Published on Oct 12, 2020 Updated 0 Hours ago

अभी ऐसा प्रतीत होता है कि यूके एवं भारत किसी भी समझौते से अभी कोसों दूर हैं. दोनों देश वर्तमान में वाणिज्य की राह में ग़ैर-तटकर बाधा दूर करने पर बातचीत कर रहे हैं.

बोरिस जॉनसन की ‘वैश्विक ब्रिटेन’ वाली दृष्टि में भारत की अहमियत

बोरिस जॉनसन को प्रधानमंत्री बने एक साल से अधिक समय बीत गया, मगर वे ब्रेक्ज़िट के बाद दुनिया में ब्रिटेन की हैसियत परिभाषित को नहीं कर पाए. उनकी प्राथमिकता भविष्य में यूके से ईयू यानी यूरोपियन यूनियन के संबंधों की बाबत बातचीत करना है मगर मार्च के महीने से विदेश नीति पर ध्यान नहीं दिया जा सका. जॉनसन तभी से कोविड-19 से देश तथा खुद को उबारने में लगे हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की बैठक अस्थाई रूप में टाल दी गई है. अब ईयू के बाहर यूके की स्थिति के बारे में हमें नवंबर तक जॉनसन की दृष्टि का सबको अधिक स्पष्ट अंदाज़ा लगेगा जब एकीकृत समीक्षा होगी. इस समीक्षा को यूके की विदेश,रक्षा,सुरक्षा एवं विकास नीति का शीत युद्ध के बाद सबसे व्यापक समीक्षा बताया जा रहा है. इससे अब तक ‘बयानों’ में ही प्रतिपादित हो रहे ‘वैश्विक ब्रिटेन’ के बहुवांछित ठोस स्वरूप की झलक मिलेगी जो ब्रेक्ज़िट के बाद से विदेश नीति संबंधी बयानों में छाया हुआ है.

इसी बीच जॉनसन ने यूके की चीन नीति को पुनर्निर्धारित करने पर काम शुरू कर दिया है. अपने पूर्ववर्ती कैमरून से अलग जाकर उन्होंने यूके-चीन संबंधों का ‘स्वर्ण काल’ ख़त्म कर दिया. महामारी के दौरान चीन के बारे में जॉनसन के विचारों में ख़ासा परिवर्तन आया है. इसमें आंशिक रूप में उस अहसास का भी हाथ है कि चीन पर यूके की निर्भरता किस कदर बढ़ गई है—इस दूरगामी समस्या का का उदाहरण पीपीपी के रूप में बख़ूबी ज़ाहिर हुआ—उसी से आर्थिक झटका खाने की कीमत पर भी चीन पर अपनी निर्भरता घटाने की ज़रूरत महसूस हुई. यूके की बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए यूके की कंपनियों के विदेशी अधिग्रहण संबंधी नियम सख्त बनाए जाने की भी संभावना है और हमें भविष्य में यूके के रणनीतिक बुनियादी ढांचे में चीनी पूंजी निवेश नहीं होने का मंज़र भी दिख सकता है जैसे हिंक्ले पॉइंट परमाणु बिजली घर.

यदि ईयू एवं यूके के बीच कोई समझौता हो भी गया तो वह विच्छेदन समझौते की राजनीतिक घोषणा में परिकल्पित ‘महत्वाकांक्षी, व्यापक, गहन एवं लचीली’ भागीदारी के लिए तो कतई नहीं होगा. ईयू-यूके के बीच भविष्य में विदेश, सुरक्षा एवं रक्षा संबंधों के ख़ाके पर बातचीत करने का यूके ने विरोध किया है. जॉनसन ने अधिक लचीले, अस्थाई आधार पर सहयोग को वरीयता देते हुए संस्थागत समझौते की पेशकश ठुकरा दी है. लेकिन इसे यूके द्वारा यूरोप से मुंह मोड़ लेने के रूप में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए—यूके द्वारा सहयोग जारी रहेगा लेकिन और भी अनौपचारिक रूप में: सांस्कृतिक एवं भौगोलिक संबंधों का अर्थ है कि ईयू एवं यूके अनेक मुद्दों पर सहयोगी रहेंगे. अलबत्ता ईरान परमाणु समझौते पर ब्रिटेन ने अलग रूख अपना कर ट्रम्प प्रशासन को नाराज़ किया है और संयुक्त राष्ट्र में जर्मनी एवं फ्रांस के साथ जा खड़ा हुआ है.

