Published on Jan 04, 2019 Updated 0 Hours ago

भारत सरकार द्वारा संसद में लाए गए सरोगेसी (नियमन) विधेयक में क्या कमियां हैं?

सरोगेसी विधेयक: जरूरत भारी, पर दूर नहीं हुई बीमारी

लोकसभा में 19 दिसंबर 2018 को ध्वनि मत से पारित किए गए सरोगेसी (नियमन) विधेयक, 2016 में कई पेंच बचे रह गए हैं। साथ ही सरोगेसी से जुड़े कई जटिल सवालों का जवाब इसमें अनुत्तरित छोड़ दिए गए हैं। यह बिल व्यावसायिक सरोगेसी पर तो प्रभावी तौर पर प्रतिबंध लगाने में कामयाब दिखाई दे रहा है, लेकिन सरोगेट मां और बच्चे दोनों के ही कल्याण और सुरक्षा से जुड़े व्यापक सामाजिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और आर्थिक मुद्दों को प्रभावी रूप से हल करने में नाकाम दिखाई देता है।

सरोगेसी ऐसी विधि है जिसकी मदद से वे युगल, जिनकी अपनी जैविक संतान नहीं हो या जिसका ऐसा बच्चा हो जो मानसिक रूप से अक्षम हो या किसी जानलेवा बीमारी से पीड़ित हो, वे एक सरोगेट मां का चयन कर सकते हैं, जो उनके बच्चे को अपनी कोख में रखती है। सरोगेसी की यह व्यवस्था व्यावसायिक और परोपकारी दोनों तरह की होती है। व्यावसायिक सरोगेसी में एक ऐसा समझौता किया जाता है जिसके तहत सरोगेट मां को गर्भावस्था के दौरान के मेडिकल खर्च के अलावा मुआवजे के तौर पर धन भी दिया जाता है। जबकि परोपकार के इरादे से किए जाने वाले सरोगेसी में सरोगेट मां को किसी भी तरह के आर्थिक मुआवजे का प्रावधान नहीं होता है। 2015 में भारत सरकार ने विदेशियों के लिए सरोगेट मां के जरिए बच्चा हासिल करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय से ही सरोगेसी को ले कर विवाद चल रहा है और नैतिकता के आधार पर इसको ले कर अदालतों में बहस जारी है। देश में व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रभावी अंकुश लगाने वाला कानूनी ढांचा मौजूद नहीं रहा है। इस कमी को सरोगेसी (नियमन) विधेयक के जरिए दूर करने की कोशिश की गई है जबकि परोपराक के लिए होने वाले सरोगेसी को कानूनी मान्यता दी जा रही है। बिना कानूनी ढांचे के इस समय व्यावसायिक सरोगेसी में सरोगेट मां का काम करने वाली गरीब महिलाओं का शोषण होता है।

बिल में यह अनिवार्य किया गया है कि सरोगेट मां इच्छुक दंपति की निकट रिश्तेदार होनी चाहिए, पहले से उसका अपना बच्चा होना चाहिए और वह 25 से 35 वर्ष के बीच की आयु की होनी चाहिए।

परोपकारी सरोगेसी में सरोगेट मां को उस दौरान होने वाले मेडिकल खर्च के अलावा किसी भी तरह के आर्थिक मुआवजे के भुगतान के बिना ही बच्चे का जिम्मा संबंधित दंपति को सौंप देना होता है। बिल में यह भी स्पष्ट किया गया है कि सरोगेसी के बारे में किसी भी तरह का वित्तीय भुगतान या विज्ञापन दंडनीय अपराध होगा।

विधेयक के मुताबिक, ऐसी इच्छा रखने वाले युगल भारतीय होने चाहिएं, ये विपरीत लिंग के युगल होने चाहिएं और जिनका विवाह कम से कम पांच साल पहले हुआ हो। इस विधेयक में एलजीबीटीक्यूआई प्लस समुदाय, एकल अभिभावक या लिव-इन रिश्ते में रहने वाले जोड़ों के लिए इस विकल्प को पूरी तरह दूर रखा गया है। इस विधेयक में बहुत से लोगों को उनकी वैवाहिक स्थिति, लैंगिक और यौन पहचान व रुचि आदि के आधार पर मनमाने रूप से सरोगेसी से दूर किया गया है।

