Author : Nivedita Kapoor

Published on Aug 09, 2019 Updated 0 Hours ago

वक़्ती तौर पर और अगले कुछ दशकों तक दुनिया के अस्थिर हालात और सामरिक ज़रूरतों की वजह से रूस और चीन नज़दीक आ रहे हैं. इससे उस विचार को बल मिलता है कि रूस और चीन कभी भी एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं होंगे.

रूस-चीन संबंध: स्थायी साझेदारी की तरफ़ बढ़ते क़दम

एक दशक पहले, रूस और चीन की साझेदारी के बारे में ऑस्ट्रेलिया के विदेशी मामलों के विशेषज्ञ बोबो लो ने कहा था कि ये, ‘सुविधा की धुरी’ है. उस वक़्त ये कहा गया था कि दोनों देशों के संबंध का इतिहास विवादित रहा है. उनके बीच कई ऐसे अनसुलझे मुद्दे हैं जिन पर आगे चल कर संघर्ष हो सकता है. फिर, रूस और चीन की ताक़त का संतुलन भी चीन के पक्ष में झुक रहा है. ऐसे में जब चीन की कोशिश ये है कि वो पश्चिमी देशों के साथ बेहतर संबंध बनाए रखे, तो रूस और चीन की इस साझेदारी की संभावनाएं बहुत सीमित हैं.

लेकिन, घरेलू कारणों, अपने देश के हितों और विश्व के बदलते परिवेश ने रूस और चीन के संबंध को नया आयाम दिया है. इस में बड़ा योगदान रूस और पश्चिमी देशों के बीच संबंध बिगड़ने का भी बड़ा योगदान रहा है.

रूस और चीन के बीच बढ़ती इस नज़दीकी की शुरुआत पिछले दशक के वित्तीय संकट से हुई थी. 2014 के यूक्रेन संकट और रूस के क्रीमिया पर क़ब्ज़ा करने के बाद से रूस और चीन की साझेदारी और मज़बूत हुई है. पश्चिमी देशों से लगातार ख़राब होते संबंधों की वजह से रूस के लिए चीन से दोस्ती मज़बूत करना ज़रूरी हो गया था. आज की तारीख़ में चीन, रूस का सबसे मज़बूत विदेशी साझीदार है. वहीं, दूसरी तरफ़ यूरोप और अमेरिका से रूस के संबंध बेहद बुरे दौर से गुज़र रहे हैं. रूस, एशिया में भी मज़बूत साझीदार खोजने के लिए संघर्षरत ही है.

द्विपक्षीय विकास की तरफ़ बढ़ते क़दम दर क़दम

वर्ष 2019 में रूस और चीन के आपसी संबंध के 70 साल पूरे हो गए. इस मौक़े पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि इस वक़्त दोनों देशों के रिश्ते इतिहास के सबसे अच्छे दौर से गुज़र रहे हैं. जानकार भी इस बात पर रज़ामंदी जताते हैं. उनका कहना है कि 1950 के दशक के बाद से रूस और चीन इतने क़रीब कभी नहीं आए थे. तब, सोवियत संघ, चीन में कम्युनिस्ट सरकार की स्थापना में बढ़-चढ़कर सहयोग कर रहा था.

इस बात की आशंका बार-बार जताई जाती है कि रूस, चीन की अर्थव्यवस्था के लिए कच्चे माल का सप्लायर भर है. फिर भी, चीन के अंदर वो क्षमता है कि वो अपनी अर्थव्यवस्था को ऐसी निर्भरताओं से बचा कर रख सके.

