Author : Sunjoy Joshi

Published on Mar 27, 2022 Updated 0 Hours ago

भारत का पक्ष बिल्कुल स्पष्ट  है, वो शांति के पक्ष में है और चाहता है कि जल्द से जल्द दोनों पक्षों के बीच समझौता हो और युद्ध रोकने की सहमति बने.

रूस बनाम पश्चिम: संघर्ष और प्रतिबंध के बीच फँसी कूटनीति!

Source Image: Christopher DunstanBurgh — Flickr/CC BY-NC 2.0

(ये लेख ओआरएफ़ के वीडियो मैगज़ीन इंडियाज़ वर्ल्ड के एपिसोड –‘रूस बनाम पश्चिम, संघर्ष और प्रतिबंध के बीच फंसी कूटनीति’, में चेयरमैन संजय जोशी और नग़मा सह़र के बीच हुई बातचीत पर आधारित है.)


रूस की यूक्रेन पर सैन्य कार्यवाही का एक महीना पूरा हो गया है. यूक्रेन ने भारी तबाही का सामना किया है. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन यूरोप की यात्रा पर हैं, नेटो-जी-7 और ईयू जैसे तमाम अंतरराष्ट्रीय संगठन इस मुद्दे पर मिलकर बैठक करने की कोशिश में हैं. ताकि वे और अधिक आर्थिक और अन्य दबाव रूस पर बनाने के विषय पर विचार विमर्श कर सकें.

वास्तव में यूक्रेन को मंच बनाकर जो व्यापक युद्ध लड़ा जा रह है वह युद्ध तो अवरोध (stalemate) की स्थिति में है; असली युद्ध तो पश्चिमी देशों (NATO) और रूस के बीच है. 

वास्तव में यूक्रेन को मंच बनाकर जो व्यापक युद्ध लड़ा जा रह है वह युद्ध तो अवरोध (stalemate) की स्थिती में है; असली युद्ध तो पश्चिमी देशों (NATO) और रूस के बीच है. हालांकि, पश्चिमी देशों ने अपने सैनिक या टैंक इस युद्ध में अभी तक नहीं उतारे हों पर रूस के खिलाफ़ जबर्दस्त आर्थिक युद्ध तो प्रारम्भ कर ही दिया है. उधर रूस लगातार कोशिश में है कि, कैसे इन देशों द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों से होने वाले असर को कम कर सकें. उसने भी बदले में जवाबी कार्रवाई की घोषणा की है. सैंक्शंस लगाने वाले अमित्र देश जो अभी भी रूस से घपा-घप गैस और तेल खरीदने में लगे हैं उनको अब इस गैस और तेल की कीमत यूरो या अमेरिकी डॉलर में नहीं बल्कि रूसी रूबल में देनी पड़ सकती है. घोषणा मात्र का असर यह हुआ कि यूरोप में गैस की कीमतों में तुरंत 12-18% तक उछाल आया और लुढ़कता हुआ रूसी रूबल कुछ संभल कर डॉलर के खिलाफ़ 100 से कम के आंकड़े पर झूलता दिखा. पुतिन के द्वारा उठाए गए इन कदमों से रूबल संभला या नहीं, चेतावनी स्पष्ट थी – प्रतिबंधों की लड़ाई में नुक़सान दोनों पक्षों के साथ कई अन्य को होगा.

इस प्रकार यूक्रेन तो मंच बन गया है रूस और पश्चिमी देशों के बीच चले आ रहे परोक्ष युद्ध (proxy war) का. पर युद्ध की असली कीमत चुका रहे हैं, वहाँ के बेबस और मासूम नागरिक. रूस और पश्चिमी देशों की एक दूसरे को सबक सिखाने की होड़ में नुक़सान हो रहा है यूक्रेन के नागरिकों का जो लाखों की संख्या में शरणार्थी बन देश छोड़ने को मजबूर हैं. न कोई ठौर रहने का, न कोई ठिकाना और ऊपर से आसमान से बरसते कहर से त्रस्त.

अब आर्थिक युद्ध को और हवा देने की क़वायद चल रही है, युद्ध की आग में घी डालने का काम किया जा रहा है. कहीं नेटो की बैठक की जा रही है तो कहीं ईयू की. प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के समय भी ऐसे ही देश आपस में मिल कर अपनी नौसेना का प्रयोग कर दुश्मन की नाकेबंदी करते थे.

