Published on Aug 10, 2023 Updated 0 Hours ago
‘श्रीलंका में देशव्यापी राष्ट्रीय संकट के बीच दंगों, इस्तीफ़ों और सियासी पुनर्जन्म का दौर’
‘श्रीलंका में देशव्यापी राष्ट्रीय संकट के बीच दंगों, इस्तीफ़ों और सियासी पुनर्जन्म का दौर’

श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के कार्यकाल के लिहाज़ से 2022 के मई महीने का दूसरा हफ़्ता बहुत निर्णायक साबित हुआ है. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर राजनीति से प्रेरित हिंसक हमलों से लेकर, राजनेताओं की संपत्ति को बड़े पैमाने पर नुक़सान पहुंचाने के बीच श्रीलंका ने एक प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा भी देखा और उसकी जगह कुछ दिनों पहले तक इसी पद पर रहे शख़्स को दोबारा प्रधानमंत्री बनते भी देखा. श्रीलंका के हालात को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चिंता बढ़ती जा रही है. तमाम देश श्रीलंका में स्थिरता, आर्थिक रिकवरी और श्रीलंका के एशिया के सबसे पुराने लोकतंत्र होने के नाते वहां के लोकतांत्रिक मानकों के हिसाब से शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन जारी रखने देने की मांग कर रहे हैं. विरोध प्रदर्शनों को बहुत असरदार और अनूठा कहा जा रहा है, जिनके चलते अकुशल अफ़सरों और नाकाबिल नेताओं को बर्ख़ास्त किया गया. हालांकि, प्रदर्शनकारियों की जो मुख्य मांग अब तक अधूरी रही है- वो है राष्ट्रपति का इस्तीफ़ा. आज राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे जिस हालात में है, उसकी पूरी ज़िम्मेदारी उन्हीं की बनती है और देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह तबाह करने के लिए वही ज़िम्मेदार हैं.

प्रदर्शनकारियों की जो मुख्य मांग अब तक अधूरी रही है- वो है राष्ट्रपति का इस्तीफ़ा. आज राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे जिस हालात में है, उसकी पूरी ज़िम्मेदारी उन्हीं की बनती है और देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह तबाह करने के लिए वही ज़िम्मेदार हैं.

राजपक्षे ने अब अपने देश और ग़लत नीतियों व नाकाबिल नेताओं के चलते बर्बाद हुई उसकी अर्थव्यवस्था को तबाही के हालात से देश को उबारने के लिए पांच बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री रह चुके रनिल विक्रमसिंघे से मदद मांगी है. जैसे जैसे इस द्वीपीय देश के आर्थिक हालात बिगड़ते गए, संकट गहराता गया, वैसे वैसे राजपक्षे के सत्ता से हटने की मांग तेज़ होती गई. क्योंकि आज देश में रहन सहन का ख़र्च आसमान छू रहा है. विदेशी मुद्रा भंडार न के बराबर बचा है और लोग ईंधन, बिजली और ज़रूरी दवाओं की क़िल्लत झेल रहे हैं. ऐसे में राजपक्षे ने एक ऐसे नेता को प्रधानमंत्री बनाने का जुआ खेला है, जो चुनाव में ख़ुद की सीट तक बचाने में नाकाम रहा था और संसद में नामांकित होकर पहुंचा था. ऐसे रनिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बनाना, गोटाबाया का अपनी कुर्सी बचाने के दांव के तौर पर देखा जा रहा है, वो भी तब जब पूरे देश में ज़बरदस्त हिंसा भड़की हुई है. ये हिंसा तब शुरू हुई, जब महिंदा राजपक्षे के वफ़ादार कुछ बदमाश लोग कोलंबो में उनके आधिकारिक आवास के बाहर जमा हुए. जब उन्हें भड़काया गया, तो वो कोलंबो में दो जगह सरकार के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण ढंग से विरोध जता रहे बेगुनाह प्रदर्शनकारियों पर भेड़ियों की तरह टूट पड़े. क्योंकि ये प्रदर्शनकारी, महिंदा और उनके भाई गोटाबाया से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का पद छोड़ने की मांग कर रहे थे.