दोनों देशों के राष्ट्रपतियों के बीच नियमित मुलाक़ातों के अलावा, आज रूस और चीन के कई मंत्री नियमित अंतराल पर बैठकें करते हैं. ये मुलाक़ातें संस्थागत कर दी गई हैं. इनके लिए 20 उप-आयोग बनाए गए हैं. इनके अलावा दोनों देशों के बीच कई वर्किंग ग्रुप भी हैं जो नियमित रूप से मिलते रहते हैं. 2018 में रूस और चीन के बीच आपसी व्यापार 100 अरब डॉलर तक पहुंच गया था. रूस, ज़्यादातर प्राकृतिक संसाधनों का चीन को निर्यात करता है. और वहां से कल-पुर्ज़े और मशीनरी का आयात करता है. इसके अलावा घरेलू इस्तेमाल की मशीनों का भी रूस, चीन से आयात करता है. रूस के कुल विदेशी व्यापार में चीन का हिस्सा 14.1 प्रतिशत है. वहीं, चीन के कुल विदेशी व्यापार में रूस की हिस्सेदारी महज़ 1.7 फ़ीसद है. चीन, मुख्य तौर पर रूस से गैस और तेल का आयात करता है. अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इनकी क़ीमतों में उतार-चढ़ाव की वजह से दोनों देशों के कारोबार में भी उतार-चढ़ाव आता रहता है. हालांकि, इस बात की आशंका बार-बार जताई जाती है कि रूस, चीन की अर्थव्यवस्था के लिए कच्चे माल का सप्लायर भर है. फिर भी, चीन के अंदर वो क्षमता है कि वो अपनी अर्थव्यवस्था को ऐसी निर्भरताओं से बचा कर रख सके.

रूस पर पश्चिमी देशों की पाबंदी की वजह से आज, चीन उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बन गया है. 2019 में रूस, चीन को कच्चे तेल का निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया था. जबकि इससे पहले सऊदी अरब, चीन को सबसे ज़्यादा कच्चा तेल निर्यात करता था. 400 अरब डॉलर की पॉवर ऑफ़ साइबेरिया डील के तहत रूस, चीन को प्राकृतिक गैस का निर्यात करेगा. इस समझौते पर विवाद भी हो रहा है कि ये सौदा चीन के फ़ायदे के लिए हुआ है. पॉवर ऑफ़ साइबेरिया समझौता 2014 में रूस पर पश्चिमी देशों की पाबंदी के ठीक बाद हुआ था. इस डील के तहत जो पाइपलाइन बिछाई जाएगी, वो केवल चीन को गैस की सप्लाई करेगी. इससे रूस के अपने प्राकृतिक संसाधनों के लिए एशियाई देशों में नए बाज़ार तलाशने की संभावनाओं को भी झटका लगेगा. चीन को इस बात की आशंका बनी रहती है कि पश्चिमी देशों से संघर्ष की सूरत में उसके लिए तेल के आयात के प्रमुख समुद्री रास्तों को रोका जा सकता है. इन समुद्री रास्तों से चीन की कच्चे तेल की कुल ज़रूरत का 80 प्रतिशत गुज़रता है. इसी वजह से चीन लगातार रूस और मध्य एशियाई देशों से तेल के आयात को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है, ताकि पश्चिमी देशों से टकराव की स्थिति में उसकी ऊर्जा सुरक्षा बनी रहे. इसी कारण से चीन, रूस और मध्य एशियाई देशों से सीधे तेल और गैस की पाइपलाइन बिछाने पर ज़ोर दे रहा है. इसके अलावा चीन की कोशिश है कि वो अपनी कच्चे तेल की ज़रूरत के लिए किसी एक देश पर पूरी तरह निर्भर न रहे.

साथ ही, रूस ने अपनी नीतियों में बदलाव करते हुए सुदूर पूर्व और साइबेरिया में निवेश के लिए चीन की कंपनियों को इजाज़त दे दी है. इससे इस बात का संकेत मिलता है कि रूस की सरकार, चीन की तरफ़ से आने वाले ‘पीले संकट’ की आशंकाओं से उबर चुका है. उसे आज विदेशी निवेश की सख़्त ज़रूरत है. पिछले साल रूस ने डॉलर में कारोबार कम करने की नीति पर अमल करते हुए, अपने विदेशी मुद्रा भंडार में चीन की मुद्रा युआन की हिस्सेदारी बढ़ाकर 15 प्रतिशत पहुंचा ली थी.

