Author : Ayjaz Wani

Published on Nov 03, 2020 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान समस्या के व्यापक राजनीतिक समाधान के लिए तुरंत संघर्ष विराम की मांग बेअसर साबित हुई है. ऐसा होने के पीछे है पाकिस्तान, जो अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार पर दबाव बनाने के लिए तालिबान को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है

तालिबान पर पाकिस्तान का बढ़ता प्रभाव अफ़ग़ानिस्तान शांति वार्ता हो सकती है बाधित!

बार-बार टलने और तमाम बाधाओं के बाद आख़िरकार अफ़ग़ानिस्तान के तमाम पक्षों के बीच शांति वार्ता की शुरुआत हो ही गई. अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाली के ज़रूरी ये शांति वार्ता 12 सितंबर को क़तर की राजधानी दोहा में शुरू हुई. इस कोशिश का मक़सद ये है कि अफ़ग़ानिस्तान में पिछले 19 साल से चल रहे उस युद्ध को रोका जा सके, जिसने अफ़ग़ानिस्तान की कई पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया है. ये बातचीत 19 फ़रवरी को अमेरिका और तालिबान के बीच हुए समझौते के आगे की कड़ी है. जिसके तहत अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेनाएं हटानी हैं. लेकिन, आशंका इस बात की है कि इससे अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का प्रभाव और उसकी दख़लंदाज़ी और बढ़ जाएगी. जब से अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवादी हिंसा की शुरुआत हुई, तब से ही तालिबान, वहां पाकिस्तान के मोहरे के तौर पर काम करता रहा है. पाकिस्तान के फ़ौजी अधिकारियों और तालिबान के बीच ख़ुफ़िया संबंध तब उजागर हो गए थे, जब क़तर में तालिबान के राजनीतिक दूतावास के एक अधिकारी ने कहा कि इस दफ़्तर में होने वाले हर फ़ैसले में पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) शामिल होती है.

पाकिस्तान ने हाल ही में 88 आतंकवादियों पर प्रतिबंध लगाए थे. इनमें से कुछ आतंकवादी तो तालिबान के ही थे. पाकिस्तान को इन आतंकवादियों पर पाबंदी लगाने को मजबूर होना पड़ा था. वरना, उसके ऊपर इस बात का ख़तरा मंडरा रहा था कि पेरिस स्थित, फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (FATF) कार्रवाई कर सकती थी.

वैसे तो ये पहली बार था जब तालिबान ने खुलकर ये स्वीकार किया था कि उस पर पाकिस्तान का नियंत्रण है. लेकिन, ये बात लंबे समय से सबको पता थी कि तालिबान असल में पाकिस्तान का ही प्यादा है. जब मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को साल 2019 में दोहा में तालिबान के सियासी दफ़्तर का निदेश नियुक्त किया गया था. अफ़ग़ानिस्तान के अंदरूनी पक्षों के बीच शांति वार्ता से ठीक पहले, मुल्ला बरादर और तालिबान के सियासी मामलों के लिए ज़िम्मेदार उसके नायब अमीर ने पाकिस्तान का दौरा किया था. और पाकिस्तान के अधिकारियों से बातचीत की थी. दोनों ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से भी बातचीत की थी.

पाकिस्तानी अधिकारियों से तालिबान के आक़ाओं की इस मुलाक़ात को लेकर सवाल भी उठे थे. क्योंकि, पाकिस्तान ने हाल ही में 88 आतंकवादियों पर प्रतिबंध लगाए थे. इनमें से कुछ आतंकवादी तो तालिबान के ही थे. पाकिस्तान को इन आतंकवादियों पर पाबंदी लगाने को मजबूर होना पड़ा था. वरना, उसके ऊपर इस बात का ख़तरा मंडरा रहा था कि पेरिस स्थित, फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स (FATF) कार्रवाई कर सकती थी. उसे अपनी ब्लैक लिस्ट में डाल सकती थी. तालिबान के आक़ाओं की पाकिस्तान के नेताओं और अधिकारियों से इस मुलाक़ात का मक़सद बस अफ़ग़ानिस्तान के अन्य पक्षों से बातचीत के लिए दिशा निर्देश लेना ही तो था. 

डीप स्टेट से संपर्क

मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, तालिबान का सह संस्थापक है. वो अफ़ग़ानिस्तान में मुल्ला उमर के नेतृत्व में बनी पहली तालिबान सरकार में ऊंचे ओहदे पर था. और 2001 में तालिबान की सरकार के पतन से पहले तक अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का आला कमांडर माना जाता था. उसे कराची में फरवरी 2010 में पकड़ा गया था. लेकिन, तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में रहने के दौरान ही मुल्ला बरादर ने पाकिस्तान के डीप स्टेट यानी वहां की ख़ुफ़िया एजेंसी और फ़ौज के बड़े अधिकारियों से अपने अच्छे संबंध बना लिए थे. जिस समय मुल्ला बरादर को पकड़ा गया था, उस समय एक तरफ तो वो अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक समीकरण बिठाने में जुटा हुआ था. वहीं, दूसरी ओर वो दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवादी गतिविधिया में भी चला रहा था. उसे CIA और ISI के साझा अभियान के दौरान गिरफ़्तार किया गया था.