सबसे शक्तिशाली यूरोपीय देशों की इस त्रिमूर्ति, तथाकथित ई3, से ही सहयोग की धारा फूटेगी. लेकिन यूके द्वारा ईयू से विदेश नीति संबंधी औपचारिक सहयोग ठुकरा दिए जाने से ऐसा व्यापक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण उभरने की उम्मीद बन रही है जो सहयोग को अन्य रूपों में प्राथमिकता देगा.

सबसे शक्तिशाली यूरोपीय देशों की इस त्रिमूर्ति, तथाकथित ई3, से ही सहयोग की धारा फूटेगी. लेकिन यूके द्वारा ईयू से विदेश नीति संबंधी औपचारिक सहयोग ठुकरा दिए जाने से ऐसा व्यापक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण उभरने की उम्मीद बन रही है जो सहयोग को अन्य रूपों में प्राथमिकता देगा. उदाहरण के लिए बीजिंग द्वारा नया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून हांगकांग पर थोपने के विरोध में सामूहिक उत्तर देने के लिए यूके ने अपने ‘फाइव आईज़’ सहयोगियों से समन्वय स्थापित किया और ऐसा करने के लिए ईयू से कहीं अधिक कड़ा रूख अपनाया. कुछ ऐसा ही मामला यूके द्वारा प्रतिपादित डी-10 गठबंधन का भी है जिसमें ज़ाहिर है कि भारत भी शामिल है. इससे स्पष्ट है कि बेक्ज़िट के बाद अपने लक्ष्य पाने के लिए यूके विभिन्न प्रकार के राजनयिक दाव आजमाएगा.

एकीकृत सुरक्षा समीक्षा पूर्ण हो जाने पर भारत से और मज़बूत संबंधों को सबसे अधिक प्राथमिकता देने पर ज़ोर दिया जा सकता है. इंडिया ग्लोबल वीक में विदेश मंत्री डोमिनिक राब ने यूके एवं भारत के बीच स्थापित संबंधों को और घनिष्ठ बनाने की मंशा जता कर इसकी पुष्टि भी की है. यूके के नज़रिए से ब्रेक्ज़िट, कोविड-19 तथा चीन की बढ़ती ताकत जैसे कारकों ने अब यूके-भारत संबंधों की आवश्यकता बढ़ा दी है. ब्रिटेन के ईयू छोड़ने के दौर में जॉनसन की ब्रेक्ज़िटीयर सरकार को भारत के साथ खुला, नवोन्मेषी एवं गतिशील संबंध बनाने की ज़रूरत है. इससे ब्रिटेन को जॉनसन की उस उक्ति की सार्थकता साकार में मदद मिलेगी कि यूके अपने ‘निकटतम यूरोपीय परिक्षेत्र’ के पार स्थापित संबंधों के बलबूते भी तरक्की कर सकता है. दुनिया अभी कोविड-19 की वैक्सीन यानी टीका बनाने में लगी है और उसमें सहयोग की हमें सबसे अधिक उम्मीद आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय एवं भारत स्थित सीरम इंटटीट्यूट की साझा परियोजना से है. यूके में शोधित एवं भारत में उत्पादित टीके से असंख्य लोगों की जान बचाई जा सकती है. चीन जब अपने समुद्री जहाज़ों की संख्या तेजी से बढ़ा रहा है— यहां तक कि उसने जहाज़ी बेड़ों की संख्या और अपनी जहाज़ निर्माण क्षमता को अमेरिका से भी अधिक कर लिया है— तब दक्षिणी चीन सागर में निर्बाध नौवहन जारी रखने में यूके एवं भारत की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. इसके लिए हिंद महासागर में भारत की श्रेष्ठता भी इसी तरह आवश्यक है.

यूके के नज़रिए से ब्रेक्ज़िट, कोविड-19 तथा चीन की बढ़ती ताकत जैसे कारकों ने अब यूके-भारत संबंधों की आवश्यकता बढ़ा दी है. ब्रिटेन के ईयू छोड़ने के दौर में जॉनसन की ब्रेक्ज़िटीयर सरकार को भारत के साथ खुला, नवोन्मेषी एवं गतिशील संबंध बनाने की ज़रूरत है.

