Author : Shivam Shekhawat

Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान में गहराते संकट और अपनी आर्थिक अस्थिरता के चलते पाकिस्तान दुश्वारियों के तेज़ भंवर में फंस गया है.

आर्थिक संकट और अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों के गहरे दलदल में फंसा पड़ोसी देश ‘पाकिस्तान’
आर्थिक संकट और अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों के गहरे दलदल में फंसा पड़ोसी देश ‘पाकिस्तान’

पिछले महीने स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान (SBP) ने अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक राहत कोष चालू करने के वित्त मंत्रालय के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया. जिस मौक़े पर ऐसा फ़ैसला लिया गया है, उससे इसकी अहमियत का पता चलता है. दरअसल जनवरी 2022 में SBP संशोधन बिल पारित होने के बाद बैंक द्वारा सरकार के अनुरोध को नामंज़ूर किए जाने का ये पहला वाक़या है. ग़ौरतलब है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है और पटरी पर बने रहने के लिए पूरी तरह से अंतरराष्ट्रीय दान प्रदाता एजेंसियों पर निर्भर है. ऐसे में ये बिल भारी विरोध के बीच पारित किया गया. बिल के विरोधियों ने इसे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर करने वाला क़दम बताते हुए गंभीर चिंताएं जताई. दरअसल बैंक ने अफ़ग़ानिस्तान को मदद पहुंचाने से जुड़ी पूरी क़वायद पर सरकार को फिर से विचार करने को कहा है. इस सिलसिले में फ़ाइनेंसियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (FATF) की ओर से पाबंदियों का डर जताया गया है. ज़ाहिर है इससे FATF की ग्रे लिस्ट में पाकिस्तान की मौजूदगी का मुद्दा एक बार फिर से उभरकर सामने आ गया है.    

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है और पटरी पर बने रहने के लिए पूरी तरह से अंतरराष्ट्रीय दान प्रदाता एजेंसियों पर निर्भर है. ऐसे में ये बिल भारी विरोध के बीच पारित किया गया. बिल के विरोधियों ने इसे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर करने वाला क़दम बताते हुए गंभीर चिंताएं जताई.

इमरान ख़ान की सरकार एक मुश्किल दौर में है. तालिबान के दोबारा उभार से भी पाकिस्तान की उम्मीदों के मुताबिक नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं. देश में आतंकवादी हमलों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है. FATF ने अपनी ताज़ा बैठक में पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में जारी रखने का फ़ैसला बरकरार रखा है. पाकिस्तानी नेतृत्व के सामने अर्थव्यवस्था में स्थिरता रखने और अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक सुधारों को लागू करने की चुनौती है. साथ ही पड़ोस की नई तालिबानी हुकूमत के नकारात्मक प्रभावों से दूरी बनाए रखने की भी ज़रूरत है. पाकिस्तान कितने गहरे दलदल में है और इसके प्रभाव कितने व्यापक हैं, इसे समझने के लिए तालिबान को पाकिस्तान द्वारा दिए जा रहे समर्थन की पड़ताल करना ज़रूरी हो जाता है. अतीत के आईने में झांककर और मौजूदा नज़रियों के हिसाब से इसे समझना होगा. साथ ही पाकिस्तान के क़दमों में रुकावट डालने वाले समीकरणों पर भी नज़र डालना ज़रूरी है. ख़ासतौर से वहां की ख़स्ताहाल अर्थव्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भरता के विश्लेषण की दरकार है.   