अब आर्थिक युद्ध को और हवा देने की क़वायद चल रही है, युद्ध की आग में घी डालने का काम किया जा रहा है. कहीं नेटो की बैठक की जा रही है तो कहीं ईयू की. प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के समय भी ऐसे ही देश आपस में मिल कर अपनी नौसेना का प्रयोग कर दुश्मन की नाकेबंदी करते थे. दुश्मन तक आवश्यक सामान न पहुंचे और वह आर्थिक रूप से पंगु हो जाये और युद्ध लड़ने के लायक ही न रहे. आज वही आर्थिक युद्ध लड़ने के लिये नौसेना की भी ज़रूरत नहीं है. विश्व की अर्थव्यवस्था के तार-बेतार आपस में ऐसे जुड़े हैं कि सिर्फ़ बैंकिंग की स्विफ्ट (SWIFT) प्रणाली भर काम करना बंद कर दे तो किसी भी देश की अर्थ-व्यवस्था का गला घोंटा जा सकता है. यह एक ऐसा परिष्कृत हथियार बन गया है जो किसी के ख़िलाफ़ भी इस्तेमाल किया जा सकता है – जो शक्तिशाली से शक्तिशाली नौसेना से कई गुना घातक और कारगर साबित होगा.

पर साथ ही यह हथियार ऐसा कि इसे दागने का परिणाम सिर्फ़ दुश्मन तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि दागने वाले के साथ-साथ इसकी आग की चपेट में कई अन्य देश भी झुलस सकते है. यानी की लगाये गए प्रतिबंधों का असर सिर्फ़ रूस तक सीमित नहीं रहेगा. भारत, अफ्रीका, पश्चिमी एशिया, यूरोप, सभी इसकी लपेट में आ सकते हैं. ऐसे में ये विचार ज़रूरी हो जाता है कि इसका उपयोग कहां और कब तक करना चाहिए.

आक्रमण के फलस्वरूप यूक्रेन में राष्ट्रवाद की जड़ें सशक्त हुईं और ज़ेलेंस्की की लोकप्रियता में भारी इज़ाफा. रूसी सैनिकों कों जगह-जगह विरोध का सामना करना पड़ा और एक माह बाद भी युद्ध पुरज़ोर तरीके से जारी है.

दूसरे किस्म का प्रस्ताव पोलैंड ने दिया है जो भिन्न है. उसका सुझाव है की नेटो की तरफ से शांति सेना (peace keeping forces) भेजी जाए. अब यूक्रेन में रूस द्वारा भेजी गयी शांति सेना का क़हर तो हम देख ही रहे हैं, कसर बस यही बाकी है. रूस पहले ही कह चुका है कि, किसी भी देश की सेना का यूक्रेन में प्रवेश सीधे-सीधे रूस के खिलाफ़ जंग का ऐलान माना जाएगा. ऐसे में अगर नेटो की सेना यूक्रेन पहुंच जाती है तो रूस और नैटो आमने-सामने होंगे और इसके अंजाम को सिर्फ़ कल्पना ही किया जा सकता है. इसी पशोपेश में नेटो के देश और यूरोपीय यूनियन फँसी है कि – अब कौन सा दबाव और डाला जाए?

जो युद्ध थामने के लिये negotiations हो रहे हैं वो वास्तव में पश्चिमी देश और रूस के बीच में तो हो ही नहीं रहे हैं. युद्ध समाप्ति की वार्ता जारी है, पर वार्ता रूस और नेटो के बीच नहीं बल्कि ज़ेलेंस्की और रूस के बीच है, जबकि ये युद्ध यूक्रेन और रूस के बीच का युद्ध नहीं. जंग चाहे किसी भी माध्यम से लड़ी जाए असली युद्ध तो पश्चिमी देशों और रूस के बीच छिड़ा है. ऐसे में यह जंग किस ओर बढ़ेगी, और क्या और भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं, कहना मुश्किल है.

क्या रूस के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई हो सकती है, या उसपर और दबाव बनाया जा सकता है? क्या रूस कमज़ोर पड़ा है?     

रूस कमज़ोर इस मायने में पड़ा है कि युद्ध उसकी आशा के अनुरूप नहीं चल रहा है. यदि उसका सोचना था कि यूक्रेन में तथाकथित भ्रष्टाचार के कारण सत्ताधारी दल से परेशान जनता रूसी सैनिकों का स्वागत करेगी और ज़ेलेंस्की तुरंत घुटने टेकने पर मजबूर हो जाएंगी, तो यह उसका भ्रम निकला और हुआ बिल्कुल उल्टा. आक्रमण के फलस्वरूप यूक्रेन में राष्ट्रवाद की जड़ें सशक्त हुईं और ज़ेलेंस्की की लोकप्रियता में भारी इज़ाफा. रूसी सैनिको कों जगह-जगह विरोध का सामना करना पड़ा और एक माह बाद भी युद्ध पुरज़ोर तरीके से जारी है. अब देखना है की यह विरोध रूसी सैन्य शक्ति के खिलाफ़ कितने दिन टिक पाता है. पर अंजाम जो भी हो, रूस के लिये ज़बर्दस्ती यूक्रेन पर कब्ज़ा जमा वहाँ सत्ता और शासन कायम करने के लिए बहुत सारे सैनिकों की ज़रूरत पड़ेगी. इसलिए यूक्रेन में अपना शासन जमाने में रूस को अधिक रुचि नहीं ही होगी. वह चाहेगा एक ऐसा सम्झौता जिसके तहत उसके सामरिक हित पूरे हो सकें.

