला करके एक दूसरा गोलार्ध. इस प्रकार जो दुनिया हमारे सामने आती हैं वो वास्तव में कितना सुदृढ़ होगी, ट्रेड यानी व्यापार के हिसाब से कितना सशक्त होगी
जहां तक चीन से अमेरिका के द्वंध का प्रश्न हैं वो डोनाल्ड ट्रंप के पहले से चल रहा है और इसके आगे चलने के भी आसार दिख रहे हैं. इसी के तहत आज यह ख़तरा मंडरा रहा है कि विश्व दो गोलार्धो में बंट सकता हैं- एक चीनी टेक्नोलॉजी का गोलार्ध तथा दूसरा अमेरिका और उसके अन्य सहयोगी देशों को मिला करके एक दूसरा गोलार्ध. इस प्रकार जो दुनिया हमारे सामने आती हैं वो वास्तव में कितना सुदृढ़ होगी, ट्रेड यानी व्यापार के हिसाब से कितना सशक्त होगी? इसके बारे में कई सारे प्रश्न आज अमेरिका में भी पूछें जा रहे हैं और चीन में भी पूछें जा रहे हैं कि ऐसी दुनिया क्या वास्तव में एक संपन्न दुनिया हो सकती है. तो ख़तरा चीन के लिए भी हैं, ख़तरा अमेरिका के लिए भी हैं और ख़तरा उन देशों के लिए भी बना हुआ हैं जो आजतक एक खुली अर्थव्यवस्था में विश्वास रखता था.
कोरोना वायरस के बाद चीन के खिलाफ अन्य देशों की जो भावना है वह काफी बढ़ी है. अलग-अलग देशों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएं हैं. जहां तक यूरोप की बात है तो चीन यूरोपीय यूनियन, जर्मनी और ब्रिटेन का बहुत बड़ा व्यापारिक साझेदार है. ये देश अभी दुविधा में है. इन देशों के पास अभी यह मज़बूरी है कि आप चीन को चुनेंगे या अमेरिका को चुनेंगे. फ्रांस ने कहा है कि हम अभी पूरी तरह से बैन नहीं करेंगे लेकिन हम अपने कंपनियों को यह कहेंगे कि वह अपने चीजों को ज़्यादा तरजीह दें. इटली भी एक नया सिक्योरिटी कानून लागू कर रहा है. जर्मनी में भी एक तरह से दुविधा की स्थिति बनी हुई है.
वास्तव में आज पूरी तरह से किसी का भी वर्चस्व नहीं है. अगर हम टेक्नोलॉजी वॉर की जड़ों में जाएं तो यह पाते हैं कि चीन की हुवावे कंपनी का उदय 1980 के दशक में एक छोटी सी कंपनी के रूप में हुआ था. उस समय ब्रिटिश टेलीकॉम कंपनियां शिखर पर थे. धीरे-धीरे उनका अवनति होता गया और हुवावे आज एक ऐसी कंपनी बनी जो किसी भी देश को इंड-टू-इंड 5G टेक्नोलॉजी देने के लिए तैयार है. इस कंपनी की यह ख़ासियत है कि जिस कीमत पर यह टेक्नोलॉजी दे देता है उस कीमत पर कोई भी कंपनी देने को तैयार नहीं है.
