Author : Rasheed Kidwai

Published on Oct 04, 2019 Updated 0 Hours ago

गाँधी और उनकी विचारधारा का प्रभाव अभी भी हिंदी सिनेमा पर नज़र आता है. दादा साहेब फाल्के, वी शांताराम, महबूब खान, राज कपूर से लेकर आज के फ़िल्मकार विधु विनोद चोपड़ा, आमिर ख़ान से राजकुमार हीरानी तक दर्जनों फ़िल्मकार हैं, जिनके यहां गाँधीवादी विचारधारा का असर साफ नज़र आता है.

भारतीय सिनेमा पर गाँधी का गहरा प्रभाव नज़र आता है

जिस समय भारत की पहली फ़ीचर फिल्म राजा हरीशचंद्र रिलीज़ हो रही थी, उस वक्त मोहनदास करमचंद गाँधी अपनी मातृभूमि से 7,045 किमी. दूर साउथ अफ्रीका के डर्बन में अपने आख़िरी राजनीतिक अभियान को आकार दे रहे थे. पोरबंदर का यह वकील तब भारत वापसी की तैयारियों में भी जुटा हुआ था.

दशकों बीत गए, गाँधी और उनकी विचारधारा का प्रभाव अभी भी हिंदी सिनेमा पर नज़र आता है. दादा साहेब फाल्के, वी शांताराम, महबूब खान, राज कपूर से लेकर आज के फ़िल्मकार विधु विनोद चोपड़ा, आमिर ख़ानसे राजकुमार हिरानी तक दर्जनों फ़िल्मकार हैं, जिनकी फिल्मों में गाँधीवादी विचारधारा का असर साफ नज़र आता है. यह विचारधारा आज भी सिनेमा व आमजन को प्रभावित करती है.

कैसी विडंबना है कि जिस व्यक्ति ने फिल्म राम राज्य (2 जून 1944 को जुहू, बॉम्बे में गाँधी द्वारा देखी जाने वाली पहली व अंतिम फिल्म) भी पूरी न देखी और अधूरी छोड़ कर बीच में से उठ आया, वह कई फ़िल्मकारों का प्रेरणास्रोत बना. दादा साहेब फाल्के भी उनसे प्रभावित फ़िल्मकारों में से एक थे, जो अपनी संदेशपरक फिल्मों के लिए पहचाने जाते हैं.

भारतीय सिनेमा के 25 साल पूरे हो जाने पर बॉम्बे का एक दैनिक अख़बार गाँधीजी के संदेश का इच्छुक था. सन् 1927 में इससे संबंधित एक प्रश्नावली इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी ने गाँधीजी को भेजी. गाँधीजी के सचिव महादेव भाई देसाई ने इसके उत्तर में स्पष्ट कर दिया कि गाँधीजी की सिनेमा में कोई रूचि नहीं है और वे सिनेमा की प्रशंसा करेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं रखी जानी चाहिए.

गाँधीजी की राजनीतिक सभाएं सर्वधर्म प्रार्थना से शुरू होती थीं, जो लोगों को एक-दूसरे के धर्मों तथा आपसी विविधता का सम्मान करने के लिए प्रेरित करती थीं.

फाल्के, शांताराम, महबूब, राज कपूर व हिरानी आदि की फिल्मों में गाँधी दर्शन के विभिन्न आयाम स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं. इनकी फिल्मों में अहिंसा, प्रेम व बलिदान, हिंदू-मुस्लिम एकता, नगरीय व ग्रामीण जीवन शैली में अंतर, अंधी व्यावसायिकता का विरोध, नारी उद्धार, नैतिक पतन की चिंता जैसे गाँधीवादी मूल्य प्रस्तुत किए जाते रहे हैं. ऐसा लगता नहीं है कि बहुत योजनाबद्ध ढंग से इन फ़िल्मकारों ने गाँधी दर्शन को आत्मसात् किया, बल्कि यह गाँधी संदेश का अपरोक्ष प्रभाव था, जो उनकी फिल्मों में उतर आया और व्यावसायिक सफलता का सूत्र भी बना. गाँधीवाद आख़िरकार जन-जन के मानस में जो बस गया था.

