Author : Peter Nicholls

Published on Nov 30, 2018 Updated 0 Hours ago

ज्यादातर विशेषज्ञों का यह सुझाव है कि यदि भारतीय कारोबारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं और उनकी आंकाक्षा भारत की आर्थिक विकास दर को 10 प्रतिशत पर ले जाने की है, तो उन्हें अपने यहां ज्यादा कर्मचारियों को काम पर रखना चाहिए।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर भारी पड़ेंगे छोटे कारोबारी!

भारत शिल्पकारों और उद्यमियों का एक महाद्वीप है। जी हां, आंकड़े इस बात के गवाह हैं। भारत में लगभग 50 मिलियन पंजीकृत और अपंजीकृत सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यम (एमएसएमई) हैं। [i] कुल औद्योगिक इकाइयों (यूनिट) में से 95 प्रतिशत एमएसएमई ही हैं। [ii] विनिर्माण क्षेत्र के कुल कार्यबल में से लगभग तीन चौथाई कामगार सूक्ष्म और लघु उद्यमों में ही कार्यरत हैं। वहीं, दूसरी ओर चीन में विनिर्माण क्षेत्र के कुल कार्यबल में से महज एक चौथाई कामगार ही सूक्ष्म और लघु उद्यमों में कार्यरत हैं। [iii] अमेरिका में उद्यमों का आकार आम तौर पर 45 कामगारों का होता है, जबकि भारत में उद्यमों का आकार सामान्‍यत: महज एक कामगार का ही होता है। [iv]

ज्यादातर विशेषज्ञों का यह सुझाव है कि यदि भारतीय कारोबारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं और उनकी आंकाक्षा भारत की आर्थिक विकास दर को 10 प्रतिशत सालाना के स्‍तर पर ले जाने की है, तो भारतीय कारोबारियों को निश्चित तौर पर अपने यहां ज्‍यादा कर्मचारियों को काम पर रखना चाहिए। विश्व व्यापार में ज्‍यादा योगदान (80%) [v] बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही है। ‘बड़ा आकार ही बेहतर होता है’ — जी हां, लागत में बचत की दृष्टि से बृहद संस्‍थानों का बुनियादी आर्थिक सिद्धांत यही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां (एमएनसी) दुनिया भर में फैले सुनियोजित अति कुशल आंतरिक विभागों में संसाधनों को निर्बाध रूप से रखने और व्यवस्थित करने में सक्षम होती हैं जिनमें विशेष आपूर्ति श्रृंखलाएं (सप्‍लाई चेन) काफी मददगार साबित होती हैं।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि यदि बहुराष्ट्रीय कंपनियां इतनी ही अधिक कुशल होती हैं, तो बड़े संगठनों को और भी ज्‍यादा बड़ा एवं अधिक दक्ष क्यों नहीं बना दिया जाता है? बहरहाल, दुनिया ने पिछली सदी में इस तरह की कोशिश की थी। इस तरह का प्रयास दरअसल ‘सोवियत संघ’ के नाम से जाना जाता था, जिसने अपनी अर्थव्यवस्था को एक बड़े संगठन यानी ‘सरकार’ के सहारे चलाने की कोशिश की थी। एडम स्मिथ हमें यह याद दिलाते रहते हैं कि बाजार से कीमत के बारे में मिलने वाले संकेत को ध्‍यान में रखकर संसाधनों को केवल वहीं तैनात करना या रखा जाना चाहिए जहां लाभ मिलना तय है। अदृश्य हाथ संसाधनों को उसी ओर भेज देता है जहां उनकी सर्वाधिक आवश्‍यकता होती है और इसके साथ ही अभिनव कदम के रूप में किए गए रचनात्मक ‘व्यवधान’ का पुरस्‍कार मिलता है। इस तरह का कदम विशाल नियोजित संगठन जैसे कि सरकार या डायनासोर एमएनसी को पछाड़ देता है क्‍योंकि वह किसी भी प्रणाली या सिस्‍टम में होने वाले अंतर्निहित बदलाव के ठीक अनुरूप बड़ी तेजी से संबंधित डेटा की प्रोसेसिंग नहीं कर सकती है और प्रक्रियाओं को बदल नहीं सकती है। दरअसल, किसी भी नियोजित प्रणाली में रचनात्मक ‘व्यवधान’ अत्‍यंत सीमित होता है और ऐसे में व्‍यापक अधिशेष एवं किल्‍लत की स्थिति पैदा हो जाती है क्योंकि संसाधनों को या तो गलत तरीके से आवंटित किया जाता है या कुशलता से आवंटित नहीं किया जाता है।

