Published on Jun 15, 2020 Updated 0 Hours ago

पर्यावरण में जो बदलाव हम आज देख रहे हैं क्या वो हमेशा के लिए स्थिर हो जाएंगे. जो गाड़ियां और फैक्टरियां आज बंद हैं अब वो धीरे-धीरे खुल रही हैं. दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में पहले जैसा जाम लगने लगा है यानि फिर से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन.

लॉकडाउन के बाद पर्यावरण को बचाने के लिए ज़रूरी है नियंत्रित और संयमित व्यवहार

मनुष्य इस पृथ्वी पर रहने वाला एकमात्र ऐसा जीव है जो की पृथ्वी के तमाम संसाधनों का बेतरतीब तरीके से दोहन करता है. एक वक्त ऐसा था जब इस पृथ्वी पर इंसान तो थे लेकिन वे एकदम सीमित संख्य़ा और स्थान पर निवास करते थे जिसके कारण पृथ्वी का समन्वय बना हुआ था परन्तु समय के साथ खेती की खोज हुयी और मनुष्यों ने एक स्थान पर रहना शुरू कर दिया और उद्योगों आदि की स्थापना की. विभिन्न धातुओं के खोज के साथ ही मनुष्य की महत्वाकांक्षा बढती चली गयी और मनुष्यों ने पृथ्वी का दोहन शुरू किया. इसी दोहन के कारण मौसम के कई परिवर्तन आये जिसने हजारों बीमारियों को जन्म दिया इन्ही बीमारियों ने महामारी का रूप ले लिया. उद्योगीकरण और वैश्वीकरण ने खाद्य से लेकर जल तक को अशुद्ध कर दिया जिसने बीमारियों को निमंत्रण देने का कार्य किया.

लॉकडाउन के दुष्प्रभाव

पिछले चार महीनों में हमारी दुनिया एकदम बदल गई है. हज़ारों लोगों की जान चली गई. लाखों लोग बीमार पड़े हुए हैं. इन सब पर एक नए कोरोना वायरस का क़हर टूटा है. और, जो लोग इस वायरस के प्रकोप से बचे हुए हैं, उनका रहन सहन भी एकदम बदल गया है. ये वायरस दिसंबर 2019 में चीन के वुहान शहर में पहली बार सामने आया था. उसके बाद से दुनिया में सब कुछ उलट पुलट हो गया.

वर्तमान समय में कोरोना ने पूरे विश्व भर में एक अत्यंत ही घातक महामारी का रूप ले लिया है. कोरोना वायरस के चलते पूरी दुनिया में लंबे समय तक लॉकडाउन रहा. इसके चलते प्रकृति में मनुष्‍य का दख़ल एकदम बंद हो गया. नतीजा, प्रकृति खुलकर, निखरकर अपने नैसर्गिक स्‍वरूप में आ गई. कोरोना वायरस से मानवता को जरूर बड़ा नुकसान हुआ है लेकिन पर्यावरण पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है.

अमरीका के न्यूयॉर्क शहर की ही बात करें तो पिछले साल की तुलना में इस साल वहां प्रदूषण 40 से 50 प्रतिशत कम हो गया है. इसी तरह चीन में भी कार्बन उत्सर्जन में 25 फ़ीसद की कमी आई है

लॉकडाउन की वजह से तमाम फ़ैक्ट्रियां बंद हैं. यातायात के तमाम साधन बंद हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था को भारी धक्का लग रहा है. लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं. लेकिन अच्छी बात ये है कि कार्बन उत्सर्जन रुक गया है. अमरीका के न्यूयॉर्क शहर की ही बात करें तो पिछले साल की तुलना में इस साल वहां प्रदूषण 40 से 50 प्रतिशत कम हो गया है. इसी तरह चीन में भी कार्बन उत्सर्जन में 25 फ़ीसद की कमी आई है. चीन के 6 बड़े पावर हाउस में 2019 के अंतिम महीनों से ही कोयले के इस्तेमाल में 40 फीसद की कमी आई है. पिछले साल इन्हीं दिनों की तुलना में चीन के 337 शहरों की हवा की गुणवत्ता में 11.4 फ़ीसद का सुधार हुआ. ये आंकड़े खुद चीन के पर्यावरण मंत्रालय ने जारी किए हैं. यूरोप की सैटेलाइट तस्वीरें ये बताती हैं कि उत्तरी इटली से नाइट्रोजन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन कम हो रहा है. ब्रिटेन और स्पेन की भी कुछ ऐसी ही कहानी है.