इन दंगाइयों के हमले के चलते कई प्रदर्शनकारी गंभीर रूप से घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. इस हमले के बाद जनता का ग़ुस्सा सरकार समर्थित दंगाइयों पर भड़क उठा. उसके बाद पूरे देश में नाराज़ लोग सड़कों पर उतर पड़े और सरकार के कई अहम सदस्यों की संपत्ति पर हमला करके उन्हें नष्ट करने लगे. आज जब पूरे देश में ईंधन की क़िल्लत है, तो राजनेताओं के घरों में दर्जनों गैस सिलेंडर पाए गए. उनके घरों में रासायनिक खाद की सैकड़ों बोरियां भी मिलीं. वो भी तब जब राजपक्षे सरकार ने तबाही लाने वाली ऑर्गेनिक खेती की नीति अपनाकर फर्टिलाइज़र पर प्रतिबंध लगा दिया था. पूरे देश में कर्फ्यू लगाए जाने के बाद ये हिंसा कुछ हद तक थमी. शांति बहाल करने और कुछ संगठनों द्वारा उकसाई जा रही जातीय और नस्लवादी हिंसा को रोकने के लिए सेना को बुला लिया गया. ये संगठन उसी तरह सांप्रदायिक टकराव को बढ़ावा दे रहे थे, जैसा पहले भी कई बार देखा जा चुका है. इस हिंसक प्रदर्शन के 24 घंटों से भी कम समय के भीतर महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. कैबिनेट भी भंग हो गई और श्रीलंका के पास सरकार के नाम पर महज़ राष्ट्रपति बचे, जो एक नई सरकार के गठन की कोशिश कर रहे हैं.

नवनियुक्त प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे कैसे नेता 

नवनियुक्त प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे ऐसे राजनेता हैं, जिन्होंने महिंदा राजपक्षे को छोड़कर 1977 के बाद के देश के सभी राष्ट्रपतियों के साथ काम किया है. उनके तजुर्बे पर एक नज़र डालने पर ये मालूम होता है कि हर राष्ट्रपति के साथ उनके रिश्ते आख़िर में बिगड़ ही गए. इनमें शायद पहले राष्ट्रपति डी. बी. विजयतुंगे इकलौते हैं, जिनके साथ उनके रिश्ते ठीक-ठाक रहे. वो भी इसलिए क्योंकि विजयतुंगे, विक्रमसिंघे की अपनी पार्टी से थे. अन्य दो राष्ट्रपतियों चंद्रिका भंडारनायके कुमारतुंगा और मैत्रीपाला सिरिसेना के साथ रनिल विक्रमसिंघे का प्रधानमंत्री का कार्यकाल नाकाम तजुर्बा साबित हुआ.

पार्टी का सिर्फ़ एक सांसद होने के नाते रनिल विक्रमसिंघे का प्रधानमंत्री पद हासिल करना, उनकी एक तजुर्बेकार और वरिष्ठ राजनेता की विश्वसनीयता साबित करता है. आज वो श्रीलंका के दूसरे सबसे ताक़तवर पद पर पहुंच गए हैं. लेकिन राष्ट्रपति के साथ उनके रिश्ते चिंता का विषय बने हुए हैं.

विजयतुंगे एक कमज़ोर और नरम वरिष्ठ राजनेता थे, जो मई 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा की हत्या के बाद, राष्ट्रपति के बचे हुए कार्यकाल में ये ज़िम्मेदारी निभा रहे थे. उस वक़्त रनिल विक्रमसिंघे सदन के नेता थे. उन्हें एक युवा और ज़बरदस्त नेता के तौर पर देखा जा रहा था. जे. आर. जयवर्धने की शागिर्दी में पले-बढे विक्रमसिंघे से ये उम्मीद लगाई गई थी कि वो अपनी पार्टी का नेतृत्व बख़ूबी कर सकेंगे. इसीलिए उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया. हालांकि, यूनाइटेड नेशनल पार्टी 1977 से ही सत्ता में रही थी, और ऐसे में पूरे देश में नाराज़गी को देखते हुए बदलाव की ज़रूरत महसूस की जा रही थी. इसी वजह से प्रधानमंत्री के तौर पर रनिल विक्रमसिंघे का कार्यकाल बहुत संक्षिप्त रहा. 1994 में होने वाला राष्ट्रपति चुनाव, विक्रमसिंघे के लिए पहला मौक़ा था, जब वो देश के सर्वोच्च पद यानी राष्ट्रपति के लिए कोशिश कर सकते थे. लेकिन, उससे पहले ही आम चुनावों में हार के बाद पार्टी के भीतर विपक्ष के नेता को लेकर मुक़ाबला हुआ. इसका नतीजा ये हुआ कि रनिल विक्रमसिंघे के साथ के नेता गामिनी दिसानायके जो एक बार पार्टी छोड़कर दोबारा लौटे थे, ने पार्टी में नेता विपक्ष का अंदरूनी चुनाव जीत लिया. दिसानायके अगले कई महीनों तक पार्टी के नेता बने रहे. वो राष्ट्रपति चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवार भी बने. हालांकि, चुनाव के कुछ वक़्त पहले उनकी हत्या हो गई. जिसके बाद दिसानायके की पत्नी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया. हालांकि वो चुनाव में हार गईं.

