Author : Kriti M. Shah

Published on Dec 05, 2018 Updated 0 Hours ago

किसी समाज के कुछ हिस्से को दूसरों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए कट्टरपंथी बनाने से ऐसी ताक़त नहीं तैयार होती है जो देश के लिए वफ़ादार हो या देश के काम आए। यह केवल आतंकियों के उपद्रव का समाज बनाता है, जहां कट्टरपंथ और चरमपंथ गहराई से फैला होता है। सोसाइटी की ग़लती और बढ़ते कट्टरपंथी विचार अक्सर जैसे होते है, वैसे दिखते नहीं हैं, उनके बदसूरत चेहरे को पहचानने में सालों लग जाते हैं, कभी-कभी एक दशक भी बीत जाता है।

पाकिस्तान का बदसूरत सच: कट्टरपंथी बरेलवी इस्लाम का उदय

पिछले हफ़्ते इस्लामाबाद में, सरकार हिंसक इस्लामी प्रदर्शनकारियों के साथ समझौता करने पर सहमत हुई, जिन्होंने देश को तीन दिनों तक अस्थिर कर रखा था। प्रदर्शनकारी कट्टरपंथी तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान यानी टीएलपी से जुड़े हुए थे, जो 2010 में ईशनिंदा की दोषी एक ईसाई महिला आसिया बीबी की रिहाई का विरोध कर रहे थे। उसका ग़ुनाह ये था कि उसने उस कुएं से पानी का एक घूंट पी लिया था, जहां उसे नहीं जाना चाहिए था और उसके बाद उसने कथित तौर पर पैगंबर मोहम्मद का अपमान किया था। सरकार द्वारा किए समझौते में, प्रदर्शनकारियों को ये आश्वासन दिया गया था कि आसिया बीबी को देश छोड़ने की इजाज़त नहीं होगी और सरकार सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर पुनर्विचार अर्ज़ी का विरोध नहीं करेगी। प्रदर्शनकारी मान गए और सरकार ने आसिया बीबी की ज़िंदगी को जानलेवा ख़तरे में डाल दिया। पाकिस्तान में पिछले कुछ हफ़्तों की घटनाएं इस बात को याद दिलाती हैं कि किस तरह देश ने कट्टरपंथी इस्लामियों को लगातार गले लगा लिया है। मौजूदा विरोधों और पाकिस्तान के लिए उनके निहितार्थ को समझने के लिए, उन्हें ऐतिहासिक संदर्भ में रखना आवश्यक है।

1980 के दशक में ज़िया-उल-हक़ की सैन्य तानाशाही के दौरान, कई धाराएं जोड़ी गईं जिसने पूरे दशक में ईशनिंदा क़ानून का विस्तार किया। 1986 में, सरकार ने मृत्युदंड को सज़ा के तौर पर शामिल करने का क़ानून पारित किया, जिसमें दावा किया गया कि इस्लामिक क़ानूनी परंपरा में पैगंबर मोहम्मद का अपमान करनेवाले किसी भी व्यक्ति (मुस्लिम या ग़ैर-मुस्लिम) के लिए मृत्युदंड के बारे में आम सहमति थी। 1991 में, संघीय शरीयत कोर्ट ने ईशनिंदा क़ानून को ऐसा अपराध माना, जहां पैगंबर मोहम्मद के अपमान की एक ही सज़ा थी, मृत्युदंड। और माफ़ी या सज़ा में रियायत की कोई गुंज़ाइश नहीं थी। 1990 से, सिर्फ़ शक के आधार पर ईशनिंदा के आरोप में 62 लोगों की हत्या कर दी गई है।

पिछले कुछ सालों में कई लोगों ने क़ानून की कठोर प्रवृति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई है। क़ानून में संशोधन के लिए 2010 में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी द्वारा एक निजी बिल प्रस्तावित किया गया था, जिसमें अपराध की उचित प्रक्रिया और उच्च स्तर के पुलिस अधिकारी को मामलों की रिपोर्टिंग शामिल थी। बिल कभी संसद में नहीं आ सका, धार्मिक संगठनों के दबाव के बाद सरकार ने इसे वापस ले लिया। सुधारों से सरकार के इनकार के बाद उस समय के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी ने धार्मिक नेताओं को न्योता भेजा और कहा कि “आइए और हमें बताइए कि इस क़ानून का दुरुपयोग कैसे रोका जाए।” 2011 में, एक अल्पसंख्यक मंत्री शहबाज़ भट्टी और पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर ने क़ानून में सुधार के लिए आवाज़ उठाई तो उनकी हत्या कर दी गई। सलमान तासीर की हत्या सुन्नी इस्लाम के बरेलवी संप्रदाय के अनुयायी मुमताज़ क़ादरी और गवर्नर के निजी सुरक्षा गार्ड द्वारा की गई थी। क़ादरी की गिरफ़्तारी और उस पर चलनेवाले मुक़दमे के दौरान कई कट्टर इस्लामिक संगठनों द्वारा हत्यारे की प्रशंसा की गई और अपार समर्थन मिला। उसे नायक के तौर पर सिर आंखों पर बिठाया गया, जब उसने दावा किया कि ईशनिंदा क़ानून में बदलाव की चाह रखनेवाले मंत्री की हत्या उसका धार्मिक कर्तव्य था। 2016 में जब मुमताज़ क़ादरी को फांसी पर लटकाया गया तो, उसके समर्थक पाकिस्तान की सड़कों पर उतर गए। उन्होंने क़ादरी को शहीद घोषित किया, सरकार विरोधी नारे लगाए और पुलिस से भिड़ गए। कुछ रिपोर्ट्स कहते हैं कि सरकार ने क़ादरी की फांसी के लिए जान-बूझकर 29 फ़रवरी का दिन मुक़र्रर किया था, एक ऐसा दिन जो चार साल में एक बार आता है, जिससे उसके समर्थकों को हर साल उसकी मौत की सालगिरह मनाने का मौक़ा न मिल सके।