बोरिस जॉनसन के लिए भारत से घनिष्ठ संबंध—विशेषकर एफटीए यानी मुक्त व्यापार समझौते पर सहमति — बनाने में सफलता अपने देश के सामने ​ब्रेक्ज़िट लाभांश के रूप में पेश करने के लिए सबसे अहम मुद्दा है. ईयू से संबंध विच्छेद के पक्ष में निर्णायक मतदान भले हो चुका है मगर उस पर बहस-मुबाहिसा जारी है. कंज़र्वेटिव के घोषित ब्रेक्ज़िट समर्थक दल होने के कारण जॉनसन को अपना 2016 का वायदा निभा कर ब्रेक्ज़िट को सफल करना होगा. इसी आधार पर कंज़र्वेटिव पार्टी अगला चुनाव जीत पाएगी. ईयू की रायशुमारी में ‘छोड़ो’ अभियान का प्रमुख तर्क यह भी था कि ईयू के बाहर—दुनिया में सबसे अधिक लाभदायक एवं तेज़ी से फैलते बाज़ारों— के साथ यूके अपने व्यापारिक संबंध बनाने में अधिक कामयाब रहेगा. इस मोर्चे पर जॉनसन द्वारा ईयू को नाकाम बताया गया था क्योंकि उसके सदस्य 27 देशों के हित एवं प्राथमिकताएं अलग-अलग थे. यूके की दृष्टि से भारत उसकी प्राथमिकता के लायक तार्किक उभरता बाज़ार है: भारत की अर्थव्यवस्था काफ़ी बढ़ चुकी तथा साल 2050 तक उसके दुनिया की दूसरी सबसे विशाल अर्थव्यवस्था बनने के आसार हैं. साथ ही यूके एवं भारत के बीच गहरे पैठ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय संबंध भी व्यापारिक संबंधों को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होंगे.

भारत के साथ व्यापार की डाउनिंग स्ट्रीट के एजंडे में निश्चित रूप में शीर्ष प्राथमिकता है. बोरिस जॉनसन ने अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थियों को आप्रवासन के लक्ष्यों में शामिल करने की थेरसा मे की नीति को तत्काल ख़ारिज़ किया था क्योंकि मज़बूत दुतरफ़ा संबंधों की राह में वह प्रावधान रोड़ा साबित हो रहा था. उसके बजाय उन्होंने सभी अंतरराष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए पढ़ाई पूरी होने पर दो साल के लिए अतिरिक्त वीज़ा देने की भी घोषणा की. इसके साथ ही ईयू एवं उससे इतर देशों के नागरिकों को भी योग्यता अंकों पर आधारित आप्रवासन प्रणाली का समान लाभ देने की नीति से भारतीय छात्र-छात्राओं, शिक्षकों एवं कुशल कर्मियों के लिए यूके में रहकर काम करना पहले से भी अधिक आसान हो जाएगा.

यूके-भारत संबंधों में वाणिज्य की वर्तमान महत्ता का कारण यह है कि 31 दिसंबर,2020 को ब्रिटेन के विच्छेदन समझौते की मियाद ख़त्म होने के बाद यूके के कुल वाणिज्य में तटकर-मुक्त लेनदेन घटकर महज 8 फ़ीसद ही बचेगा. ऐसे में कनाडा, जापान एवं मेक्सिको से हुए समझौते इस ब्रेक्ज़िटीयर सरकार के लिए सत्यानाशी जीत ही साबित होंगे क्योंकि उन तीनों के ऐसे समझौते तो ईयू से भी थे ही. यूके के सबसे बड़े वाणिज्यिक हिस्सेदार —ईयू— से नए समझौते के बारे में बातचीत भले जारी है मगर कोई सौदा होने के आसार फ़िलहाल कम ही हैं. इस दुर्गति के कारण जॉनसन सरकार के लिए भारत से वाणिज्यिक समझौता करना और भी आवश्यक हो गया है

भारत से समझौता यूके द्वारा फ़्रांस एवं अमेरिका से किए जा चुके समझौतों जैसा ही होगा. इसके तहत दोनों देशों के सालाना नौसैनिक युद्धाभ्यास का दायरा भी बढ़ाया जाएगा ताकि यूके के संसाधन और अधिक व्यापक रूप ले सकें..

