Author : Harsh V. Pant

Published on Dec 17, 2016 Updated 0 Hours ago
पैराडिप्लोमैसी और भारत: अवसर व चुनौतियां

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अंतर-राज्यीय परिषद की बैठक में

पैराडिप्लोमैसी (स्थानिक कूटनीति) को भारतीय नीति निर्माण प्रक्रिया के केंद्र बिंदु में लाने का श्रेय मोदी सरकार को दिया जा सकता है, पर उप राष्ट्रीय स्तर पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रगाढ़ बनाने का विचार कोई नया नहीं है। उप राज्य संस्थाओं की बढ़ती नीति निर्माण क्षमता के साथ कूटनीतिक मुद्दों का समाधान करने के लिए पैराडिप्लोमैसी का उपयोग राज्यों, प्रातों एवं यहां तक कि नगरों द्वारा भी संघीय तथा एकल राज्यों में किया जा सकता है।

पैराडिप्लोमैसी की संकल्पना पहली बार 1990 में एक अमेरिकी विद्वान जॉन किनकैड ने की थी जिन्होंने एक लोकतांत्रिक संघीय प्रणाली के भीतर स्थानीय सरकारों के लिए एक विदेश नीति की भूमिका की रूपरेखा बनाई थी। विशेष रूप से, व्यापार एवं निवेश से संबंधित आर्थिक कूटनीति दुनिया भर में-अमेरिका, कनाडा एवं बेल्जियम जैसे संघीय ढांचे वाले देश में, स्पेन जैसे अर्ध-संघीय देश में, जापान जैसे गैर संघीय देश में एवं यहां तक कि चीन जैसे गैर-लोकतांत्रिक देश में भी एक संस्थागत प्रचलन बन चुकी है।

पैराडिप्लोमैसी का उपयोग विभिन्न प्रकार के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किया जा सकता है जिनमें क्षेत्रीय मुद्दों को वैश्विक स्तर पर लाने के जरिये घरेलू मुद्दों का अंतरराष्ट्रीयकरण करने के लिए अंतरराष्ट्रीय बहसों में विकेंद्रित पहलू का शुमार करना, व्यापारिक, पर्यटन, सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देना एवं यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने के लिए स्थानीय राजनीतिक सक्रियतावाद के प्रति संघर्ष-पश्चात सुलह शामिल है। उप राष्ट्रीय संबंधों का उपयोग क्षेत्र-विशिष्ट आर्थिक लाभ हासिल करने के लिए निवेशों को बढ़ावा देने तथा उन्हें आकर्षित करने के लिए भी किया जा सकता है।

कई प्रकार से पैराडिप्लोमैसी का उद्भव भूमंडलीकरण से भी जोड़ा जा सकता है। जिस प्रकार विश्व अर्थव्यवस्था धीरे धीरे वैश्विक होती जा रही है और कई प्रकार से समेकित होती जा रही है, उप राष्ट्रीय इकाइयों (क्षेत्र, राज्य, प्रांत एवं शहर भी) के कार्य तथा कार्यकलाप वैश्विक प्रणाली द्वारा सीमित होते जा रहे हैं। संघवाद का योगदान भी पैराडिप्लोमैसी के विकास में काफी अहम रहा है। राज्य एवं प्रांत जैसी उप राष्ट्रीय संस्थाएं, जिनका एक औपचारिक कानूनी ढांचा है, के ऐसे अंतरराष्ट्रीय कार्यकलापों में संलिप्त होने की संभावना अधिक है, जिनकी रूपरेखा स्थानीय एवं अंतरराष्ट्रीय हितों एवं अनिवार्यताओं की रक्षा करने तथा उन्हें बढ़ावा देने के लिए बनाई गई है। साओ पाओलो का मामला इस संदर्भ में विशेष रूप से दिलचस्प है।

एक प्रतिमान के रूप में साओ पाओलो

साओ पाओलो ने हाल के वर्षों में ‘सिटी डिप्लोमैसी‘ में अपने आक्रामक एवं सफल प्रयासों को लेकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है। ब्राजील के विदेश मंत्रालय के समर्थन से साओ पाओलो राज्य सरकार ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के निर्वाह के लिए स्वयं अपनी योजना को अंगीकार करने के लिए 2012 में एक नियम पारित किया। इस योजना के 54 लक्ष्यों में विदेशी निवेश तथा ऋण लक्ष्य और विदेशी भाषा की शिक्षा को बढ़ावा देने के तरीके शामिल हैं। यह देश अब विश्व के उन चंद संघीय राज्यों में एक बन गया है जिन्होंने विदेश से जुड़े मामलों में कैसे कार्य करें, इस पर सुस्पष्ट दिशानिर्देश बनाए हैं।