पाकिस्तान के डीप स्टेट और ख़ासतौर से ख़ुफ़िया एजेंसी ISI व पाकिस्तान आर्मी के बड़े अधिकारियों के साथ मज़बूत रिश्तों का मुल्ला बरादर को काफ़ी लाभ हुआ. गिरफ़्तारी के क़रीब एक हफ़्ते बाद तक पाकिस्तान ने उसे अरेस्ट किए जाने की ख़बर को ये कहकर  छुपाए रखा कि उससे कुछ गोपनीय जानकारियां हासिल करनी हैं. मुल्ला बरादर क़रीब नौ बरस तक पाकिस्तान की जेलों में क़ैद रहा. इस दौरान वो अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे गोपनीय अभियानों को जेल से ही संचालित करता रहा. इसमें अफ़ग़ानिस्तान में बड़े अधिकारियों और नेताओं की चुन चुनकर हत्या करने की वारदातें भी शामिल थीं.

पाकिस्तान ने मुल्ला बरादर को साल 2018 में रिहा कर दिया था. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के विशेष दूत ज़लमे ख़लीलज़ाद ने इसके लिए पाकिस्तान से गुज़ारिश की थी. इसके बाद, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान के बीच संबंध और मज़बूत हो गए.

पाकिस्तान ने मुल्ला बरादर को साल 2018 में रिहा कर दिया था. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के विशेष दूत ज़लमे ख़लीलज़ाद ने इसके लिए पाकिस्तान से गुज़ारिश की थी. इसके बाद, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान के बीच संबंध और मज़बूत हो गए. इससे अमेरिका और पाकिस्तान के ताल्लुक़ भी बेहतर हो गए. हालांकि, अमेरिका ने मुल्ला बरादर की रिहाई को लेकर सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहा था. लेकिन, अमेरिकी सरकार ने ये ज़रूर माना था कि, ‘मुल्ला बरादर की रिहाई से अफ़ग़ानिस्तान में शांति प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा.’ 

शांति वार्ता को मज़बूत करना

रिहाई के बाद जल्द ही, यानी जनवरी 2019 में मुल्ला बरादर को दोहा में तालिबान के राजनीतिक दफ़्तर का निदेशक नियुक्त कर दिया गया. तालिबान द्वारा जारी एक बयान में कहा गया कि, ‘मुल्ला बरादर को दोहा स्थित ऑफ़िस का निदेशक नियुक्त करने का मक़सद ये था कि अमेरिका से बातचीत के दौरान, उसके संगठन के बड़े लोग अहम पदों पर मौजूद हों.’

लेकिन, एक अमेरिकी सैनिक की हत्या के बाद, अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान से वार्ता रोक दी थी. क़रीब नौ महीने तक दोनों पक्षों में कोई बातचीत नहीं हुई. ट्रंप ने तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी से अपने कैम्प डेविड स्थित ऑफ़िस में मिलने का प्रोग्राम भी कैंसिल कर दिया था.

अफ़ग़ानिस्तान में शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए मुल्ला बरादर ने अक्‍टूबर 2019 में पाकिस्तान का दौरा किया था. तब, मुल्ला बरादर अपने साथ 11 लोगों का प्रतिनिधिमंडल लेकर गया था. जिसने पाकिस्तान की सरकार के साथ तमाम मसलों पर चर्चा की थी. मुल्ला बरादर ने पाकिस्तान के हुक्मरानों के साथ, अफ़ग़ानिस्तान में रुकी हुई शांति प्रक्रिया को लेकर भी बातचीत की थी. तालिबान के इस प्रतिनिधिमंडल ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और आर्मी चीफ़ जनरल क़मर जावेद बाजवा से भी मुलाक़ात की थी.

अमेरिका और तालिबान के बीच शांति वार्ता पर 29 फ़रवरी 2020 को दस्तख़त किए गए थे. तालिबान की ओर से मुल्ला बरादर और अमेरिका की ओर से विशेष राजदूत जलमे ख़लीलज़ाद ने इस पर हस्ताक्षर किए. समझौते के दौरान अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो भी दोहा में मौजूद थे. शांति समझौते को लेकर दावा किया गया कि इस पर शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ई तालिबान की ओर से दस्तख़त करेंगे. लेकिन, आख़िरी वक़्त में ISI  और पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों ने शेर मोहम्मद की जगह मुल्ला बरादर को हस्ताक्षर करने को कह दिया.

अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के अधिकारियों और इसके सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ हिंसक घटनाएं बढ़ते जाने से तालिबान के ऊपर पाकिस्तान के डीप स्टेट, उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी और जनरलों का कंट्रोल एकदम साफ़ ज़ाहिर होता है.

