हर एक गुजरते हुए दिन के साथ दुनिया और ध्रुवीकृत होती जा रही है. इसी सप्ताह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के रूस दौरे और जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की यूक्रेन यात्रा से यह ध्रुवीकरण और मुखरता से रेखांकित होता है. किशिदा के दौरे का उद्देश्य जहां यूक्रेन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करना था तो चीनी राष्ट्रपति एक तीर से दो निशाने लगाने के मकसद से मास्को पहुंचे. एक तो उनकी मंशा रूस और यूक्रेन के बीच शांति के प्रयासों में मध्यस्थ की भूमिका में दिखने की रही, लेकिन इससे भी बढ़कर उनका लक्ष्य चीन-रूस संबंधों को और मजबूती प्रदान करना रहा. आज बड़े स्तर पर शक्ति का ध्रुवीकरण हो रहा है. यह एक व्यापक आधारभूत वास्तविकता है जो नए उभरते वैश्विक ढांचे को आकार दे रही है. इसमें भारत सहित सभी देशों के लिए भविष्य की दृष्टि से चिंता के संकेत छिपे हैं.
किशिदा के दौरे का उद्देश्य जहां यूक्रेन के साथ एकजुटता प्रदर्शित करना था तो चीनी राष्ट्रपति एक तीर से दो निशाने लगाने के मकसद से मास्को पहुंचे.
जहां तक रूस और यूक्रेन के बीच शांति के प्रयासों की बात है तो बीते दिनों सऊदी अरब और ईरान के बीच शांति कराने में मिली सफलता से उत्साहित चीन पश्चिम एशिया के बाद इस सिलसिले को यूरेशिया में भी दोहराकर वैश्विक नेतृत्व के मोर्चे पर अपनी साख और दावे को मजबूती देना चाहता है. वैसे, पश्चिम एशिया की राजनीति में अमेरिका की वजह से एक रिक्तता की स्थिति आई है और रियाद-तेहरान समझौता मुख्य रूप से कूटनीतिक रिश्तों को फिर से शुरू करने पर ही केंद्रित है.
शांति समझौते की गुंजाइश
इसके उलट रूस-यूक्रेन के बीच किसी तरह के शांति समझौते की गुंजाइश फिलहाल नहीं दिखती. हालांकि, पुतिन ने इतना जरूर कहा है कि चीनी शांति प्रस्ताव के कई प्रविधान ऐसे हैं, जिन्हें यूक्रेन के साथ किसी संघर्ष विराम का आधार बनाया जा सकता है, लेकिन यह पश्चिमी देशों और कीव पर निर्भर करेगा कि क्या वे इसके लिए तैयार होंगे. उन्होंने यह भी कहा कि कोई भी शांति वार्ता रणभूमि की वास्तविकता से निर्धारित होगी. अभी तक दोनों ही पक्षों को ऐसा नहीं लगता कि वार्ता की मेज पर आने से उनके लिए कोई लाभ की स्थिति बनेगी. दूसरी ओर गत माह 12 सूत्रीय शांति प्रस्ताव तैयार करने के बावजूद यूक्रेन में शांति चीन की प्राथमिकता नहीं दिखती.
पुतिन ने इतना जरूर कहा है कि चीनी शांति प्रस्ताव के कई प्रविधान ऐसे हैं, जिन्हें यूक्रेन के साथ किसी संघर्ष विराम का आधार बनाया जा सकता है, लेकिन यह पश्चिमी देशों और कीव पर निर्भर करेगा कि क्या वे इसके लिए तैयार होंगे. उन्होंने यह भी कहा कि कोई भी शांति वार्ता रणभूमि की वास्तविकता से निर्धारित होगी.
चीनी राष्ट्रपति के रूप में अप्रत्याशित रूप से तीसरा कार्यकाल मिलने के बाद शी पहली बार किसी विदेशी दौरे पर रूस गए, जो विश्व के दो सबसे शक्तिशाली तानाशाह देशों के बीच रिश्तों की मजबूती को दर्शाता है. दोनों देशों को ‘रणनीतिक साझेदार’ और ‘महान पड़ोसी शक्तियां’ बताते हुए शी ने कहा कि चीनी और रूसी रिश्ते ‘द्विपक्षीय संवाद की परिधि से परे’ जा चुके हैं. दोनों नेताओं की जुगलबंदी से यही संकेत मिले कि वित्त, परिवहन-ढुलाई एवं ऊर्जा के क्षेत्र में द्विपक्षीय रिश्ते और परवान चढ़ने जा रहे हैं. खासतौर से शी ने ऊर्जा, कच्चा माल और इलेक्ट्रानिक्स जैसे क्षेत्रों पर जोर देने की बात कही.