आर्थिक संबंधों से इतर, रूस और चीन के सामरिक संबंध बहुत संतुलित नज़र आते हैं. हाल ही में, 23 जुलाई को पहली बार रूस और चीन के सुरक्षा बलों ने साझा हवाई गश्त का अभ्यास किया था. ये अभ्यास जापान सागर और पूर्वी चीन सागर में किया गया था. चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा था कि इस गश्त का मक़सद, ‘रूस और चीन की निगरानी करने और ऑपरेशन करने की क्षमता’ बढ़ाने के लिए की गई थी. इससे पहले 18 जुलाई को रूस के प्रधानमंत्री दिमित्री मेदवेदेव ने अपने देश के रक्षा मंत्रालय को आदेश जारी किया था कि वो चीन की सेना के साथ सैन्य सहयोग के समझौते को जल्द से जल्द पूरा करे. इसके तुरंत बाद चीन के रक्षा मामलों से जुड़ा अपना श्वेत पत्र जारी किया था. इसमें कहा गया था कि रूस और चीन के बीच सैन्य सहयोग लगातार बढ़ रहा है.

दोनों देशों के बीच बढ़ते भरोसे का ही नतीजा है कि रूस ने अपने अत्याधुनिक हथियारों का निर्यात चीन को न करने की नीति का परित्याग करते हुए चीन को सुखोई-35 लड़ाकू विमान और एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम बेचने का सौदा 2015 में ही किया था. लंबी दूरी तक हमला करने की अपनी क्षमता के कारण रूस के सुखोई-35 लड़ाकू विमान चीन के लिए बेहद ज़रूरी हो गए हैं, ताकि वो पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर पर अपना हक़ मज़बूती से बनाए रखे. वहीं, एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की मदद से चीन, ताइवान, दक्षिणी चीन सागर और पूर्वी चीन सागर से किसी भी हवाई हमले से अपनी सुरक्षा कर सकेगा. इससे इस इलाक़े में अमरीकी सामरिक ताक़त को कड़ी टक्कर मिलेगी और सैन्य ताक़त का पलड़ा चीन के पक्ष में झुकेगा.

बदलाव के संकेत उस वक़्त दिखे थे, जब रूस के सबसे बड़े सैन्य अभ्यास वोस्टोक 2018 के दौरान चीन के सैन्य बल भी मौजूद दिखे. इससे पहले रूस ने कभी भी अपने घरेलू सैन्य अभ्यास में सीएसटीओ देशों के अलावा किसी और देश की सेना को शामिल होने का न्यौता नहीं दिया था. जानकारों का मानना है कि रूस की सरकार के    के निगाह में अब चीन उतना बड़ा ख़तरा नहीं है, जितना वो पहले मानते थे. दोनों ही देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य हैं. इसलिए वो ईरान, उत्तर कोरिया और सीरिया जैसे अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भी आपसी सहयोग से काम लेते हैं.

सहयोग का रणनीतिक तर्क

रूस और चीन की लंबी सीमा पर शांति बनाए रखना, दोनों ही देशों के हित में है. इसमें अस्थिरता की कोई भी घटना दोनों देशों के संसाधनों की प्राथमिकता बदलने का दबाव बनाएगी. आज की तारीख़ में दोनों ही देश ऐसा जोख़िम नहीं ले सकते हैं. रूस ने आख़िरकार ये मानना शुरू कर दिया है कि शीत युद्ध के ख़ात्मे के बाद से वो सुपरपावर नहीं रह गया है. रूस और चीन के बीच जो प्रमुख विवादित मसले थे, उन में पूरी रूस पर चीन का क़ब्ज़ा, मध्य एशिया में रूस के हितों और असर पर चीन का दखल और सैन्य तकनीक में चीन के बाज़ी मार लेने के डर प्रमुख थे. रूस के विशेषज्ञों ने इन सभी मसलों की गहराई से समीक्षा की, तो पाया कि ये डर ग़ैरवाजिब हैं. इस वजह से दोनों देशों के रिश्ते और मज़बूत हो रहे हैं.