सामरिक ताक़त जुटाने की जद्दोजहद

हमेशा से ही अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की गतिविधियां इस इलाक़े में भारत के बढ़ते प्रभाव के डर को देखकर तय होती रही हैं. 1979 में अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत संघ के आक्रमण के बाद से ही पाकिस्तान तालिबान को मदद और उकसावा देता आ रहा है. इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) ने तालिबान को मेडिकल और रिहाइश से जुड़ी सुविधाएं मुहैया कराई हैं. साथ ही इस आतंकी समूह को मज़बूत बनाने के लिए इसे ख़ुफ़िया जानकारियां, हथियार और माली मदद भी पहुंचाई जाती रही है. दरअसल तालिबान को समर्थन में किसी तरह की कोताही बरतने से परहेज़ करने की फ़ितरत और इस पूरे इलाक़े में उसकी करतूतों की जड़ पाकिस्तान की पैदाइश में छिपी है. मजहब की बुनियाद पर मुल्क के गठन, 1971 के गृह युद्ध और पाकिस्तान के बंटवारे में भारत की मदद ने पाकिस्तानी नीति निर्माताओं की ज़ेहन में कभी न ख़त्म होने वाली फ़िक्रमंदी के बीज बो दिए. एक सर्वशक्तिशाली इस्लामिक पहचान के टूटने से पूरी राज्यसत्ता के बिखराव का डर पैदा हो गया. अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से लगे अशांत बलूच इलाक़े और ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में विद्रोही गतिविधियां चरम पर हैं. दरअसल तालिबान को पाकिस्तानी समर्थन इस उम्मीद पर टिका था कि तालिबानी अपनी पश्तून विरासत की बजाए इस्लामिक पहचान को ज़्यादा तवज्जो देंगे. पाकिस्तान को आशा थी कि ख़ासतौर से डूरंड रेखा से जुड़े विवाद के मामले में अमेरिका की पिट्ठू सरकार के मुक़ाबले तालिबानी हुकूमत का रुख़ बिलकुल जुदा होगा. इससे पाकिस्तान को अफ़ग़ानिस्तान में अपना रसूख़ क़ायम करने का मौका मिल जाता.  

प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के मुताबिक तालिबानी हुकूमत को मान्यता सभी मुल्कों की ‘सामूहिक क़वायद’ होनी चाहिए क्योंकि “हम अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं, ऐसे में अंतरराष्ट्रीय दबाव हमारे (पाकिस्तान) लिए काफ़ी भारी हो सकता है.” ख़ान पाकिस्तान की ख़स्ताहाल सुरक्षा हालात को स्वीकार करते हैं.

अगस्त 2021 में तालिबान की वापसी पर ख़ुशी जताते हुए हुए प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने इस आतंकी संगठन को “ग़ुलामी की बेड़ियां” तोड़ने का श्रेय तक दे डाला. इसके साथ ही उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू होने का एलान कर डाला. हालांकि इस पूरे मसले पर पाकिस्तानी अफ़सरशाही का रुख़ बेहद चौकन्ना दिखाई दे रहा था. तालिबान ने जिस तेज़ी से अफ़ग़ानी हुकूमत पर क़ब्ज़ा जमाया था, उसे लेकर चिंताएं भी जताई जा रही थीं. इसके नतीजे के तौर पर पैदा मानवतावादी संकट से इलाक़े के हालात बेहद नाज़ुक हो गए. पाकिस्तान में पहले से ही क़रीब 14 लाख अफ़ग़ान शरणार्थी रह रहे हैं. तालिबानी हुकूमत की वापसी के बाद से तक़रीबन 3 लाख और अफ़ग़ानी भागकर पाकिस्तान आ चुके हैं. तालिबान की फ़तह ने पाकिस्तान में घरेलू आतंकवाद के ख़तरे और हमले रोकने में सरकार की नाक़ाबिलियत को कई गुणा बढ़ा दिया है. इस वक़्त सबसे बड़ा ख़तरा तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) से है. इसके तार अफ़ग़ान तालिबान और इलाक़े के तमाम आतंकी संगठनों से जुड़े हुए हैं. अफ़ग़ानिस्तान में TTP के तक़रीबन 3000 से 5000 लड़ाके मौजूद हैं. दूसरे मसलों ने भी हालात में और बिगाड़ ला दिया है. ख़ासतौर से हाल ही में डूरंड रेखा पर बाड़ लगाने को लेकर हुए विवाद से सरहद से जुड़ी कलह उभरकर सामने आ गई है. अफ़ग़ानिस्तान में आम अवाम का नज़रिया भी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ है. तालिबान की वापसी के लिए कई अफ़ग़ानी लोग पाकिस्तान को कसूरवार ठहरा रहे हैं.   