असल में कई मोर्चों पर पश्चिमी देशों द्वारा अलग-थलग कर दिए गए रूस और चीन एक दूसरे के साथ सहयोग बढ़ाकर उससे हुए नुकसान की कुछ हद तक भरपाई कर सकते हैं. व्यापार और आर्थिकी के अतिरिक्त विश्व में बदलता शक्ति संतुलन भी दोनों देशों के रिश्तों की दशा-दिशा तय कर रहा है. इसके चलते पश्चिम में रूस और चीन के बीच मजबूत होते रक्षा संबंधों पर चिंता भी जताई जा रही है. नाटो के महासचिव ने हाल में चीन को चेतावनी दी थी कि वह रूस को घातक हथियार न उपलब्ध कराए. जो भी हो, अब इन दोनों देशों के रिश्तों में रूस कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका में आ गया है.
चीन-रूस गठजोड़
कुछ साल पहले तक इस साझेदारी में रणनीतिक उत्साह का अभाव था. अब कुछ पश्चिमी नीतियों का पहलू कहें या पुतिन और शी के अपने-अपने विदेशी एजेंडे पर टिके रहने का दांव, इस समय चीन-रूस गठजोड़ शीत युद्ध के उपरांत भू-राजनीति को नए सिरे से आकार देने वाली एक धुरी के रूप में उभरता दिख रहा है. वहीं, आर्थिक रूप से नाजुक और व्यापक स्तर पर अलग-थलग पड़े रूस की अपनी भू-राजनीतिक आकांक्षाओं के लिए चीन पर निर्भरता कहीं अधिक बढ़ गई है. जबकि अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए बीजिंग के लिए मास्को की अपनी उपयोगिता है. हालांकि, पश्चिम में चीन के जितने बड़े पैमाने पर आर्थिक हित जुड़े हैं, उसे देखते हुए वह किसी प्रकार के सैन्य टकराव में शामिल होने से परहेज ही करेगा.
रूस के साथ ठोस सामरिक सहयोग यूरोप के साथ रिश्तों में बीजिंग के लिए नकारात्मकता का संदेश देगा. ऐसे में शी के लिए यह बड़ी सावधानी से संतुलन साधने की कवायद है.
जहां दुनिया ने देखा कि पुतिन ने अपने मित्र के स्वागत में लाल कालीन बिछवाया, वहीं चीनी नेता ने शायद ही किसी संभावित सैन्य सहयोग के संकेत दिए. हालांकि, अमेरिका के साथ बढ़ते टकराव विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बनती ऐसी स्थिति को देखते हुए शी को पुतिन की आवश्यकता महसूस होती है, लेकिन रूस के साथ ठोस सामरिक सहयोग यूरोप के साथ रिश्तों में बीजिंग के लिए नकारात्मकता का संदेश देगा. ऐसे में शी के लिए यह बड़ी सावधानी से संतुलन साधने की कवायद है, जिसमें पुतिन को अपने पाले में लाकर वह उभरते शक्ति संतुलन का पलड़ा अपने पक्ष में कर सकें. यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब शी अमेरिका को खलनायक के रूप में चित्रित करने और चीन को जटिल समस्याओं का समाधान करने वाले देश के रूप में प्रस्तुत करने में लगे हैं. शी के रूस दौरे से पहले ही चीनी विदेशी मंत्री ने अपने यूक्रेनी समकक्ष के साथ वार्ता की थी. ऐसा अनुमान है कि मास्को से वापसी के बाद शी यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की से फोन पर बात करेंगे.
कूटनीतिक कवायद
ऐसी कूटनीतिक कवायद से न तो यूक्रेन युद्ध का कोई समाधान निकलने से रहा और न ही इसमें ऐसी कोई मंशा दिखती है. शी का मुख्य उद्देश्य तो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने अनुकूल शक्ति संतुलन साधना है और पुतिन को कनिष्ठ साझेदार बनाना है, ताकि पश्चिम का ध्यान भटका सकें कि वह तो उनकी सहूलियत के साझेदार हैं. चीन और रूस की इस आकार लेती धुरी के भारतीय सामरिक समीकरणों की दृष्टि से भी गहरे निहितार्थ हैं. भारतीय सामरिक बिरादरी अभी तक इस मुद्दे पर बहस से बचती आई है. यदि नई दिल्ली उभरते वैश्विक शक्ति संतुलन का अपने पक्ष में अधिकाधिक लाभ उठाना चाहती है तो उसे यह रुख-रवैया बदलना होगा.
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यह लेख जागरण में प्रकाशित हो चुका है.
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