थोड़ा और गहराई में जाकर देखें तो 1980 के दशक में हम या पाते हैं की रोनाल्ड रीगन ने जापान के साथ एक युद्ध छेड़ा हुआ था. उनका कहना था कि अमेरिका की सेमीकंडक्टर इंडस्ट्रीज़ एक स्ट्रैटेजिक इंडस्ट्रीज़ है और हम इसमें किसी की भी दखलंदाज़ी को बर्दाश्त नहीं करेंगे. और जापान पर उस समय आरोप लगे थे कि वह अनफेयर ट्रेडिंग प्रैक्टिस से सेमीकंडक्टर इंडस्ट्रीज़ पर क़ाबू करना चाहता था. उस समय 100% इंपोर्ट टेरिफ जापानी कंपनियों पर लगाए गए थे. इस प्रकार टेक्नोलॉजी सुप्रीमेसी की लड़ाई बहुत पहले से चलती आ रही है और वास्तव में आज वही लड़ाई-झगड़ा फिर हो रहा है कि सेमीकंडक्टर पर वास्तव में किसका वर्चस्व रहेगा? सेमीकंडक्टर के कई सारे हिस्से होते हैं. आज इसका वेल्यू चेन कई चीजों में फैली हुई है जैसे इक्विपमेंट में फैली हुई है, मैटेरियल में फैली हुई है, सॉफ्टवेयर एक बहुत बड़ा पार्ट है, डिज़ाइनिंग इसका एक बहुत बड़ा आधार है. फिर उस डिज़ाइन के आधार पर इक्विपमेंट बनाना, जोड़ना और उनकी असेंबलिंग करना उनकी टेस्टिंग करने जैसे कई प्रक्रियाओं से होकर गुज़रता है. इस तरह से अलग-अलग देश इस वेल्यू चैन में कहीं ना कहीं स्थित है. इसमें यदि सिर्फ वेल्यू चैन देखा जाए तो अमेरिका और कुछ यूरोपीय कंपनियां सबसे ज़्यादा कमाते हैं — लगभग विश्व की 73%- वेल्यू उनके पास है. पेटेंट उनके पास है. इंटीग्रेटेड डिज़ाइन और केपेबिलिटी वो सब उनके पास हैं. और चीन के पास इसकी आख़िरी पार्ट टेस्टिंग है और यहा पर चीन बड़ा मज़बूत हैं. तो हम देखते हैं कि सेमीकंडक्टर बनता कहीं और हैं, उनकी डिज़ाइनिंग कहीं और तैयार होती है. उसके बाद टेस्टिंग के लिए कहीं और जाता है. तो यह एक पूरी साइकिल है और यदि इसकी एक कड़ी भी टूटती है तो पूरी की पूरी सेमीकंडक्टर इंडस्ट्रीज़ प्रभावित होगी. इसको लेकर जो विरोध सिर्फ़ चीन में ही नहीं बल्कि अमेरिका में भी हो रहा हैं. क्योंकि वेल्यू के टर्म में अमेरिका का सेमीकंडक्टर इंडस्ट्रीज़ पर सबसे बड़ा कब्ज़ा हैं. लेकिन सबसे बड़ा बाजार चीन में है, चीन सबसे ज़्यादा माल खरीदता हैं. तो सबसे ज़्यादा प्रभाव बेचने वाले को पड़ता है या खरीदने वाले को जो टैरिफ लगता है उसका नुक़सान किसको होता है? तो यह द्वंद अमेरिका में भी हो रहा है. यह जो टेक्नोलॉजी का झगड़ा चल रहा हैं इसमें अमेरिका ने बड़ी सोची समझी चाल भी चली हुई है. सेमीकंडक्टर का एक बहुत बड़ा आर्किटेक्चर फैला हुआ है और इसमें जो ईट का काम करता है उस ईट के भट्टे ताइवान में लगे हुए हैं. सेमीकंडक्टर का निर्माण कहीं किया जाता है, उसके लिए डिज़ाइनिंग कहीं होती है, टेक्नोलॉजी कहीं से आती है, उनको बनाने की मशीन अमेरिका से आती है लेकिन ढलाई (फाउंड्री) के काम में आने वाली ईट-भट्टे ताइवान में लगे हुए हैं. लगभग 70% ताइवान