वैसे तो वर्तमान में अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कुल राजस्व आधार कई छोटे देशों से भी बड़ा है, लेकिन उनका परिचालन एक ही क्षेत्र पर केंद्रित है। लिहाजा, वे उन जटिलताओं से बचती रहती हैं जिनका सामना सोवियत संघ के योजनाकारों को समूची अर्थव्यवस्था से निपटने के दौरान करना पड़ा था। आधुनिक उत्‍कृष्‍ट सूचना प्रौद्योगिकी की सहायता से एमएनसी एक समूचे विशाल क्षेत्र में अपनी लागत में अच्‍छी-खासी बचत करने में सक्षम हैं। हालांकि, उनकी आंतरिक नियोजन और संसाधन आवंटन प्रक्रियाएं बाजार के अनुरूप विकसित होने अर्थात रचनात्‍मक ‘व्यवधान’ से भी कहीं आगे निकल जाने के लिए निरंतर जूझती रहती हें।

हालांकि, यह जानना जरूरी है कि तेजी से बदलाव होने की स्थिति में क्या एमएनसी आगे भी बाजार में अपना वर्चस्‍व बनाए रखेंगी अथवा डायनासोर की तरह धराशायी हो जाएंगी? इससे पहले, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को व्‍यापक दीर्घकालिक निवेश करने के उद्देश्‍य से भारी-भरकम पूंजी जुटाने की क्षमता में विशिष्ट बढ़त हासिल थी। लेकिन तकनीकी बदलाव की दर और जोखिम को कम करने या जोखिम उठाने के मामले में पूंजी बाजारों की विशेषज्ञता तथा यह कार्य विशेषज्ञ खिलाड़ियों को सौंप देने से एमएनसी की बड़ी धनराशि जुटाने की विशिष्‍टता अब कमोबेश निरर्थक या बेमानी हो गई है।

इसी तरह नवाचार के कार्यान्वयन में क्रांतिकारी बदलाव आया है। उदाहरण के लिए, 20 साल पहले आप दुनिया के लिए ज्ञान संदर्भ से जुड़े संसाधन पर ‘भरोसा करने’ के लिए किस पर दांव लगाते — सुव्‍यवस्थित ढंग से वित्त पोषित एक ऐसे वैश्विक संगठन पर, जिसने ज्ञान संदर्भों को संकलित करने के लिए सबसे बुद्धिमान लोगों को अपने यहां नियुक्‍त कर रखा था और जिसने ग्राहकों के लिए एक विश्वसनीय संरचित ऑनलाइन वितरण नेटवर्क का स्वामित्व हासिल कर लिया था अथवा एक साधारण प्‍लेटफॉर्म पर कार्यरत ओपन सोर्स वाले शौकिया लोगों के एक ऐसे सूक्ष्‍म बिजनेस पर, जो ज्ञान के व्यक्तिगत विचारों पर निर्णय करने के लिए लोगों की भीड़ पर भरोसा करता था और जिसे किसी भी वितरण चैनल का स्वामित्व हासिल नहीं था? हम सभी यह जानते हैं कि 20 साल पहले माइक्रोसॉफ्ट के एनकार्टा को इस मामले में विकिपीडिया ने पूरी तरह से पछाड़ दिया होता।