बहरहाल इन तमाम मसलों के बावजूद पाकिस्तानी सरकार तालिबानी हुकूमत को मान्यता देने की वक़ालत करती रही है. साथ ही वो विश्व बिरादरी से तालिबानी नेताओं पर लगी पाबंदियां हटाने और अफ़ग़ानिस्तान को बिना किसी शर्त के आर्थिक मदद मुहैया कराने की गुहार लगा रही है. तालिबान को मान्यता देने को लेकर पाकिस्तान में घरेलू तौर पर भले ही कुछ हद तक समर्थन का माहौल हो लेकिन इमरान ख़ान की सरकार इस बाबत एकतरफ़ा तौर पर कोई फ़ैसला लेने को तैयार दिखाई नहीं देती. ज़ाहिर तौर पर उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी की नाराज़गी का डर सता रहा है. प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के मुताबिक तालिबानी हुकूमत को मान्यता सभी मुल्कों की ‘सामूहिक क़वायद’ होनी चाहिए क्योंकि “हम अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिशें कर रहे हैं, ऐसे में अंतरराष्ट्रीय दबाव हमारे (पाकिस्तान) लिए काफ़ी भारी हो सकता है.” ख़ान पाकिस्तान की ख़स्ताहाल सुरक्षा हालात को स्वीकार करते हैं. उनका मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता का उनके मुल्क के अमन-चैन के साथ सीधा रिश्ता है. यही वजह है कि वो तालिबान पर लगी पाबंदियों को हटाए जाने की मांग करते रहे हैं.  

जनवरी में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अफ़ग़ानिस्तान मानवतावादी प्रतिक्रिया योजना के लिए 4.4 अरब अमेरिकी डॉलर की मांग की. ये किसी इकलौते देश के लिए की गई “अब तक की सबसे बड़ी अपील” है.

संकट में घिरे लोग

अमेरिका और तालिबान के बीच की जंग में अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग पिसते चले गए. अमेरिकी सैनिकों के काबुल छोड़ने और देश की सत्ता पर तालिबान के क़ाबिज़ होने के पहले से ही वो तमाम तरह की समस्याओं से जूझ रहे थे. करज़ई हुकूमत के तहत देश की 45 फ़ीसदी जीडीपी और सार्वजनिक ख़र्च का 75 प्रतिशत हिस्सा विदेशी मदद और अनुदान पर निर्भर था. तालिबान द्वारा सत्ता हथिया लेने के बाद मुल्क पर अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां लागू हो गई हैं. साथ ही विदेशी मदद पूरी तरह से रुक गई है. ऐसे में अफ़ग़ानी लोगों पर बेइंतहां मुसीबत टूट पड़ी है. विदेशी अनुदान और मदद इसलिए रोकी गई है ताकि बाहर से आई रकम तालिबानियों के हाथों में न चली जाए. बहरहाल, इससे आम अफ़ग़ानी की ज़िंदगी पर बड़ा असर पड़ा है.  

जनवरी में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अफ़ग़ानिस्तान मानवतावादी प्रतिक्रिया योजना के लिए 4.4 अरब अमेरिकी डॉलर की मांग की. ये किसी इकलौते देश के लिए की गई “अब तक की सबसे बड़ी अपील” है. अमेरिका समेत दूसरे पश्चिमी देशों ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और ग़ैर-सरकारी संगठनों के ज़रिए सीधे आम अफ़ग़ानी तक मदद पहुंचाने के तरीक़ों पर विचार किया है. हालांकि इसके वितरण को लेकर अब भी कई तरह की चिंताएं जताई जा रही हैं. पाकिस्तान में नीति निर्माताओं ने अफ़ग़ानिस्तान में बैंकिंग से जुड़ी दिक़्क़तों को आसान बनाने के उपायों पर चर्चा की है. इसके लिए या तो अफ़ग़ानी करेंसी की छपाई करने या फिर अफ़ग़ानिस्तान के केंद्रीय बैंक- दा अफ़ग़ानिस्तान बैंक (DAB) को क्रेडिट लाइंस के विस्तार और तकनीकी सहायता मुहैया कराने के बारे में सोच विचार किया गया है. हालांकि पाबंदियों के डर से वैश्विक वित्तीय संस्थाएं और अंतरराष्ट्रीय बैंक सीधे तौर पर DAB के साथ किसी तरह का सौदा करने से परहेज़ कर रहे हैं. तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान भेजी जाने वाली मदद को लेकर तालमेल क़ायम करने के लिए अपने अधिकारियों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रतिनिधियों के साझा निकाय के गठन का भी प्रस्ताव दिया है. हालांकि तालिबान द्वारा इन क़वायदों के दुरुपयोग की आशंका से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इन सुझावों को संदेह भरी नज़रों से देख रही है.  