से आते हैं. ताइवान को लेकर चीन और अमेरिका के बीच में कई मायनों में क्रिटिकल कंपोनेंट को लेकर अमेरिका ने रोक लगाई है. और अमेरिका ने यह चेतावनी दी है कि कोई भी कंपनी, जो इस तरह का फाउंड्री वर्क कर रही है, अगर वो चीनी कंपनियों को चिप सेमीकंडक्टर सप्लाई करती हैं तो उन्हें इसके लिए लाइसेंस अमेरिका से लेना पड़ेगा. क्योंकि उसमें अमेरिकी इक्विपमेंट का इस्तेमाल होता है. अमेरिका ने एक ऐसी जगह रोक लगा दी हैं जिससे चीनी कंपनियों के हाथ-पैर बंध गए हैं और उनकी जो तेजी से प्रगति हो रही थी उन पर भी अंकुश लगा दिया है
चीन के साथ अमेरिका से जो संबंध है वह ऐसी कगार पर पहुंच चुका है कि वह चाहे डोनाल्ड ट्रंप आए या जो बिडेन ही क्यों न आ जाए. वह कभी ख़त्म नहीं होने वाला है. और टेक्नोलॉजी के वर्चस्व को लेकर यह गतिरोध और भी बढ़ने वाला है. जैसा कि पहले भी जिक्र किया जा चुका है की टेक्नोलॉजी को लेकर गतिरोध ओबामा प्रशासन से ही चलता रहा है
आज के समय में इमर्जिंग मार्केट को लेकर सबसे बड़ा जो द्वंद आने वाला है वो ये कि अंततः जो इमर्जिंग मार्केट है वो किस तरफ जाते हैं. क्योंकि जैसा कि ऊपर बताया गया है कि आगे आने वाले तीन से पांच सालों तक किसी न किसी मायने में चीन पर रोक लगा दिए जाएंगे. ऐसे में हुवावे कंपनी ने होशियारी दिखाते हुए जब यह झगड़ा चल रहा था उसने उस समय 20 बिलियन चिप्स ख़रीदकर रख लिए हैं. उसके पास डेढ़ से दो साल तक के लिए पर्याप्त चिप है. अभी भी उसके पास तीन महीने का समय है. लेकिन समस्या दूसरे तरह की आती है. यदि साल-दो साल तक आप एक ही तरह के चिप का इस्तेमाल करते है तो आप वैसे ही टेक्नोलॉजी में पीछे हो जाते है. तो चीन और उसके कंपनियों के पास अभी कोई रास्ता नहीं हैं. इसके लिए उसे अभी जिन मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों पर अमेरिका का कब्ज़ा है उससे निपटन के लिए चीन को अपने कंपनियों को आगे लाना ही पड़ेगा. हालांकि, चीनी कंपनियों प्रयास कर रही हैं. लेकिन उनकी भी एक सीमांए हैं. वो उस एफिशिएंसी के चिप बनाने में सक्षम नहीं है. वो ज़्यादा से ज़्यादा 13 नैनोमीटर की चिप बनाती हैं. अगर हम MNCs (मल्टी-नैशनल कॉरपोरेशन) को देखे को तो वह पांच नैनोमीटर के चिप बनाते हैं. और आने वाले समय में वो तीन नैनोमीटर की चिप बनाने वाली है. जब तक इक्विपमेंट्स आ नहीं जाता तब तक चीन को थोड़ी समस्या उत्पन्न होगी और दूसरा उसके लिए जो मार्केट खुल रहे थे उसपर धीरे-धीरे अभी रोक लगेगी. जब तक की वो पूरी तरह से सक्षम नहीं हो जाता है. इमर्जिंग मार्केट आज भी दुविधा में है. जहां तक भारत का सवाल है तो उसने काफ़ी हद तक यह फैसला कर दिया है कि वह चीनी टेक्नोलॉजी में बहुत आगे नहीं आएगा. जहां तक हुवावे का संबंध है तो भारत में इसे लेकर कई सारे प्रश्न है.