एफटीए के लिए उच्च-स्तरीय राजनीतिक संकल्प अकेली आवश्यकता नहीं है. अभी ऐसा प्रतीत होता है कि यूके एवं भारत किसी भी समझौते से अभी कोसों दूर हैं. दोनों देश वर्तमान में वाणिज्य की राह में ग़ैर-तटकर बाधा दूर करने पर बातचीत कर रहे हैं. भारत एवं यूके आपस में ग़ैर-तटकर बाधाएं हटाने की संभावना तलाशने के लिए ‘विशिष्ट डायलॉग यानी बातचीत स्थापित करेंगे’ ऐसी घोषणा जुलाई में भारत-यूके संयुक्त आर्थिक एवं वाणिज्य समिति (जेटको) ने की थी. उसी डायलॉग के माध्यम से ‘योजना’ बनाई जाएगी जो एफ़टीए का मार्ग प्रशस्त कर ‘सकती’ है. एफ़टीए पर यदि एवं जब भी बातचीत आरंभ होगी तो उसके समझौते तक पहुंचने में अनेक वर्ष लग सकते हैं, लेकिन जॉनसन सरकार को उससे अत्यधिक फ़ायदे की उम्मीद है इसलिए यदि यह समझौता ईयू से पहले हो जाता है तो उनकी ब्रेक्ज़िटीयर सरकार के लिए यह अप्रत्याशित उपलब्धि मानी जाएगी.

इसके बावजूद यूके द्वारा भारत से समग्र संबंध बनाने की संभावना तलाशी जाएगी जो वाणिज्य से भी आगे बढ़कर रक्षा भागीदारी बन पाए. चीन के पुन: आंकलन से यूके की यह मजबूरी बनी है कि यूरोप की सुरक्षा पर आधारित गठबंधन को लांघ कर व्यापक अर्थों में सोचा जाए क्योंकि ख़तरा कहीं और से हो रहा है. इसका सबूत क्वीन एलिज़ाबेथ हवाई युद्धपोत की पहली यात्रा साल 2021 में हिंद-प्रशांत में समाप्त करने की तैयारी है. इससे यूके की दुनिया को अपनी शक्ति का अहसास कराने की मंशा तथा लगातार धौंस जमा रहे चीन के सामने मुक्त नौवहन का अधिकार जताने का भाव भी झलकता है. उसके द्वारा ऐसा करने से पहले, यूके का रक्षा मंत्रालय, भारत के साथ पारस्परिक सैन्य संचालन समझौता करने संबंधी बातचीत में ठोस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहेगा. भारत से समझौता यूके द्वारा फ़्रांस एवं अमेरिका से किए जा चुके समझौतों जैसा ही होगा. इसके तहत दोनों देशों के सालाना नौसैनिक युद्धाभ्यास का दायरा भी बढ़ाया जाएगा ताकि यूके के संसाधन और अधिक व्यापक रूप ले सकें. भारत-चीन सीमा झड़पों के प्रति यूके ने अपने बयानों में हालांकि कूटनीतिक रूख अपनाया हुआ है क्योंकि वह यूके-चीन संबंधों को और नहीं बिगाड़ना चाहता मगर निजी आपसी बातचीत में चीन के मुद्दे पर यूके एवं भारत की राय लगभग समान है. इससे आपसी सहयोग के नए अवसर खुलते हैं जिनमें साइबर सुरक्षा दीवार बनाने से लेकर रक्षा प्रौद्योगिकी में संयुक्त अनुसंधान एवं सहयोग तक अनेक क्षेत्र शामिल हैं. रक्षा सहयोग में रॉयल नौसेना का इंटीग्रेटेड इलेक्ट्रिक प्रोपल्शन सिस्टम भी शामिल है जिसमें भारतीय अधिकारियों ने दिलचस्पी जताई है क्योंकि वह हिंद महासागर में भारत की गुरूता बनाने के प्रयास में सहायक सिद्ध हो सकता है.

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