ये भी एक हक़ीक़त है कि अपनी पूर्वी सीमा पर रूस नई साझेदारियां विकसित करने में नाकाम रहा है. इसके अलावा उसके पश्चिमी देशों से भी ताल्लुक़ात ख़राब हो गए हैं. नतीजा ये हुआ कि रूस को अपनी रणनीतिक पहुंच बढ़ाने के लिए नए साझीदारों की ज़रूरत है. चीन इस अपेक्षा पर खरा उतरता है. इसका ये मतलब नहीं है कि चीन को रूस की ज़रूरत नहीं है. चीन को रणनीतिक मज़बूती देने के अलावा आज रूस, चीन को कच्चे तेल और गैस का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है. इसके अलावा रूस आज चीन को आधुनिक हथियार भी बेच रहा है. अगर आज रूस, चीन के बजाय अमेरिका से क़रीबी रिश्ते बनाने पर ज़ोर देता है, तो ये उभरती महाशक्ति बनने के चीन के ख़्वाब को पूरा करने में बाधक बन जाएगा. ख़ासतौर से  हिन्द-प्रशांत के क्षेत्र में. यही वजह है कि चीन, पूर्व महाशक्ति रूस को पूरा सम्मान देता है.

इसके अलावा रूस और चीन ऐसी विश्व व्यवस्था के पक्षधर हैं, जिसमें कई बड़ी ताक़तें शामिल हों, न कि केवल अमेरिका की दादागीरी चले. वो किसी देश के अंदरूनी मामलों में किसी और देश के दखल की नीति के भी ख़िलाफ़ हैं. विश्व कूटनीति में रूस और चीन दोनों का ये मानना है कि दुनिया को हर देश की संप्रभुता का सम्मान करना चाहिए. इसी बुनियाद पर तमाम देशों के आपसी संबंधों का विकास होना चाहिए. हालांकि, दोनों ही देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समर्थक हैं. चीन और रूस ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र को  हिन्द-प्रशांत क्षेत्र घोषित करने की अमेरिकी नीति का विरोध किया है. रूस के विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने तो इसे ‘चीन की घेरेबंदी’ की नीति करार देते हुए इसका विरोध किया था. हालांकि, रूस ने हमेशा ये कहा है कि वो विश्व व्यवस्था में ऐसे किसी भी प्रस्ताव का समर्थक है, जिसमें खेमेबंदी न हो. रूस और चीन ने लगातार अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी का विरोध किया है.

इस में कोई दो राय नहीं है कि रूस और चीन के संबंध में लगातार असंतुलन बढ़ रहा है. चीन एक महाशक्ति के तौर पर लगातार अपनी ताक़त को मज़बूत कर रहा है. वहीं, रूस ने ये मान लिया है कि वो इस रफ़्तार का मुक़ाबला नहीं कर सकेगा. लेकिन, रूस के पास एक महाशक्ति होने का लंबा तजुर्बा रहा है. इसके अलावा रूस के पास परमाणु हथियारों का बड़ा ज़ख़ीरा है. वो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी है. साथ ही रूस हथियारों का बड़ा निर्यातक भी है. यही वजह है कि रूस अपने पड़ोसी देशों के अलावा सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों में भी असर रखता है. पड़ोसी देशों के साथ इसके संबंधों को देखते हुए भी ये माना जाता है कि रूस की अनदेखी नहीं की जा सकती है.

चीन को इस बात की आशंका बनी रहती है कि पश्चिमी देशों से संघर्ष की सूरत में उसके लिए तेल के आयात के प्रमुख समुद्री रास्तों को रोका जा सकता है. इन समुद्री रास्तों से चीन की कच्चे तेल की कुल ज़रूरत का 80 प्रतिशत गुज़रता है. इसी वजह से चीन लगातार रूस और मध्य एशियाई देशों से तेल के आयात को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है,

हालांकि, रूस और चीन किसी भी तरह के गठजोड़ की बात से साफ़ इनकार करते हैं. उन्हें लगता है कि ऐसी बातों से दूसरी क्षेत्रीय ताक़तें असहज हो जाएंगी और इस से बचने के लिए वो अमेरिका की गोद में जाकर बैठ सकती हैं. वैसे भी, किसी गठजोड़ की सूरत में रूस जूनियर पार्टनर ही होगा और रूस ऐसा दर्ज़ा पाने से परहेज़ ही करेगा. इसके अलावा आगे चल कर पूर्वी रूस में चीन की आर्थिक शक्ति के असर के डर भी दोनों देश किसी औपचारिक गठजोड़ से बच रहे हैं. क्योंकि ऐसा हुआ तो रूस, चीन को कच्चे माल का निर्यातक बनकर रह जाएगा. चीन ने भी अब्ख़ाज़ियाद, दक्षिणी ओसेशिया और क्रीमिया में रूस का खुलकर समर्थन नहीं किया था. रूस का समर्थन करने के बजाय चीन ने इस मामले में संतुलित दूरी बनाए रखना बेहतर समझा था. इसी तरह, रूस ने भी दक्षिणी चीन सागर को लेकर अपनी विवाद से ख़ुद को अलग रखने की नीति बनाए रखी है. क्योंकि इस क्षेत्र के दूसरे दावेदार वियतनाम से भी रूस के क़रीबी संबंध रहे हैं. रूस, वियतनाम को हथियारों का बड़ा निर्यातक है. इसके अलावा वो दक्षिणी चीन सागर में तेल की खोज के अभियान में भी वियतनाम के साथ साझीदार रहा है. पूर्वी चीन सागर को लेकर भी रूस की यही नीति रही है.