किसी भी ‘एसएंडपी 500’ कंपनी की औसत कारोबारी आयु 20 साल से कम होती है; वर्ष 1980 में यह लगभग 35 साल थी। [vi] ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कॉरपोरेशन 250 वर्षों तक अपना अस्तित्‍व बनाए रखने में कामयाब रही थी। [vii] जैसे-जैसे बदलाव तेजी से होने लगते हैं, विभिन्‍न संगठनों या कंपनियों को और भी अधिक तेजी से रचनात्मक ‘व्‍यवधान’ की आवश्यकता होती है, लेकिन बड़ी या दिग्‍गज कंपनियां (फर्म) इस स्थिति का सामना नहीं कर पाती हैं। मध्य स्‍तर के प्रबंधक दरअसल बदलाव से घबराते है और इस अंतर्निहित पूर्वाग्रह की कीमत संबंधित संगठन को चुकानी पड़ती है। आम तौर पर इस तरह की चुनौती से ‘पदानुक्रम प्रणाली’ के जरिए पार पाया जाता है जो बड़े संगठनों को बदलाव के दौर से गुजरने में सक्षम बनाती है। हालांकि‍, बड़ी तेजी से समूची अर्थव्यवस्था में होने वाला व्यापक बदलाव दक्ष एवं अत्‍यंत सक्रि‍य/उद्यमी व्‍यवसाय, जो छोटे कारोबारियों का एक नेटवर्क होता है और जो विभिन्‍न तितर-बितर पूंजी को जुटा सकता है, के हित में होता है क्‍योंकि वे पदानुक्रमित योजनाबद्ध संगठन को सफलतापूर्वक पीछे छोड़ देंगे। इस वैश्विक चलन को देखते हुए भारत को संभवत: स्वाभाविक उद्यमियों और शिल्पकारों की अंतर्निहित समाज व्यापी प्रतिस्पर्धी बढ़त हासिल है।

हालांकि, एमएनसी को अब भी अंतर्निहित बढ़त हासिल है, जो कमोबेश मौलिक होती है और जिसका वर्णन युवाल हरारी अपनी अवधारणात्मक काल्‍पनिक कथाओं में विश्वास के जरिए आपस में सहयोग करने संबंधी मानव जाति की असाधारण क्षमता के रूप में करेंगे। [viii] विगत सदियों के दौरान करोड़ों लोगों ने किसी शासक या धर्म की तर्कहीन कथा अथवा बातों पर भरोसा करके अपनी जान कुर्बान कर दी थी। मानव ऐसे होते हैं जो अवधारणात्मक काल्‍पनिक कथा पर विश्वास करके आंख मूंदकर अपनी मौत होने तक आपस में सहयोग करेंगे। कोई भी अन्य प्रजाति इस तरह के सहज, मानसिक विचार मंथन में सक्षम नहीं है। 21वीं शताब्दी में सर्वाधिक प्रभावपूर्ण कपोल-कल्‍पना या गढ़ी हुई बातों को ‘ब्रांड’ कहा जाता है। आज मनुष्य विदेशी धरती पर स्थित किसी भी अजीबोगरीब दुकान में चले जाते हैं एवं काले सीवरेज जैसे दिखने वाले बुलबुले मीठे तरल पदार्थ को खरीद लेते हैं और उसे बड़ी तेजी से गटकने के लिए बेताब रहते हैं क्‍योंकि उसके डिब्‍बे पर भरोसेमंद लाल प्रतीक ‘कोक’ लिखा होता है।

