Published on Sep 12, 2020 Updated 0 Hours ago

राजनीतिक इतिहास रचते हुए महिंदा राजपक्षे ने श्रीलंका में अपनी संसदीय सीट पर पांच लाख से ज़्यादा वोट हासिल किए.

श्रीलंका: महिंदा राजपक्षे की सत्ता में वापसी के साथ, नई सरकार की विदेश नीति पर नज़र

“महामारी के दौर में भी अपने मताधिकार का इस्तेमाल करने की श्रीलंका की दमदार क्षमता अप्रभावित रही है. भले ही हममें से कोई किसी दल का समर्थन करता हो, हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के तौर पर गर्व कर सकते हैं.”- नमल राजपक्षे, प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के सबसे बड़े बेटे और हम्बनटोटा से सांसद

“कितने नेता सचमुच अपने देश की सेवा के लिए अंदर से चाहत महसूस करते हैं? बदलाव लाने की अपनी इच्छा में कितने एकदम निःस्वार्थ हैं? संभवतः इसका जवाब है बहुत ज्यादा नहीं.” किताब द केक दैट वाज़ बेक्ड एट होम, जो कि कादिरगमर की इकलौती जीवनी है, में विद्वान विदेश मंत्री लक्ष्मण कादिरगमर की बेटी अजिता ने यह लिखा है. कादिरगमर ने 62 साल की उम्र में राजनीति में आने के बाद, 15 साल पहले 12 अगस्त 2005 को उनकी त्रासद हत्या किए जाने तक देश को विदेशी मामलों में महत्वपूर्ण बढ़त दिलाई थी. जिस दिन स्नाइपर ने उनके घर पर गोली ने मारकर उनकी हत्या की, अपने आखिरी दिन, विदेश मंत्री के रूप में उनका अंतिम काम एक अकादमिक शुरुआत थी. कादिरगमर ने उस दिन कोलंबों में एक राजनयिक अकादमी बीसीआईएस में पहली अंतरराष्ट्रीय संबंध पत्रिका का शुभारंभ किया था, तब उनके साथ श्रीलंका के निकटतम पड़ोसी भारत की उच्चायुक्त निरुपमा राव भी मौजूद थीं. विदेश मंत्री इंटरनेशनल रिलेशंस नाम की पत्रिका के मुख्य संपादक थे, और वैश्वीकरण के दौर में देश के लिए विदेश नीति निर्माण में शोध को एक अभिन्न घटक के रूप में मान्यता देते थे. कोलंबो में देशभक्ति और एक राष्ट्र की लोकतंत्र की सेवा करने की निःस्वार्थ इच्छा, अपनी अंतिम सांस तक लोकाचार का पालन, देश की संसद के लिए नवनिर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा पालन किए जाने के लिए आदर्श मूल्य हो सकते हैं.

कादिरगमर ने उस दिन कोलंबों में एक राजनयिक अकादमी बीसीआईएस में पहली अंतरराष्ट्रीय संबंध पत्रिका का शुभारंभ किया था, तब उनके साथ श्रीलंका के निकटतम पड़ोसी भारत की उच्चायुक्त निरुपमा राव भी मौजूद थीं.

राजनीतिक इतिहास रचते हुए, विजयी महिंदा राजपक्षे ने श्रीलंका में अपनी संसदीय सीट पर पांच लाख से ज़्यादा वोट हासिल किए. जनता ने सरकार के कोविड-19 के सफल प्रबंधन पर भरोसा किया और संसदीय चुनाव 2020 महामारी के बीच 70 फ़ीसद से ज़्यादा मतदान के साथ संपन्न हुआ. दक्षिण एशियाई क्षेत्र में इस चुनौतीपूर्ण माहौल में चुनाव कराने वाला श्रीलंका पहला राष्ट्र है. राजपक्षे ने 145+5 सीटों के साथ दो तिहाई संसदीय सीटें हासिल कीं, जबकि समागी जन बलवेगया (एसजेबी) को 54 सीटें मिलीं जो कि पुराने बड़े राजनीतिक दल यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) से अलग हुआ गुट है. पूर्व प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे के नेतृत्व में यूएनपी एक सीट पर सिमट गई. अपने सात दशक के राजनीतिक इतिहास में यह इसकी सबसे बड़ी हार है. 2016 में बनी राजपक्षे की राजनीतिक पार्टी श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना (एसएलपीपी) को इतने कम समय में ऐसा विशाल बहुमत संभवत: पर्दे के पीछे काम करने वाले राजनीतिक रणनीतिकार राष्ट्रपति राजपक्षे के भाई बासिल राजपक्षे के चलते मिला.