इस विशाल और फैले हुए महानगर में 50 से अधिक वाणिज्य दूतावास हैं जो न्यूयार्क सिटी के बाद दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा दूतावास संबंधी निकाय है जबकि राजधानी ब्रासिलिया में 100 दूतावास हैं। 2013 में, साओ पाओलो राज्य अमेरिका एवं ब्रिटेन के साथ सीधे द्विपक्षीय समझौते करने वाली दक्षिणी गोलार्द्ध में पहली उप राष्ट्रीय सरकार बन गयी। तबसे इसने लातिन अमेरिका में अन्य किसी क्षेत्रीय राज्यपाल की तुलना में अधिक राष्ट्रीय समझौते (प्रति वर्ष 50) किए हैं, अधिक विदेशी शिष्टमंडलों (औसतन प्रति वर्ष 450) की आगवानी की है और अधिक अंतरराष्ट्रीय सहयोग कार्यक्रमों का आयोजन किया है। न्यूयार्क के बाद यह अमेरिकी राज्यों में दूसरा सबसे अधिक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) गंतव्य बन गया है।

भारतीय अनुभव

भारत में केंद्र एवं राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन बिल्कुल स्पष्ट है। भारतीय संविधान में दोनों के बीच विधायी शक्तियों (अनुच्छेद 246) के तीन गुना वितरण की परिकल्पना की गई है। विदेश मामले, राजनयिक, वाणिज्य दूतावास एवं व्यापारिक प्रतिनिधित्व, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भागीदारी, दूसरे देशों के साथ संधियां एवं समझौते करना तथा अन्य देशों के साथ करारों, संधियों तथा समझौतों का क्रियान्वयन, दूसरे देशों के साथ विदेश न्यायाधिकार क्षेत्र एवं व्यापार एवं वाणिज्य, आयात एवं निर्यात ऐसे क्षेत्र हैं जहां केवल संघ सरकार ही कानून बनाने में सक्षम है।

इस परिप्रेक्ष्य में, विदेश नीति का संघीकरण महत्वपूर्ण है। पहली बात यह कि चूंकि भूमंडलीकरण ने पारंपरिक सीमाओं का क्षरण कर दिया है, केंद्र सरकार खुद से नई राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक शक्तियों द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए सुसज्जित नहीं है। इसी मसले पर अंतरराष्ट्रीय मामलों में उप राष्ट्रीय भागीदारी मुख्य मुद्दों पर भारत के रुख को आगे बढ़ाने में मदद कर सकती है। भारत (एक उप महाद्वीप) जैसे विशाल देश में निश्चित रूप से विदेश नीति क्रियान्वयन एवं कूटनीति के कुछ चुने हुए क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण की जरुरत है। दूसरी बात, यह तर्क दिया जा सकता है कि राज्य व्यापार, वाणिज्य, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, शिक्षा, सांस्कृतिक आदान प्रदानों एवं व्यवसायों की आउटसोर्सिंग के क्षेत्रों में राजनयिक कदम उठाने के मामले में अक्सर केंद्र सरकार की तुलना में अधिक सुसज्जित हैं।

अन्य कारक जो पैरा डिप्लोमैसी के महत्व को सामने लाते हैं, वे ऐसे मामले हो सकते हैं जहां केंद्र सरकार वैचारिक एवं राजनीतिक आधारों पर राज्य सरकारों से भिन्नता रख सकते हैं जिससे इस बात की संभावना बन सकती है कि केंद्र सरकार के कुछ फैसलों को राज्यों के सर्वश्रेष्ठ हितों में एवं राज्यों के कुछ फैसलों को केंद्र सरकार के सर्वश्रेष्ठ हितों में नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त, भारत के आकार को देेखते हुए प्रांतीय सरकारें अक्सर भौगोलिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं आर्थिक कारणों से अपने पड़ोसों में रहने वाली अन्य सरकारों के साथ राजनयिक रिश्तों को बढ़ाने में बेहतर स्थिति में रहती हैं। उदाहरण के लिए, देश की राजधानी में तैनात विदेश मंत्रालय के किसी अधिकारी की तुलना में पश्चिम बंगाल का बांग्ला देश एवं भूटान के साथ अधिक सफल पैरा डिप्लोमैटिक संबंध हो सकते हैं। इसी प्रकार, केरल के खाड़ी देशों के साथ राजनयिक संबंधों को बनाये रखने में निहित लाभ हैं क्योंकि राज्य के निवासी बड़ी संख्या में उन देशों में रोजगार पाते हैं।