ये क़ादरी के समर्थक थे जोउसकी रिहाई की मांग कर रहे थे और जिसके परिणामस्वरूप तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान यानी टीएलपी का उदय हुआ। क़ादरी के दिखाए राह पर सबसे ग़ुस्सैल धर्म गुरु ख़ादिम रिज़वी के नेतृत्व में संगठन बहुत तेज़ी से एकजुट हुआ।

तब से जब भी देश की ईशनिंदा क़ानून में सुधार या उस पर चर्चा का सुझाव आया, इन लोगों ने विवाद खड़ा कर दिया, इन मौक़ों का इस्तेमाल अपना दायरा बढ़ाने और “इस्लाम के रक्षक” के रूप में अपनी पहचान बढ़ाने और समर्थन जुटाने में किया। 2017 में, संगठन ने ईशनिंदा के आरोप में क़ानून मंत्री के इस्तीफ़े की मांग को लेकर राजधानी इस्लामाबाद की घेराबंदी कर दी। क़ानून मंत्री का ग़ुनाह ये था कि कथित तौर पर उन्होंने क़ानून मंत्री के शपथ ग्रहण में इस्तेमाल होनेवाले शब्दों को बदलने की सलाह दी थी, जिसमें पैगंबर मोहम्मद को ख़ुदा का अंतिम पैगंबर बताया गया था। तहरीक-ए-लब्बाइक पाकिस्तान ने इस क़दम को सशक्त धार्मिक अल्पसंख्यक अहमदी के तुष्टिकरण के तौर पर देखा। तहरीक-ए-लब्बाइक पाकिस्तान ने इस्लामाबाद को रावलपिंडी से जोड़नेवाले मुख्य राजमार्ग को तीन हफ़्तों तक बंद कर दिया था। पुलिस के साथ हिंसक झड़प के बाद भी प्रदर्शनकारियों को वहां से नहीं हटाया जा सका, जिसके बाद सेना बीच में आई और जनरल क़मर बाजवा ने पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद अब्बासी को इस्लामवादियों को राजनीतिक वार्ता में उलझाने का रास्ता दिखाया। पीएमएल-एन सरकार संगठन की मांगों के आगे झुकी और क़ानून मंत्री को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा।

पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने जब आसिया बीबी को बरी कर दिया तब पिछले साल जैसी स्थिति ही दोहराई गई। तहरीक-ए-लब्बाइक पाकिस्तान पूरे देश में विरोध प्रदर्शन का एलान करते हुए सड़कों पर उतर गई। टीएलपी के एक संरक्षक, पीर अब्दुल क़ादरी ने इस केस में फ़ैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के जजों की हत्या का आह्वान किया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने राजनीतिक फ़ायदे के लिए धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करने के लिए प्रदर्शनकारियों को ज़बरदस्त फटकार लगाई और भरोसा दिलाया कि सरकार हर क़ीमत पर लोगों की ज़िंदगी की रक्षा करेगी। हालांकि, अगले ही दिन, सरकार ने एलान किया कि वो उन धार्मिक संगठनों से बातचीत कर रही है जिन्होंने आसिया बीबी पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का विरोध किया है। और, आसिया बीबी को एग्ज़िट कंट्रोल लिस्ट में रखा गया, यानी उसके देश से बाहर जाने पर पाबंदी लग गई और तहरीक-ए-लब्बाइक के सभी गिरफ़्तार सदस्यों को रिहा कर दिया गया।

बड़ा ही हास्यास्पद है कि पाकिस्तान अपने उद्देश्यों के लिए धर्म का उपयोग करने की अपनी प्रवृत्ति जारी रखता है, इसे समझना काफ़ी मुश्किल है। हालांकि, पाकिस्तान हमेशा अपना मतलब साधने का रास्ता निकाल लेता है।