सैंक्शंस लगाना बेहद आसान होता है, उसके लिये बस एक फर्रा निकाल फ़रमान जारी करना काफी है. लेकिन इसे हटाने की प्रक्रिया और शर्तें बेहद पेचीदा होती हैं.

इस अवधारणा से रूस के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं –

सर्वप्रथम रूस की प्रतिबद्धता है कि यूक्रेन NATO में सम्मिलित नहीं होगा, जो कि यूक्रेन लगभग मान ही चुका है.

दूसरा रूस अब चाहेगा कि क्राइमिया पर उसके कब्जे को मान्यता मिले. सैन्य कार्यवाही के फलस्वरूप क्राइमिया के पूर्वी यूक्रेन के स्वशासित रूसी जनसंख्या वाले प्रान्तों के रास्ते रूस तक सीधे भूमि मार्ग स्थापित करने में रूस सफल हो ही चुका है. पूर्वी यूक्रेन के दोनेत्स्क और लुहांस्क पर उसका कब्ज़ा बढ़ ही रहा है, फिर चाहे वो इन राज्यों की आज़ादी के ज़रिये या स्वायत्तता के ज़रिये, अपना वर्चस्व काम करना चाहता है.

तीसरी और अहम् शर्त है यूक्रेन की Neutrality, यूक्रेन किसी पक्ष की तरफ नहीं जायेगा, न ही वो रूस के खिलाफ़ सैन्य ताक़त बनकर खड़ा होगा. वह एक तटस्थ गैर सैनिक देश रहेगा.

पर इन सब शर्तों के बदले जो रूस पर भारी दबाव डालेगा वह होगा उसपर लगे भारी-भरकम प्रतिबंधों में रियायत की रूपरेखा. यह प्रतिबंध रूस के ऊपर, उसकी कंपनियों के उपर, लोगों के ऊपर – अलग-अलग प्रयोजनों के तहत लगाये गये हैं. इनके माध्यम से रूस की वित्तीय प्रणाली का गला घोटने के कार्यवाही की गयी. सैंक्शंस लगा तो दिये पर अब यह कब और कैसे हटेंगे? यह समझौता होना सबसे ज्य़ादा मुश्किल होने वाला है.

सैंक्शंस लगाना बेहद आसान होता है, उसके लिये बस एक फर्रा निकाल फ़रमान जारी करना काफी है. लेकिन इसे हटाने की प्रक्रिया और शर्तें बेहद पेचीदा होती हैं. यूं समझिए की प्रतिबंधों को अमल देने वाले बैंक या अन्य संस्थानों की अपनी नौकरशाही होती है. अपनी-अपनी नियमावली है और ये सब किसी भी प्रकार का जोख़िम उठाने से कतराते हैं. जैसा कि हम अफ़ग़ानिस्तान में देख रहे हैं. अमेरिका वहां से एन-केन-प्रकरेण समझौता कर हाथ झाड़ कर पीछे हट तो गया लेकिन प्रतिबंध आज भी वहां मौजूद हैं. सैंक्शंस हटाने की बात होते ही जिन कारणों का उदाहरण दे प्रतिबंध लगे उनसे संबंधित शर्तों की पूर्ति करने की बात उठती है. भले ही इनके चलते अफ़ग़ानिस्तान के लोगों तक मानवीय मदद नहीं पहुंच पा रही है, दवाईयां मुहैया नहीं हो पा रही है, और यहाँ तक की लोग अपने खुद का पैसा नहीं निकाल पा रहे हैं. और फिर सैंक्शंस हटा भी दें तो उनके डर से एक बार नुकसान उठा वहाँ से भाग चुकी कंपनियाँ वापिस रूस या अफ़ग़ानिस्तान आने की जुर्रत जल्दी में नहीं करने वाली. इसलिए प्रतिबंधों का असर लंबे समय तक चलता है और यह असर प्रतिबंध ठोकने वालों के नियंत्रण के बाहर होता है.