दुनियाभर में कोरोना वायरस (कोविड-19) के चलते लॉकडाउन लगा हुआ है, जिसके चलते लोग अपने-अपने घरों में बंद हैं. इससे ना केवल हवा और नदियां साफ हो रही हैं, बल्कि धरती की सतह पर मौजूद साउंड वाइब्रेशन में कमी भी महसूस की गई है. इसे सीसमिक नॉइज भी कहा जाता है. ऐसा इसलिए हो रहा है कि क्योंकि लॉकडाउन के कारण मानव गतिविधि कम हो गई है. ‘सीस्मिक नॉयज’ वह शोर है जो धरती की बाहरी सतह यानि क्रस्ट पर होने वाले कंपन के कारण धरती के भीतर एक शोर के रूप में सुनाई देता है. इस साउंड को सटीक तौर पर मापने के लिए रिसर्चर और भूविज्ञानी एक डिटेक्टर की रीडिंग का सहारा लेते हैं जो कि धरती की सतह से 100 मीटर की गहराई में गाड़ा जाता है. लेकिन फिलहाल धरती की सतह पर कंपन पैदा करने वाली इंसानी गतिविधियां काफी कम होने के कारण इस साउंड की गणना सतह पर ही हो पा रही है.

जर्नल नेचर में छपे एक लेख के अनुसार, इससे डिटेक्टरों को छोटे भूकंपों का पता लगाने और ज्वालामुखी गतिविधि सहित अन्य भूकंपीय घटनाओं की निगरानी के प्रयासों को बढ़ावा देने में मदद मिल रही है. सीसमोमीटर्स से जुटाए गए आंकड़ों से पता चला है कि मानवीय गतिविधियों में कमी आने के साथ ही धरती पर शोर का स्तर कम हुआ है.

ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी महामारी के चलते कार्बनडाई ऑक्साइड का स्तर कम हुआ हो. इतिहास में इसके कई उदाहरण मिलते हैं. यहां तक कि औद्योगिक क्रांति से पहले भी ये बदलाव देखा गया था. जर्मनी की एक जानकार जूलिया पोंग्रात्स का कहना है कि यूरोप में चौदहवीं सदी में आई ब्लैक डेथ हो, या दक्षिण अमरीका में फैली छोटी चेचक.

सभी महामारियों के बाद वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर कम दर्ज किया गया था. उस दौर में परिवहन के साधन भी बहुत सीमित थे. और जब महामारियों के चलते बहुत लोगों की मौत हो गई, तो खेती की ज़मीन भी खाली हो गई और वहां ऐसे जंगली पौधे और घास पैदा हो गए जिससे गुणवत्ता वाली कार्बन निकली.

24 मार्च से भारत में लागू देशव्यापी लॉकडाउन के कारण देश के कई हिस्सों में भी इंसानी गतिविधियों की रफ्तार थमी है और इस दौरान प्रकृति अपनी मरम्मत खुद करती नजर आ रही है. पंजाब के जालंधर में रहने वालों ने बीते दिनों ऐसी तस्वीरें साझा की हैं जिनमें वहां से लोगों को हिमाचल प्रदेश में स्थित धौलाधार पर्वत श्रृंखला की चोटियां दिख रहीं हैं.

