Published on Jan 28, 2022 Updated 0 Hours ago

अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम इसी तरह बढ़ते रहे और आपूर्ति में परेशानियां बनी रहीं, तो कीमतों को बढ़ाना होगा जिसका सीधा असर वित्तीय स्थिति पर भी होगा.

मुद्रास्फीति की चुनौती के बीच तेल की बढ़ती कीमतें बढ़ा सकती है चिंता!

अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम 90 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गये हैं. यह बढ़त 2014 के बाद सबसे अधिक है तथा इसमें और भी बढ़त की संभावना है. इस वृद्धि से भारत समेत कई देशों में मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ेगा. वैश्विक स्तर पर औद्योगिक एवं व्यावसायिक गतिविधियों के तेज होने से तेल की मांग पहले से ही अधिक है. इसके साथ वैश्विक आपूर्ति में भी अवरोध हैं.

महत्वपूर्ण तेल उत्पादक देश संयुक्त अरब अमीरात पर यमन के हूथी विद्रोहियों के ड्रोन एवं मिसाइल हमलों के हवाले से माना जा रहा है कि उस क्षेत्र में अशांति व अस्थिरता की नयी स्थिति पैदा हो सकती है.

ऊर्जा संकट की स्थिति

कुछ समय पहले यूरोप, अमेरिका, चीन समेत अनेक जगहों पर ऊर्जा संकट की स्थिति भी पैदा हो चुकी है. इन कारकों के साथ मध्य-पूर्व तथा यूरोप में भू-राजनीतिक संकट गहराने से भी तेल की आपूर्ति को लेकर आशंकाएं पैदा हो गयी हैं. महत्वपूर्ण तेल उत्पादक देश संयुक्त अरब अमीरात पर यमन के हूथी विद्रोहियों के ड्रोन एवं मिसाइल हमलों के हवाले से माना जा रहा है कि उस क्षेत्र में अशांति व अस्थिरता की नयी स्थिति पैदा हो सकती है.

यूक्रेन को लेकर अमेरिका व नाटो देशों तथा रूस के बीच चल रहे तनाव के शीघ्र समाधान की भी उम्मीद नहीं है. जो स्थिति वहां बनी हुई है, वह युद्ध का रूप भी ले सकती है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने रूस द्वारा यूक्रेन पर सैन्य कार्रवाई करने की स्थिति में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के विरुद्ध व्यक्ति पाबंदी लगाने की चेतावनी दे चुके हैं. ऐसे में आपूर्ति के संबंध में पैदा हुई आशंकाएं तेल की कीमतों को हवा दे रही हैं.

अगर हम तेल को छोड़ भी दें, तो बाकी चीजों को लेकर मुद्रास्फीति का दबाव वैश्विक स्तर पर अभी कुछ समय तक बना रहेगा, जब तक सब कुछ महामारी के पहले के स्तर पर सामान्य नहीं हो जाता है.

इस संबंध में यह भी उल्लेखनीय है कि आपूर्ति शृंखला की बाधाओं से उत्पादन व्यय में बढ़ोतरी से भी दामों पर असर पड़ रहा है. इसके साथ ही उत्पादन में भी कटौती हुई है. भारत में भी हाल में पेट्रोलियम उत्पादन में गिरावट आयी है. महामारी के दौर में उत्पादन लागत बढ़ने से वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीति का दबाव बना हुआ है. अगर हम तेल को छोड़ भी दें, तो बाकी चीजों को लेकर मुद्रास्फीति का दबाव वैश्विक स्तर पर अभी कुछ समय तक बना रहेगा, जब तक सब कुछ महामारी के पहले के स्तर पर सामान्य नहीं हो जाता है.

यह अलग बात है कि कौन सा देश महामारी की रोकथाम के लिए लॉकडाउन कर रहा है या क्या उपाय कर रहा है, लेकिन कुल मिलाकर बाधाएं और पाबंदियां तो कमोबेश हैं ही. कोरोना को लेकर अभी भी बहुत निश्चिंत होकर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. एक अन्य पहलू है, जिस पर कम बात की जा रही है.