इसलिया युद्ध अब ऐसे मोड़ पर है की दोनों पक्षों को विचार करना ज़रूरी हो जाता है कि कैसे एक बुरी स्थिति, बद से बदतर न हो; अगर रूस को अपने उद्देश्यों में शीघ्र सफ़लता नहीं मिलती, जिस गति से यूक्रेन में बढ़ना चाहता था वह हासिल नहीं होती तो वह और अधिक घातक बल प्रयोग कर सकता है क्योंकि ऐसा करने की उसकी क्षमता अभी भी कायम है. युद्ध शुरू करना आसान होता है, उनका समापन कठिन. प्रतिबंध भी लगाने आसान होते हैं, लेकिन शांति की पहल का जब वक्त़ आता है, सैंक्शंस हटाने मुश्किल ही नहीं, कठिन से कठिनतम होते चले जाते हैं. इसलिए यही समय है सूझबूझ और समझदारी भरी कूटनीति का अन्यथा स्थिति बदतर हो घातक परिणाम दे सकती है.

प्रतिबंधों के दूरगामी असर; दुनिया के अन्य देशों और ग्लोबल इकॉनमी पर क्या असर होगा?

रूस और पश्चिम के विरुद्ध आर्थिक युद्ध छिड़ चुका है – एक ऐसा युद्ध जो कि पूरे विश्व को अपनी लपेट में ले सकता है. यदि यह फैला तो दुनिया के हर देश पर इसका असर पड़ेगा, कुछ पर ज़्यादा पड़ेगा तो कुछ पर कम. रूस वर्तमान में सर्वाधिक प्रभावित देश है, उसकी इकॉनमी इस वक्त़ 20% की गिरावट पर आ गयी है. यूक्रेन पर असर तो और भी अधिक है. उसकी अर्थव्यवस्था 30% से नीचे गिर सकती है.

पर, रूबल के अलावा रूस के पड़ोसी देश जैसे कज़ाख़िस्तान और मध्य एशिया के अन्य देशों की मुद्रा पर भी असर पड़ा है, उनमें भी गिरावट आ रही है, क्योंकि उन सब के रूस के साथ सघन व्यापारिक संबंध हैं. रूस दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, वो एक तरह से पूरी दुनिया का एनर्जी लाइफ-लाइन है, गैस और तेल का प्रमुख निर्यातक है. रूस उत्तर-कोरिया या वेनेज़ुएला की तरह कोई अलग- थलग पड़ा एकाकी देश नहीं है, उस पर लगे प्रतिबंध पूरी दुनिया पर असर करते है. उसके अलावा वह एक प्रमुख सैन्य शक्ति होने के नाते दुनिया भर को अस्त्र शस्त्र मुहैया कराता है. भारत के लिए भी रूसी अस्त्र-शस्त्र देश की सुरक्षा के साधन हैं. यदि प्रतिबंधों के चलते इन देशों को हथियार या फिर सैनिक साजो-सामान के लिए कल पुर्जे नहीं मिलते हैं तो इन देशों की सुरक्षा प्रभावित होती है.

भारत के लिए भी रूसी अस्त्र-शस्त्र देश की सुरक्षा के साधन हैं. यदि प्रतिबंधों के चलते इन देशों को हथियार या फिर सैनिक साजो-सामान के लिए कल पुर्जे नहीं मिलते हैं तो इन देशों की सुरक्षा प्रभावित होती है.

कई तरह के औद्योगिक इकाईयों में रूस एक प्रमुख सप्लायर की भूमिका निभाता है. चाहे Nickel हो या palladium हो, इन सबका वो प्रमुख सप्लायर है. रूस भी धमकी दे रहा है की इन सभी चीज़ों की आपूर्ति वो जारी तो रखेगा पर उनका लेन देन अब प्रतिबंध लगाने वाले देशों की मुद्रा, अर्थात यूरो या डॉलर में न लेकर रूबल में ही स्वीकार करेगा. वो औरों की तरह आर्थिक नाकेबंदी नहीं करेगा, लेकिन व्यापार वो अब रूबल में ही करेगा क्योंकि प्रतिबंधों के चलते डॉलर या यूरो अब उसके किसी काम के नहीं हैं.