लॉकडाउन के बाद 27 मार्च से कुछ इलाकों में रूक-रूक के बारिश हो रही है. इससे हवा में मौजूद एयरोसॉल नीचे आ गए. यह लिक्विड और सॉलिड से बने ऐसे सूक्ष्म कण हैं, जिनके कारण फेफड़ों और हार्ट को नुकसान होता है. एयरोसॉल की वजह से ही विजिबिलिटी घटती है

पर्यावरण को पहुंचता फायदा

भारत में कई राज्यों से उन नदियों के अचानक साफ हो जाने की ख़बरें आ रही हैं जिनके प्रदूषण को दूर करने के असफल प्रयास दशकों से चल रहे हैं. दिल्ली की जीवनदायिनी यमुना नदी के बारे में भी ऐसी ही ख़बरें आ रही हैं. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर कई तस्वीरें आईं जिन्हें डालने वालों ने दावा किया कि दिल्ली में जिस यमुना का पानी काला और झाग भरा हुआ करता था, उसी यमुना में आज कल साफ पानी बह रहा है. झील नगरी नैनीताल समेत भीमताल, नौकुचियाताल, सातताल सभी में झीलों का पानी न केवल पारदर्शी और निर्मल दिखाई दे रहा है, बल्कि इन झीलों की खूबसूरती भी बढ़ गई है. पिछले कई साल से झील के जलस्तर में जो गिरावट दिखती थी, वह भी इस बार नहीं दिख रही. पर्यावरणीय तौर पर इस कारण हवा भी इतनी शुद्ध है कि शहरों से पहाड़ों की चोटियां साफ दिख रही हैं. उत्तराखंड स्पेस एप्लिकेशन सेंटर के निदेशक के अनुसार हिमालय की धवल चोटियां साफ दिखने लगी हैं. लॉकडाउन के कारण वायुमंडल में बड़े पैमाने पर बदलाव देखने को मिला है. इससे पहले कभी उत्तर भारत के ऊपरी क्षेत्र में वायु प्रदूषण का इतना कम स्तर देखने को नहीं मिला. लॉकडाउन के बाद 27 मार्च से कुछ इलाकों में रूक-रूक के बारिश हो रही है. इससे हवा में मौजूद एयरोसॉल नीचे आ गए. यह लिक्विड और सॉलिड से बने ऐसे सूक्ष्म कण हैं, जिनके कारण फेफड़ों और हार्ट को नुकसान होता है. एयरोसॉल की वजह से ही विजिबिलिटी घटती है.

हाल ही में अमेंरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के सेटेलाईट टेरा द्वारा लिए गए चित्रों के अनुसार,भारत की एअरो सोल आप्टिकल डेप्थ कम हुई है. जिसके कारण आकाश स्वच्छ हुआ है, तथा वायु में घुलित अशुद्धियां जैसे पार्टिकुलेट मैटर 2.5 तथा 10 अपने बीस वर्षो के निम्नतम स्तर पर है. यूरोपियन अंतरिक्ष एजेंसी के कापरनिकस सेटेलाईट के अनुसार, भारत में नाईट्रस आक्साइड के स्तर में उल्लेखनीय कमी मार्च के अंतिम सप्ताह में देखी गई. बता दें कि वायुमंडल में नाईट्रस आक्साइड की अधिक सांद्रता बच्चों तथा वयस्कों में दमा का कारण बनता है जिस कारण देश में प्रतिवर्ष सोलह हजार से ज्यादा मौते होती हैं.

सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च के अनुसार, कोरोना वायरस लॉकडाउन के कारण दिल्ली में पीएम 2.5 में 30 फीसद की गिरावट आई है. अहमदाबाद और पुणे में इसमें 15 फीसद की कमी आई है. नाइट्रोजन ऑक्साइड (एनओएक्स) प्रदूषण का स्तर, भी कम हो गया है. एनओएक्स प्रदूषण मुख्य रूप से ज्य़ादा वाहनों के चलने से होता है. एनओएक्स प्रदूषण में पुणे में 43 फीसद, मुंबई में 38 फीसद और अहमदाबाद में 50 फीसद की कमी आई है.