हालांकि रूस और चीन ने हाल ही में जिस तरह से दक्षिणी चीन सागर में हवाई गश्त का अभ्यास किया था, उससे दोनों देशों की बढ़ती नज़दीकी अमेरिका के लिए नई चुनौती खड़ी कर सकती है. ये भारत के लिए भी चिंता की बात है. हथियारों की फरोख़्त से मुनाफ़ा, रूस के लिए अहम् कारण है. इसके अलावा भी चीन और रूस के बढ़ते सामरिक संबंध एक नई हक़ीक़त हैं. 2014 के बाद दोनों देशों की रणनीतिक सोच में आया बदलाव इसकी सबसे बड़ी वजह है.

रूस के ऊपर पश्चिमी देशों की पाबंदी और उनके साथ ख़राब होते संबंध की वजह से ही रूस आज चीन के क़रीब आता जा रहा है. क्योंकि चीन भी अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध में उलझा हुआ है. इसलिए वो रूस के साथ संघर्ष की आशंकाएं कम करना चाहता है. वैसे, ये ज़रूरी नहीं है कि रूस की विदेश नीति के हर जोख़िम भरे फ़ैसले से चीन सहमत ही हो. क्योंकि चीन को भी पश्चिमी देशों से क़रीबी संबंध से फ़ायदा होता है. फिर भी चीन को लगता है कि वो रूस के साथ बराबरी की दोस्ती गांठ सकता है क्योंकि इस में भी उसका ही हित है.

निष्कर्ष

साफ़ है कि रूस और चीन के सामरिक संबंध लगातार मज़बूत हो रहे हैं. जबकि दोनों ही देशों के संबंध में असंतुलन साफ़ दिखता है. दोनों देशों ने बड़ी चतुराई से विवादित मसलों से दूरी बनाने में क़ामयाबी हासिल की है. साथ ही उन्होंने आपसी सहयोग के नए मोर्चे भी तलाशे हैं ताकि बदलती विश्व व्यवस्था में आपसी सहयोग से फ़ायदा उठा सकें. चुनौतियों के बावजूद रूस और चीन एक-दूसरे से संघर्ष में नहीं उलझे हैं और अपने परस्पर विरोधाभासी हितों को साधते हुए आपसी संबंध और साझेदारी को मज़बूत किया है.

जानकारों को इस बात की फ़िक्र है कि क्या चीन की बढ़ती ताक़त को देखते हुए रूस भी उससे बराबरी का संबंध बनाए रख सकेगा? क्योंकि चीन के लगातार विकास की वजह से सामरिक और आर्थिक संतुलन का पलड़ा लगातार उसकी तरफ़ झुक रहा है. रूस को आगे चल कर इसके असर को लेकर चिंताएं हैं. उसे लगता है कि आगे चलकर चीन क्षेत्रीय और विश्व स्तर पर अपनी दादागीरी क़ायम करने की कोशिश करेगा. लेकिन, वक़्ती तौर पर और अगले कुछ दशकों तक दुनिया के अस्थिर हालात और सामरिक ज़रूरतों की वजह से रूस और चीन नज़दीक आ रहे हैं. इससे उस विचार को बल मिलता है कि ‘रूस और चीन कभी भी एक दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं होंगे’, भले ही वो हर मसले पर एक-दूसरे के साथ न हों.

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