दिसंबर 2001 के आम चुनावों के नतीजों के बाद, चंद्रिका भंडारनायके कुमारतुंगा ने एक समझौते के तहत रनिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बनाया. क्योंकि, विक्रमसिंघे उस गठबंधन की अगुवाई कर रहे थे, जिसने चुनाव किया था. LTTE के साथ शांति प्रक्रिया की शुरुआत करने से लेकर अन्य देशों में शांति वार्ता करने तक, विक्रमसिंघे बाग़ी LTTE में फूट डालने में कामयाब रहे, जो आगे चलकर उनके बाद के नेताओं के बहुत काम आया. इस प्रगति के बावजूद, जब रनिल विक्रमसिंघे अमेरिका के दौरे पर थे और राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से मुलाक़ात कर रहे थे, ठीक उसी समय चंद्रिका कुमारतुंगा ने उनकी कैबिनेट के तीन मंत्रियों को बर्ख़ास्त कर दिया था. इसकी वजह रनिल विक्रमसिंघे के कामकाज की शैली को लेकर चंद्रिका का मतभेद बनी थी. दिसंबर 2001 से अप्रैल 2004 तक दोनों नेताओं के संबंध विवादास्पद ही रहे और इसका अंत विक्रमसिंघे के आम चुनाव में हारने से हुआ. चंद्रिका कुमारतुंगा ने इतनी सीटें जीत ली थीं कि वो अपने दम पर सरकार बना सकें.

वैसे तो भारत ने वित्तीय मोर्चे पर श्रीलंका की काफ़ी मदद की है, ताकि वो इस मुश्किल दौर से उबर सके. इसके बावजूद, विक्रमसिंघे के सत्ता में आने को भारत के साथ रिश्ते मज़बूत करने और नज़दीकी संपर्क सुनिश्चित करने के मौक़े के तौर पर देखा जा रहा है.

किसी राष्ट्रपति के साथ विक्रमसिंघ की जुगलबंदी का तीसरा मौक़ा जनवरी 2015 में आया, जब मैत्रीपाला सिरिसेना ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया. विक्रमसिंघे ने सिरिसेना को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाने में बड़ी मेहनत की थी. लेकिन कई कारणों से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच ज़बरदस्त मतभेद पैदा हो गए थे. 2018 में ‘संवैधानिक तख़्तापलट’ करते हुए मैत्रीपाला सिरिसेना ने विक्रमसिंघे को बर्ख़ास्त कर दिया और उन महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया, जिन्हें 2015 के राष्ट्रपति चुनाव में ख़ुद सिरिसेना ने ही हराया था. हालांकि, ये जुगलबंदी ज़्यादा दिन नहीं चल सकी और सिरिसेना ने रनिल विक्रमसिंघे को दोबारा प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. लेकिन, 2019 में तबाही मचाने वाले ईस्टर धमाकों ने श्रीलंका की सुरक्षा व्यवस्था में कई भयंकर ख़ामियां और सत्ताधारी वर्ग में बड़े मतभेदों को उजागर कर दिया. इसके बाद विक्रमसिंघे और सिरिसेना की राहें जुदा हो गईं, क्योंकि 2019 के राष्ट्रपति चुनाव में सिरिसेना की जगह गोटाबाया राजपक्षे राष्ट्रपति चुनाव जीतकर सत्ता में पहुंच गए.

अब मई 2022 में एक और राष्ट्रपति के साथ जुगलबंदी के तरह रनिल विक्रमसिंघे ने छठवीं बार देश के प्रधानमंत्री की शपथ ली है. लेकिन, आज संसद में उनकी अपनी पार्टी का एक भी सांसद नहीं है. इसके बजाय, वो संसद में समर्थन जुटाने और आगे की राह तय करने के लिए राष्ट्रपति की पार्टी के समर्थन पर निर्भर हैं. अगस्त 2020 में हुए आम चुनावों में यूनाइटेड नेशनल पार्टी सिर्फ़ एक सीट पर नामांकन हासिल कर सकी थी और वो सीट भी जून 2021 में तब तक ख़ाली रखी गई थी, जब तक रनिल विक्रमसिंघे सांसद नहीं नियुक्त किए गए. पार्टी का सिर्फ़ एक सांसद होने के नाते रनिल विक्रमसिंघे का प्रधानमंत्री पद हासिल करना, उनकी एक तजुर्बेकार और वरिष्ठ राजनेता की विश्वसनीयता साबित करता है. आज वो श्रीलंका के दूसरे सबसे ताक़तवर पद पर पहुंच गए हैं. लेकिन राष्ट्रपति के साथ उनके रिश्ते चिंता का विषय बने हुए हैं.

