Author : Natasha Agarwal

Published on Jan 25, 2017 Updated 0 Hours ago

मेक इन इंडिया को लेकर केंद्रीय बजट में सुधारात्‍मक कदम उठाए जाने की गुंजाइश इसकी परिकल्‍पना से भी कहीं ज्‍यादा है। राजनीतिक इच्छाशक्ति में ही इसका जवाब निहित है।

केंद्रीय बजट और मेक इन इंडिया पर सवाल

जैसे-जैसे वित्‍त वर्ष 2017-18 के केंद्रीय बजट को पेश करने का समय निकट आता जा रहा है, वैसे-वैसे यह सवाल भी लोगों के जेहन में अक्‍सर उठना लगा है: बजट आखिरकार किस तरह कारोबार के नियमों को नए सिरे से परिभाषित करेगा, ऐसे में क्‍या यह अपने नीतिगत उद्देश्यों को हासिल करने में सक्षम है? कारोबार का एक ऐसा ही बहुप्रिय नियम मेक इन इंडिया पहल से जुड़ा हुआ है। हालांकि, सवाल यह है कि मेक इन इंडिया चर्चित क्‍यों है?

भारत को एक वैश्विक डिजाइन और विनिर्माण केंद्र में तब्‍दील करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने सितंबर, 2014 में मेक इन इंडिया पहल का शुभारंभ किया था। इसने 25 क्षेत्रों पर अपना ध्यान केंद्रित करते हुए इस आशय का एक ब्‍लूप्रिंट पेश किया कि वह एक विनिर्माण केंद्र के रूप में भारत की परिकल्पना आखिरकार कैसे करती है। इसके शुभारंभ के बाद से ही सरकार अपने इस ब्‍लूप्रिंट को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए निरंतर प्रयासरत नजर आ रही है। सरकार ने न केवल अपने केंद्रीय बजट के माध्यम से वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान किए हैं, बल्कि यह निरंतर जारी नीतिगत घोषणाओं के जरिए नियमित रूप से विभिन्‍न क्षेत्रों (सेक्‍टर) के विकास में भी जुटी हुई है। सरकार विशेष ध्‍यान वाले चुनिंदा क्षेत्रों से इतर भी हितधारकों से बातचीत करती रही है, ताकि इस पहल के सार्थक नतीजों को सुनिश्चित किया जा सके, जैसे कि कारोबार में और ज्‍यादा सुगमता को दर्शाने वाले विश्व बैंक के संकेतक में भारत की रैंकिंग बेहतर होना। निवेशक सुविधा प्रकोष्‍ठ की स्थापना भी इन प्रयासों में शामिल है। क्या इस तरह की क्षेत्रवार नीतियां विश्व व्यापार संगठन जैसे बहुपक्षीय संगठनों में भारत की सदस्यता के जरिए परिभाषित अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुरूप हैं; कारोबार में और ज्‍यादा सुगमता को दर्शाने वाले संकेतक में भारत की रैंकिंग बेहतर होना क्‍या बहस का विषय है। मेक इन इंडिया की सफलता पर सवाल अब भी वाद-विवाद योग्‍य है।

सरकार ने त्‍वरित प्रतिक्रि‍या व्‍यक्‍त करते हुए यह जानकारी दी है कि मेक इन इंडिया के शुभारंभ के बाद देश में एफडीआई के प्रवाह में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई है।

अक्टूबर 2014 से लेकर सितम्बर 2016 तक की अवधि के दौरान कुल मिलाकर 77.86 अरब अमेरिकी डॉलर का एफडीआई इक्विटी प्रवाह हुआ, जो पूर्ववर्ती 24 महीनों के दौरान प्राप्त 48.57 अरब अमेरिकी डॉलर की तुलना में 60 प्रतिशत अधिक है (लोकसभा में निर्मला सीतारमण का संबोधन)। चूंकि इस तरह का कोई प्रतितथ्यात्मक सबूत नहीं है कि यदि मेक इन इंडिया पहल नहीं की जाती तो क्‍या एफडीआई इक्विटी प्रवाह में इस हद तक वृद्धि संभव नहीं हो पाती, अत: ऐसे में मेक इन इंडिया की सफलता के पीछे जो कारण हैं वे अब भी बहस का विषय हैं। सुश्री सीतारमण ने अपनी प्रतिक्रिया में यह कहा है:

जिन घरेलू एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने मेक इन इंडिया पहल के तहत निवेश किया है अथवा देश में निवेश करने में रुचि दिखाई है उनसे संबंधित डेटा को केंद्रीकृत ढंग से संभाल कर नहीं रखा जाता है। विशेषकर मेक इन इंडिया पहल से जुड़े निर्यात डेटा को भी संभाल कर नहीं रखा जाता है।