वह है दुनियाभर में आयात शुल्कों में बढ़ोतरी. विश्व व्यापार संगठन के नियमों के तहत स्थापित शुल्क व्यवस्था का सुनहरा दौर बीत चुका है. इससे भी ख़र्च में बड़ी वृद्धि हुई है. हर देश अपनी अर्थव्यवस्था तथा अपने रोज़गार को बचाने की कोशिश में है. यह स्थिति कुछ सालों तक बनी रह सकती है.

अब दुनिया की निगाहें तेल निर्यातक देशों की दो फरवरी को होनेवाली बैठक पर है, जिसमें उत्पादन बढ़ाने पर फैसला लिया जा सकता है. 

ऊपर उल्लिखित कारकों से मूल्यों पर असर होना स्वाभाविक है और यह हम तेल के हिसाब में भी देख रहे हैं. हालांकि 2020 के शुरुआती महीनों की तुलना में तेल उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है, पर वह पर्याप्त नहीं है. रिपोर्टों के अनुसार अमेरिका में रोजाना उत्पादन में दस लाख बैरल से अधिक की कमी है. रूस समेत तेल निर्यातक देशों ने 2020 में उत्पादन में बड़ी कटौती कर दी थी.

अब आज के मांग के अनुरूप वे मासिक उत्पादन लक्ष्यों को हासिल करने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. अब दुनिया की निगाहें तेल निर्यातक देशों की दो फरवरी को होनेवाली बैठक पर है, जिसमें उत्पादन बढ़ाने पर फैसला लिया जा सकता है. यह भी याद किया जाना चाहिए कि इन देशों ने हाल में उत्पादन में कुछ वृद्धि तो की है, पर वह वैश्विक बाजार की अपेक्षा से कम है.

तेल को लेकर परोक्ष कूटनीति

इस संदर्भ में तेल को लेकर होनेवाली परोक्ष कूटनीति का संज्ञान लिया जाना चाहिए. उससे पहले होनेवाले अमेरिकी फेडरल रिज़र्व के नीतिगत निर्णय की भी प्रतीक्षा है, जिसमें मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की कोशिश हो सकती है. उल्लेखनीय है कि अमेरिका में मुद्रास्फीति कई दशकों में सबसे उच्च स्तर पर है.

हमारा देश एक बड़ा तेल आयातक देश है. वर्तमान में पेट्रोल और डीजल के दाम उच्च स्तर पर हैं. हालांकि दिसंबर से अब तक खुदरा कीमतों में ठहराव की स्थिति है, लेकिन अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम इसी तरह बढ़ते रहे और आपूर्ति में परेशानियां बनी रहीं, तो कीमतों को बढ़ाना होगा. इसका असर कुल वित्तीय स्थिति और घाटे पर भी होगा. रिज़र्व बैंक के अनुसार यदि कच्चे तेल के एक बैरल दाम में 10 डॉलर बढ़ेगा, तो वित्तीय घाटे में आधा फीसदी की बढ़ोतरी हो जायेगी.

इसके साथ ही हमारा व्यापार संतुलन भी प्रभावित होगा. हालांकि हमारे निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है, किंतु आयात भी बढ़ता जा रहा है. ऐसे में तेल आयात का ख़र्च बढ़ना परेशानी का कारण बन सकता है. विभिन्न कारणों से भारत भी मुद्रास्फीति की चुनौती का सामना कर रहा है. ऐसे में तेल की कीमतें बढ़ना आम जनता से लेकर देश की अर्थव्यवस्था के लिए एक चिंताजनक मसला है.

बहुत सावधानी से उठाने होंगे क़दम

अर्थव्यवस्था को कोरोना से पहले की स्थिति में ले जाने के लिए घरेलू बाजार में मांग का बढ़ना ज़रूरी है, लेकिन अगर तेल के दाम का मामूली बोझ भी ख़ुदरा ग्राहक पर पड़ेगा, तो मांग पर नकारात्मक असर होगा. ऐसी स्थिति में सरकार और तेल कंपनियों को बहुत सावधानी से क़दम उठाना पड़ेगा.


यह लेख मूल रूप से प्रभात ख़बर में प्रकाशित हो चुका है.

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Author

Abhijit Mukhopadhyay

Abhijit Mukhopadhyay

Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...

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