जहां तक चंद्रिका कुमारतुंगा और मैत्रीपाला सिरिसेना की बात है, तो उन्होंने विक्रमसिंघे के आगे न झुककर अपने सियासी साहस का प्रदर्शन किया था. ऐसे में टकराव तो होना ही था. दोनों ही मौक़ों पर रनिल विक्रमसिंघे के पास संसद में बहुमत था, जिसकी वजह से वो ताक़तवर थे. हालांकि, राष्ट्रपति से टकराव में दोनों ही बार उन्हें मात ही मिली. मौजूदा हालात में वैसे तो राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे उन्हें राजनीति के तजुर्बेकार खिलाड़ी के तौर पर देखते हैं. मगर संसद में बहुमत तो अन्य दलों का है. ऐसे में विक्रमसिंघे को उन्हीं दलों के समर्थन के भरोसे रहना होगा, जो कभी भी अपना समर्थन वापस ले सकते हैं. अनिश्चितता का ये माहौल, विक्रमसिंघे के सिर पर लटकती सबसे बड़ी तलवार होगी. हालात तब और जटिल हो जाते हैं, जब राष्ट्रपति से इस्तीफ़ा मांग रही जनता, एक ऐसे नेता को दोबारा सत्ता में लाने में कोई उम्मीद नहीं दिखती, जो पहले ही नकारा जा चुका हो.

विक्रमसिंघे एक निर्णायक मोड़ पर 

एक कार्यकारी राष्ट्रपति की शक्तियां कम करने और संसद को मज़बूत बनाने के एलान से लेकर, राष्ट्रपति का पद पूरी तरह समाप्त करने तक, आज विक्रमसिंघे एक निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं. वैधानिक तरीक़े से सत्ता चलाने की अपनी क्षमता साबित करने से लेकर ये बहुमत बनाए रखने, अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने तक विक्रमसिंघे के सामने कई चुनौतियां हैं. ऐसे में जब रहन- सहन का आसमान छू रहा है, तो टैक्स बढ़ाने से जनता की नाराज़गी से पार पाने के साथ साथ विक्रमसिंघे को उस राष्ट्रपति से टकराव होने से बचना पड़ेगा, जिनकी शक्तियां उन्हें आख़िरकार कम करनी हैं. अगर वो ऐसा करने में नाकाम रहते हैं, तो इतिहास एक बार फिर ख़ुद को दोहराएगा.

विक्रमसिंघे को अपने अंतरराष्ट्रीय संपर्कों के लिए जाना जाता है. उन्होंने अपना संसदीय करिय 1970 के दशक के आख़िर में विदेश विभाग के उप मंत्री के तौर पर शुरू किया था. रनिल विक्रमसिंघे ने उसके बाद के दशकों में अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि और संपर्क बेहतर बनाने में काफ़ी मेहनत की. विक्रमसिंघे के पूरे सियासी सफ़र के दौरान भारत, यूरोपीय संघ, जापान, सिंगापुर और अमेरिका के साथ उनके बहुत अच्छे संबंध रहे हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि वो इन देशों के साथ अपने रिश्तों से, ख़ास तौर से प्रधानमंत्री रहते हुए काफ़ी ताक़त हासिल करते हैं. माना जा रहा है कि मौजूदा आर्थिक संकट का सामना करने और उससे उबरने के लिए विक्रमसिंघे इन्हीं देशों से मदद मांगेंगे.

कोलंबो बंदरगाह का ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल, जिसे लेकर भारत और जापान के साथ श्रीलंका के रिश्ते ख़राब हुए थे, उसी मुद्दे ने विक्रमसिंघे और सिरिसेना के संबंधों में भी खटास डाली थी. बाद में अडानी पोर्ट्स की अगुवाई वाली कंपनियों के समूह को वेस्ट टर्मिनल की ज़िम्मेदारी देकर ये खटास दूर करने की कोशिश की गई थी. वैसे तो भारत ने वित्तीय मोर्चे पर श्रीलंका की काफ़ी मदद की है, ताकि वो इस मुश्किल दौर से उबर सके. इसके बावजूद, विक्रमसिंघे के सत्ता में आने को भारत के साथ रिश्ते मज़बूत करने और नज़दीकी संपर्क सुनिश्चित करने के मौक़े के तौर पर देखा जा रहा है.