चीन के साथ अमेरिका से जो संबंध है वह ऐसी कगार पर पहुंच चुका है कि वह चाहे डोनाल्ड ट्रंप आए या जो बिडेन ही क्यों न आ जाए. वह कभी ख़त्म नहीं होने वाला है. और टेक्नोलॉजी के वर्चस्व को लेकर यह गतिरोध और भी बढ़ने वाला है. जैसा कि पहले भी जिक्र किया जा चुका है की टेक्नोलॉजी को लेकर गतिरोध ओबामा प्रशासन से ही चलता रहा है. और अमेरिका द्वारा कई मामलों में चीन पर प्रतिबंध भी लगाए जा चुके हैं. चाहे कुछ भी हो जाए अमेरिका टेक्नोलॉजी पर अपना वर्चस्व खोना नहीं चाहता. लेकिन चीन आज उस स्थिति में पहुंच चुका है कि वह जानता है कि हम किसको चुनौती दे सकते हैं. यह लड़ाई एक अलग मोड़ पर पहुंच चुका है. इसमें चीन की हुवावे और शंघाई जैसी कंपनी अभी चार-पांच साल पीछे हैं. अब यह देखना है कि ये कितने समय में आगे आते हैं.
यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किस तरह की सोसाइटी चाहते हैं. क्या हम ओपन डेमोक्रेटिक सोसायटी चाहते हैं जो कि मुक्त व्यापार के आधार पर चले या हम क्लोज सोसायटी जो स्टेट-लेड कैपिटलिज्म पर आधारित एक चाइनीस मॉडल है उसको लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं
सभी चीजें अपनी-अपनी जगह पर सही है. यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किस तरह की सोसाइटी चाहते हैं. क्या हम ओपन डेमोक्रेटिक सोसायटी चाहते हैं जो कि मुक्त व्यापार के आधार पर चले या हम क्लोज सोसायटी जो स्टेट-लेड कैपिटलिज्म पर आधारित एक चाइनीस मॉडल है उसको लेकर आगे बढ़ना चाहते हैं. हालांकि, चीन ने भी यह समझाने की कोशिश की है कि दूसरा मॉडल भी कामयाब हो सकता है. जहां तक टेक्नोलॉजी का सवाल है या इनोवेशन का सवाल है तो हम भी आगे बढ़ सकते हैं. लेकिन कितने देशों को यह मंज़ूर होगा? कई देश इसे स्वीकार नहीं करते हैं. साथ ही साथ इसमें एक तरफ सिक्योरिटी का डोमिनेंस और दूसरी तरफ ट्रेड और वॉल्यूम पर डोमिनेंस किसका रहेगा वो भी एक बहुत बड़ा पहलू बन जाता है. इन सबके माध्यम से चाहे वह टेक्नोलॉजी हो ट्रेड हो या सिक्योरिटी हो कौन से देश सामरिक रूप से इन सबमें सबसे आगे रहेंगे. यह एक दूसरी तरह की लड़ाई है जो लड़ी जा रही है. इसके परिणाम क्या होंगे, वो भी हम नहीं जानते हैं. वेल्यू सिस्टम एक सोशल वेल्यू सिस्टम की लड़ाई है जिससे हम और आप सभी संबंधित है. लेकिन जो दूसरी सबसे बड़ी लड़ाई हैं उसमे बड़ी-बड़ी ताक़तें, बड़े-बड़े कंपनियां और मिलिट्री हैं उनके अपने हित हैं बड़े-बड़े मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स हैं जो हथियार बेचते हैं. इस तरह से एक मिलाजुला रूप उभर करके सामने आता है लेकिन मूल रूप में है चीन के साथ जो पूरी दुनिया की-बेसिक ओपन डेमोक्रेटिक राइट्स- की लड़ाई है और यदि यह लड़ाई जीतनी हैं तो उसको लड़ने के एक ही ढंग है, वो ये कि जो हमारे ओपन डेमोक्रेटिक सोसायटी हैं वो ओपन और डेमोक्रेटिक रहकर ही इसको जीते. यदि चीन बनकर के हम इस लड़ाई को लड़ते हैं तो हम शुरू करने से पहले ही हार जाएंगे.
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Sunjoy Joshi has a Master’s Degree in English Literature from Allahabad University, India, as well as in Development Studies from University of East Anglia, Norwich. ...
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