वैसे तो मेक इन इंडिया की सफलता या विफलता पर बहस अब भी सुर्खियों में है, लेकिन मेरा तर्क है कि यह पहचान के संकट से जूझ रही है। यही कारण है कि वांछित उद्देश्य की प्राप्ति‍ के लिए सरकार द्वारा किए गए प्रयास निरर्थक साबित हो रहे हैं। यह संकट अंतरराष्ट्रीय उत्पादन नेटवर्क के एक जटिल वेब के कारण घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है, जो वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (जीवीसी) के अंतर्गत कुछ इस तरह काफी तेजी से संगठित होता जा रहा है — उत्पादन प्रक्रिया के विभिन्न चरण किन-किन देशों में पूरे किए जा रहे हैं; अंतिम उपभोक्ता तक पहुंचने से पहले वस्‍तुएं किन-किन देशों की सीमाओं के पार जाती हैं; तुलनात्मक वस्तुओं के व्यापार से लेकर प्रतिस्पर्धी वस्‍तुओं के व्यापार तक अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियम अब कहां-कहां नए सिरे से परिभाषित किए जा रहे हैं।

ऐसे में यह मुख्‍य सवाल उभर कर सामने आता है: यह भारत की पहचान इस वैश्विक मूल्य श्रृंखला में कहां पर करती है?

यह इस वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के जरिए उत्‍पादित एवं व्‍यापार की जाने वाली वस्‍तुओं की परिकल्‍पना किस तरह करती है? क्‍या यह भारत की परिकल्पना ऐसे विनिर्माण हब के रूप में करती है जहां कंपनियों को मध्यवर्ती उत्‍पादों का प्रसंस्‍करण करने और फि‍र तैयार उत्‍पादों को घरेलू या अंतरराष्ट्रीय बाजार या दोनों ही बाजारों में बेचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, यानी प्रसंस्करण और संयोजन (एसेम्‍बलिंग) हब के रूप में? अथवा क्‍या यह भारत की परिकल्पना ऐसे विनिर्माण हब के रूप में करती है जहां कंपनियों को एकदम शुरुआत यानी कच्‍चे माल का प्रसंस्‍करण करने और फि‍र तैयार उत्‍पादों को घरेलू या अंतरराष्ट्रीय बाजार या दोनों ही बाजारों में बेचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है?

क्‍या यह घरेलू कंपनियों द्वारा विनिर्माण को प्रोत्साहित करना चाहती है या विदेशी कंपनियों द्वारा विनिर्माण को प्रोत्साहित करना चाहती है? विदेशी कंपनियों द्वारा विनिर्माण किए जाने की स्थिति में क्‍या यह नई परियोजनाओं में निवेश को प्रोत्साहित करना चाहती है अथवा किसी मौजूदा परियोजना में ही निवेश को प्रोत्साहित करना चाहती है?

क्‍या यह इक्विटी अथवा एक भारतीय कंपनी और एक विदेशी विनिर्माण कंपनी के बीच संविदात्मक संयुक्त उद्यम के जरिए विदेशी विनिर्माण को प्रोत्साहित करना चाहती है या यह पूरी तरह विदेशी स्वामित्व वाली विनिर्माण कंपनी के गठन को प्रोत्साहित करना चाहती है? क्‍या इसकी इच्‍छा यह है कि विदेशी विनिर्माण कंपनी केवल भारतीय बाजार में ही या केवल अंतरराष्ट्रीय बाजार में ही, या दोनों ही बाजारों में अपने उत्‍पादों को मुहैया कराए?

भारत को एक विनिर्माण केंद्र (हब) में तब्‍दील करके यह क्‍या हासिल करना चाहती है? क्‍या यह सिर्फ रोजगार सृजित करना चाहती है अथवा विस्‍थापित होने वाली नौकरियों की समुचित व्‍यवस्‍था करना चाहती है अथवा क्‍या इसका विजन इतना ज्‍यादा साहसिक है कि इसमें प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण और इसके फलस्वरूप तकनीकी एवं कौशल उन्नयन भी शामिल हो सके? यह वैश्विक मूल्य श्रृंखला में एसएमई की परिकल्पना कहां पर करता है? क्‍या यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी के जरिए वैश्विक श्रृंखला में एसएमई की भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहती है?