इस तरह क्रम चल चुका है वार-पलटवार का. रूस पर जो एमबार्गो लगा है, उसका असर दिखायी पड़ता है, नीकल, पलेडियम और इंडस्ट्रियल सफ़ायर पर अगर वो रोक लगाता है, उनकी सप्लाई को रोकता है तो कई तरह की मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्रीज़ पर बुरा असर पड़ता है. अमेरिका ने कह तो दिया कि वो हाई टेक्नोलॉजी रूस को सप्लाई नहीं करेगा, लेकिन अगर रूस सेमीकंडक्टर में लगने वाले कच्चे माल पर ही रोक लगाता है या इसके लिये रुबल की मांग करता है तो असर तो पड़ेगा ही. वास्तव में यह पहली बार है कि दुनिया के एक इतने बड़े देश पर प्रतिबंध लगाने की ज़ुर्रत की गई है, इसलिये अब देखिये अंजाम क्या होंगे. एक ओर फर्टिलाइजर की कीमत बढ़ रही है, freight charges बढ़ गये हैं, सीधी फ्लाईट नहीं चल रही है, कार्गो सेवा बाधित है तो समस्यायें दिखनी शुरू हो गयी हैं. व्यापार बंद करने की ये कयावद, विश्व आर्थिक व्यवस्था पर कुठाराघात है – विश्व आर्थिक व्यवस्था की छिन्न-भिन्न करने का प्रयास. और ये सब ऐसे समय पर हो रहा जब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था कोविड-19 के आर्थिक दुष्परिणामों से उबरने की कोशिश कर रही थी. अब तक विकसित देश कोविड से निबटने के चक्कर में बेतहाशा पैसा बहा चुके थे जिसके परिणाम-स्वरूप वहाँ की ब्याज दरों में लगातार वृद्धि के हालात साफ़ नजर आ रहे थे. अब यह ब्याज दर कहाँ जाएंगे? इस आर्थिक युद्ध के चलते मौजूदा समस्याओं का प्रहार दोगुने- तिगुने हो सकता है. याद रहे अमेरिका में 1980 आते-आते ब्याज दरें 20-21 % तक पार गयी थीं. ऐसे में यदि समाधान न निकले तो पूरे विश्व की इकॉनमी ठप होने की कगार पर पहुंच जायेगी, बेरोज़गारी बढ़ जाएगी और लोगों का जीना दूभर हो जाएगा. अभी भी अफ्रीका और मिडिल ईस्ट में स्थित देश चिंतित हैं क्योंकि वे रूस और यूक्रेन पर गेहूं के लिये निर्भर हैं.

आज ऐसी स्थिति बन चुकी है जहां दोनों पक्षों से न निगला जा रहा है न ही उगले. ऐसे समय में कूटनीति ही काम आती है. कूटनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिये इस समस्या का समाधान निकालना आवश्यक है, चाहे वो संयुक्त राष्ट्र हो या कोई अन्य देश इसका नेतृत्व करे.

भारत पर बार-बार दबाव पड़ रहा है कि वह युद्ध में अपना पक्ष स्पष्ट करे. क्या यह युद्ध थमेगा? 

भारत का पक्ष बिल्कुल स्पष्ट है, वो शांति के पक्ष में है और चाहता है कि जल्द से जल्द दोनों पक्षों के बीच समझौता हो और युद्ध रोकने की सहमति बने. हमारे अलावा भी कई और देश हैं जो चाहते हैं कि किसी भी तरह से ये जंग रुके और इसकी आग को आगे और फैलने से रोका जा सके. क्योंकि सभी जानते हैं कि इसको बढ़ाना आसान है लेकिन रोक पाना अत्यंत कठिन. आज ऐसी स्थिति बन चुकी है जहां दोनों पक्षों से न निगला जा रहा है न ही उगले. ऐसे समय में कूटनीति ही काम आती है. कूटनीतिक हस्तक्षेप के ज़रिये इस समस्या का समाधान निकालना आवश्यक है, चाहे वो संयुक्त राष्ट्र हो या कोई अन्य देश इसका नेतृत्व करे. इसको अगर हम अच्छाई और बुराई के बीच अंतिम युद्ध की संज्ञा देंगे तो ये कौन तय करेगा कि कौन सा पक्ष अच्छा और सच्चा है? इसलिये इस समस्या को काले या सफ़ेद (binary conflict) के रूप मैं नहीं देखा जाए क्योंकि ऐसे टकराव का अंत तो तृतीय विश्व युद्ध ही कर सकता है. वास्तव में कोई वहां नहीं पहुंचना चाहता है, न नेटो न रूस — हो सकता है यही एक डर शांति की स्थापना में कारक बन इस युद्ध को रोक सके.

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Sunjoy Joshi

Sunjoy Joshi

Sunjoy Joshi has a Master’s Degree in English Literature from Allahabad University, India, as well as in Development Studies from University of East Anglia, Norwich. ...

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