Author : K. Yhome

Published on Dec 27, 2016 Updated 0 Hours ago
रोहिंग्या संकट: दक्षिणपूर्व एशिया की उभरती सुरक्षा चिंता

लंबे समय से, दक्षिण एवं दक्षिणपूर्व एशिया उग्रतावाद के दुष्परिणामों को देखता रहा है। म्यांमार के उत्तरी रखीने राज्य में वर्तमान में जारी संघर्ष, जिसे रोहिंग्या संकट के नाम से जाना जाता है, के मुसलमानों से संबंधित जुड़ी संघर्ष की प्रकृति ने क्षेत्रीय सुरक्षा, मानवतावादी संकट से संबंधित कई चिंताएं पैदा कर दी हैं।

हाल में, उत्तरी रखीने राज्य में संघर्ष फिर से उभर आया जब बर्मा की सेना ने सीमा की तीन चौकियों पर आतंकी हमले, जिसमें म्यांमार-बांग्लादेश सरहद पर नौ पुलिसवालों की मौत हो गई थी, के बाद अक्तूबर में अराजकता विरोधी कार्रवाइयों की शुरुआत की। पिछले कुछ सप्ताह के दौरान हजारों रोहिग्यां अपने उपर बढ़ती हिंसा से बचने के लिए देश से भाग चुके हैं जबकि लाखों देश में ही विस्थापित हो चुके हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, 10 हजार से अधिक लोग भाग कर बांग्लादेश जा चुके हैं। जो लोग भागने में कामयाब रहे हैं, उन्होंने आगजनी, हत्या, बलात्कार, गांवों में मकानों को गिराए जाने समेत कई भयानक कहानियां सुनाई हैं। म्यांमार की सरकार ने संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में सहायता एजेंसियों एवं पत्रकारों को प्रवेश करने से मना कर दिया और दमन के इन आरोपों का खंडन किया है।

इस बौद्ध धर्म बहुल देश में अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों की अनुमानित संख्या 13 लाख है और वे ज्यादातर देश के तटीय राज्य रखीने के उत्तरी हिस्से में रहते हैं जिसकी सीमा बांग्लादेश से लगती है। म्यांमार सरकार उन्हें बांग्लादेश के ‘अवैध प्रवासी‘ मानती है और वे नागरिकता के अधिकारों से वंचित हैं।

वर्ष 2012 में, जब जातीय रखीने बौद्धों एवं जातीय रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हिंसा भड़की, तो इसे व्यापक रूप से दो जातीय-धार्मिक समूहों के बीच एक सांप्रदायिक संघर्ष के रूप में देखा गया। रोहिंग्याओं के खिलाफ ताजा भड़की हिंसा इस विचार को चुनौती दे रही है। कुछ कार्यकर्ताओं का तर्क है कि यह मुद्दा और कुछ नहीं बल्कि केवल एक ‘राज्य प्रायोजित जातीय उत्पीड़न’ है। इस दावे को तब और भी बल मिला जब बांग्लादेश स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अधिकारी ने बताया कि उत्तरी रखीने राज्य के हाल के संघर्ष ‘संपूर्ण प्रजाति के प्रक्षालन’ से कम नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार के उच्चायुक्त ने कहा है कि रोहिंग्या ‘मानवता के खिलाफ अपराधों’ के शिकार हो सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान, जो रखीने में हिंसा का समाधान ढूंढने से संबंधित एक आयोग के अध्यक्ष हैं, ने सैन्य दुरुपयोग की खबरों पर गहरी चिंता जताई लेकिन उन्होंने रोहिंग्या संकट को परिभाषित करने के लिए ‘नरसंहार’ शब्द का उपयोग करने से मना किया। अगर म्यांमार के सैनिक रोहिंग्याओं पर अपना उत्पीड़न जारी रखते हैं तो इस मुद्दे पर जारी बहस में और तेजी आएगी।

संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में मीडिया एवं सहायता एजंसियों की पहुंच को प्रतिबंधित करने से ‘जातीय उत्पीड़न’ के आरोपों को और बल ही मिलेगा। चंद उग्रवादी तत्वों की करतूतों के लिए पूरे समुदाय को निशाना बनाने से कट्टरतावाद को बढ़ावा ही मिलेगा। ऐसी कार्रवाइयां इस विचार को और मजबूत बनाएंगी कि म्यांमार ‘जातीय उत्पीड़न’ आरंभ कर रहा है। इसके बजाए, म्यांमार सरकार को वैसे लोगों पर शिकंजा कसने के अपने प्रयासों में रोहिंग्या समुदाय एवं क्षेत्रीय सरकारों के साथ मिल कर काम करना चाहिए, जो देश और व्यापक क्षेत्र को अस्थिर बनाने का प्रयास कर रहे हैं।

म्यांमार हालात को संभालने की बेशक कोशिश कर रहा है, पर रोहिंग्याओं के खिलाफ जारी हिंसा के कई निहितार्थ हैं। सर्वाधिक तात्कालिक निहितार्थ मानवतावादी संकट है जो सैन्य संचालनों के प्रारंभ होने के बाद से ही उभर कर सामने आ रहा है। संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों तक सीमित मानवतावादी संकट की वजह से बहुत से लोगों के सामने भोजन और चिकित्सा देखभाल की किल्लत पैदा हो गई है।