देश में पहली फिल्म रिलीज़ होने वाले दशक (1913-1922) में 90 से ज्यादा फिल्में बनाई गईं. उनमें से ज्यादातर धार्मिक, पौराणिक कथाओं पर आधारित थीं. अपने राजनीतिक व सामाजिक आंदोलनों में गाँधी इसी विचारधारा को एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में उदारवादी दृष्टिकोण के साथ इस्तेमाल कर रहे थे. उन दिनों सिनेमा हॉल नहीं हुआ करते थे. सूर्यास्त के बाद एक टेंट में फिल्में चलाई जाती थीं. इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों के दर्शक फिल्म देखने के बाद अंधेरे में पैदल वापस अपने घर जाते थे.

फिल्म इतिहासकार, वितरक, फिल्म निर्माता और लेखक जयप्रकाश चौकसे के अनुसार भारतीय सिनेमा के पहले चरण में सिनेमाघरों का विस्तार होने लगा था. फिल्मों की मदद से आम जनता अपने भय व शंकाओं पर धार्मिक, नैतिक विचारों की मदद से विजय पाने के जतन में लगी थी. इसमें गाँधी के विचार व आंदोलन ख़ासे सहायक थे, क्योंकि गाँधी भी इसी राह के पथिक थे. वे यह भी कहते हैं कि गाँधीजी ने अंगरेज़ों के विरुद्ध अपने आंदोलनों में धर्म व मिथकों का बख़ूबी इस्तेमाल किया था. गाँधीजी की राजनीतिक सभाएं सर्वधर्म प्रार्थना से शुरू होती थीं, जो लोगों को एक-दूसरे के धर्मों तथा आपसी विविधता का सम्मान करने के लिए प्रेरित करती थीं. समकालीन हिंदी फिल्मों में भी इन विचारों का बहुत उपयोग किया गया. इसी के सहारे बहुत से फ़िल्मकार ऊंचे मुकाम तक पहुंचे.

गोल मेज़ सम्मेलन में भाग लेने महात्मा लंदन पहुंचे थे और उन्होंने वहां के एक महंगे होटल में ठहरने से इंकार कर दिया. इसके बजाय उन्होंने पूर्वी लंदन स्थित किंग्सले हॉल में कामगार श्रेणी के लोगों के साथ रहना पसंद किया.

प्रख्यात लेखक, फ़िल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास सहित कई लोगों ने गाँधीजी को सिनेमा के वृहत प्रभाव से अवगत कराने की कोशिश की. उन्हें बताया कि आम जनों के मानस पर सिनेमा का बहुत गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ता है, लेकिन इस माध्यम को संदेह की नज़र से देखने वाले बापू ने अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए फिल्मों के बजाय प्रिंट मीडिया को ही तरजीह़ दी.

14 मार्च 1931 को भारत में पहली बोलती फिल्म अर्देशिर ईरानी की आलम आरा प्रदर्शित होने के बाद सिनेमा का प्रभाव निश्चित ही और व्यापक हो गया. इसके कुछ समय बाद ही अर्थात सितंबर 1931 में गाँधी व चार्ली चैपलीन की लंदन में अकस्मात भेंट हो गई. पांच साल बाद 1936 में चैपलिन ने अपनी विख्य़ात कृति मॉडर्न टाइम्स प्रस्तुत की. इसमें मशीनीकरण के कारण मेहनतकशों को हो रहे नुकसान का सटीक चित्रण किया गया था कि किस प्रकार मशीनें इंसान की जगह लेती जा रही हैं. एक तरह से देखा जाए तो यह गाँधी द्वारा किए जा रहे मशीनीकरण के विरोध की ही प्रस्तुति थी.

गाँधी और चैपलिन की यह भेंट भारतीय इतिहास में एक दूसरी वजह से भी यादगार रहेगी. बीबीसी रेडियो 4 के एक कार्यक्रम ‘मेकिंग हिस्ट्रीः गाँधी एंड चैपलिन’ के मुताबिक दूसरे गोल मेज़ सम्मेलन में भाग लेने महात्मा लंदन पहुंचे थे और उन्होंने वहां के एक महंगे होटल में ठहरने से इंकार कर दिया. इसके बजाय उन्होंने पूर्वी लंदन स्थित किंग्सले हॉल में कामगार श्रेणी के लोगों के साथ रहना पसंद किया. द किंग्सले हॉल कम्यूनिटी सेंटर म्यूरियल लीस्टर चलाती थीं. युद्ध विरोधी ईसाई महिला लीस्टर 1925 में गाँधी आश्रम भी आ चुकी थीं.