मध्ययुगीन काल में ईसाई जब अजनबियों से मुलाकात करते थे तो उस दौरान वह उनका विश्वास तत्काल हासिल करने के लिए अपनी गर्दन पर क्रॉस (ईसाई धर्म का प्रतीक चिन्‍ह) लगा लेते थे। आज मनुष्य एक अजनबी व्‍यक्‍ति‍ को बड़ी संख्‍या में मूल्यवान वस्तुएं उपलब्ध करा देते हैं क्योंकि उन्‍हें यह भरोसा होता है कि उनके सामने चल रही कंप्‍यूटर स्क्रीन पर नजर आ रहे आकर्षक आंकड़े या नाम उसे वैध मुद्रा के रूप में लाखों की रकम दिला देंगे। हालांकि‍, इस तरह के लेन-देन में एक बड़े ब्रांड की कपोल-कल्पना ही चिकनाई या स्नेहक (लुब्रिकेंट) की भूमिका निभाती है जैसे कि सामने पड़ी कंप्‍यूटर स्‍क्रीन पर नजर आ रहा जनरल इलेक्ट्रिक का नाम और उसके साथ ही दिखने वाला एचएसबीसी जैसे पैसे की दुकान का नाम।

भारत पाइथागोरस से सदियों पहले ही ‘गणित’ पर निरंतर फोकस करता रहा था। भारत ने हाल ही में लगभग 100 मिलियन डॉलर की राशि खर्च करके मंगल के चारों ओर कक्षा में एक उपग्रह स्‍थापित किया है। पश्चिमी देशों के उदारवादियों द्वारा ‘बहुसंस्कृतिवाद’ को प्रगतिशील माने जाने से हजारों साल पहले ही भारत ने इसे तहेदिल से आत्‍मसात कर लिया था और जिसे आज भी अपनाया जा रहा है। यूरोपीय संघ (ईयू) की तुलना में भारत में अपेक्षाकृत अधिक समन्वित संघीय राजनीतिक व्यवस्था या प्रणाली है। अत: अत्‍यंत तेजी से हो रहे बदलावों वाले इस दौर, जिसमें दक्ष एवं अति सक्रि‍य शिल्पकारों या उद्यमियों के नेटवर्क विशाल संगठनों में अपनाई जा रही पदानुक्रम प्रणालियों को पीछे छोड़ देंगे, में भारत के अंतर्निहित तितर-बितर फैले सामाजिक व्यवसाय या बिजनेस एक गुप्त हथियार या साधन साबित हो सकते हैं। इस तरह के भारतीय परिवेश या परितंत्र के वैश्विक स्तर पर सफल होने के लिए यह अत्‍यंत आवश्‍यक है कि भारत के सूक्ष्‍म स्‍तर वाले (माइक्रो) विशेषज्ञों से सीधे वैश्विक उपभोक्ताओं तक पहुंचने के लिए एक विश्वसनीय एवं कारगर व्‍यवस्‍था या प्रणाली (सिस्‍टम) स्‍थापित की जाए। क्या भारत में नेटवर्कों का ऐसा विशालकाय समूह विकसित हो सकता है? यदि वाकई ऐसा हो गया तो यह निश्चित रूप से दक्षिण अमेरिका में दुनिया के इस तरह के सबसे बड़े समूह का एक कट्टर प्रतिद्वंद्वी साबित होगा।


[i] https://www.mycii.in/KmResourceApplication/57429.MSME.pdf (p1)

[ii] https://evoma.com/business-centre/sme-sector-in-india-statistics-trends-reports

[iii] https://www.adb.org/sites/default/files/publication/28418/economics-wp213.pdf (p6)

[iv] https://pubs.aeaweb.org/doi/pdfplus/10.1257/jep.28.3.89 (p5)

[v] https://unctad.org/en/pages/PressRelease.aspx?OriginalVersionID=113

[vi] https://www.innosight.com/wp-content/uploads/2017/11/Innosight-Corporate-Longevity-2018.pdf (Chart1)

Scott D. Anthony, S. Patrick Viguerie, Evan I. Schwartz, John Van Landeghem, “2018 Corporate Longevity Forecast: Creative Destructior is Accelerating”

[vii] https://www.britannica.com/topic/East-India-Company

[viii] https://www.ted.com/talks/yuval_noah_harari_what_explains_the_rise_of_humans

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