बांग्लादेश भागने वाले कई रोहिंग्याओं को बांग्ला देश के तटीय रक्षक वापस भगा रहे हैं। ऐसी भी चिंताएं जताई जा रही हैं कि कोई अन्य विकल्प न होने पर कई लोगों को बंगाल की खाड़ी का रुख करने को बाध्य होना पड़ सकता है। पिछले वर्ष ‘बोट पीपुल’ की कहानी से दुनिया भर में शोक की लहर दौड़ गई थी जब म्यांमार में उत्पीड़न से भाग रहे हजारों लोगों को खुले समुद्र में मरने के लिए छोड़ दिया गया क्योंकि क्षेत्रीय देशों ने उन्हें लेकर आने वाली नौकाओं को वापस बंगाल की खाड़ी में भेज दिया था।

इस क्षेत्र में बढ़ती एक अन्य चिंता यह है कि अगर म्यांमार में रोहिंग्याओं का दमन जारी रहा तो इस बात के आसार हैं कि बहुत सारे लोग उग्रवाद का रुख कर सकते हैं और यह इस्लामी आतंकवादियों को म्यांमार में पैर जमाने का दरवाजा खोल सकता है। इतना तो तय है कि रोहिंग्या समूहों के क्षेत्र के उग्रवादियों के साथ संपर्क की पहले से ही खबरें आने लगी हैं। सीमा चौकियों पर हमले के बाद एक बयान में म्यांमार के राष्ट्रपति हतिन क्वाव ने इस घटना के लिए अपेक्षाकृत कम चर्चित रोहिंग्या सैन्य समूह ‘अका मल मुजाहिदीन'(एएमएम) पर आरोप लगाया।

मीडिया में आई खबरों के अनुसार, एएमएम का नेता संभवतः पाकिस्तान में प्रशिक्षित है और इस समूह की जड़ें हरकत-उल-जिहाद इस्लामी-अराकान (हुजी-ए) से जुड़ी हैं जिसके पाकिस्तानी तालिबान से गहरे ताल्लुकात हैं। खबरों में यह भी दावा किया गया है कि हुजी-ए का प्रमुख अब्दस कादूस बर्मी रोहिंग्या मूल का एक पाकिस्तानी नागरिक है जिसने उत्तरी रखीने राज्य के एक गांव से हाफिज तोहर की भर्ती की और पाकिस्तान में उसके प्रशिक्षण के इंतजामात किए। अब वह एएमएम का प्रमुख है। मीडिया की खबरों में कहा गया कि हफीज सईद की अगुवाई में लश्करे-तैयबा/जमातुद दावा (एलईटी/जेयूडी) के साथ अपने घनिष्ठ संपर्कों के जरिये कादूस बर्मी ने बांग्लादेश-म्यांमार सीमा की सुदूर पहाडि़यों में बांग्ला देश में हुजी-ए नेटवर्क का विकास किया।

मलेशिया, इंडोनेशिया एवं बांग्लादेश जैसे मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों में इन सबको लेकर विरोध बढ़ता ही जा रहा है जिसे वे म्यांमार में ‘रोहिंग्या मुसलमानों का उत्पीड़न’ मान रहे हैं। मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजक ने रोहिंग्याओं को समर्थन देने के लिए 4 दिसंबर को विरोध रैली में भाग लिया और रोहिंग्या मुद्वे पर क्षेत्रीय ब्लॉक आसियान में म्यांमार की सदस्यता की समीक्षा करने की मांग की। दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम बहुल देश इंडोनेशिया में कई इस्लामी संगठनों ने म्यांमार में रोहिंग्याओं की हत्याओं पर विरोध जताया है। 25 नवंबर को हजारों लोगों ने जकार्ता में म्यांमार दूतावास के समक्ष रोहिंग्याओं के उत्पीड़न के खिलाफ विरोध रैली आयोजित की। उसी दिन, बांग्लादेश में हजारों लोगों ने राजधानी ढाका में म्यांमार में रोहिंग्याओं के उत्पीड़न के खिलाफ मार्च किया।

इसीके साथ साथ जब म्यांमार वर्षों के अलगाव के बाद अब अपने आस पास के देशों के साथ वृहद भागीदारी की उम्मीद संजो रहा है, रखीने राज्य में वर्तमान में जारी हिंसा का इसके कई निकटतम पड़ोसी देशों के साथ उसके संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। धीरे धीरे रोहिंग्याओं का मुद्दा एक द्विपक्षीय मुद्दा बनता जा रहा है। म्यांमार ने मलेशिया पर उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया है। बहरहाल, मलेशिया का तर्क है कि यह मुद्दा अब म्यांमार का आंतरिक मुद्दा नहीं रह गया है क्योंकि कई रोहिंग्या विस्थापित आसपास के पड़ोसी देशों में रहते हैं और मानवाधिकार उल्लंघन एक क्षेत्रीय मुद्दा है।

दशकों के सैन्य शासन के बाद, इस दक्षिणपूर्वी एशियाई देश में 2015 में निष्पक्ष एवं उचित तरीके से चुनाव हुए थे जिसकी बदौलत लोकतंत्र की प्रतिष्ठित और नोबेल पुरस्कार विजेता दाव आंग सान सू ची की पार्टी सत्ता में आई। कार्यकर्ता और क्षेत्रीय नेता सू ची से पूछ रहे हैं कि वह रोहिंग्याओं के लिए कुछ बोल क्यों नहीं रही है और इन सबसे निश्चित रूप से सू ची की अपनी साख दांव पर लग रही है।

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