यह विधेयक इस बात को भी स्पष्ट करने में नाकाम रहा है कि निकट रिश्तेदार या मित्र, जो संभावित सरोगेट मां बनने को तैयार है, उसने वाकई अपनी सच्ची सहमति दी है या उसे किसी तरह की जोर-जबरदस्ती कर के या पारिवारिक दबाव की वजह से तो तैयार नहीं किया गया है।

हालांकि बिल में सरोगेट मां को मेडिकल खर्च उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की गई है, लेकिन इसमें गर्भाधारण और प्रसव के उपरांत होने वाले जटिल मानसिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक श्रम पर ध्यान नहीं दिया गया है। विधेयक में प्रस्ताव किया गया है कि मेडिकल खर्च का ध्यान रखा जाएगा, लेकिन कहीं भी सरोगेट मां के मानसिक स्वास्थ्य की बात नहीं की गई है। नि:संतान दंपति को ‘प्यार का तोहफा’ देने वाली सरोगेट मां पर ध्यान देने वाले रैगोन के अध्ययन के मुताबिक, 26 फीसदी संभावित सरोगेट मां उससे पहले अपना गर्भपात करवा चुकी होती है। इसमें यह भी बताया गया है कि सरोगेट गर्भावस्था के दौरान मां और उसके भ्रूण के बीच किस तरह भावनात्मक जुड़ाव पैदा हो जाता है, जो आगे चल कर मनोवैज्ञानिक और दैहिक जुड़ाव को भी बढ़ावा देता है। ऐसे भी बहुत से मामले सामने आए हैं जहां सरोगेट मां अपने जैविक बच्चे को सौंपने से इंकार कर देती हैं। उदाहरण के तौर पर बेबी एम का मामला लिया जा सकता है जिसमें बच्चे के अधिकार को ले कर लंबी और गंदी कानूनी लड़ाई चली थी। गर्भावास्था सरोगेट मां के मनोविज्ञान को प्रभावित करती है और वह अपने पेट से पैदा होने वाले बच्चे के खुद से दूर हो जाने के बोझ से प्रभावित होती रहती है।

व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध से ऐसा प्रतीत होता है कि विधेयक में महिलाओं के शारीरिक शोषण पर रोक लगती है। लेकिन विधेयक समाज में महिलाओं की भूमिका को ले कर कई धारणाएं बनाता है। इस विधेयक में उस पारंपरिक धारणा को बल दिया जा रहा है जिसमें महिला को स्वभाविक रूप से बिना स्वार्थ के बच्चों का पालन-पोषण करने वाली माना गया है। इस खास धारणा को परोपकार की ओट में प्रचारित और प्रकाशित किया गया है। हालांकि मौलिक आर्थिक लेन-देन का केंद्र परिवार होता है, लेकिन घरेलू गतिविधियों, देख-भाल और बच्चे को गर्भ में पालने जैसी गतिविधियों को पूरी तरह से भावनात्मक माना गया है जो आर्थिक पहलू से दूर होती हैं। सरोगेट मां को जिस परिश्रम से गुजरना पड़ता है, उसे एक अलग श्रम के तौर पर देखा गया है और इससे जुड़े खतरों को उपेक्षित कर दिया गया है। जैसा कि रोसेली बेर ने संक्षेप में कहा है: “संतानहीन मां की समस्या ज्यादा बड़ी होती है या फिर सरोगेट मां की, जिसे अपनी कोख में पलने वाले बच्चे को किसी और को सौंपना पड़ता है, इस सवाल का जवाब तब आसानी से मिल जाता है जब सरोगेट मां में से एक व्यक्ति को हटा दिया जाता है और उसे महज एक कोख के रूप में देखा जाता है जो किराए पर उपलब्ध है।” यह विधेयक इस लिहाज से इस बात को मान कर चलता है कि एक महिला के अंदर सरोगेट मां के तौर पर सेवा देने की इच्छा प्राकृतिक रूप से मौजूद होती है और ऐसा वह पूरी तरह से प्रेम की भावना से करती है। मेडिकल मुआवजे का बिंदु ना तो कांट्रैक्ट में बहुत स्पष्ट है और ना ही कथित लिखित सहमति में, जो सरोगेट मां से हासिल की जाती है। इस तह सरोगेट मां के शोषण की पर्याप्त गुंजाइश बची रहती है। 