हाल के वर्षों में, ‘सिटी डिप्लोमैसी‘ शब्द का उपयोग और स्वीकृति बढ़ी है, विशेष रूप से, पैरा डिप्लोमैसी एवं सार्वजनिक डिप्लोमैसी के रूपांतरण के रूप में नहीं तो एक पहलू के रूप में ही। शहर योजना निर्माण, जैसाकि यह नाम ज्यादा प्रचलित है, एक ऐसी अवधारणा है जहां नगर सहकारितापूर्ण समझौतों के आधार पर अपने स्वयं के विदेशी संबंध विकसित करते हैं। ये संबंध सांस्कृतिक या आर्थिक आदान-प्रदानों के लिए विकसित किए जा सकते हैं जिनसे नगरों/शहरों दोनों को ही लाभ प्राप्त हो सकता है। हालांकि इस प्रकार के नगर से नगर के संबंध या ट्विनिंग मॉडल (जोड़े बनाने के मॉडल) भारत के लिए पूरी तरह से नए नहीं हैं, भारत को उप राष्ट्रीय स्तर पर अन्य देशों के साथ अपनी भागीदारी को ठोस तरीके से बढ़ाने की आवश्यकता है।

पैरा डिप्लोमैसी में न केवल भारतीय राज्य के संघीय ढांचे को और मजबूत बनाने की क्षमता है बल्कि यह क्षेत्रीय सरकारों को सीमा पार संबंधों के संचालन में उनकी क्षमता अर्जित करने में सहयोग देने के जरिये भारतीय विदेश नीति की धारा में भी आमूलचूल परिवर्तन ला सकती है।

चार केस स्टडी: तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल एवं गुजरात

केंद्र से संचालित होने वाली नियमित कुटनीति की तुलना में पैरा डिप्लोमैसी की मजबूत स्थिति का एक महत्वपूर्ण कारक यह है कि यह स्थानीय भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मुद्वों के समाधान के लिए जगह बनाती है। एक ऐसा ही मामला तमिलनाडु के मछुआरों को है जो ऐतिहासिक एवं पारंपरिक अधिकारों का हवाला देते हुए श्रीलंका के विवादित समुद्री क्षेत्र में मछली पकड़ने के अधिकारों की मांग कर रहे हैं जबकि श्रीलंका सरकार इस प्रकार के प्रयोजनों एवं वास्तविकताओं को लेकर असहमत है और ऐसे किसी दावे का सख्ती से खंडन करती है। ऐसे मामलों में ही राज्यों के बीच संचालित द्विपक्षीय संबंध केंद्र स्तर पर की जा रही वार्ताओं की तुलना में अधिक मददगार साबित हो सकते हैं। तमिलनाडु सरकार की स्थानीय भागीदारी न केवल मछली पकड़ने के निवासियों के अधिकारों से संबंधित बल्कि विस्थापितों के लिए आरक्षण और/या धन प्र्रेषण (रेमिटेंस) तथा मानव तस्करी जैसे मुद्वों के निपटान में अधिक बुद्धिमान साबित हो सकती है। श्रीलंका की तमिलनाडु आबादी की सहानुभूति तमिलों के प्रयोजन के प्रति बनी हुई है, इसलिए दोनों देशों के बीच किसी भी संबंध के लिए यह लगभग अनिवार्य बन जाता है कि वह तमिलनाडु सरकार की भागीदारी और बर्ताव पर निर्भर रहे। एक सुलह समिति या संभवतः राज्यों से कुछ अधिकारियों की भागीदारी इस प्रकार की शर्मिंदगी से बचने के लिए महत्वपूर्ण जैसाकि यूएनएचसीआर में श्रीलंका के खिलाफ भारत के मतदान और उसके बाद भारतीय सरजमीं पर श्रीलंका के क्रिकेट खिलाडि़यों पर प्रतिबंध के मामलों में हुआ।

इसी प्रकार, पश्चिम बंगाल अपने भौगोलिक एवं ऐतिहासिक रिश्तों के कारण अपने पड़ोस के देशों (बांग्ला देश और भूटान) के साथ राजनयिक संबंधों को बढ़ाने की बेहतर स्थिति में है। अपने एकसमान बंगाली प्रवासी भारतीयों (डायसपोरा) के बीच द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाने के अतिरिक्त, बंगाल और बांग्ला देश जल बंटवारे, अंतःस्थलीय जल व्यापार जैसे मुद्वों एवं अवैध घुसपैठ जैसी समस्याओं पर भी अपने संबंध में वांछित मजबूती ला सकते हैं। देशों एवं संघीय राज्यों के बीच अच्छे संबंधों की संभावना पर विचार करते हुए, उस भूमिका का भी विश्लेषण किया जा सकता है जो भारत बंदरगाह सुविधाओं, चिकित्सा पर्यटन उपलब्ध कराने एवं भूटान जैसे चारों तरफ से जमीन से घिरे देश के लिए साझा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों के जरिये अदा कर सकता है।