डोनाल्ड ट्रंप ने अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाली के लिए इस समझौते का स्वागत किया था. उन्होंने मुल्ला बरादर के साथ फ़ोन पर क़रीब 35 मिनट तक बातचीत की थी. इस समझौते के बाद अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और अमेरिकी सेना के बीच तालमेल काफ़ी बेहतर हो गया था. दोनों ने मिलकर इस्लामिक स्टेट और अन्य अमेरिका विरोधी संगठनों के विरुद्ध अभियान चलाए थे. लेकिन, अमेरिका के संधि के बावजूद, तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सरकारी सेना और नागरिकों को निशाना बनाना जारी रखा था.

अफ़ग़ानिस्तान की सरकार के अधिकारियों और इसके सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ हिंसक घटनाएं बढ़ते जाने से तालिबान के ऊपर पाकिस्तान के डीप स्टेट, उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी और जनरलों का कंट्रोल एकदम साफ़ ज़ाहिर होता है. हाल ही में 9 सितंबर 2020 को अफ़ग़ानिस्तान के उप राष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह के ऊपर जिस तरह जानलेवा हमला हुआ, जो ख़ुशक़िस्मती से नाकाम रहा था. उससे ज़ाहिर है कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान का रिमोट कंट्रोल ही था. हालांकि, तालिबान ने इस हमले में अपना हाथ होने से इनकार किया था. 

ज़मीनी सच्चाई से ज़्यादा अपेक्षाएं

अमरुल्ला सालेह, पाकिस्तान की एजेंसियों के निशाने पर हैं. उन पर इस तरह के कई हमले हो चुके हैं. सालेह को, अफ़ग़ानिस्तान की अंदरूनी राजनीति में पाकिस्तान के दख़ल और सीमा पार से आतंकवाद के सबसे बड़े आलोचक के तौर पर देखा जाता है. अमरुल्ला सालेह ने अपने ऊपर हमले से ठीक पहले पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच की सीमा रेखा डूरंड लाइन को लेकर एक ट्वीट किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि, ‘अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में राष्ट्रीय स्तर का कोई भी नेता डूरंड लाइन की अनदेखी नहीं कर सकता है. क्योंकि इससे न केवल इस दुनिया में बल्कि मौत के बात भी चैन नहीं मिलेगा. ये ऐसा मसला है जिस पर बातचीत होनी चाहिए और जिसका समाधान निकालना चाहिए. अगर हमसे कोई ये उम्मीद करता है कि हम इसे मुफ़्त में तोहफ़े के तौर पर दे देंगे, तो उसकी ये उम्मीद बेमानी है. एक ज़माने में पेशावर शहर, सर्दियों में अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी हुआ करता था.’

अफ़ग़ानिस्तान समस्या के व्यापक राजनीतिक समाधान के लिए तुरंत संघर्ष विराम की मांग बेअसर साबित हुई है. ऐसा होने के पीछे है पाकिस्तान, जो अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार पर दबाव बनाने के लिए तालिबान को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है.

इसके अलावा, अफ़ग़ानिस्तान के अंदरूनी पक्षों के बीच, 12 सितंबर 2020 को शांति बहाली को लेकर बातचीत तभी शुरू हुई, जब अफ़ग़ानिस्तान की जेलों में बंद तालिबान के सबसे ख़तरनाक क़ैदियों को रिहा कर के क़तर नहीं ले जाया गया. तालिबान का संघर्ष विराम का कोई इरादा नहीं है. हां तालिबान ने अमेरिका के साथ हुए शांति समझौते को पूरा समर्थन देने और अपना वादा पूरा करने का भरोसा ज़रूर दिया है. अफ़ग़ानिस्तान समस्या के व्यापक राजनीतिक समाधान के लिए तुरंत संघर्ष विराम की मांग बेअसर साबित हुई है. ऐसा होने के पीछे है पाकिस्तान, जो अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार पर दबाव बनाने के लिए तालिबान को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है.

अफ़ग़ानिस्तान के घरेलू पक्षों के बीच शांति वार्ता की शुरुआत के समय, अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो भी दोहा में मौजूद थे. उन्होंने इस मौक़े पर ये उम्मीद जताई कि, ‘शांति प्रक्रिया की सफलता के बाद अमेरिका को ये उम्मीद है कि अफ़ग़ानिस्तान को हिंसा और भ्रष्टाचार से निजात मिलेगी और वो विकास के पथ पर अग्रसर होगा. जिससे देश में समृद्धि आएगी.’ मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने भी अमेरिका के साथ हुए शांति समझौते के प्रति तालिबान की प्रतिबद्धता ज़ाहिर की थी. और ये कहा था कि वो इस बातचीत से सकारात्मक नतीजे निकालने में पूरा सहयोग करेगा. लेकिन, तालिबान के ऊपर पाकिस्तान का जैसा प्रभाव है, उससे साफ़ है कि पाकिस्तान ही ये तय करेगा कि शांति प्रक्रिया का भविष्य क्या होगा. क्योंकि, अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात में इस समय तालिबान ही सबसे मज़बूत स्थिति में है.


यह लेख मूल रूप से साउथ एशिया वीकली में प्रकाशित हो चुका है. 

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