बैंक ने सुझाव दिया कि अफ़ग़ानिस्तान को किसी भी तरह की मदद अंतरराष्ट्रीय दान संगठनों के ज़रिए मुहैया कराई जानी चाहिए या वस्तुओं और सेवाओं के तौर पर दी जानी चाहिए. 

अफ़ग़ान राहत कोष 

8 दिसंबर 2021 को पाकिस्तानी वित्त मंत्रालय ने अफ़ग़ानी अवाम की मानवतावादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए “तत्काल प्रभाव” से एक कोष शुरू करने का एलान किया. इस प्रस्तावित कोष में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं के साथ-साथ विदेशों से भी रकम जमा करवाने का प्रावधान किया गया था. इस आदेश को स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान भेजा गया. हालांकि SBP ने पहली बार सरकार के अनुरोध को सिरे से नामंज़ूर कर दिया. बैंक ने FATF के सामने किए गए वायदों की बुनियाद पर सरकार से इस फ़ैसले पर फिर से विचार करने को कहा. दरअसल अंतरराष्ट्रीय संस्था FATF ने 2018 में मनी लॉन्ड्रिंग के ख़िलाफ़ तय प्रावधानों और आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद पहुंचाने से जुड़े मानकों के उल्लंघन के चलते पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में डाल दिया था. स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान के मुताबिक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संगठनों के ख़िलाफ़ जाकर बैंकिंग के ज़रियों से ऐसे कोष के वितरण से FATF की ओर से और भी ज़्यादा पाबंदियां लगने का ख़तरा बढ़ जाएगा. बैंक ने सुझाव दिया कि अफ़ग़ानिस्तान को किसी भी तरह की मदद अंतरराष्ट्रीय दान संगठनों के ज़रिए मुहैया कराई जानी चाहिए या वस्तुओं और सेवाओं के तौर पर दी जानी चाहिए. SBP द्वारा प्रस्ताव ख़ारिज किए जाने के बाद वित्त मंत्रालय ने क़ानून, आर्थिक मसलों और विदेशी मामलों से जुड़े मंत्रालयों को इस मसले पर फिर से विचार करने का भार सौंपा है.   

हाल ही में हुई पेरिस में हुई FATF की बैठकों के मद्देनज़र पाबंदियों से जुड़ी आशंकाएं बेहद अहम हो जाती हैं. पिछली बार अक्टूबर 2021 में इसका पूर्ण अधिवेशन हुआ था. बहरहाल पिछली बार की तरह इस बार भी FATF ने पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में बरकरार रखा है. अलग-अलग पाबंदियों की वजह से पाकिस्तान को निर्यात में तक़रीबन 4.5 अरब अमेरिकी डॉलर का नुक़सान हो चुका है. 2009 से 2019 के बीच देश की अर्थव्यवस्था को कुल 38 अरब अमेरिकी डॉलर की चपत लग चुकी है. 4 मार्च को जारी FATF के बयान के मुताबिक पाकिस्तान ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ 27 सूत्रीय कार्यक्रमों में से 26 को पूरा कर लिया है. FATF ने पाकिस्तान को बाक़ी बचे इकलौते एजेंडे को भी पूरा करने को कहा है. हाल ही में अफ़ग़ानी, बलूची और वीगर लोगों ने पेरिस में FATF के दफ़्तर के बाहर ज़ोरदार प्रदर्शन किया था. प्रदर्शनकारियों ने आतंकवाद को पाकिस्तान द्वारा दी जा रही मदद के चलते उसे काली सूची में डालने की मांग दोहराई थी. इससे लोगों, ख़ासतौर से विदेशों में रह रहे पाकिस्तानी अल्पसंख्यक समुदायों के मन में पाकिस्तान के इरादों को लेकर व्याप्त अविश्वास का पता चलता है. पाकिस्तान के भीतर राजनीतिक रूप से रसूख़दार लोग अपने मुल्क को ग्रे लिस्ट में बरकरार रखे जाने से जुड़े मसले को सियासी फ़ैसले के तौर पर देखते हैं. पाकिस्तानी विदेश विभाग के प्रवक्ता के मुताबिक, “पाकिस्तान ने FATF की सभी तकनीकी ज़रूरतों को पूरा कर दिया है और ग्रुप के कुछ चुनिंदा सदस्यों की वजह से FATF ने इसे ग्रे लिस्ट से हटाने से इनकार कर दिया.”