पिछले संसदीय चुनाव के दौरान 2015 में राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना के यूएलपी के साथ गठबंधन के कारण एसएलएफपी का विभाजन चर्चित ख़बर थी. मौजूदा परिप्रेक्ष्य में यह ऐसा है मानो पूरी कवायद यूएनपी के खिलाफ गई, यूएनपी दोफाड़ हो गई, उसका मतदाता आधार ख़त्म हो गया और पिछली सिरीसेना-विक्रमसिंघे सरकार के दौरान पारित किए गए 19ए को ख़त्म करने के लिए संवैधानिक संशोधन का मार्ग प्रशस्त किया, जिसने महिंदा राजपक्षे की सत्ता में वापसी सुनिश्चित की. पांच साल पहले सत्ता से बेदखल किए गए महिंदा राजपक्षे मामूली बहुमत से नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक राजनीतिक जीत के साथ वापस लौटे हैं. यह सिरिसेना-विक्रमसिंघे गठजोड़ मॉडल का निरर्थक प्रयोग और श्रीलंकाई मतदाता आधार की भारी उथल-पुथल दिखाता है, जो थोड़े ही समय में एक छोर से दूसरे छोर तक खिसक सकता है.

पांच साल पहले सत्ता से बेदखल किए गए महिंदा राजपक्षे मामूली बहुमत से नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक राजनीतिक जीत के साथ वापस लौटे हैं.

श्रीलंका की राजनीति में ऐसा पहली बार है कि सरकार की दो शाखाएं- कार्यपालिका और विधायिका दो सगे भाइयों, गोटबाया और महिंदा राजपक्षे द्वारा शासित हैं. दो शाखाओं की अत्यधिक केंद्रीकृत शक्ति के प्रयोग में संतुलन के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की शुरुआती राजनीतिक चुनौती से सामना होगा. श्रीलंका में त्रि-शासन मॉडल के तीनों अंगों- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में शक्तियों के बंटवारे की संविधान में व्याख्या की गई है, व्यावहारिक रूप से दो शाखाओं कार्यपालिका और विधायिका को पहली बार दो भाइयों द्वारा चलाया जाएगा. दो-तिहाई बहुमत के साथ प्रधानमंत्री को अपने उत्तरदायित्व को और ज़्यादा ज़िम्मेदारी के साथ निभाने की ज़रूरत होगी, जो भाई की तरफ़दारी को छोड़कर शाखाओं की आज़ादी की रक्षा करता हो. इसलिए यह ज़रूरी है कि लोकतंत्र को और मज़बूत करने के लिए दो भाइयों के शासन में संतुलन को शुरुआती चरण से ही मज़बूत किया जाए.

18वीं सदी के राजनीतिक विचारक मोंटेस्क्यू ने अपनी किताब द स्पिरिट ऑफ लॉज़ (1748) में यह विचार रखा कि शाखाओं के बीच राजनीतिक शक्तियों का बंटवारा एक ऐसी सरकार के लिए ज़रूरी है जिसकी शक्तियां एक शासक में अत्यधिक केंद्रीकृत न हों, “अगर विधायिका और कार्यपालिकी की शक्तियां एक ही व्यक्ति या अधिशासी में केंद्रित हैं, तो कोई आज़ादी नहीं हो सकती है.” टाइम पत्रिका ने एक हालिया लेख में आगामी संवैधानिक संशोधन को लेकर भाइयों में टकराव को लेकर भविष्यवाणी की है. “राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे उन बदलावों पर जोर दे रहे हैं, जो प्रधानमंत्री की कीमत पर राष्ट्रपति की शक्ति को मज़बूत करेंगे, जो टकराव को बढ़ावा दे सकते हैं.” हालांकि शक्तियों का पृथक्करण दोनों के बीच एक सहज मोड़ लेगा और भाइयों के बीच गहरी समझदारी के चलते टकराव की ओर नहीं बढ़ेगा. तमिल टाइगर्स के खिलाफ लड़ाई के दौरान ऐसा ही देखने को मिला था, दोनों के बीच गहरा बंधन और समझदारी 2009 में युद्ध में विजय का एक बुनियादी कारण था.

शक्ति के पृथक्करण के महत्व को देखते हुए, ऑक्सफ़ोर्ड से शिक्षित कानून के प्रोफेसर जीएल पाइरिस, जो एसएलपीपी के अध्यक्ष हैं और युद्ध के बाद की महिंदा राजपक्षे सरकार के विदेश मंत्री थे, सावधान करते हुए कहते हैं कि दो-तिहाई विशाल बहुमत हासिल करने से सरकार को ‘’अदूरदर्शी और स्वार्थी तरीके से”  काम करने का ब्लैंक चेक नहीं मिल गया है. पाइरिस ने लिखा है कि दो तिहाई बहुमत बड़ी ज़िम्मेदारियों के साथ जुड़ा है. आगे निगरानी और संतुलन के बारे में बताते हुए वह कहते हैं कि कमजोर विपक्ष सरकार को खुद अपने प्रदर्शन की समीक्षा करने पर मजबूर करेगा, उनका कहना है कि इसे ज़रूरी तौर पर अपने फैसलों और नीतियों की खुद पड़ताल करनी चाहिए. “यह सरकार को अपनी समीक्षा के लिए मजबूर करेगा. मुझे यकीन है कि हमें संसद में निगरानी समितियों को ताक़तवर बनाने की ज़रूरत होगी. हमारा मानना ​​है कि इन समितियों में विपक्षी सदस्य मज़बूत जवाबदेही सुनिश्चित करेंगे.” 22 चुनावी जिलों में से 18 में जीत और लगभग 60% वोट एक राजनीतिक दल की ओर चले जाने पर प्रोफेसर का कहना सही है कि विशाल शासनादेश के साथ निगरानी और संतुलन से कठोर जवाबदेही पर ध्यान केंद्रित करना होगा. श्रीलंका के राजनीतिक इतिहास में राष्ट्रपति जे. आर जयवर्धने द्वारा 1978 में दो-तिहाई बहुमत हासिल करने के बाद सत्ता के दुरुपयोग की घटनाएं हुई थीं. देश को उसी रास्ते पर फिर से चलने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुधारने और आगे बढ़ाने में मदद करने की ज़रूरत है.