कांट्रैक्ट और लिखित सहमति के लिहाज से अन्य महत्वपूर्ण चिंता गर्भपात से संबंधित है। अगर सरोगेट मां को पता चलता है कि गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई दोष है या गर्भ अथवा अपने लिए कोई मेडिकल समस्या का पता चलता है तो ऐसी स्थिति में क्या होगा?

विधेयक में विशेष तौर पर कहा गया है कि सरोगेसी की अवधि के दौरान गर्भपात के लिए उपयुक्त अधिकारी से अनुमति लेनी होगी। अधिकारी से यह अनुमति एमटीपी एक्ट, 1971 में किए गए प्रावधानों के साथ तालमेल रखते हुए लेनी होगी, जो गर्भपात के आधारों के बारे में कानूनी प्रावधान सुनिश्चित करता है। एमटीपी एक्ट के मुताबिक, अदालत गर्भवती महिला की गर्भपात की सहमति को तभी स्वीकार करता है जब भ्रूण में कोई गड़बड़ी हो। सरोगेसी के मामले में जिन दंपति के लिए बच्चा पैदा किया जाना होता है, उसकी सहमति को इस संबंध में फैसला लेने की प्रक्रिया में कोई जगह नहीं दी गई है।

सरोगेसी की प्रक्रिया के दौरान किसी मध्यस्थ को शामिल किए जाने का मतलब है कि सरोगेट मां को धोखा दिया गया है। जन्म के बाद उचित मेडिकल सुविधा, अच्छे स्वास्थ्य केंद्रों का अभाव आदि ऐसे मौलिक मुद्दे हैं जो अब तक हल नहीं हुए हैं। यह विधेयक सरोगेसी अवधि के बाद के काल के लिए बीमा का प्रावधान करने में नाकाम रहता है। साथ ही यह प्रसव के बाद के तनाव संबंधी बीमारियों और दूसरे शारीरिक और मानसिक लक्षणों के लिए कोई प्रावधान नहीं करता। मौजूदा परिस्थिति की मांग है कि सरोगेट मां की भूमिका निभाने वाली महिला के शारीरिक, मानसिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा की जाए और किसी भी शारीरिक, भावनात्मक और वित्तीय जरूरत का ध्यान रखा जाए। सरोगेट मां की भूमिका निभाने वाली महिला को सारी सूचना हासिल कर के फैसले लेने का अधिकार है। इसमें बच्चे पैदा करने संबंधी अपनी स्वायत्तता, इस तकनीकी के तहत होने वाले शरीर के प्रभाव, स्वास्थ्य का उसका अधिकार और प्रसव पर अपने अधिकार आदि शामिल हैं। सिर्फ व्यावसायिक सरोगेसी को बंद कर देने से शोषण की आशंका समाप्त नहीं हो जाती है। वास्तविकता तो यह है कि जटिल सामाजिक-शारीरिक और सामाजिक-मनोवैज्ञानिक मुद्दों को सुलझाने के प्रयास तक नहीं किए गए हैं साथ ही सरोगेसी से जुड़े नैतिक मुद्दों को भी नजरअंदाज कर दिया गया है। नि:संतान विवाहित दंपतियों की ओर से गोद ले कर बच्चों को अपनाने की शानदार प्रक्रिया को भी यह विधेयक लंबे समय में नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।


स्पृहा शुक्ला ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, मुंबई में शोध इंटर्न हैं। विमन स्टडीज में एमफिल करने के बाद, वे इस समय टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से पीएचडी कर रही हैं।

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