महिला सशक्तिकरण की बात उठाती फिल्मों पर भी गाँधी का प्रभाव देखा जा सकता है. उदाहरण के तौर पर 1936 में बनी शांताराम की अमर ज्योति में हीरोइन अपने शराबी पति को ठीक करने का बीड़ा उठाती है. पुरुष प्रधान समाज में यह एक इंकलाबी विचार था, जो गाँधी की शिक्षा पर आधारित है.

1932 में प्रकाशित अपनी पुस्तक एंटरटैनिंग गाँधी में लीस्टर ने गाँधी व चैपलिन की मुलाकात का प्रसंग बयान किया है. मेरे दिमाग में वह दृश्य बिल्कुल स्पष्ट है लिखते हुए उन्होंने बताया: “मि. गाँधी अपने हाथों में एक टेलिग्राम लिए ध्यानमग्न से बैठे थे. उनको घेरे बैठे सहायकगण किसी उत्तर की आशा में थे. जैसे ही मैं अंदर दाखिल हुई, एक भारी आवाज से वहां की खामोशी भंग हुई, उससे मिलने का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि वह तो एक विदूषक है. इस भेंट को रद्द करने के लिए टेलिग्राम संबंधित सहायक की ओर बढ़ा दिया गया, तब मैंने उस पर लिखा नाम देखा. लेकिन आप इन्हें जानते हैं बापू? मैंने कौतूहल से पूछा, नहीं उन्होंने सपाट लहज़े में कहा और जानकारी के लिए मेरी ओर देखने लगे, जो उनके सहयोगी उन्हें नहीं दे सकते थे. चार्ली चैपलिन! विश्वविख्यात हीरो. आपको उनसे ज़रूर मिलना चाहिए. उनके काम का आधार आम लोगों का जीवन है. वे ग़रीबों को उसी तरह समझते हैं, जिस तरह आप समझते हैं. अपनी फिल्मों में वे सदैव उन्हें बहुत मान देते हैं. तब 22 सितंबर 1931 को कैनिंग टाउन के बेकटन रोड स्थित डॉ. कटियाल के निवास पर स्थानीय लोगों को दो विभूतियों के स्वागत का गौरव प्राप्त हुआ.”

महिला सशक्तिकरण की बात उठाती फिल्मों पर भी गाँधी का प्रभाव देखा जा सकता है. उदाहरण के तौर पर 1936 में बनी शांताराम की अमर ज्योति में हीरोइन अपने शराबी पति को ठीक करने का बीड़ा उठाती है. पुरुष प्रधान समाज में यह एक इंकलाबी विचार था, जो गाँधी की शिक्षा पर आधारित है.

1990 के दशक में आर्थिक उदारवाद की प्रक्रिया ने सिनेमा के प्रति आम-जन की धारणाएं भी बदल दीं. सिने प्रेमियों के लिए सादा जीवन उच्च विचार जैसे महात्मा के विचारों का कोई ख़ास महत्व नहीं रहा. इसी तरह गाँधी पर बनाई गई फिल्मों को भी दर्शकों का कोई खास रिस्पॉन्स नहीं मिला. हालांकि सर रिचर्ड एटनबरो की गाँधी (1982) इस मामले में अपवाद है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की यह फिल्म ख़ासी सफल रही. इसके 14 साल बाद श्याम बेनेगल द्वारा बनाई गई  मेकिंग ऑफ द महात्मा (1996) असफल रही. इसके बाद कमल हसन की हे राम (2000) का भी यही हाल हुआ, हालांकि इसमें गाँधी की भूमिका सशक्त अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने निभाई थी. अलबत्ता राजकुमार हिरानी ने ज़रूर चतुराई भरा काम लिया और गाँधी के आदर्शों को लगे रहे मुन्ना भाई (2006) में बहुत दिलचस्प अंदाज़ में पेश किया, जिसे दर्शकों ने ख़ासा पसंद किया. नतीजतन फिल्म सुपरहिट रही.

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