जिन शहरों की एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी AQI ख़तरे के निशान से ऊपर होते थे. वहां आसमान गहरा नीला दिखने लगा है. न तो सड़कों पर वाहन चल रहे हैं और न ही आसमां में हवाई जहाज. बिजली उत्पादन और औद्योगिक इकाइयों जैसे अन्य क्षेत्रों में भी बड़ी गिरावट आई है. इससे वातावरण में डस्ट पार्टिकल न के बराबर हैं और कार्बन मोनोऑक्साइड का उत्सर्जन भी सामान्य से बहुत अधिक नीचे आ गया है. इस तरह की हवा मनुष्यों के लिए बेहद लाभदायक है. अगर देखा जाये तो झारखंड के भी शहरों में इस लॉकडाउन का प्रभाव दिखा रहा है. झारखण्ड की राजधानी रांची के कुछ जगहों में मोर देखे जाने की भी सूचना है. रूक रूक के बारिश भी हो रही है. लोग एयर कंडीशनर और कूलर का भी इस्तेमाल नहीं के बराबर कर रहे हैं जो की इस गर्मी के मौसम में एक आश्चर्य घटना है. ध्वनि प्रदूषण भी अभूतपूर्व ढंग से कम हो गया है. तापमान ज्य़ादा होने पे भी उतनी गर्मी नहीं लग रही है जितनी पिछले साल थी. बता दें कि कई महीनों से झारखंड में वाहन प्रदूषण के खिलाफ़ जांच अभियान चलाया जा रहा था. जगह-जगह दोपहिये एवं चार पहिये वाहन, मिनी बस और टेंपो समेत विभिन्न कॉमर्शियल वाहनों के प्रदूषण स्तर को चेक किया जा रहा था और निर्धारित मात्रा से अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर कार्रवाई की जा रही थी. इसके बाद भी न तो वाहनों द्वारा छोड़े जा रहे प्रदूषणकारी गैसों की मात्रा कम हो रही थी और न ही वायु प्रदूषण में कमी आ रही थी. लेकिन, कोरोना के भय से सड़क पर चलने वाले वाहनों की संख्य़ा में आयी भारी गिरावट आने के कारण पिछले दो महीनों से से इसमें काफी सुधार दिखता है. वाहनों की आवाजाही न होने से सड़कों से अब धूल के गुबार नहीं उठ रहे हैं. झारखंड का एयर क्वालिटी इंडेक्स वायु प्रदूषण के कम हो जाने से 50-40 के बीच आ गया है जो पिछले साल 150 से 250 तक रहता था. ये हवा मनुष्य के स्वस्थ लिए फायदेमंद है. वायु और धूल प्रदूषण के काफी कम हो जाने से आसमन में रात को सारे तारे दिखा रहे हैं जो पहले नहीं दीखते थे. ध्वनि प्रदूषण तो इतना कम है की आपकी आवाज दूर तक सुनाई दे रही है. चिड़ियों का चहचहाना सुबह से ही शुरू हो जा रहा है.कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा की रात दो बजे भी चिड़ियों की आवाज़ सुनाई दे रही है ख़ासकर कोयल और बुलबुल की. कुछ ऐसी भी चिड़ियाँ नज़र आ रही हैं जो पहले कम दिखती थीं. दो प्रकार की सबसे रोचक घटना हुई इस लॉक डाउन में वो है 20 मई के मध्य रात्रि को ऐसा महसूस हुआ जैसे की सुबह के चार बज रहे हैं इतनी रौशनी थी आसमान में. इसका कारण था वातावरण में धूल कण का कम होना जिसकी वजह से बादलों से शहर की रौशनी का परावर्तन बहुत अच्छे से हो रहा था. ऐसी घटना मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हुई जहाँ रात को दिन होने का आभास हुआ. दूसरी घटना 28 मई को हुई जब रांची में दोपहर से धुंध ( कोहरा) दिखा. तापमान भी २४ डिग्री के आस पास. ठण्ड का एहसास हो रहा था. गर्मियों में जब आद्रता 100% तक पहुँच जाता है तब ये धुंध बनता है. ऐसी घटना शायद 50-40 साल पहले हुई हो. इस लॉकडाउन से एक और बड़ा फायदा नदियों को होगा. हर साल प्रदूषित रहने वाली नदियां अब खुल के सांस ले पा रही होंगी. पेड़ एवं फूल पौधे भी खुल के सांस ले रहे होंगे क्योंकि उनके पत्तों पे अब कोई धुल कण नहीं बैठ रहा होगा. आने वाले मौसम पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा. तापमान हो सकता है की औसत से कम हो. गाड़ियों और फैक्टरियों के बंद होने से ग्रीन हाउस गैस जो ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है का उत्सर्जन भी नहीं के बराबर होगा.