बाद की सरकारों ने देश में इस्लाम के स्वायत्तीकरण को जारी रखते हुए किसी ना किसी रूप में कट्टरपंथी संगठनों के सामने देश की संप्रभुता का आत्मसमर्पण जारी रखा है। ऐसा लगता है कि आंतरिक सुरक्षा और इसकी बाहरी सीमाओं को बनाए रखने में मजहब के एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाए बिना, एक देश के रूप में पाकिस्तान के अस्तित्व का कोई कारण नहीं होगा।इस्लाम का अपना एक अलग विकृत पक्ष रखनेवाले संगठनों को वैध ठहराने के सैन्य ख़ुफ़िया प्रतिष्ठानों के तर्कहीन जुनून ने पाकिस्तानी समाज की नींव को अस्थिर और अप्रत्याशित बना दिया है।

1980 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के शासन के ख़िलाफ़ जिहाद के लिए पाकिस्तान का समर्थन और देवबंदी आतंकी संगठनों को फ़ंडिंग देना इस्लाम के स्वायत्तीकरण के लिए पाकिस्तान के अपने लक्ष्यों की पूर्ति की दिशा में एक शुरुआत थी। बरेलवी इस्लाम की तुलना में देवबंदी इस्लाम ज़्यादा कट्टर और रस्मों-रिवाज़ों को लेकर ज़्यादा सख़्त है। दूसरी ओर बरेलवी को ज़्यादा उदार माना गया है, ये सूफ़ी रहस्यवाद को मानते हैं और ख़ुदा से आध्यात्मिक जुड़ाव पर ज़्यादा ज़ोर देते हैं। देवबंदी मदरसों के लिए सऊदी अरब से आर्थिक मदद मिलने पर पाकिस्तानी ख़ुफ़िया सैन्य संस्था ने अफ़ग़ान और कश्मीर में जिहाद के लिए कभी बरेलवी संगठनों के साथ काम नहीं किया।इसके बजाय यह तहरीक-ए-तालिबान और लश्कर-ए-तैयबा और लश्कर-ए-जंघवी जैसे समूहों पर निर्भर था, और देवबंदी इस्लाम आतंकी जिहाद और चरमपंथ से जुड़ गया। 9/11 के बाद जब पाकिस्तान ने अमेरिका की शरण ली, तो इसने कुछ देवबंदी संगठनों को छोड़ दिया, हालांकि दूसरे समूहों के साथ अपनी नजदीकियां जारी रखीं।

हालांकि बरेलवी समूह हमेशा देश के हित के दायरे में बने रहे हैं। ये विचार कि बरेलवी समूह इस्लाम के नरम संस्करण हैं, ऐसा इसलिए था क्योंकि वो हमेशा परंपरागत रूप से सिर्फ़ देवबंदी के विरोध में देखे गए हैं। सरकार की अनदेखी का शिकार रहे बरेलवी समुदाय ने लंबे समय से राजनीति में अपनी जगह स्थापित करने का इंतज़ार किया है। अब इनकी आवाज़ सुनी जा रही है। हालांकि, देश में बरेलवी वोटों को एकजुट करनेवाली टीएलपी पहली राजनीतिक पार्टी नहीं है, देश की ईशनिंदा क़ानून को बचाने के अपने कठोर, दृढ़ और एकमात्र एजेंडे की वजह से बरेलवी पाकिस्तान के छोटे से इतिहास में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण और ख़तरनाक हो गए हैं। इनमें सरकार को घुटने के बल लाने और फिर अपनी बात मनवाने की क्षमता है जो आतंकियों को ख़ुश करने के इस्लामाबाद के व्यवहार में साफ़-साफ़ झलकता है।

हालांकि, तहरीक-ए-लब्बाइक पाकिस्तान को इसके अपने दायरे में समझे जाने और अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है। यह टीटीपी, तालिबान या दूसरे ग़ैर शिया संगठनों वाली श्रेणी में नहीं आता है, और न ही इसे सिर्फ़ इस आधार पर अलग किया जा सकता है कि ये बरेलवी समूह है।

यह दूसरों से अलग है, टीएलपी नेतृत्व ने अब तक बंदूक नहीं उठाई है, बल्कि इसकी बजाय चुनावी राजनीति को चुना है। इस साल जुलाई में हुए आम चुनाव में, टीएलपी पहली बार राष्ट्रीय चुनावों के मैदान में उतरी, सिंध में पार्टी दो असेंबली सीटों पर चुनाव जीती और टीएलपी को कुल 25 लाख नेशनल असेंबली वोट मिले। पार्टी को मिले हर चार वोट में से एक वोट पंजाब से आए, जहां इसे पीपीपी से ज़्यादा वोट मिले। पंजाब असेंबली में, वोट शेयर के मामले में टीएलपी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी रही, हालांकि लोकप्रियता को सीटों में भुनाने में पार्टी को कामयाबी नहीं मिली।