मुसीबतें और दुश्वारियां

पाकिस्तान में काफ़ी लंबी बहस और मतभेदों के बीच केंद्रीय बैंक को और आज़ादी देने वाला विधेयक पारित हुआ था. दरअसल पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की विस्तारित कोष सुविधा के तहत 1 अरब अमेरिकी डॉलर की किस्त हासिल करनी थी. इससे जुड़ी पूर्व-शर्त को पूरा करने के लिए सरकार के पास सुधारों को आगे बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. नए बिल के मुताबिक स्टेट बैंक ऑफ़ पाकिस्तान सरकार समेत किसी भी इकाई से “न तो किसी तरह की दरख़्वास्त करेगा और न ही उनका कोई फ़रमान” सुनेगा. साथ ही इस बिल में बैंक पर सरकार को सीधे उधार मुहैया कराने पर भी पाबंदी लगाई गई है. विपक्ष ने इस बिल को “राष्ट्रीय सुरक्षा के ख़िलाफ़” ठहराकर इसके पारित होने के एक दिन बाद ही अदालत में चुनौती दे डाली. सत्तारूढ़ पार्टी में भी इसके कुछ प्रावधानों को लेकर कई तरह की आशंकाएं रही हैं. पाकिस्तान में बेरोज़गारी और महंगाई आसमान छू रही है. हर बीतते दिन के साथ सरकार के सामने घरेलू मोर्चे पर विरोध बढ़ता जा रहा है. ऐसे में पाकिस्तानी राज्यसत्ता द्वारा अंतरराष्ट्रीय मांगों की नाफ़रमानी कर अपना रास्ता ख़ुद चुनने की बात सोचना भी कठिन है. अपनी कमज़ोर माली हालत के चलते पाकिस्तान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के हालात को अपने फ़ायदे के लिए प्रभावित किए जाने की बेहद कम संभावना बचती है. पाकिस्तान के पास मौजूदा संकट से ख़ुद निपटने का कोई तरीक़ा नहीं है. उसके पास हालात सुधारने के लिए न तो कोई विचार है और न ही किसी तरह के संसाधन. ऐसे में वो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने तालिबानी हुकूमत को मान्यता देने की गुहार लगा रहा है.    

पाकिस्तान के लिए इस संकट से बाहर निकलने का एक आसान तरीक़ा ये होगा कि वो देश के भीतर आतंकियों पर लगाम लगाए और ये स्वीकार करे कि आतंकियों और ख़ुफ़िया संगठन के गठजोड़ का उसका ढांचा नाकाम हो चुका है.

बहरहाल, पाकिस्तान के लिए इस संकट से बाहर निकलने का एक आसान तरीक़ा ये होगा कि वो देश के भीतर आतंकियों पर लगाम लगाए और ये स्वीकार करे कि आतंकियों और ख़ुफ़िया संगठन के गठजोड़ का उसका ढांचा नाकाम हो चुका है. इस तरीक़े से पाकिस्तान अपने ऊपर जारी अंतरराष्ट्रीय दबाव से कुछ हद तक निजात पा सकता है. हालांकि ऐसी किसी क़वायद की संभावना बहुत कम है क्योंकि इससे सौदेबाज़ी करने की मुल्क की ताक़त में गिरावट आने की आशंका है. ज़ाहिर तौर पर इससे फ़ौज और ISI का रुतबा कमज़ोर पड़ने का ख़तरा रहेगा.

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