समय आ गया है कि केन्द्र और राज्य की सरकार इस बात पर गंभीरता से मंथन करें कि ऐसे कौन-कौन से उपाय किए जाएं जिससे अपनी दिनचर्या या रोजी-रोटी चलाने के लिए लोगों को कम से कम सड़क पर आना पड़े

लॉकडाउन के बाद?

कुछ लोगों का कहना है कि इस महामारी को पर्यावरण में बदलाव के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए. अभी सब कुछ बंद है, तो कार्बन उत्सर्जन रुक गया है. लेकिन जब दुनिया फिर से पहले की तरह चलने लगी तो क्या ये कार्बन उत्सर्जन फिर से नहीं बढ़ेगा? पर्यावरण में जो बदलाव हम आज देख रहे हैं क्या वो हमेशा के लिए स्थिर हो जाएंगे. जो गाड़ियां और फैक्टरियां आज बंद हैं अब वो धीरे-धीरे खुल रही हैं. दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में पहले जैसा जाम लगने लगा है यानि फिर से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन. जिस तरह मौजूदा समय में जान बचाना लोगों की प्राथमिकता बना हुआ है वैसे ही लोगों को पर्यावरण के प्रति चिंतित कराया जाना ज़रुरी है. पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों को अपनी आदतें बदलनी होंगी. अगर वो ख़ुद नहीं बदलते हैं, तो उन्हें जबरन बदलवाना पड़ेगा जैसे खुद अपने को हफ्ते का कोई एक दिन अपने को लॉकडाउन में रखना या फिर सप्ताह में एक दिन गाड़ी का इस्तेमाल के बजाय साइकिल या पैदल चलना या फिर सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करना. लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद प्रदूषण में बढ़ोतरी होगी. लेकिन इस दौर से आम लोग और सरकार ये सबक ले सकती है कि कुछ क़दमों को उठाने से ही वायु प्रदूषण को आंशिक रूप से कम किया जा सकता है. सरकार गाड़ियों से निकलने वाले धुएँ में कमी लाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को मज़बूत बना सकती है. एक और उपाय किया जा सकता है की हफ़्ते में दो दिन वर्क फ्रॉम होम कर दिया जाए. अगर सरकार चाहे तो महीने में दो दिन लॉकडाउन रख सकती है जिसमे गाड़ियां और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करने वाली फैक्ट्रियां बंद रहे. समय आ गया है कि केन्द्र और राज्य की सरकार इस बात पर गंभीरता से मंथन करें कि ऐसे कौन-कौन से उपाय किए जाएं जिससे अपनी दिनचर्या या रोजी-रोटी चलाने के लिए लोगों को कम से कम सड़क पर आना पड़े. एक अनुमान के अनुसार देश की करीब 25 से 30 प्रतिशत आबादी को अपना कामकाज निपटाने के लिए सिर्फ इसलिए सड़क पर इधर से उधर दौड़ाना पड़ता हैं क्योंकि उसके पास तकनीकी ज्ञान काफी कम है या नहीं है. यही वजह है जहां कई विकसित और विकाशसील देशों में जो काम लोग घरों में बैठे-बैठे ऑनलाइन निपटा देते हैं, उसी काम को करने के लिए आम भारतीय को सरकारी आफिसों, बैंकों, मेडिकल स्टोरों, फल-सब्जी और राशन की दुकानों आदि के चक्कर लगाने पड़ते हैं. इसके चलते आम भारतीय को समय, श्रम और पैसा तीनों बर्बाद करना पड़ता है.

जंगलों , नदियों, तालाबों और पहाड़ों को बचाना अब जरुरी है. ये रहेंगे तभी हमारा पर्यावरण स्वस्थ रहेगा और हम स्वस्थ रहेंगे.

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