टीएलपी के साथ पाकिस्तान सरकार का समझौता अपमानजनक और बिना सोचा-समझा जान पड़ता है, क्योंकि इससे टीएलपी के पक्ष को सही साबित करता है कि ईशनिंदा क़ानून पवित्र और सही है। यह एक नेता के तौर रिज़वी को स्थापित करता है और टीएलपी को लोगों के बीच इतना भरोसमंद दिखाता है कि भविष्य में फिर कभी वो सरकार को अपनी मांगों के सामने झुकने पर विवश कर सकती है। जहां पाकिस्तानी तालिबान इस्लाम की रक्षा के लिए आतंकी जिहादी संगठन के रूप में लड़ा, वहीं टीएलपी एक अराजक संगठन है, जो सरकार का इस्तेमाल उसके अपने संस्थाओं के ख़िलाफ़ करता है। यह एक शख़्स को इस्लाम का रक्षक बनने की इजाज़त देता है और पैगंबर का अपमान होने पर सरकार द्वारा आरोपी की गिरफ़्तारी, उस पर निष्पक्ष तरीक़े से मुक़दमा चलाए बिना हत्या की इजाज़त देता है।

ईशनिंदा क़ानून के प्रति टीएलपी के कट्टर समर्थन और उनसे असहमत होनेवाले की हत्या की वकालत ने साबित कर दिया है कि पाकिस्तान में कट्टर इस्लाम की जड़ें कितनी गहरी हैं। सरकारों की अनदेखी और मिलिट्री द्वारा भुला दिए गए, टीएलपी जैसे संगठनों ने बरेलवी इस्लाम को कट्टरपंथी बना दिया है। देवबंदी और वहाबी कट्टरपंथियों की तुलना में बरेलवी कोअब देश में इस्लाम के सहिष्णु रूप में नहीं देखा जाएगा। राजधानी के बाहरी इलाक़े में मुमताज़ क़ादरी की समाधि पर हर साल हज़ारों लोग आते हैं और हत्यारे का आशीर्वाद लेते हैं। सरकार या सेना ने कभी इसका विरोध नहीं किया।

शायद सरकार विरोध प्रदर्शन को ख़त्म करने, समझौता करने और आसिया बीबी को देश में रख कर उसकी ज़िंदगी को जोखिम में डालने के अपने फ़ैसले से पूरी तरह संतुष्ट और बेपरवाह है, सीधे तौर पर यह सुनिश्चित करने की कोशिश है कि अंतरराष्ट्रीय सहयोगी उसकी स्थिरता पर सवाल न उठाएं। सरकार अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र में देश की नई छवि पेश करने और गिरती अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए विदेशों से क़र्ज़ और मदद लेने की आस में है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया हाउसेज़ ने आसिया बीबी की रिहाई को प्रगतिशील क़दम बताते हुए हाथों हाथ लिया, जिसकी सरकार को ज़रूरत थी। हालांकि, रिहाई के बाद हिंसक विरोध प्रदर्शन को लेकर ख़बर बनी, उस पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया।

दुर्भाग्यवश, देश बार-बार अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति की आंतरिक खामियों को देखने में असफल रहा है। ख़ूनी खेल से बचने के लिए तुष्टिकरण कभी काम नहीं आती।

परमाणु हथियार वाले देश को अपने घर के आतंकियों से निपटने के लिए अपने शस्त्रागार में कोई आसान हथियार नहीं मिलेगा। किसी समाज के कुछ हिस्से को दूसरों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने के लिए कट्टरपंथी बनाने से ऐसी ताक़त नहीं तैयार होती है जो देश के लिए वफ़ादार हो या देश के काम आए। यह केवल आतंकियों के उपद्रव का समाज बनाता है, जहां कट्टरपंथ और चरमपंथ गहराई से फैला होता है। सोसाइटी की ग़लती और बढ़ते कट्टरपंथी विचार अक्सर जैसे होते है, वैसे दिखते नहीं हैं, उनके बदसूरत चेहरे को पहचानने में सालों लग जाते हैं, कभी-कभी एक दशक भी बीत जाता है। बरेलवी इस्लाम का कट्टरपंथी चेहरा, टीएलपी, इसका एक उदाहरण है।

जैसे-जैसे संख्या और हिम्मत में संगठन की ताक़त बढ़ी, वैसे ही पहले से ही सड़े और बीमार पाकिस्तानी संगठन में सरकार को बेबस करने की शक्ति, समाज को अस्थिर करने और उनके इस्लाम के संस्करण से असहमत होनेवालों में डर और आतंक का ख़ौफ़ पैदा करने की नई बीमारी लग गई।

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