भारत अपनी पहल को किस हद तक उन विभिन्न व्यापार समझौतों से जोड़ कर देख सकता है जिन पर उसने हस्‍ताक्षर कर रखे हैं? ये सवाल एक तरह से आपस में जुड़े हुए हैं, अत: इनका जवाब अलग-अलग नहीं दिया जा सकता है।

वैश्विक मूल्य श्रृंखला में वास्‍तविक स्थिति की पहचान करना भारत की व्यापार और एफडीआई नीतियों दोनों को ही परिभाषित करने के लिहाज से अत्‍यंत महत्वपूर्ण है, जो मौजूदा स्थितियों से अलग हटकर हैं।

इस परिप्रेक्ष्य में विचार करने के लिए हम भारत की एफडीआई नीतियों को बतौर उदाहरण लेते हैं। न केवल विभिन्‍न क्षेत्रों (सेक्‍टर) में अब एफडीआई सीमा को पहले से परिभाषित सीमा की तुलना में बढ़ा दिया गया है, बल्कि इसे सरकारी मंजूरी वाले मार्ग (रूट) के बजाय स्वत: मंजूरी वाले मार्ग (रूट) के जरिए अधिक से अधिक प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। हालांकि, सवाल यह है: क्‍या विभिन्‍न क्षेत्रों (सेक्‍टर) में एफडीआई सीमा को बढ़ा देने की स्थिति में इसका प्रवाह सभी एफडीआई को सरकारी मंजूरी मिले बिना ही तेज हो जाता है?

मेरा मानना है कि यह पहला कदम हो सकता है। हालांकि, वैश्विक श्रृंखला में भारत की स्थिति की पहचान बाकायदा हो जाने से एफडीआई नीतियों के विभिन्न अन्य पहलुओं को निर्धारित करने में मदद मिलेगी। उदाहरण के लिए, यदि भारत यह चाहता है कि ऊपर उल्लिखित वैश्विक मूल्य श्रृंखला में उसकी पहचान ऐसे प्रसंस्करण और संयोजन (एसेम्‍बलिंग) हब के रूप में हो जाए जो विश्‍व बाजार में अपने उत्‍पादों को मुहैया कराने की इच्‍छा रखता है तो फिर वह मेरे द्वारा जिक्र किए जाने वाले निर्यात उन्मुख प्रसंस्करण से जुड़े एफडीआई यानी मध्यवर्ती उत्पादों का प्रसंस्‍करण करके तैयार उत्‍पाद बनाने के कार्य में एफडीआई प्राप्ति को प्रोत्साहित करने पर ज्यादा जोर दे सकता है।

एक बार जब वैश्विक मूल्य श्रृंखला में भारत की स्थिति की पहचान बाकायदा हो जाए, तो उसी तर्ज पर अन्य नीतियों, जिन्‍हें मैं ‘सहायक नीतियां’ कहना पसंद करूंगी, को भी परिभाषित करने पर ध्‍यान केंद्रित किया जा सकता है, ताकि एफडीआई सुधारों को सुविधाजनक बनाया जा सके। यह कुछ मायने में व्यापक एफडीआई सुधारों का भी एक हिस्सा है। उदाहरण के लिए, आवश्यक समावेशी क्षमता के निर्माण में निवेश करके, जैसे कि कौशल विकास में निवेश करके अथवा मानव पूंजी से जुड़ी नीतियों की बदौलत भारत न केवल अधिक से अधिक एफडीआई आकर्षित करने के मामले में बेहतर स्थिति में आ गया है, बल्कि अप्रत्‍यक्ष असर डालने वाली विभिन्‍न व्‍यवस्‍थाओं के जरिए, प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से, ज्ञान संबंधी विशिष्‍टता के माध्यम से भी एफडीआई आकर्षित करने की क्षमता हासिल करने के मामले में बेहतर स्थिति में पहुंच गया है। इससे बेरोजगारी के उस झटके को कम करने में भी मदद मिलेगी जिसका सामना विनिर्माण क्षेत्र में विस्थापन के चलते करना पड़ेगा।

वैश्विक मूल्य श्रृंखला में पहचान से भारत की व्यापार नीतियों को परिभाषित करने में भी मदद मिलेगी। विभिन्‍न विसंगतियों जैसे कि प्रतिलोमित (इन्वर्टेड) शुल्क ढांचे को दुरुस्‍त करके, व्यापार बाधाओं को दूर करके और व्यापार समझौतों के जरिए एक बेहतर सौदे (डील) को सुनिश्चित करके यह संभव हो सकता है। इसके अलावा, केवल तीन देशों द्वारा ही व्यापार सुविधा समझौते की पुष्टि किए जाने की जरूरत के मद्देनजर भारत को निश्चित रूप से मेक इन इंडिया क्षत्र के तहत नीतियों की एक व्यापक रेंज को शामिल करना चाहिए।

मेक इन इंडिया पहल को लेकर केंद्रीय बजट में सुधारात्‍मक कदम उठाए जाने की गुंजाइश इसकी परिकल्‍पना से भी कहीं ज्‍यादा है। यह बेशक राजनीतिक इच्छाशक्ति ही है, जिसमें इसका जवाब निहित है।

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