सीमा से जुड़े देशों के साथ रिश्ते हमेशा कड़वाहट से भरे ही हों, ऐसा जरुरी नहीं है और यह केरल के मामले में स्पष्ट है जहां लगभग 50 लाख केरलवासी खाड़ी तथा अन्य देशों में काम करते हैं जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था उसकी सीमाओं से बाहर काम करने वाले अनिवासी केरलवासियों पर काफी हद तक निर्भर हो जाती है। इसलिए, केरल सरकार के लिए इसकी आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है कि जरुरत पड़ने पर वह इन खाड़ी के देशों एवं अन्य देशों में वाणिज्य दूतावासों की स्थापना कर। पुराने समुद्री व्यापार रास्ते पर केरल की बेहतर भौगोलिक और रणनीतिक स्थिति के लाभ के कारण इस क्षेत्र में व्यापार एवं वाणिज्य में बढ़ोतरी के लिए पैरा डिप्लोमैसी का उपयोग अपनी पुरानी प्रसिद्धि को प्राप्त कर सकता है। केरल की उच्च साक्षरता एवं अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के कारण इस राज्य में चिकित्सा पर्यटन (मेडिकल टूरिज्म) को भी घटक कूटनीति के उपयोग के साथ बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। केरल से होने वाली आपूर्तियों पर माले की निर्भरता का उपयोग भी भारत के लाभ के लिए किया जा सकता है।

गुजरात में हर दो वर्षों पर वैश्विक निवेशक समिट का आयोजन किया जाता है, जिसकी वजह से यह राज्य भारत में एक आदर्श निवेश गंतव्य के रूप में खुद को प्रदर्शित करने में सक्षम हो गया है। गतिशील गुजरात (वाईब्रेंट गुजरात) नामक वैश्विक सम्मेलन की वजह से गुजरात को न केवल उत्साहपूर्ण भागीदारी और विदेशी शिष्टमंडलों से सराहना प्राप्त हुई, बल्कि इसने व्यावसायिक कार्यकलापों में संलग्न होने के अवसरों की तलाश के लिए संभावित निवेशकों के लिए भी दरवाजे खोल दिए। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि गुजरात ने अपनी उप राष्ट्रीय भागीदारियों के माध्यम से न केवल धीरे धीरे आर्थिक निवेशों को आकर्षित किया है बल्कि सतत विकास पर सहयोग के लिए रास्ता भी प्रशस्त कर रहा है-एक ऐसा कार्य जो दुनिया भर में हर देश का पसंदीदा ध्येय है। गुजरात संघीय स्तर पर आर्थिक कूटनीति पर काम करने के जरिये देश के व्यापक हितों में ठोस योगदान देने में सक्षम हो गया है।

संस्थागत पहलू

जहां पैरा डिप्लोमैसी भारत सरकार के लिए नई चुनौतियां पेश करती हैं, विदेश नीति के दायरे में राज्य सरकारों की भागीदारी निश्चित रूप से अधिक गहराई में जाकर इन मुद्दों का समाधान करती है। केंद्र सरकार को देश में पैरा डिप्लोमैसी को लागू करने के लिए कारगर संस्थागत तंत्रों के साथ सामने आने की जरुरत है। इसे करने का एक तरीका वाणिज्य दूतावासों या एकल राज्यों में वाणिज्य दूतावास कार्यालय का सृजन हो सकता है, पैरा डिप्लोमैसी को उपयोग में लाने का एक अन्य तरीका विदेश मंत्रालय के पर्यवेक्षण में संघीय विदेश मामले कार्यालयों की स्थापना करने का हो सकता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इन क्षेत्रीय केंद्रों में तैनात अधिकारियों को सुरक्षा मुद्दों के बेहतर तरीके से संचालित करने का प्रशिक्षण दिया जा सकता है और साथ ही, उन्हें केंद्र के लक्ष्य को आगे बढ़ाने और राष्ट्रीय हितों के खिलाफ कोई भी कार्य न करने के लिए तैयार किया जा सकता है। इस प्रकार, नियमित सलाह मशविरों तथा नौकरशाहों के साथ परस्पर मुलाकातों के माध्यम से विदेश मंत्रालय एवं स्थानीय कार्यालयों के बीच बेहतर कार्यान्वयन पैरा डिप्लोमैसी को आगे बढ़ाने के लक्ष्य की प्राप्ति में कारगर होगा। बाद के चरण में, केंद्र सरकार भी पैरा डिप्लोमैसी के सारतत्व को स्वीकार करने से संबंधित औपचारिक कानून बनाने तथा विभिन्न राज्यों में इसके कार्यान्वयन के लिए कदम उठा सकती है। फिर केंद्र सरकार वैश्विक महत्व के प्रमुख मुद्दों पर भारत के पक्ष को आगे बढ़ाने के लिए समग्र निगरानी के कानूनी कार्यों को औपचारिक रूप दे सकती है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.