इससे पहले की सरकार ने 2020 में अमेरिका के मिलेनियम चैलेंज कार्पोरेशन (MCC) के ज़रिए 48 करोड़ डॉलर की वित्तीय मदद को ख़ारिज कर दिया था. इसके अलावा जापान की मदद से शुरू की गई मोनोरेल परियोजना को भी रोक दिया गया था. विक्रमसिंघे सरकार द्वारा इन दोनों ही परियोजनाओं पर नए सिरे से फ़ैसला करने की उम्मीद है. हालांकि, मौजूदा आर्थिक संकट के चलते, श्रीलंका द्वारा तुरंत ही कोई मूलभूत ढांचे के विकास की कोई बड़ी परियोजना शुरू करने की उम्मीद कम ही है. हालांकि, पिछली सरकार की तुलना में विक्रमसिंघे के दौर में अमेरिका और जापान को यही उम्मीद होगी कि उनके बीच संपर्क बढ़ाने पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया जाएगा, जिसे राजपक्षे के राज में काफ़ी नुक़सान पहुंचा था. क्योंकि राजपक्षे सरकार श्रीलंका को पश्चिमी देशों से दूर ले जाने की कोशिश कर रहे थे, जबकि श्रीलंका के निर्यात का सबसे बड़ा केंद्र अमेरिका ही है. इसी तरह यूरोपीय संघ के भी मदद बढ़ाने की उम्मीद है, जैसा 2017 में विक्रमसिंघे के पिछले कार्यकाल के दौरान देखा गया था, जब GSP+ की एक बार फिर वापसी हुई थी. पिछली बार सिरिसेना और विक्रमसिंघे के सत्ता में रहने के दौरान सिंगापुर और श्रीलंका के बीच जिस मुक्त व्यापार समझौते पर ऐतराज़ हुआ था, उसमें दोबारा नई जान डाले जाने की उम्मीद है क्योंकि दक्षिण पूर्व एशिया के मुहाने पर होने के चलते, सिंगापुर को श्रीलंका एक अहम व्यापारिक साझीदार के तौर पर देखता है.

मौजूदा कार्यकाल में विक्रमसिंघे के राजनीतिक क़दमों की अहमियत ज़्यादा होगी, जिसके बारे में उम्मीद यही की जा रही है कि वो पिछली बार से अलग होंगे और वो न सिर्फ़ ख़ुद विक्रमसिंघे का, बल्कि श्रीलंका का भविष्य भी तय करेंगे.

विक्रमसिंघे के इरादों और श्रीलंका पर उनके प्रभाव के बावजूद, सबसे अहम बात यही होगी कि वो घरेलू राजनीतिक मोर्चे पर किस तरह से संवाद करते हैं. तीन बातें सबसे अहम बनी हुई हैं- मौजूदा राष्ट्रपति के साथ उनके कामकाजी संबंध; संसद में उनको मिलने वाला समर्थन; और जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता ख़ास तौर से देश भर में सड़कों पर उतरे प्रदर्शनकारियों के बीच उनकी कैसी छवि बनती है. हो सकता है कि विक्रमसिंघे ने सत्ता हासिल करने नए मानदंड स्थापित किए हों. लेकिन, विक्रमसिंघे को जिस तरह के चुनौतियों का सामना करना होगा, उनके लिहाज़ से वो आज बहुत कठिन मोड़ पर खड़े हैं. वो श्रीलंका को आर्थिक संकट से उबारकर न सिर्फ़ एक नया इतिहास रच सकते हैं, बल्कि अपना सियासी सफ़र भी और लंबा कर सकते हैं. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि विक्रमसिंघे का कार्यकाल एक बार फिर बीच में ख़त्म हो जाए और उन्हें इतिहास के पन्नों में धकेल दिया जाए.

वैसे तो राजपक्षे परिवार के साथ विक्रमसिंघे की नज़दीकी को लेकर चिंताएं बनी हुई हैं. क्योंकि आरोप यही हैं कि उन्होंने राजपक्षे परिवार को क़ानून के शिकंजे में कसने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. हालांकि, मौजूदा कार्यकाल में विक्रमसिंघे के राजनीतिक क़दमों की अहमियत ज़्यादा होगी, जिसके बारे में उम्मीद यही की जा रही है कि वो पिछली बार से अलग होंगे और वो न सिर्फ़ ख़ुद विक्रमसिंघे का, बल्कि श्रीलंका का भविष्य भी तय करेंगे.

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