कमजोर विपक्ष सरकार को खुद अपने प्रदर्शन की समीक्षा करने पर मजबूर करेगा, उनका कहना है कि इसे ज़रूरी तौर पर अपने फैसलों और नीतियों की खुद पड़ताल करनी चाहिए.

चुनावी जनादेश के साथ राजपक्षे भाइयों के सामने चार चुनौतियां होंगी. कई पश्चिमी मीडिया संगठनों की नकारात्मक रिपोर्टिंग में विशाल जनादेश के कारण लोकतंत्र के खात्मे की भविष्यवाणी के बीच राजपक्षे भाइयों को अपने काम से इसे झूठा साबित करना होगा. उनको मिला घरेलू राजनीतिक जनादेश लोकतांत्रिक मूल्यों को समृद्ध करने के लिए है, न कि तानाशाही शासन के रास्ता पर जाने के लिए. संविधान संशोधन ब्रेन सर्जरी की तरह सटीक, दूरगामी सोच, शक्तियों के पृथक्करण, निगरानी और संतुलन में सुधार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मज़बूत करने और राष्ट्र की संप्रभुता को सुरक्षित रखने के साथ किया जाना चाहिए. दूसरे, संकट में घिरी अर्थव्यवस्था में जान फूंकनी होगी, जो वैश्विक मंदी को झेलते हुए इस समय 3% आर्थिक विकास दर से नीचे है. तीसरा, अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में मानवाधिकार को लेकर चर्चा का सामना करना व समाधान निकालना और सुलह प्रक्रिया को मज़बूत करना. और अंत में, एक अत्यधिक प्रतिस्पर्धा वाले वैश्विक शक्ति संघर्ष में सरकार द्वारा पेश की गई सबसे ‘समान दूरी’ वाली विदेश नीति पर अमल करना.

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महिंदा राजपक्षे को बधाई देने वाले सबसे पहले वैश्विक नेता थे. राजपक्षे ने “भारत हमारा मित्र और संबंधी है,” कहते हुए आपसी द्विपक्षीय सहयोग मज़बूत होने की उम्मीद जताई. दोनों राष्ट्रों को इसे सिर्फ़ बयानबाज़ी तक सीमित नहीं रखना चाहिए. जबकि भारत ‘पड़ोसी पहले’ की नीति पर ज़ोर दे रहा है, नई दिल्ली श्रीलंका की अर्थव्यवस्था और बुनियादी ढांचे के लिए अपनी मदद बढ़ा सकती है. जैसा कि ब्रूकिंग्स इंडिया के शोधकर्ता कांस्टेंटिनो ज़ेवियर कहते हैं, भारत इन बातों को हल्के में नहीं ले सकता है, उसे “श्रीलंका के साथ पारस्परिक-आर्थिक निर्भरता को बढ़ाना” होगा नहीं तो यह द्वीप-राष्ट्र “महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के लिए चीन के उत्साही, उदार और भरोसेमंद फाइनेंस का स्वागत करना जारी रखेगा.”  चुनावी जीत के फ़ौरन बाद कोलंबो में चीनी दूतावास के प्रभारी हू वेई ने प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे से मुलाकात की और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी की तरफ से  एक बधाई पत्र सौंपा, जिसमें एसएलपीपी को निरंतर समर्थन देने के वादे के साथ बीआरआई प्रोजेक्ट्स में तेजी लाने का अनुरोध किया गया था, खासकर कोलंबो पोर्ट सिटी का जिसका उद्घाटन 2014 में राष्ट्रपति शी और महिंदा राजपक्षे द्वारा किया गया था. राजपक्षे की ख़्वाहिश भारत-चीन या अमेरिका-चीन शक्ति संघर्ष में शामिल होने की नहीं है, फिर भी ये शक्तियां राजपक्षे को अकेला नहीं छोड़ सकतीं. क्योंकि कई विश्लेषकों द्वारा चेतावनी दी गई कि बीजिंग की ओर से बेजोड़ और बड़े पैमाने पर निरंतर सहायता की मात्रा के कारण श्रीलंका का चीन की तरफ़ झुकाव हो सकता है.

इस क्षेत्र में बाहरी भू-राजनीतिक सरगर्मियों के बीच एक विशाल जनादेश वाली सरकार के लिए घरेलू लोकतांत्रिक परंपराओं को बनाए रखना और चीन, भारत व अमेरिका के साथ बुनियादी ढांचे की कूटनीति में संतुलन रखना, एक कठिन चुनौती होगी.

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